Friday, January 25, 2019

दोहा

जबसे लूट-खसोट की,हुईं दुकानें बंद।
कौवे मिलकर पढ़ रहे,मक्कारी के छंद।।

ठगबंधन कर ले भले,जितना भी पाखंड।
जनता बिल्कुल मौन है,देगी निश्चित दंड।।

आलेख

वंदे मातरम्! कवि मित्रों से मेरी एक जिज्ञासा है कि आप किस श्रेणी के कवि हैं ?

वैसे कवि तो सौ प्रतिशत कवि ही होता है,जो बिल्कुल निरंकुश भी होता है,उसकी निरंकुशता को स्वीकारा भी गया है-
निरंकुशा:कवयः।
कवि को विश्व में परिवर्तन लाने वाला प्रजापति तक कहा गया है-
'कविरेव प्रजापति: ,यथेदं रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते !'
वैदिक काल में ऋषय: मन्त्रदृष्टार: कवय: क्रान्तदर्शिन: अर्थात् ऋषि को मन्त्रदृष्टा और कवि को क्रान्तदर्शी कहा गया है।
वैसे राजशेखर ने कवि शिक्षा के अन्तर्गत शिष्यों के आधार पर कवियों के तीन भेद बताये हैं -
सारस्वत,
आभ्यासिक, तथा
औपदेशिक।
परन्तु उन्होंने ही काव्यशास्त्र में निपुणता के आधार पर कवियों के आठ भेद बताये हैं -
रचना कवि,
शब्द कवि,
अर्थ कवि,
अलंकार कवि,
उक्ति कवि,
रस कवि,
मार्ग कवि,
तथा शास्त्रार्थ कवि।

सारस्वत कवि वे हैं जिन्हें पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण सरस्वती का प्रसाद प्राप्त रहता है।

आभ्यासिक कवि वे हैं जो अभ्यास करते करते कवि बन जाते हैं।

औपदेशिक कवि वे हैं जो किसी प्रभाव (मंत्र-तन्त्र आदि) से कवि बन जाते हैं।

पदों के संयोजन में जो निपुण होते हैं वे रचना कवि कहे जाते हैं।

शब्दों के संयोजन में जो निपुण होते हैं वे शब्द कवि कहे जाते हैं।

अर्थ सौन्दर्य में जो निपुण होते हैं वे अर्थ कवि कहे जाते हैं।

अलंकारों को प्रयोग में जो निपुण होते हैं वे अलंकार कवि कहे जाते हैं।

जो चमत्कारिक ढंग से उक्तियों को काव्य में परिणत करने में कुशल होते हैं वे उक्ति कवि कहे जाते हैं।

जो रस निर्वाह में निपुण होते हैं वे रस कवि कहे जाते हैं।

जो रीतियों के प्रयोग में निपुण होते हैं वे मार्ग कवि कहे जाते हैं।

जो शास्त्रों के अर्थों को अपनी कविता में शामिल करते हैं वे शास्त्रार्थ कवि कहे जाते हैं।

जो इन सभी गुणों से परिपूर्ण हैं तथा जो अपने काव्य में इन सभी गुणों का कुशलता से समावेश करते हैं वे महाकवि कहे जाते हैं।
केशवदास ने गुणवत्ता के आधार पर कवियों के तीन भेद बताये हैं - उत्तम, मध्यम तथा अधम।

उन कवियों को उत्तम कहा जाता है जो हरि रस में लीन रहते हैं।

मध्यम स्तर के कवि वे हैं जो मनुष्य के संदर्भ में उनके कल्याण को ही ध्यान में रखते हुए काव्य रचना करते हैं।

अधम कवि वे हैं जो गुणों को त्यागकर दोषों या अवगुणों को ही महिमामंडित करते हुए काव्य रचना करते हैं।

लेकिन आज अधम कवि प्रथम श्रेणी में,मध्यम कवि आज भी दूसरे श्रेणी में तथा उत्तम कवि तीसरे श्रेणी में स्थापित हो चुके हैं।

