दोहे मनोज के
राजनीति में फँस गई, कविता की पहचान |
जोड़ -तोड़ में कवि लगे, कैसे बने महान ||
जाल बिछाकर शेर को, कर पिजरे में बंद |
कौवे पढ़ने लग गए, मक्कारी के छंद ||
करोड़पति बनना यहाँ, जब से हुआ आसान |
गीता के आदर्श को, भूल गया इन्सान ||
विश्व सुंदरी बन गई, ले कमनीयता अस्त्र |
इंच -इंच नपती रही, सुन्दरता निर्वस्त्र ||
बकरी हत्या जुर्म में, कबिरा भोगे जेल |
बूचड़खाना दे रहा, न्याय, सजा औ बेल ||
सत्ता में दस -बीस दल, औ विपक्ष में चार |
सब मिलजुलकर खा गए, जनता का आहार ||
जीते इलेक्शन नेता जी, ले गुंडों का संग |
जब गुंडे नेता बने, नेता हुए अपंग ||
गंगा, यमुना, सरस्वती, इतनी हुईं मलीन |
घडियालों के गाँव में, कौन बचाए मीन ||
आग सरीखा जेठ जब, जग झुलसाता खूब |
तब भी पत्थर फोड़कर, उग आती है दूब ||
महल बनाते थक गए, जिनके दोनों हाथ |
फिर भी महलों ने दिया, सोने को फुटपाथ ||
शिशु पालन के नाम पर, घोटालों का कंत |
सौ -सौ चूहा हज़म कर, बना हुआ है संत||
स्वार्थ और अभिमान की, एक यहीं पहचान |
अपना घर बस चमन हो, बाकी सब शमशान ||
अनुशासन अब हो गया, विगत समय की बात |
संस्कार खाने लगा, गाली, जूता, लात ||
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