Monday, February 11, 2013

अजनबी-सा शहर ये जब से बसा है |
इस शहर में हादसा ही हादसा है |

कोई भी दिखता नहीं अपना यहाँ पर ,
भीड़ में हर आदमी तनहा फँसा है |

रोशनी की आँख में तेज़ाब बोकर ,
अब अन्धेरा बस्तियों में आ बसा है |

साँप की अब अहमियत को ख़त्म करके ,
आदमी ने आदमी को खुद डंसा है |

खौफ के साए में भी मैंने सूना है ,
एक बच्चा कहीं पर खुलकर हँसा है |
...................डॉ मनोज कुमार सिंह


ताल ठोक कर खतरों से जो लड़ना सीख जाते हैं |


आन-बान पर जीवन में जो मरना सीख जाते हैं |


इतिहासों में ज़िंदा वे हीं रह पाते हैं यारों ,


भाग्य पृष्ठ पर कर्मों से जो लिखना सीख जाते हैं |


................................डॉ मनोज कुमार सिंह

युग के सवाल 
.......................

सवाल से सवाल निकलना 
सहज सवाल नहीं 
क्योंकि ,सहजता
स्वयं में एक व्यापक सवाल है
जिसे ढूढ़ते हुए हम
शुरू से अंत तक
अंत से अनंत तक
भटकते रहते हैं
वैसे सवाल के कई अक्स हैं
जो जीवन के बरक्स हैं
कुछ सीना तानकर खड़े होते हैं
कुछ भरोसा देने पर
किसी तरह अड़े होते हैं
कुछ अधर में पड़े होते हैं
कुछ डरे होते हैं
कुछ जीते जी मरे होते हैं
जिन पर कोई सवाल नहीं उठता
वैसे सवाल जिसके सिर पर
सवार रहता है
चाट जाता है उसे
इसलिए सवाल के बारे में
प्रश्नवाचक दृष्टि है व्यवस्था की
,जो मानती है कि
सवाल खडा करना
महज जुबान लड़ाना है
और दाँतों के बीच जुबान का बढ़ना
एक भयंकर रोग है
यह रोग मेरे पिता को भी था
जो धीरे-धीरे मुझे संक्रमित कर
व्यवस्था की दृष्टि में अपराधी बना दिया
चूँकि मैं अपराधी हूँ
फलतः व्यवस्था के प्रति
बहुत सारे अपराध
अब ले रहे हैं जन्म
मेरे सीने में
पल रहे हैं
बढ़ रहे हैं
सच का सच बन
ढल रहे हैं
जिन्हें दे रहा हूँ
मुखरता
प्रखरता
उदग्रता
निर्भयता
उर्जा अकूत संवेदनशीलता
आत्मीयता
सहजता
सम्प्रेषणीयता
चेतना की स्वतन्त्रता
आग का राग
जैसे कबीर
निराला
नागार्जुन
मुक्तिबोध
युग के सवाल
व्यवस्था की निरंकुश –नंगी
तस्वीर के खिलाफ
गवाह बेपनाह ||
cr...........डॉ मनोज कुमार
सिंह