डॉ मनोज कुमार सिंह

आलेख

वंदे मातरम्!मित्रो!एक खुरदुरा युगबोध हाजिर है।

गन्दी नाली के कीड़ों को बाहर निकालकर  कितना भी साबुन शैम्पू से नहा धुला दीजिये, कुछ देर बाद फिर वह उसी गंदी नाली में ही घुस जाते हैं।जैसे साँप को कितना भी दूध पिला दें, लेकिन जहर ही उगलेगा।आचरण से कृतघ्न लोग काम निकाल लेने के बाद असली रूप में आ जाते हैं।उनको कितना भी मुफ्त माल बाँट दो,वे तुम्हें नुकसान ही पहुँचायेंगे।इसलिए व्यावहारिक विज्ञान बताता है कि ऐसे कुटिल लोगों के साथ कठोर व्यवहार ही उचित मार्ग है।ये वो जोंक हैं जो आपसे चिपटेंगे तो आपका खून ही पियेंगे।ये वे छिपे भूखे भयंकर भेड़िया हैं जो मौका मिलते है पीछे से वार कर देते हैं।इनको समझाना,भैंस के आगे बीन बजाना है।
अगर आप अभी भी इनके बारे में भ्रम पाले हुए हैं तो आपका खुदा खैर करे।आँखें खोलो।जागो।समझो हक़ीक़त।वरना वो दिन दूर नहीं, जब तुम एक एक करके मार दिए जाओगे।गवाही देने वाला भी नहीं बचेगा।

सच यहीं है जिंदगी में जान लो।।
हैं बड़े खूंखार बातें मान लो।
मित्र बनकर नोंच डालेंगे तुम्हें,
भेड़ियों को ध्यान से पहचान लो।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

राम राम मित्र लोगन के!एगो मुक्तक हाजिर बा।

करीं विश्वास चाहे मत करीं,पर साँच इहे बा,
प्यार से ठोक के केतनन के हम अदमी बना दीहनी।
हम अपना सहजता साहचर्य के कोमल कटारी से,
केतने तलवार आ बंदूख के जख्मी बना दीहनी।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गीतिका

वंदे मातरम्!मित्रो!नसरु ने फिर एमनेस्टी इंटरनेशनल के कार्यक्रम में देशद्रोही नक्सलियों का समर्थन कर बता दिया है कि वह असल जीवन में क्या है।एक गीतिका हाजिर है।राष्ट्रवादी सोच के पक्ष में आपका समर्थन सादर अपेक्षित है।

बात ऐसी किया न करो।
बेवहज यूँ डरा न करो।

तुम सियासत करो शौक से,
देश को बस छला न करो।

घर तुम्हारा है जैसे रहो,
दिल में घुट घुट जिया न करो।

मुल्क लट्ठे का कपड़ा नहीं,
फाड़कर फिर सिया न करो।

जिसकी खाया,उसी भूमि के,
ज़ख्म दिल पर दिया न करो।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

विश्वगुरू की भूमिका,चलो निभाएँ आज।
जल,थल,नभ का बन सके,भारत फिर सरताज।।

नवल वर्ष में मुल्क में,सबसे यहीं अपील।
मिलजुलकर आतंक पर,ठोंके अंतिम कील।।👍

चाहे पाकिस्तान हो,या हों स्लीपर सेल।
बरसाकर बम गोलियाँ,खत्म करें सब खेल।।

रामलला के साथ क्यों,खंड-खंड पाखंड।
अब तो तारीखें लगें,अन्यायी का दंड।।

नखरे नखरूद्दीन के,समझ चुका है देश।
भीतर से है भेड़िया,बदले बैठा वेश।।


दोहा

वंदे मातरम्!मित्रो!आप सभी  को नवल वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाइयाँ!💐

विदा-आगमन वर्ष के,संधि दिवस पर आज।
चलो करें संकल्प हम,निर्भय बने समाज।।

नवल वर्ष में हर्ष का,ऐसा हो संयोग।
तन-मन-जीवन स्वच्छ हो,जन जन रहे निरोग।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वंदे मातरम्!

मैं अपनी कवि की छवि पर,आघात किया करता हूँ।
दहशतगर्दों की कटि पर,नित लात दिया करता हूँ।
कुछ कवि दहशतगर्दों के,मानव अधिकार समर्थक,
मैं निरपराध लोगों के,जज़्बात जिया करता हूँ।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

मतलब सधने तक दिखा,झुका झुका इंसान।
सधते ही अब अकड़ कर,चलने लगा उतान।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वंदे मातरम्!

