Wednesday, May 25, 2016

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज आप सभी के लिए एक मुक्तक सादर समर्पित है। प्रतिक्रिया सादर अपेक्षित है।

किसी को तीरगी देता,किसी नूर देता है।
वक्त देता है जब,इंसान को भरपूर देता है।
मगर इंसान ही इंसान को,जब जख्म देता है,
खुदा बदले में उसको,एक बड़ा नासूर देता है।

शब्दार्थ-तीरगी-अँधेरा,नूर-चमक,प्रकाश
नासूर-लाइलाज घाव।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज का मुक्तक आपको कुछ तरह समर्पित कर रहा हूँ कि -

बिना बोले ही चेहरे,बहुत कुछ यूँ बोल देते हैं।
ये बनकर आईना दिल की,भी गाँठें खोल देते हैं।
जो रखते हैं लबों पे मुस्कराहट, जिंदगी भर यूँ,
वो खुद में छोड़िए ,गैरों में मिसरी घोल देते हैं।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज फिर एक  समसामयिक मुक्तक आपको समर्पित कर रहा हूँ। इसे बिहार से जोड़कर मत देखिएगा। आप सभी की प्रतिक्रिया सादर अपेक्षित है।

आजकल तो आदमी ही,आदमी का कौर है।
सुरा के बदले लहू पीने का, वहशी दौर है।
रेप,डाका,अपहरण,अखबार की हैं सुर्खियाँ,
अब तो कातिल ही यहाँ पर न्याय का सिरमौर है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक मुक्तक आपको समर्पित करता हूँ।आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

तुम्हारे चाहने न चाहने, से कुछ नहीं होगा।
मुहब्बत हो गई तो भागने,से कुछ नहीं होगा।
खुदा गर खैर चाहेगा,किसी की जिंदगी का तो,
लाखों तोप उस पर दागने,से कुछ नहीं होगा।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक समसामयिक मुक्तक समर्पित है। आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

जहाँ हर मंच से नेता,सदा भाषण पिलाता है।
हमारा वोट लेकर, हमें ही उल्लू बनाता है।
के गर मारो उसे जूते ,फिर भी बेशरम हँसता,
पहन कर वहीं जूता ,सभा से फिर खिसक जाता है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

सुनो पार्टनर!(कविता)

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज अपनी एक रचना आपको समर्पित कर रहा हूँ। जिसमें भारतीय साहित्य के साथ किये गए साजिशों का हवाला है। ये कविता पाठक मित्रों से गहरी संवेदना की माँग करती है। आपका स्नेह हमेशा की तरह सादर अपेक्षित है।