जिंदगी जो भी दिया ,तुमने दिया |


जिंदगी जो भी लिया ,तुमने लिया |


ख़ुशी हो या गम किसी भी दौर में ,


प्यार से तुझको सदा हमने जिया |

...............डॉ मनोज कुमार सिंह


जिंदगी खडी है कई रूप में कतार में |
चोट में ,दर्द में ,टीस में ,प्यार में |

बेटा है अफसर औ रौबदार इतना कि,
बाप भी करते हैं बात अदब से परिवार में |

रात के अँधेरे की सिसकियाँ बताती है |
लुट गई है कली कोई मौसम मनुहार में |

मित्र कहाँ मिलते है आज के जमाने में ,
कहाँ है मुहाब्बत वो मिले जो उधार में |

........................डॉ मनोज कुमार सिंह
युवा जब सुंदरी औ सुरा में मदहोश है |


लुटती आबरू पर, आदमी खामोश है |


वतन की दुर्दशा से ,व्यथित सदियों से कवि,


अकेले जागरण का, कर रहा उदघोष है |


सियासत नफरतों की, कुर्सियाँ करती रहीं ,


हिस्से में मिला सबको, महज़ अफ़सोस है |


किसी के ख़ुशी ,गम में, अब कोई शामिल नहीं ,


अजनबी शहर में, संवेदना बेहोश है |
............................डॉ मनोज कुमार सिंह

सपने का सच
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जिसने भी कहा –
सपने का सच
सच नहीं होता
शायद देखा नहीं कभी
उसकी आँखों ने
सपने का सच
या
सच के सपने
क्योंकि सपने बुनना या देखना
डूबना है समुद्र में
और समुद्र में डूबना
आत्मगत करना है
समुद्र का खारापन
जो स्वाद के वर्णमाला से
बाहर का हिज्जे है
जिसे कंठगत करने में
भाषा की जीभ ऐंठ जाती है
फिर भी मैं
सुनता हूँ सपना
डूबा हुआ हूँ आकंठ
समुद्र में
पी चुका हूँ
उसका बहुत सारा खारापन
चाहते हो अगर
उसे देखना
तो देखो मेरी आँखों में
एक समुन्दर ठाठें मारता
खारे जल से
भरा है लबालब
जो किसी व्यक्ति के
डूबने के लिए काफी है
मगर शर्त ये है
कि डूबने से पूर्व
करना पडेगा आत्मगत
उसका खारापन
यह खारापन हीं
बचाए है इस धरती को
जिसके कारण आज भी
वह हरी-भरी सी दिखती
तैरती हुई समुद्र में
सुरक्षित है
यह खारापन हीं
बचाएगा तुम्हें भी
गीत बन गुनगुनाएगा
देगा तुम्हें
एक अहसास की गीली जमीन
जिस पर उग सकेंगे
सपनों के बीज
जीवन के रेत में
क्या अच्छा होता
कि एक समुद्र मिलता गला
दूसरे समुद्र के
आँखों का होता रास्ता
जिसमें देखते वे
सपने का सच
जो सच हीं होता है
कभी झूठ नहीं होता
जिसे देख नहीं पातीं
ये दिग्भ्रमित आँखें
और कहती फिरती हैं
सपने का सच
सच नहीं होता
हाँ ,यह भी सच है
कि जब से आ गए
समुद्र में घड़ियाल
तब से
सपने का सच
सच नहीं है |
........डॉ मनोज कुमार सिंह

अपना -अपना, यहाँ मुहल्ला है |
कहीं पे राम, तो कहीं अल्ला है |

अब तो इंसाँ, सियासत के हाथों ,
कभी गेंद तो, कभी बल्ला है |

शहीद हो गए वो, सरहदों पे ,
न कोई कैंडिल है , न हल्ला है |

जिंदगी मकान है, अब सरकारी ,
न चौखट है जिसमें , न पल्ला है |

मुफलिसी ,भूख की अब आँखों में ,
ग़मज़दा आंसुओं का, छल्ला है 
भौतिकता को जीवन में, इस तरह उतारा जाता है ।
संस्कार की बात करे जो ,उसे नकारा जाता है ।

बेशर्मी के दौर में यारों ,बात अदब की क्या करना ,
नंगेपन की बात करे जो ,उसे सँवारा जाता है ।

आज सियासत की बस्ती में ,कुर्सी की हर थाली में ,
आम आदमी के सपनों को ,रोज डकारा जाता है \

जिस औरत को माँ ,बेटी औ देवी का सद रूप दिया ,
किस कारण से कोंख में उसको ,निशदिन मारा जाता है ।

प्रगतिशीलता ने डिस्को ,पब ,रेव पार्टियाँ जब से दीं ,
रंगरलियों में भद्रजनों का समय गुजारा जाता है ।

रिश्तों को अब नोंच -नोंच कर खाने का है आम चलन ,
विश्वासों का सरल सिपाही ,अक्सर मारा जाता है ।

नैतिकता ,ईमान ,त्याग ,तहज़ीब कलम की ताकत से ,
है गवाह इतिहास यहाँ ,हर दौर सुधारा जाता है ।
..........................................डॉ मनोज कुमार सिंह


सत्य की रक्षार्थ हीं इस देश में ,


कृष्ण की वाणी कभी गीता बनी ।

क्रौंचनी के रुदन का अहसास कर ,


आदिकवि विह्वल हुआ ,कविता बनी ।

शुचिता को सिद्ध करती अग्नि में ,

क्यों यहाँ हर काल में सीता बनी ।

दामिनी के दर्द में बहती हुई,

लेखनी भी शोक की सरिता बनी ।

.................डॉ मनोज कुमार सिंह