Sunday, May 6, 2012


  दलित -दलित चिल्लाने वाले, हैं अपने हित साधन में ,
  राजनीति साहित्य जहाँ भी, देखो दलित-दलित है |

कुर्सी-कुर्सी !सत्ता-सत्ता!, बांच  सको तो बांचों तुम ,
उत्पीड़न का समर काव्य, पीठों पर अभी सुरक्षित है |

 अपनेपन  की मूर्ति बने हैं ,स्वार्थ पूर्ति के चेहरे ,
 दया- कृपा के चेहरों का, चेहरा विज्ञापित है |

 पेट, पीठ ,कंधे मेरे हैं ,गिरवी पड़े ज़माने से ,
बंगला ,गाडी ,धरती उनकी ,युग का यहीं गणित है |

तीखे तेवर लिए खड़े हैं ,आज आँख के आँसू,
गिरते आँसू युगों -युगों से, अभिशापित हैं 

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