Saturday, January 23, 2016

कुण्डलिया

वाह रे अशोक बाजपेई जी अब आप  D lit (डी लिट् -दलित)की सियासत पर उतर आए।आपको इस कागजी डिग्री को लौटाने से अच्छा था इस ठंढ में अपना कपड़ा उतार कर किसी गरीब को दान कर देते और आपके धृतराष्ट्री आँखों पर चश्मे की क्या जरुरत,उसे किसी कमजोर नजर वाले को दान कर देते। आप की इन करतूतों से एक कुण्डलिया छलक ही आया।

पुरस्कार की वापसी , दौर  वहीं बेशर्म।
जाति धर्म के नाम पर,फिर से शुरू कुकर्म।
फिर से शुरू कुकर्म ,मालदा याद न आया।
पठानकोट का दर्द,तुम्हें झकझोर न पाया।
जान चुका है देश,चाल रंगे सियार की।
नीच सियासत,लौटाते हर पुरस्कार की।

डॉ मनोज कुमार सिंह

No comments:

Post a Comment