Saturday, January 23, 2016

कुण्डलिया

वाह रे अशोक बाजपेई जी अब आप  D lit (डी लिट् -दलित)की सियासत पर उतर आए।आपको इस कागजी डिग्री को लौटाने से अच्छा था इस ठंढ में अपना कपड़ा उतार कर किसी गरीब को दान कर देते और आपके धृतराष्ट्री आँखों पर चश्मे की क्या जरुरत,उसे किसी कमजोर नजर वाले को दान कर देते। आप की इन करतूतों से एक कुण्डलिया छलक ही आया।

पुरस्कार की वापसी , दौर  वहीं बेशर्म।
जाति धर्म के नाम पर,फिर से शुरू कुकर्म।
फिर से शुरू कुकर्म ,मालदा याद न आया।
पठानकोट का दर्द,तुम्हें झकझोर न पाया।
जान चुका है देश,चाल रंगे सियार की।
नीच सियासत,लौटाते हर पुरस्कार की।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक


                #मुक्तक#

बेटा है गर चिराग,तो बेटी है रोशनी।
स्नेहिल हृदय की चमचम,हीरे की इक कनी।
सूरज या चाँद,तारे कुछ भी कहें इन्हें,
जिस घर में बेटियाँ हैं,किस्मत का वो धनी।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक ताजा गजल हाजिर है। आपकी स्नेहमयी टिप्पणी ही मेरी उर्जा है।
              
             #गजल#

कितना मुश्किल है,बार-बार लिखना।
जख्म पाकर भी,ऐतबार लिखना।

एक सच से ही जब,तूफान आये,
क्या जरुरी ,झूठ का अम्बार लिखना।

मैं भी लिख सकता हूँ,श्रृंगार,चितवन,
मेरी फितरत ,मगर तलवार लिखना।

रोकना ठीक नहीं, गर्दो गुबार दिल का,
सुकून देता है ,ग़मे इजहार लिखना।

जिसकी चाहत हो,पुरस्कारों की,
दिल्ली दरबार की,जयकार लिखना।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे भारतमातरम्!मित्रो!आज एक मुक्तक पुनः समर्पित करता हूँ। आप सभी का स्नेह टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है।

सोने वाला कैसे जागे, मैं भी सोचूँ ,तू भी सोच।
सुस्ती आलस कैसे त्यागे,मैं भी सोचूँ ,तू भी सोच।
रिश्तों के राहों में रखकर ,नफरत,कुंठा के पत्थर,
देश बढ़ेगा कैसे आगे,मैं भी सोचूँ ,तू भी सोच।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्! मित्रो! आज एक मुक्तक सादर समर्पित कर रहा हूँ। आप सभी का स्नेह अपेक्षित है।

जिंदगी की हर परत खुशहाल हो,
सुमधुर रिश्ता रहे कोशिश रहे।
तोड़कर दीवार नफरत की सदा,
प्रेम की धारा बहे कोशिश  रहे।

डॉ मनोज कुमार सिंह

व्यंग्य गीत

आप भले ठुमके ठर्रे का ,
मजा लीजिये नेता जी।
जनता को तो कम से कम,
मत सजा दीजिये नेता जी।

सजी सैफई की महफ़िल ज्यों,
मथुरा, माया ,काशी है।
जनता की सारी दौलत,
तेरे चरणों की दासी है।
लुटा रहे दोनों हाथों,
कुछ हया कीजिए नेता जी।
जनता को तो कम से कम,
मत सजा दीजिए नेता जी।

भारी भरकम तामझाम ये ,
तेरी ताकत दिखलाए।
सुविधाओं की क्या कहने है,
इन्द्रलोक भी शरमाए।
कुछ सुख के टुकड़े जनता को,
अदा कीजिए नेता जी।
जनता को तो कम से कम,
मत सजा दीजिए नेता जी।

तेरे आशीर्वाद से ,
गुंडागर्दी पाँव पसारे है।
भ्रष्टाचारी,चोर,लुटेरों के
तो वारे न्यारे हैं।
सीधी सादी जनता पर,
कुछ दया कीजिये नेता जी।
जनता को तो कम से कम,
मत सजा दीजिये नेता जी।

डॉ मनोज कुमार सिंह







Wednesday, January 13, 2016

आलेख(सच को झुठलाना ठीक नहीं)

#सच को झुठलाना ठीक नहीं।#

वन्दे मातरम्! मित्रो!एक सच जान लीजिये कि न हम आर्थिक रूप से भिखारी हैं ,न जातिगत, न कर्मगत,न स्वभावगत, न संस्कारगत और न धर्मगत। हम गुलामों की संतान नहीं हैं। हम अपने स्वाभिमान की रक्षा की खातिर घास की रोटी खाना पसंद करते हैं, मगर गुलामी की खीर मलाई नहीं।हम दान, त्याग,संकल्प,दया,क्षमा और बलिदान की भाषा में आचरण करते हैं। डर,भय,भ्रम और पूर्वाग्रह हमारे हृदय के शब्दकोष में नहीं मिलते। हम दुर्बल,असहाय,पीड़ित लोगों की रक्षा के लिए ही इस धरती पर आये हैं।अपनी अस्मिता बचाने के लिए जौहर करने वाली माताओं की हम संताने  हैं।आज कुछ लोग हमारे अस्तित्व को मिटाने की फ़िराक में हैं। ऐसे लोगों को इस कहानी से सीख लेनी चाहिए।...