#सुनो पार्टनर! #
.....................
सुनो पार्टनर!
तुम्हारी पालिटिक्स मैं जानता हूँ।
मेरे अहिंसक साहित्य को
किस प्रकार तुमने बनाया
हिंसक।
तुम चलती आ रही परंपरा
सत्यम शिवम् सुन्दरम की अवधारणा में से
शिव और सुन्दर को छोड़कर
तुमने
नग्न सत्य को स्वीकारा।
सत्य में हिंसा की संभावना होती है
कभी कभी आदमी असत्य को
सत्य समझकर हिंसक हो जाता है।
तुमने आधुनिकता और प्रगतिशीलता के चक्कर में
कमल कोरकों से पराग लेने की जगह
कमल की सारी पंखुरियां ही नोच डाली।
फूल के स्थान पर पत्थरों को
बिठा दिया।
बहुत ही चालाकी और काइयांपन दिखाते हुए
गद्य और कथा के बहाने
साहित्य को मिटटी और मैदान की ओर
मोड़ दिया।
फूलों का निषेध कर
प्रगतिशीलता की हँसिया से
सम्पूर्ण सौन्दर्य वन को
काटा और हथौड़े से
कुचल डाला।
पहली बार
साहित्य को शस्त्र से उपमित किया गया
और संघर्ष को अनिवार्य किया गया
पहली बार हिंसा को साहित्य में
दिया गया स्थान।
तुमने पहली बार
पश्चिम से वर्ग संघर्ष का बीज
लाकर रोप दिया
भारतीय साहित्य और संस्कृति की
भाव भूमि में
उपेक्षित कर दिया
भारत की परंपरा और आत्म तत्त्व को।
तुमने भक्तों में भी भेद कर दिया
सगुण को गौण और
निर्गुण को श्रेष्ठ बताकर
स्वार्थ की सिद्धि की।
सगुण के एकता के तत्त्वों की
उपेक्षा करके
पश्चिम का अलगाव,द्वंद्व और
जाति संघर्ष की खोज कर डाली।
तुमने संतो के साथ भी अन्याय कर
उनकी गौण रचनाओं को अपनी
आधारशिला बना ली।
तुमने अपने को प्रगतिशील कहा
और अपने विचारों के गर्भनाल में
हिंसा का पुंसवन करने लगे।
तुमने जनवाद के कीड़े के पेट में
क्रोध और घृणा भर दिया
और आम आदमी के पास जाने की
कोशिश की
जिसमें सफल नहीं हुए।
तुमने हृदय पक्ष को ठुकराकर
बुद्धि को अपनाया
तुम तथाकथित आलोचक बन गए
अगर नहीं बने तो बस कवि
क्योंकि बुद्धि से काव्य संभव नहीं।
तुमने मार्क्सवादी चमड़ी ओढ़कर
प्रगतिशीलता की डकार ली
जिसमें केवल और केवल
राजनीति की बदबू थी
साहित्यिकता और सहृदयता की
सोंधी सुगंध सिरे से गायब थी
जैसे गधे के सिर से सिंग।
तुमने अर्थ और भूख का सहारा लेकर
साहित्य का स्तर गिराया
सजाया तुमने अपने विचारों को
नग्नता,अश्लीलता और नंगेपन के
अलंकारों से।
तुमने ऋषि द्रष्टा रचनाकार को
कलम का सिपाही और मजदूर संज्ञा से
पुकारा
जिसे साहित्य से लेना देना नहीं
एक मजदूर और सिपाही से
अहिंसा की कल्पना नहीं की जा सकती।
अहिंसा एक असामान्य व्यवहार है
इसकी अनुपस्थिति और
वर्ग संघर्ष हिंसा की प्रवृति ने
साहित्य को सतही बना दिया।
सुनो पार्टनर!
ये सही है कि तुम्हारी हिंसक प्रवृति,
स्वार्थ,घृणा,द्वेष ने
श्रेष्ठ साहित्य को पनपने में
बहुत कठिनाई में डाला है
पर विश्वास करो
शिव और सौन्दर्य
कभी नष्ट नहीं होते
ये हवाओं में जाफरान की
सुगंध की तरह फैले होते हैं
और चेतना के खेत में
उगाते रहते है
अहिंसा के बीज
जिसके बारे में
तुम उतने ही अपरिचित हो
जितना कृष्ण के जन्म के बारे में
कंस था।
तुम वस्तु उत्पादक बुद्धिजीवी हो,
हम मानवीय संवेदना के चितेरे हैं।
तुम प्रगतिवाद के चौखटे और खूंटे में बंधे
पशु हो।
तुम युगबोध से बाहर नहीं ।
हम युगातीत, कालातीत परिंदे हैं।
हम ब्रह्मा,विष्णु,शिव की संतानें हैं
हमारे पूर्वज थे
साहित्याकाश के
प्रखर सूर्य और सरस शशि
बाल्मीकि,व्यास,कालिदास,तुलसी ,सूर
जिनपर हमें है सचमुच गरूर।
जिनका साहित्य ही असली साहित्य है
बाकी सब पानी के बुलबुले।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

बाबूजी के भोजपुरी गीत

सगरी मित्र लोगन के राम राम! आज एगो अपना बाबूजी के भोजपुरी गीत रंउवा सब के समर्पित करत बानी। कुछ गीत हमेशा प्रासंगिक रहेलें। जइसे इहे गीत। उहाँ के अपना पोता खातिर लिखले रहनी,आज हमरो पोता पर सटीक बइठत बा। एह रचना पर रउवा सभके प्रतिक्रिया सादर अपेक्षित बा।