जिंदगी के कैनवस पर रंग भरकर देखिए।

पल रहे नैराश्य में उमंग भरकर देखिए।

बदल जाएगी फिजां निश्चित यही है रास्ता,

सोचने में बेहतरी का ढंग भरकर देखिए।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

भोजपुरी आलेख

राम राम सगरी मित्र लोगन के!आजु कुछ भासा बिग्यान के आधार पर हमार एगो  विचार रउवा सबके सामने हाजिर बा।

शब्द खुरदुरा।लागेला बुरा।

शब्दन के महिमा अपरंपार होला।समय के साथ एकर अर्थ भी बदल जाला।आईं, एगो,दुगो शब्दन के अर्थ परिवर्तन के साथे वर्तमान में ओकर प्रयोग आ प्रवृति पर चर्चा कइल जाव।

'दोगला' शब्द के प्रचलन अपना समाज मे धड़ल्ले से करत देखल जाला।दोगला आदमी,दोगली राजनीति,दोगली बात,दोगला नेता,दोगली स्त्री आदि शब्दन के बहुते प्रयोग होला।वर्तमान में दुमुहाँ बात करे वाला या धोखा देबे वाला या अविश्वासी आदमी के संदर्भ में कइल जाला।भारत में पानी उबीछे खातिर बाँस के कमची से बनल टोकरी खातिर भी कहीं कहीं संज्ञा रूप में प्रयोग कईल गईल बा।एकरा के हिंदी भाषा के ही शब्द मानल गईल बा।ई फ़ारसी में पहुँच के घातक लड़ाई झगड़ा आ गारी बन जाले।आ एकर अर्थ बदल के वर्णशंकर,जारज(प्रेमी/आशिक़ से उतपन्न होखे वाला)हो जाला।

दोगला से मिलल जुलल शब्द एगो अउरी बा 'हरामजादा'।एकर प्रयोग भी गारी खातिर कईल जाला।एकर शाब्दिक अर्थ होला-हरम में जनम लेबे वाला।मुगल बादशाहन के हवसगाह रहे हरम।ओह हरम में हजारन मेहरारुअन के रखल जाव।रखेल (राखल औरत) एही के व्युत्पत्ति ह।एह स्त्रीयन से जनम लेबे वाला हरामजादा कहाव लो। 'हरामजादा' शब्द संज्ञा ह।जब ई शब्द प्रवृति बन जाला त हरामजदगी कहलाला।
राम मनोहर लोहिया जी के कहल ईयाद आ जाला कि तन के दोगला एक बार चलेला,बाकिर मन के दोगला बहुते घातक होलें।मन के दोगला भईल आदमी के आचरण में समा गईल।वर्तमान में ई शब्द प्रवृति के बतावेला।एकर अर्थ अब दू तरह के बात करे वाला या जेकरा कथनी आ करनी में बहुते अंतर होला,में बदल गईल बा। काहे कि आज अपना समाज में बहुते अइसन आदमी यानी मरद मेहरारू बाड़ें जे मुँह पर मीठा बोलेलें बाकिर पीछे से षडयंत्र करे से बाज ना आवेलें,मौका पावते पीठी पर छूरी भोंक देलें।अइसन भी नईखे कि अइसन आदमी में कवनो दोष बा,ई इनकर जनमजात सुभाव में बा जीवन के दिनचर्या में शामिल बा।दोगलई के बिना एह प्रवृति के आदमी रहीए ना सकेला।ई आदमी,समाज,देश,राष्ट्र केहू के संगे दोगलई करि सकेला।अइसन आदमी के दोगलई के कवनो सीमा तय नईखे।

मनोबैज्ञानिक लो अनुभव कईल कि कुछ लो परिस्थितिवश दोगलई करेके चाहेलें,बाकिर करि ना पावेलें,काहेकि उनका में दोगलई के प्रबृत्ति ना होला।प्रवृति रहला से ई काम आसानी से हो जाला।बाकिर प्रवृति में ना रहला के कारण बनावटीपन असहज कर देवेले।कबीरदास कहले बाड़े-"सांच बराबर तप नहीं,झूठ बराबर पाप।जाके हिरदय साँच है,वाके हिरदय आप।।"जेकरा हियरा में आप बाड़ें,ओकरा के उ दोगलई करे से रोक देलें।इतिहास में भी अइसन दोगलन के कमी नईखे।केतने राजा, महाराजा,यति-जति एह दोगलन के दोगलई के भेंट चढ़ि गइलें। दोगलन के ढूढ़ें खातिर कवनो दूर गइला के काम नईखे,आसे पास बाड़ें।
अइसन लोगन के चिन्ही पहिचानी आ तनी दूरे रहीं।एह तरह के लोग कब अचानक पीछे से छूरी घोंप दी ,कवनो
ठेकाना नईखे।ई भेड़ के खाल में छुपल भेड़िया हउवसन।

डॉ मनोज कुमार सिंह

शेर

"वो अपनी बदजुबानी का मुझपे पत्थर चलाता है।
मुझे हर हाल में कश्मीर का सैनिक समझता है।"😊

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

नंगा करता अमेरिका, दाढ़ी नोंचे चीन।
भारत में क्यों डर लगे,बोलो नसीरुद्दीन।।
डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वंदे मातरम्!