जंगल के समस्त स्यार एकत्रित होकर एक सुर में जंगल के राजा 'सिंह' को मारने की बात की। स्यारों का नेता सभी स्यारों को समझाते हुए कहा-जानते हो,अगर शेर सामने हो और उसे मारना हो तो क्या करना चाहिए? सबसे पहले शेर की आँख में आँख डालनी चाहिए फिर मूंछों पर ताव देनी चाहिए फिर आँख को धीरे धीरे लाल करनी चाहिए और फिर अचानक शेर पर आक्रमण कर देना चाहिए।स्यार यह बता हीं रहा था कि तब तक  शेर घूमता हुआ वहाँ कहीं से आया और स्यार को एक जोरदार पंजा मारा। स्यार बहुत दूर जाकर गिरा,सारे अन्य स्यार  भागकर छुप गए। शेर झूमता हुआ अपने रास्ते चला गया। फिर स्यार इकठ्ठा होकर नेता स्यार से पूछे कि आप तो बड़ी बड़ी हाँक रहे थे और शेर चाँटा मारकर चला गया और आप कुछ नहीं कर पाए। नेता स्यार ने दलील दी कि मैं अभी आँख लाल भी नहीं कर पाया था कि तब तक शेर आ गया।इसलिए मैं कुछ नहीं कर पाया। वहाँ एक बूढ़ा अनुभवी स्यार भी बैठा था। उसने स्यारों को बताया कि भाइयों जिस तरह की बात हम लोग कर रहे हैं ,वह सही नहीं है। ईश्वर ने सबको अलग अलग कार्य करने की क्षमता दी है। हम अन्य सभी कार्य कर सकते हैं लेकिन हम स्यार जाति को शेर मारने का अधिकार नहीं दिया गया है।उसने एक श्लोक के माध्यम से समझाया कि-
"शूरोsअसि,विद्योsअसि,दर्शनीयोsअसि च पुत्रक,
यस्य कुले त्वम् उत्पन्न: सिंह: तत्र न हन्यते।।"

अर्थात तुम शूरवीर हो सकते हो,विद्वान भी हो सकते हो,दार्शनिक भी हो सकते हो,लेकिन तुम जिस कुल में उत्पन्न हुए हो,वे शेर की हत्या नहीं कर सकते।

हम भी शेरदिल पूर्वजों की संतान हैं। हमें अपने पूर्वजों पर गर्व करना चाहिए।

डॉ मनोज कुमार सिंह

Sunday, January 10, 2016

गजल


बस याद नहीं वक्त,कि हम कब बदल गए।
पूर्वज थे सबके एक, बस मजहब बदल गए।

खंजर यूँ भोंकने का ,जबसे हुआ चलन,
सचमुच ही दोस्ती के ,मतलब बदल गए।

संतुष्टि,त्याग दिल से जबसे हए हैं गायब,
लिप्सा की नफासत के ,तलब बदल गए।

रौनक न रही अब वो,न खुशबू चमन में,
माली के उसूलों के ,करतब बदल गए।

इन्सां को उसके दर्द ने इंसान बनाया, 
ईमान का क्या? वो तो,जब तब बदल गए।

डॉ मनोज कुमार सिंह






Thursday, January 7, 2016

मुक्तक

वन्दे भारतमातरम्!सुप्रभात मित्रो!मालदा की घटना पर मुक्तक के रूप में चार पंक्क्तियाँ छलक पड़ीं हैं।। इन पंक्तियों पर आपकी प्रतिक्रिया सादर अपेक्षित है।

है विश्वास नहीं हारेंगे, शत्रु देश प्रहारों से।
पर कैसे जीतेंगे बोलो?,भीतर के गद्दारों से।
खंजर भोंक रही है निशदिन, मीरजाफर की औलादें,
आहत सारा देश ,विषैले मजहब के हथियारों से।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक ताजा मुक्तक आप सभी को सादर समर्पित करता हूँ। स्नेह सादर अपेक्षित है।

जिंदगी खुद को ,कहानी में ढाल देती है।
मुहब्बत पत्थर को,पानी में ढाल देती है।
जोश,जज्बा हो अगर दिल में भरा,
चाहत बुढ़ापे को,जवानी में ढाल देती है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