डॉ मनोज कुमार सिंह

चान सरीखा फूल का अइसन,बाबू हामार आल्हर।
आव बहू! बबुआ के दे द तनी काजर।।
                  1
ममता में भींजल तहार माई गुण आगर।
मिसि के अबटि के,बिछा देली चादर।
पलना सुता के कभी,निदिया बोलावेली।
चुटकी बजाके  कुछु,मीठे मीठे गावेली।
कभी मुसुकाल,कभी ओठ बिजुकावेलs।
सुतला में सुसुकी के,माई के डेरावेलs।
कबो थोड़ा ताकि लेल,क के आँख फाँफर।
आव बहू...
                   2
आईल होइहें सपना में,लगे तहार नानी।
हँसिके सुनावत होईहें,तहके कहानी।
मोरवन के नाच के,देखावत होइहें नाना।
या कहीं सुनात होई,परियन के गाना।
तबे नू सुतलका में,खूबे मुसुकालs।
छनहीं में चिहुकेलs,छने में डेरालs,
सपना में शायद डेरवावत होई बानर।
आव बहू.......
                   3
दियवा के टेम्हिया पर,आँख गड़कावेल।
'आँऊ माँऊ'कईके कभी, माई के रिझावेल।
छनहीं में हँसि देल, छने छरियालs।
रोवेल तू काहें अइसे,केकरा से डेरालs।
तनिको बुझात नइखे,ईया के बुढ़ापा।
चुप रह बाबू काल्हु,अईहें तहार पापा।
केतना मोटा गईले,बाबा तोहार पातर।
आव बहू....
                    4
रोवनी, छरियइनी हमरा,बाबू लगे आवेना।
केहू हमरा बबुआ के,नजर लगावेना।
सुतल बाड़ें बाबू चुप ....शान से बातावेली।
कजरा के टीका के,लिलार पर लगावेली।
साटि के करेजवा,ओढ़वले बाड़ी आँचर।
आव बहू.......
                      5
बाबा ग्यानी पंडित हउवन ,ईया घर घूमनी।
नाना जी पंवरिया हउवन ,नानी हउवी चटनी।
चम् चम् चान सरीखा चमके नानी जी के बिंदिया।
भरल बजारे नाचत फिरस,नाना जी के दिदिया।
नायलोन के गंजी कच्छी टेरीकाटन जामा।
सोन चिरैया ले के अइहे बबुआ तोहार मामा।
बाबा जोतस दियरा दांदर, नाना चँवरा चाचर।
आव बहू............

रचना-अनिरुद्ध सिंह'बकलोल'
रचना तिथि-10/05/1985
ग्राम+पोस्ट-आदमपुर
थाना-रघुनाथपुर
जिला-सिवान,(बिहार)

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक ताजा गजल समर्पित है। स्नेह दीजिएगा। सादर,

               #गजल#

जिद में कभी भी आदमी,कुछ मानता नहीं।
सब जानकर भी खुद को,कभी जानता नहीं।

सच ये भी है कि,जिंदगी में स्वार्थ के बिना,
कोई किसी को आजकल,पहचानता नहीं।

मुर्दों की बस्तियों में,यूँ रहने का असर है,
अब चाहकर भी मुट्ठियाँ,मैं तानता नहीं।

बच्चा वो कैसा बच्चा,खिलौने के लिए जो,
मेले में अपनी माँ से,रार ठानता नहीं?

अच्छे बुरे का ज्ञान औ पहचान जिसे है,
जंगल,जमीन ,आसमान, छानता नहीं।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुण्डलिया

मित्रो!एक कुण्डलिया समसामयिक सियासत पर!

राम कृष्ण के देश में,मन में ले अवसाद।
ढूढ़ रहे वामी यहाँ,महिषासुर दामाद।।
महिषासुर दामाद,मिला है आज कन्हैया।
हिजड़े जैसा नाच नाचता ता ता थैया।
जूते से अब होता उसका स्वागत आम।
देशद्रोह को माफ़ नहीं करते हैं राम।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

