Monday, February 11, 2013


युग के सवाल 
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सवाल से सवाल निकलना 
सहज सवाल नहीं 
क्योंकि ,सहजता
स्वयं में एक व्यापक सवाल है
जिसे ढूढ़ते हुए हम
शुरू से अंत तक
अंत से अनंत तक
भटकते रहते हैं
वैसे सवाल के कई अक्स हैं
जो जीवन के बरक्स हैं
कुछ सीना तानकर खड़े होते हैं
कुछ भरोसा देने पर
किसी तरह अड़े होते हैं
कुछ अधर में पड़े होते हैं
कुछ डरे होते हैं
कुछ जीते जी मरे होते हैं
जिन पर कोई सवाल नहीं उठता
वैसे सवाल जिसके सिर पर
सवार रहता है
चाट जाता है उसे
इसलिए सवाल के बारे में
प्रश्नवाचक दृष्टि है व्यवस्था की
,जो मानती है कि
सवाल खडा करना
महज जुबान लड़ाना है
और दाँतों के बीच जुबान का बढ़ना
एक भयंकर रोग है
यह रोग मेरे पिता को भी था
जो धीरे-धीरे मुझे संक्रमित कर
व्यवस्था की दृष्टि में अपराधी बना दिया
चूँकि मैं अपराधी हूँ
फलतः व्यवस्था के प्रति
बहुत सारे अपराध
अब ले रहे हैं जन्म
मेरे सीने में
पल रहे हैं
बढ़ रहे हैं
सच का सच बन
ढल रहे हैं
जिन्हें दे रहा हूँ
मुखरता
प्रखरता
उदग्रता
निर्भयता
उर्जा अकूत संवेदनशीलता
आत्मीयता
सहजता
सम्प्रेषणीयता
चेतना की स्वतन्त्रता
आग का राग
जैसे कबीर
निराला
नागार्जुन
मुक्तिबोध
युग के सवाल
व्यवस्था की निरंकुश –नंगी
तस्वीर के खिलाफ
गवाह बेपनाह ||
cr...........डॉ मनोज कुमार
सिंह

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