कविता के बहाने
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
छंदमुक्त/मुक्तछंद कविता को लेकर आजकल फेसबुक पर बहुत चर्चा चल रही है इस सन्दर्भ में कुँवर नारायण की कविता ...''.बात सीधी थी पर '' पर विचार करना चाहिए जो उनके काव्य संग्रह ''कोई दूसरा नहीं ''में संकलित है |उस कविता की भी यहीं चिंता है कि अगर काव्य में काव्यानुकूल भाषा का प्रयोग न किया जाय तो कथ्य की अर्थवत्ता एवं सारगर्भिता को समाप्त कर देता है |जिस प्रकार हर पेंच के लिए एक खांचा होता है वैसे हर बात के लिए नियत शब्द होते हैं |अच्छी कविता का बनाना सही बात का सही शब्द से जुड़ना होता है |सरलता पूर्वक कहा गया कथन अधिक प्रभावशाली होता है इसके लिए भाषा को भी समृद्ध एवं संप्रेषणीय बनाने के लिए सार्थक बिम्बों और उपमानो का प्रयोग करना पड़ता है |आज मुक्त छंद के अभिधान से जाना जाने वाला जो छंद है उसका इतिहास विदित है कि सर्व प्रथम यह अतुकांत छंदों के माध्यम से हरिऔध जी की रचनाओं में आया |इसके बाद गुप्त बंधू [मैथिलि-शियाराम ] अनूप शर्मा ,गिरधर शर्मा लोचन प्रसाद पाण्डेय आदि द्वारा प्रचार और प्रसार प्राप्त किया |वैसे मुक्त छंद के सर्व प्रथम सफल प्रभावशाली कवि निराला हैं |दूसरे कवि हैं पन्त जी |किन्तु निराला मुक्त छंद को वर्णिक छंद के अनुरूप ढाल रहे थे......[..वह तोड़ती पत्थर] औए पन्त जी मात्रिक रूप में........[.ताक रहे हो गगन ] |इस प्रकार मुक्त छंद उक्त दोनों प्रकार के छंदों के लयाधार पर विकसित हुआ ,लेकिन लोगों ने मुक्त छंद के नाम पर गद्य [नीरस ]कविता का विस्तार कर अपने विचारों को कविता कहने लगे है |कविता का प्राण तत्त्व लय है जिसे किसी भी स्थिति में नकारा नहीं जा सकता | वनस्पति तेल को घी कहकर बेचने वाले इस जमाने में तथाकथित कवि इस चिंता से क्यों मरें ......उन्हें तो नाम ,यश और वैभव की लालसा है |एक समय था जब 'काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम 'वाली कहावत विद्वानों पर चरितार्थ होती थी ,परन्तु आजकल धीमताम भी काव्यशास्त्र में रूचि नहीं ले पाते |नई पीढ़ी तो काव्यांगों को तिलांजलि देकर भी विद्वान बनने का दावा करती है ........स्थिति भयावह है ,दिशाहीनता की स्थिति है .......फिर भी कुछ सुचिंतित लोगों का सान्निध्य एक रोशनी देती है|मैं अपनी एक पुरानी रचना जो मुक्तछंद में है प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसे कालेज के दिनों में लिखा था .......शीर्षक है ..........
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
तेरे शब्द ,मेरे शब्द
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
मैं
इस नाज़ुक परिवेश में
ऐसा कोई चामत्कारिक शब्द
नहीं रखना चाहता
जिसको सुनकर,देखकर
आप विस्मय से भर जायें
उछल जायें
तालियाँ बजाएं
और कह उठें वाह-वाह
तथा
इधर शब्द की सहजता
फाँसी चढ़ जाये
मैं दूंगा शब्द
सहज शब्द
प्रामाणिक शब्द
शब्दों के साथ पूरा वाक्य दूंगा
जो आपके चूल्हे से
चौराहे तक
सिरहाने से सपने तक
फैले -
व्यवस्था की भयानक खूनी पंजों
और दहाड़ते आतंक के डर से
छुपे
दुबके
गुमनाम शब्दों को
तुम्हारे अंतड़ियों के
सलवटों में से बाहर निकाल कर
देंगे उन्हें आत्मबल
एक विश्वास
निर्भय होने का आचरण
युयुत्सावादी मिजाज़
एक जलता हुआ अलाव
जिसमें पकने के बाद
मेरा दावा है -
व्यवस्था की
हत्यारी साजिश के खिलाफ
एक दिन आँखों में आँखें डाल
दे सकते हैं उनको
दो हाथ कर लेने की सहज सूचना
एक नए तेवर और नए कलेवर के साथ
तेरे शब्द ,मेरे शब्द |
डॉ मनोज कुमार सिंह
..........................................................................................
..........................................................................................