Sunday, January 10, 2016

गजल


बस याद नहीं वक्त,कि हम कब बदल गए।
पूर्वज थे सबके एक, बस मजहब बदल गए।

खंजर यूँ भोंकने का ,जबसे हुआ चलन,
सचमुच ही दोस्ती के ,मतलब बदल गए।

संतुष्टि,त्याग दिल से जबसे हए हैं गायब,
लिप्सा की नफासत के ,तलब बदल गए।

रौनक न रही अब वो,न खुशबू चमन में,
माली के उसूलों के ,करतब बदल गए।

इन्सां को उसके दर्द ने इंसान बनाया, 
ईमान का क्या? वो तो,जब तब बदल गए।

डॉ मनोज कुमार सिंह






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