सियासी दांव पेंचों में,फँसाकर मुल्क को अब तो,
बेरहमी से कुचलने का,महज षडयंत्र चलता है।
यहाँ मासूमियत से,डर दिखाकर नसरुआ जैसे,
हर गद्दार मजहब ,जाति वाला मंत्र चलता है।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गीतिका

बेंत अचानक फल गया।
खोटा सिक्का चल गया।

आग लगाकर खुद घर में,
कबिरा जिंदा जल गया।

धीरे धीरे झूठ मुल्क में,
सच को जैसे निगल गया।

खंजर-सा मौसम अद्भुत,
आत्मघात हित मचल गया।

भेड़ समझते थे जिसको ,
छुपा भेड़िया निकल गया।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गीतिका

वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका सादर समर्पित है।

सच चुभता दर्पण होता है।
तप्त रेत का कण होता है।

अहंकार जब मन में छाए,
जीवन बस रावण होता है।

आँखों से संवाद प्रणय का,
निश्चित अद्भुत क्षण होता है।

सतत् प्रेम की अग्निशिखा में,
शीतल मन तर्पण होता है।

जड़,चेतन की पृष्ठभूमि पर,
जीवन इक विवरण होता है।

आज नहीं, सदियों का सच है,
भला,बुरा में रण होता है।

अँधियारा बढ़ने का कारण,
शायद संरक्षण होता है।

उदधि राम हित जब बाधा हो,
फिर तो वध का प्रण होता है।

पत्थर नहीं पुष्प घात से,
हृदय भूमि पर व्रण होता है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गीतिका

वंदे मातरम्! मित्रो!एक युगबोध 'गीतिका' में समर्पित है।

रिश्तों की बस्ती को हम,बाजार नहीं करते।
चेहरे पर चेहरों का,कारोबार नहीं करते।

जो करना है,प्रेम,अदावत,खुलकर हम करते,
छिपे भेड़ियों-सा पीछे से,वार नहीं करते।

नहीं ठिकाना,उसका कि कब कहाँ मुकर जाए,
चलती साँसों पर हम,यूँ एतबार नहीं करते।

जो मन से सुंदर हैं,जिनका हृदय सदा सुरभित उपवन,
चेहरे का वे कभी असत् ,शृंगार नहीं करते।

नवरत्नों में शामिल अब तक, नहीं रहे क्योंकि,
दरबारों में रहकर भी,दरबार नहीं करते।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

जीवन ने अनुभव किया,यही बात इक खास।
स्वार्थ भरे सम्बन्ध में,टिके नहीं विश्वास।।

संयम के संग संतुलन,जीवन के द्वय मंत्र।
बंधन में इंसान को,रखते सदा स्वतंत्र।

यारी है या दुश्मनी,दोनों को पहचान।
धोखा खाओगे नहीं,अगर किया ये ध्यान।।

भले साग सत्तू मिले,संग मिले अपनत्व।।
नित जाना उस द्वार तक,पाने जीवन सत्व।

जहाँ अहमियत नहि मिले,मिले न तुमको प्यार।
उस घर या उस हृदय तक,कभी न जाना यार।।

दोहा

दिल में जिसके है घृणा,अधरों पर मुस्कान।
ऐसे बद इंसान की,कैसे हो पहचान?

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वंदे मातरम्!

नींव कमजोर हो तो,हर इमारत डोल जाती है।
वोटर उंगलियों से हर,सियासत डोल जाती है।
जिसने कुर्सियाँ सौंपी,उसी को कुचल डाले जो,
क्रांति की दहक से,पूरी हुकूमत डोल जाती है।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

पथप्रदर्शक बुद्धि रहे,और धैर्य हो मित्र।
आत्मनिरीक्षण से बने,मानव सबल चरित्र।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

ज्ञान बाँटकर मर गए,कितने संत,फ़कीर।
फिर भी नहीं मिटा सके,मानव मन के पीर।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वंदे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक समर्पित है।

न्याय,अन्याय का,हर भेद हमें मालूम है,

हम वो तलवार,जिनसे भेड़ियों की खैर नहीं।

वार करते नहीं हम,मेमनों की गर्दन पर,

किसी निर्दोष से,भूलकर भी कोई बैर नहीं।।

- डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहा

पापा पापा गीत है,माँ माँ माँ माँ प्रीत।
गीत-प्रीत के बीच ही,जीवन का संगीत।।💐

डॉ मनोज कुमार सिंह