Wednesday, May 25, 2016

सुनो पार्टनर!(कविता)

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज अपनी एक रचना आपको समर्पित कर रहा हूँ। जिसमें भारतीय साहित्य के साथ किये गए साजिशों का हवाला है। ये कविता पाठक मित्रों से गहरी संवेदना की माँग करती है। आपका स्नेह हमेशा की तरह सादर अपेक्षित है।

#सुनो पार्टनर! #
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सुनो पार्टनर!
तुम्हारी पालिटिक्स मैं जानता हूँ।
मेरे अहिंसक साहित्य को
किस प्रकार तुमने बनाया
हिंसक।
तुम चलती आ रही परंपरा
सत्यम शिवम् सुन्दरम की अवधारणा में से
शिव और सुन्दर को छोड़कर
तुमने
नग्न सत्य को स्वीकारा।
सत्य में हिंसा की संभावना होती है
कभी कभी आदमी असत्य को
सत्य समझकर हिंसक हो जाता है।
तुमने आधुनिकता और प्रगतिशीलता के चक्कर में
कमल कोरकों से पराग लेने की जगह
कमल की सारी पंखुरियां ही नोच डाली।
फूल के स्थान पर पत्थरों को
बिठा दिया।
बहुत ही चालाकी और काइयांपन दिखाते हुए
गद्य और कथा के बहाने
साहित्य को मिटटी और मैदान की ओर
मोड़ दिया।
फूलों का निषेध कर
प्रगतिशीलता की हँसिया से
सम्पूर्ण सौन्दर्य वन को
काटा और हथौड़े से
कुचल डाला।
पहली बार
साहित्य को शस्त्र से उपमित किया गया
और संघर्ष को अनिवार्य किया गया
पहली बार हिंसा को साहित्य में
दिया गया स्थान।
तुमने पहली बार
पश्चिम से वर्ग संघर्ष का बीज
लाकर रोप दिया
भारतीय साहित्य और संस्कृति की
भाव भूमि में
उपेक्षित कर दिया
भारत की परंपरा और आत्म तत्त्व को।
तुमने भक्तों में भी भेद कर दिया
सगुण को गौण और
निर्गुण को श्रेष्ठ बताकर
स्वार्थ की सिद्धि की।
सगुण के एकता के तत्त्वों की
उपेक्षा करके
पश्चिम का अलगाव,द्वंद्व और
जाति संघर्ष की खोज कर डाली।
तुमने संतो के साथ भी अन्याय कर
उनकी गौण रचनाओं को अपनी
आधारशिला बना ली।
तुमने अपने को प्रगतिशील कहा
और अपने विचारों के गर्भनाल में
हिंसा का पुंसवन करने लगे।
तुमने जनवाद के कीड़े के पेट में
क्रोध और घृणा भर दिया
और आम आदमी के पास जाने की
कोशिश की
जिसमें सफल नहीं हुए।
तुमने हृदय पक्ष को ठुकराकर
बुद्धि को अपनाया
तुम तथाकथित आलोचक बन गए
अगर नहीं बने तो बस कवि
क्योंकि बुद्धि से काव्य संभव नहीं।
तुमने मार्क्सवादी चमड़ी ओढ़कर
प्रगतिशीलता की डकार ली
जिसमें केवल और केवल
राजनीति की बदबू थी
साहित्यिकता और सहृदयता की
सोंधी सुगंध सिरे से गायब थी
जैसे गधे के सिर से सिंग।
तुमने अर्थ और भूख का सहारा लेकर
साहित्य का स्तर गिराया
सजाया तुमने अपने विचारों को
नग्नता,अश्लीलता और नंगेपन के
अलंकारों से।
तुमने ऋषि द्रष्टा रचनाकार को
कलम का सिपाही और मजदूर संज्ञा से
पुकारा
जिसे साहित्य से लेना देना नहीं
एक मजदूर और सिपाही से
अहिंसा की कल्पना नहीं की जा सकती।
अहिंसा एक असामान्य व्यवहार है
इसकी अनुपस्थिति और
वर्ग संघर्ष हिंसा की प्रवृति ने
साहित्य को सतही बना दिया।
सुनो पार्टनर!
ये सही है कि तुम्हारी हिंसक प्रवृति,
स्वार्थ,घृणा,द्वेष ने
श्रेष्ठ साहित्य को पनपने में
बहुत कठिनाई में डाला है
पर विश्वास करो
शिव और सौन्दर्य
कभी नष्ट नहीं होते
ये हवाओं में जाफरान की
सुगंध की तरह फैले होते हैं
और चेतना के खेत में
उगाते रहते है
अहिंसा के बीज
जिसके बारे में
तुम उतने ही अपरिचित हो
जितना कृष्ण के जन्म के बारे में
कंस था।
तुम वस्तु उत्पादक बुद्धिजीवी हो,
हम मानवीय संवेदना के चितेरे हैं।
तुम प्रगतिवाद के चौखटे और खूंटे में बंधे
पशु हो।
तुम युगबोध से बाहर नहीं ।
हम युगातीत, कालातीत परिंदे हैं।
हम ब्रह्मा,विष्णु,शिव की संतानें हैं
हमारे पूर्वज थे
साहित्याकाश के
प्रखर सूर्य और सरस शशि
बाल्मीकि,व्यास,कालिदास,तुलसी ,सूर
जिनपर हमें है सचमुच गरूर।
जिनका साहित्य ही असली साहित्य है
बाकी सब पानी के बुलबुले।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

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