वन्दे मातरम्!मित्रो! मेरी अभी अभी की एक रचना -कैसी है बताएँ। आपकी टिप्पणियों का इन्तजार है।
मैं आज तक
भाग हीं रहा हूँ
सत्यम शिवम् सुन्दरम की तलाश में।
जबकि ऐसी हरकत पर
सामने पड़ा एक नन्हा सा
दुधमुंहा बच्चा
मुझे देख कर
मुस्कुरा देता है।
पालथी मारे सुबह
अपनी गोद में उगे
फूलों पर पड़े ओसकण से
इन्द्रधनुषी संवाद में जब
मशगूल रहता है
तो मुझे फुरसत हीं नहीं होती है
कि इनसे पूछूँ
कि सौन्दर्य कहाँ है।
जबकि कालिदास को
पढ़ते हुए भी नहीं जान पाया
कि फूल हो या पेड़,वह अपने आप में समाप्त नहीं हैं।
वह अन्य वस्तु को दिखाने के लिए
उठी हुई उंगुली का इशारा है।
मैं अभी भी
कजरारे बादलों के पीछे पीछे
भाग हीं रहा हूँ।
पता नहीं नागार्जुन ने
हिमालय के
अपरूप जादुई आभा को देखकर
क्यों अपलक हो गए थे।
मुझे तो इतना भी नहीं पता
कि शमशेर बहादुर ने
भोर के नभ को
राख से लिपा हुआ
चौका(अभी गीला पडा है) क्यों कहा?
कवि माघ ने भी
शिशुपाल वध में
' क्षणे क्षणे यन्न्वतामुपैति तदैव रूपं रमणीयताया ' से
सौन्दर्य की एक परिभाषा रच देने की
क्यों कोशिश की।
किसी ने धीरे से
मेरे कान में फुसफुसाते हुए कहा
जो हृदय को आर्द्र कर दे
वहीँ सौन्दर्य है।
अभी मैं अमावस की
काली चादर पर
छितराए तारों से बात कर रहा हूँ।
धीमी रफ़्तार और
दबे पाँव से
पता नहीं
कहाँ से आ गई बारिश
और मेरे भीतर प्रलय मचा रही है।
कोई रोको इसे।
इसे पता नही
कि मैं सौन्दर्य की खोज में
वन,उपवन,गिरि,सानु,कुंज में
दर दर भाग रहा हूँ
आज तक।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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