Saturday, May 7, 2016

कविता के बहाने

कविता के बहाने 
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छंदमुक्त/मुक्तछंद  कविता को लेकर आजकल फेसबुक पर बहुत चर्चा चल रही है इस सन्दर्भ में  कुँवर नारायण की कविता ...''.बात सीधी थी पर '' पर विचार करना चाहिए जो उनके काव्य संग्रह ''कोई दूसरा नहीं ''में संकलित है |उस कविता की भी यहीं चिंता है कि अगर काव्य में काव्यानुकूल भाषा का प्रयोग न किया जाय तो कथ्य की अर्थवत्ता एवं सारगर्भिता को समाप्त कर देता है |जिस प्रकार हर पेंच के लिए एक खांचा होता है वैसे हर बात के लिए नियत शब्द होते हैं |अच्छी कविता का बनाना सही बात का सही शब्द से जुड़ना होता है |सरलता पूर्वक कहा गया कथन अधिक प्रभावशाली होता है इसके लिए  भाषा को भी समृद्ध एवं संप्रेषणीय बनाने के लिए सार्थक बिम्बों और उपमानो का प्रयोग करना पड़ता है |आज मुक्त छंद के अभिधान से जाना जाने वाला जो छंद है उसका इतिहास विदित है कि सर्व प्रथम यह अतुकांत छंदों के माध्यम से हरिऔध जी की रचनाओं में आया |इसके बाद गुप्त बंधू [मैथिलि-शियाराम ] अनूप शर्मा ,गिरधर शर्मा लोचन प्रसाद पाण्डेय आदि द्वारा प्रचार और प्रसार प्राप्त किया |वैसे मुक्त छंद के सर्व प्रथम सफल प्रभावशाली कवि निराला हैं |दूसरे कवि हैं पन्त जी |किन्तु निराला मुक्त छंद को वर्णिक छंद के अनुरूप ढाल रहे थे......[..वह तोड़ती पत्थर]  औए पन्त जी मात्रिक रूप में........[.ताक  रहे हो गगन ] |इस प्रकार मुक्त छंद उक्त दोनों प्रकार के छंदों के लयाधार पर  विकसित हुआ ,लेकिन लोगों ने मुक्त छंद के नाम पर गद्य [नीरस ]कविता का विस्तार कर अपने विचारों को कविता कहने लगे है |कविता का प्राण तत्त्व लय है जिसे किसी भी स्थिति में नकारा नहीं जा सकता |   वनस्पति तेल को घी कहकर बेचने वाले इस जमाने में तथाकथित कवि इस चिंता से क्यों मरें ......उन्हें तो नाम ,यश और वैभव की लालसा है |एक समय था जब 'काव्यशास्त्र विनोदेन  कालो गच्छति धीमताम 'वाली कहावत विद्वानों पर चरितार्थ होती थी ,परन्तु आजकल धीमताम भी काव्यशास्त्र में रूचि नहीं ले पाते |नई पीढ़ी तो काव्यांगों को तिलांजलि देकर भी विद्वान बनने का दावा करती है ........स्थिति भयावह है ,दिशाहीनता की स्थिति है .......फिर भी कुछ  सुचिंतित लोगों का सान्निध्य एक रोशनी देती है|मैं  अपनी  एक पुरानी रचना जो मुक्तछंद में है प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसे कालेज के दिनों में लिखा था .......शीर्षक है ..........
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तेरे शब्द ,मेरे शब्द
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मैं
इस नाज़ुक परिवेश में
ऐसा कोई चामत्कारिक  शब्द
नहीं रखना चाहता
जिसको सुनकर,देखकर
आप विस्मय से भर जायें
उछल जायें
तालियाँ बजाएं
और कह उठें वाह-वाह
तथा
इधर शब्द की सहजता
फाँसी चढ़ जाये
मैं दूंगा शब्द
सहज शब्द
प्रामाणिक शब्द
शब्दों के साथ पूरा वाक्य दूंगा
जो आपके चूल्हे से
चौराहे तक
सिरहाने से सपने तक
फैले -
व्यवस्था की भयानक खूनी पंजों
और दहाड़ते आतंक  के डर से
छुपे
दुबके
गुमनाम शब्दों को
तुम्हारे अंतड़ियों के
सलवटों में से बाहर निकाल कर
देंगे उन्हें आत्मबल
एक विश्वास
निर्भय होने का आचरण
युयुत्सावादी मिजाज़
एक जलता हुआ अलाव
जिसमें पकने के बाद
मेरा दावा है -
व्यवस्था की
हत्यारी साजिश  के खिलाफ
एक दिन आँखों में आँखें डाल
दे सकते हैं उनको
दो हाथ कर लेने की सहज सूचना
एक नए तेवर और नए कलेवर के साथ
तेरे शब्द ,मेरे शब्द |
                                                  डॉ मनोज कुमार सिंह
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