Wednesday, January 6, 2016

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक देश के नई पीढ़ी के नाम समर्पित कर रहा हूँ ।आपका स्नेह सादर अपेक्षित है।

दिल से भय की फितरतों को,छोड़कर आगे बढ़ो।
निर्झरों-सा पत्थरों को ,तोड़कर आगे बढ़ो।
हौसलों के पंख से ,तू नाप अपने लक्ष्य को,
विघ्न के हर नारियल को,फोड़कर आगे बढ़ो।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक मुक्तक आपके हवाले। स्नेह चाहूँगा।

सोंच अच्छी रहे तो,काफिया मिल जाते हैं।
शब्द खुश्बू की तरह,दिल से निकल आते हैं।
दर्द से लाख हो इंसान,आहत जिंदगी में,
प्यार की रौशनी में ,होंठ मुस्कुराते है।

(काफिया -तुक)

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्!मित्रो! एक ताजा गजल सादर समर्पित कर रहा हूँ। स्नेह अपेक्षित है।

वे ऊपर से कभी नीचे ,नहीं आते।
फ़रिश्ते अब जमीं पे ,नहीं आते।

जो उड़ जाते परिंदे,पंख पाकर,
लौटकर फिर शज़र पे,नहीं आते।

तनावों के शहर में द्वंद्व हो तो,
नींद के गाँव में सपने ,नहीं आते।

मेरी गलियों में लोग आते बहुत,
मगर इस भीड़ में अपने ,नहीं आते।

जबसे साजिश रची है पतझर ने,
चमन में आजकल भौंरे ,नहीं आते।

(शज़र-पेड़)

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे मातरम्! मित्रो!पठानकोट हमले में शहीद जवानों को शत शत नमन !!मेरा एक सहज प्रश्न मोदी जी से कि हमारे जवान कब तक शहीद होते रहेंगे।

मुझको नहीं समझ में ,आया मोदी जी!
क्यों कुत्तों से प्यार, जताया मोदी जी!

जिसने भोंका है खंजर ,विश्वासों पर,
उसको क्यूँ जा ,गले लगाया मोदी जी!

दूध पिला मत, आस्तीन के सांपों को,
सदा हमें जो जहर, पिलाया मोदी जी!

नाली के कीड़ों पर ,मत विश्वास करो,
घुसकर उनका करो ,सफाया मोदी जी!

फ़्रांस,रूस ने राह, दिखा दी है अब तो,
तुम भी 'पाक' की पलटो, काया मोदी जी!

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे भारतमातरम्! मित्रो! नववर्ष  के शुभारंभ पर मेरा  पहला मुक्तक  समर्पित है ,जिसके द्वारा  जिंदगी को प्रेरित करने की कोशिश है। आपका स्नेह टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है।

जिसने जितना देखा सोचा,उतना ही संसार मिला।
सबको अपने कर्मों से, हिस्से में नफरत-प्यार मिला।
लाख समंदर,पर्वत,खाई, राहों को रोके बैठे,
हिम्मत रख बढ़ने वाला ही,बाधाओं के पार मिला।

डॉ मनोज कुमार सिंह

मुक्तक

वन्दे भारतमातरम्!मित्रो! आप सभी को एक मुक्तक के साथ नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाइयाँ।

अलविदा औ स्वागतम का जश्न,हम मिलकर करें।
मन्त्र वन्दे मातरम् का जश्न ,हम मिलकर करें।
राष्ट्र का उत्थान हो,नववर्ष में ये कामना,
सुन्दरम औ श्रेष्ठतम का जश्न ,हम मिलकर करें।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गजल

वन्दे भारतमातरम्!मित्रो!आज आपके लिए  एक ताजा समसामयिक गजल समर्पित कर रहा हूँ। स्नेह सादर अपेक्षित है।

धुआँ धुआँ-सा ,मंजर आज दिखता है।
आँख खुलते हीं ,जंगलराज दिखता है।

कैसे निकलेगी अपने ,घोसले से गौरैया,
कदम-कदम पे ,हिंसक बाज दिखता है।

छूरा बंदरो के हाथ ,देकर रो रहे क्यों,
यहीं होना था निश्चित ,जो आज दिखता है।

छिनैती,अपहरण,हत्या,वसूली के लिए अब,
दुशासन-सा सुशासन का,अंदाज दिखता है।

उस अदालत में फ़रियाद से क्या फायदा,
जहाँ कातिल के सिर पे ,ताज दिखता है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहे

सुप्रभात मित्रो!दो दोहे के साथ मेरी कामना।

जीवन से सबके मिटे,गहन तमस की रात।
हो स्वर्णिम,पुष्पित हरित,सुरभित नवल प्रभात।।

इन्द्रधनुष की ले छटा,सुन्दर सजल पलाश।
उषा अधर पर राजती,स्मित ओस उजास।।

डॉ मनोज कुमार सिंह