पतझर पे हँसे थे जो ,दुःख भी उन्हें हुआ ,
फागुन में जब पतझर, नया चेहरा दिखा दिया |
सुनता रहा था मौसम ,सुनना नहीं था जो ,
हालात ने मजबूर कर, बहरा बना दिया |
समय से सियासत कर , कोई बच नहीं पाया ,
जो मर्द बने थे ,उन्हें हिजड़ा बना दिया |
काँटों पे नचाया जो, खुद नाचता है आज ,
मौसम ने उनकी जिंदगी, मुजरा बना दिया |
आवाज़ नहीं होती, लाठी में खुदा की ,
सागर को उंगुलियों पर, कतरा बना दिया ||
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