Tuesday, February 4, 2014

वंदेमातरम् मित्रों! साहित्य, संगीत और कला की देवी वीणावादिनी,हंसवाहिनी माँ सरस्वती के जन्मदिन और सरस्वती पुत्र महाप्राण 'निराला'की जयंती के शुभ अवसर पर आप सभी को बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ ..............इस अवसर पर मैं एक ताज़ा गज़ल इस आशय से समर्पित करना चाहता हूँ कि मनन से मानव बनता है और चिंतन से राष्ट्र ...........तो आइए चिंतन करें .............

बुरे इस वक्त की हर बात पर, चितन करें |
सियासी घात औ प्रतिघात पर, चिंतन करें |

सियासत है जहर, फ़रजंद को माँ ने बताया था ,
पैंसठ साल की हालात पर, चिंतन करें |

मच्छर कुर्सियों पर बैठकर, हाथी बने कैसे? ,
कहाँ से आ गई औकात पर, चिंतन करें |

अभी भी मुफलिसी, मुँह फाड़कर दर -दर पे बैठी है ,
दिया किसने ये सब सैगात पर, चिंतन करें |

जो नौटंकी है चालू आज ,भ्रष्टों को मिटाने की ,
चलो सत्ता की इस शाह-मात पर, चिंतन करें |

डॉ मनोज कुमार सिंह [ फ़रजंद -बेटा]
वंदेमातरम् मित्रों !आज तीन दोहे आपको सादर समर्पित हैं .............आप सभी का स्नेह अपेक्षित है .......

धीरे-धीरे ही सही ,होता जो गतिमान |
इक दिन करता है वहीँ ,दीर्घ लक्ष्य संधान ||

जब भी होता आत्मवत् ,तन-मन से इंसान |
खुद में खुद को खोजकर ,पा लेता भगवान||

बिन पेंदी की हो गई ,नेताओं की बात |
राजनीति लगने लगी , झूठों की बरात ||

डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों !कुछ मेरी निजी व्यस्तताओं के चलते आपसे मिलना कम हो रहा है |फिर भी आपका प्यार और साहचर्य मुझे आपके बीच खीच लाता है |आज एक ताज़ा गजल आपको समर्पित कर रहा हूँ ...............आपका स्नेह अपेक्षित है .......

बीज को जिंदगी चाहिए 
|
जिंदगी को जमीं चाहिए |

फूट सकें भाव की कोपलें ,
दिल में कुछ तो नमी चाहिए |

दंभ उपलब्धियों का न हो ,
हश्र में कुछ कमी चाहिए |

हो अँधेरा भले राह में ,
रोशनी में यकीं चाहिए |

बाँट ले गैर का दर्द जो ,
ऐसा इक आदमी चाहिए |

डॉ मनोज कुमार सिंह 
वंदेमातरम् मित्रों !नववर्ष 2014 के शुभ आगमन पर आप सभी को हार्दिक
शुभकामनाएँ -दो दोहे 

नवलय ,नवगति छंद -सा ,हो यह नूतन वर्ष |
राग लिए नवगीत का ,बरसे घर-घर हर्ष ||1 ||

नवल वर्ष में प्राप्त हो ,खुशियाँ अपरंपार |
जीवन मानो यूँ लगे ,फूलों का त्यौहार ||2||

डॉ मनोज कुमार सिंह


वंदेमातरम् मित्रों !आज आप सभी को बचपन को याद करते हुए एक'' गीत ''समर्पित कर रहा हूँ जिसे गुनगुना कर पढ़ें तो मज़ा आयेगा ..............

सुन प्यार भरे बचपन तुझसे ,
जब दूर कभी हम होते हैं |
जंगल में तेरी यादों के ,
हम चुपके-चुपके रोते हैं |

1
वो खेल खिलौने आज कहाँ ?
मन की मस्ती के साज कहाँ ?
है लाखों की अब भीड़ यहाँ ,
पर अपनों की आवाज कहाँ ?
जीवन की आपाधापी में ,
रिश्तों को बस हम ढोते हैं |
जंगल में तेरी यादों के ,
हम चुपके-चुपके रोते हैं |
2
माँ के आँचल की छाँव कहाँ ?
अब पंख लगे वो पाँव कहाँ ?
अलगू से जुम्मन की यारी ,
वो अद्भुत् मेरा गाँव कहाँ ?
टूटे वीणा के तारों-सा ,
बचपन तुझको अब खोते हैं |
जंगल में तेरी यादों के ,
हम चुपके-चुपके रोते हैं |
3
वो बाग़-बगीचों की रौनक |
वो रिश्तों की असली थाती |
जीवन की उर्जा कहाँ गई ,
गुल्ली- डंडा ,ओल्हा -पाती ,
वो ख्वाब सभी लगते जैसे ,
हाथों से उड़ते तोते हैं |
जंगल में तेरी यादों के ,
हम चुपके-चुपके रोते हैं |
4
वो होली का हुडदंग कहाँ ?
मन को रंग दे वो रंग कहाँ ?
था प्यार, मुहब्बत घर जैसा ,
ऐसे अपनों का संग कहाँ ?
अब तो घातों-प्रतिघातों से ,
पाए जख्मों को धोते हैं |
जंगल में तेरी यादों के ,
हम चुपके-चुपके रोते हैं |

डॉ मनोज कुमार सिंह 
वंदेमातरम् मित्रो !आज एक भोजपुरी गीत
जिसे मैंने 'महँगाई' विषय पर 1990 में छात्र जीवन में लिखी थी,
आपको समर्पित ...............

[एगो गीत महँगाई पर [रचना काल 1990 में ]]
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तूरी दिहलस करिहाई रे महँगी के ज़माना |

रोज-रोज पेटवा के भुखिया सतावे |
बाबू पढ़े जाव नाहि पईसा अभावे |
छोटकी बबुनिया के देह पर ना कपडा ,
ओढ़नी त नईखे हमसे बडकी बतावे |
कहँवा से करी हम उपाई रे |
महँगी के ज़माना ........

गबरू जवान रहलें ,मुनिया के बाबू |
चढ़ले जवानियाँ में, थाकि गईल काबू |
छोड़ी के गईलन, जबसे कलकतवा |
अबहीं ले भेजलें ना, कवनो सनेसवा |
केकरा से दुःख, हम सुनाई रे |
महँगी के ज़माना ..............

केतना ले करीं हम, रोज मेहनतिया |
समझी ना दुनिया, ई हमरो बिपतिया |
सतुआ ले दुलम बा ,अउर का बताई ,
रोज-रोज आ जाले, कवनो अफातिया |
हम गरीबवन के, केहू ना सहाई रे |
महँगी के ज़माना ..........

बरछी सा छेदेला, माघ के बेयारिया |
फूस के पलानी बा ,खुलल दुअरिया |
कउड़ा के तापि-तापि ,राति सब बिताईं,
भूखल लईकवन के, कईसे सुताईं |
लउकत ना कवनो, उपाई रे |
महँगी के ज़माना ............

डॉ मनोज कुमार सिंह  
वंदेमातरम् मित्रों !आज पुनः एक मुक्तक आपको समर्पित कर रहा हूँ ............आपका स्नेह टिप्पणी रूप में सादर अपेक्षित है .................

आज मजबूरियों की भीड़ है ,रस्ता नहीं दिखता |
कौन इंसान है जो दर्द में पिसता नहीं दिखता |
सलीबों पे चढ़ा अपनी ख़ुशी ,मायूस बैठे सब ,
जहाँ भी देखिये ,कोई यहाँ हँसता नहीं दिखता |

डॉ मनोज कुमार सिंह