Wednesday, May 22, 2013

खुद पर नहीं भरोसा वे, नाहक की बातें करते हैं |
विश्वासों का गला घोंट कर, शक की बातें करते हैं |
जो काबिल ,त्यागी होते हैं ,सद्कर्मों की भाषा में ,
आजीवन वे मानवता हित ,हक़ की बातें करते हैं |
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डॉ मनोज कुमार सिंह

जब भी ढूंढ़ा आदमी के हौसले गायब मिले |
बढ़ के आगे जुड़ने के सिलसिले गायब मिले |
गुलिस्तां में सांप जबसे आ गए हैं दोस्तों ,
हर शज़र से परिंदों के घोंसले गायब मिले |
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डॉ मनोज कुमार सिंह 
काले धन की नींव पर ,जब भी होंगे खेल |
बिके खिलाड़ी क्यों करें ,नैतिकता से मेल |

धन -दौलत के लोभ का ,नहीं आज भी अंत |
बना दिया एक संत को ,सबसे बड़ा असंत |

इंडियन फिक्सिंग लीग है ,पैसों की बरसात |
फिर ऐसा क्यों सोचते ,करे न कोई घात |
अय्याशी ने कर दिया, चौपट सारा खेल |
करनी का फल भोगने, मुन्ना पहुँचा जेल |
मुन्ना पहुँचा जेल ,पिसने चक्की फिर से |
देगा अन्दर जाकर ,सबको झप्पी फिर से |
जेल में बैठे मुन्ना! बन संसद प्रत्याशी |
माह बयालीस बाद पुनः करना अय्याशी |
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डॉ मनोज कुमार सिंह

Monday, May 13, 2013

वजह क्या है कि ऐसा, काम करना चाहते हो |
मुझे हर वक्त क्यूँ ,बदनाम करना चाहते हो |
मिटाकर नाम मेरा, क्यूँ समय की पट्टी से ,
बिना संघर्ष अपने, नाम करना चाहते हो |
उजालों पे हमारे, पोतकर अँधेरा क्यों ,
हमारी हसरतों की, शाम करना चाहते हो |
बोकर नागफनियाँ ,जिंदगी के आँगन में ,
फूल की सेज पर, आराम करना चाहते हो |
पीठ पर दोस्ती की ,रखकर खंजर क्यों ,
हासिल इस तरह, मुकाम करना चाहते हो |
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डॉ मनोज कुमार सिंह
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आत्मा की लय पर 
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मैं बिकती हुई
दुनिया के बारे में
सोचकर
दुखी हो
भरे बाज़ार में भी 
रो सकता हूँ 
मैं सड़कों पर
पागलों की तरह दौड़ते हुए
दे सकता हूँ एक सार्थक बयान
इस दुनिया की तबाही पर
और दे सकता हूँ
चिल्ला-चिल्ला कर
समाज को भद्दी -भद्दी गालियाँ
कि क्यों नहीं दिखती तुझे
वो सभी चीजें
जो तुम्हें देखने के लिए
आँख के साथ
विवेक का चश्मा भी
उधार में दिया है ईश्वर ने
मैं अनायास ईश्वर को
गाली नहीं दे सकता
क्योंकि मैं नहीं जानता उसे
जिसे मैं जानता हूँ
वह तुम हो या कि मैं
या कि ये सब जो ठहरे हुए
सुसभ्य झीलों की तरह
सभी शहरों और दिशाओं को
जकड़े जा रहे हैं
जहाँ पाँव रखना भी
जोखिम का काम है
सूखते हुए फूलों को देख
उनके दर्द सुन
रो सकता हूँ मैं अभी
[रो रहा हूँ ]
कि भीड़ के शहर में
उद्दाम वेगवती गाड़ियों की
चपेट में आये
उस चिड़िया के बच्चे को
लगाकर छाती से
भरपूर विलाप कर सकता हूँ
वाल्मीकि की अनुष्टुप छंद की तरह
कि इन्तजार के घोसले में बैठी माँ
सदियों से ढूढ़ती है
बच्चे का पता
कि जिसमें लौटने की आहट
एक भरोसा
अभी भी मौजूद है
नहीं आने तक की प्रतीक्षा के साथ
यह बहुत बड़ी दुर्घटना
कि अपनी हीं चारपाई पर
सुरक्षित नींद की तलाश में
सदियों भटकता रहा है आदमी
जिसे पता नहीं
उसकी नींद चुरा ली किसने ?
जिसको पाने के लिए
सदियों सोया नहीं
तब मैं क्यों नहीं रो सकता
सबके सामने चिक्का फाड़
कि किस पर करें विश्वास
कि आदमी मर रहा सरेआम
गंजी सभ्यता का
भारी लबादा ओढ़कर
धीरे,धीर,धीरे
अपनी जमीन पर हीं
अपनों के हीं बीच
कि मैं क्यों नहीं रो सकता
सबके सम्मुख
क्योंकि रोना नाटक नहीं है
या सार्वजनिक रूप से
पढ़ी जाने वाली मरसिया
जिसमें छाती पीट-पीटकर
रूहानी रिश्तों को
अखबारी इश्तेहार बना दिया जाए
या किसी पडोसी की
भागी हुई लड़की की
संवेदना प्रकटती चर्चे की तरह
जिस पर चौक चौराहे की दुकानें
सुबह से शाम चटखारे लेतीं
बीच बहस में
दिनभर की थकान उतारती
जुबान लड़ाते नहीं थकतीं
या दुःख पर लिखी
कवि की कविता की तरह
जो छपती है
बिकती है
दिखती भी है
पर उसमें दुःख
नहीं होता कहीं भी
जैसे मैंगो फ्रूटी में आम
कि रोते समय एक कंधे की
जरुरत होती है
जिस पर निढाल हो आंसू
रोते हुए बहुत रोते हैं
जब तक भींग नहीं जाती
कंधे की आत्मा की जमीन
मैं ढूढ़ रहा हूँ वह जमीन
जो सुन सके सन्नाटे की चीख
दे सके ढाढस
जैसे किसी बोझ ढोते पीठ पर
मालिक द्वारा लिखे समरगाथा को
पढ़ते हुए
भाषा की आँख
उबलकर
निकलकर
लटक जाती है
क्षितिज की छाती पर
बेजुबान हतभाग्य-सा
और तब कोई शब्द
थपकियाँ देता
सुनता रहता है
बेजुबान की धड़कन की सुबकन
आत्मा की लय पर |

....................डॉ मनोज कुमार सिंह

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 सपने अक्सर टूट जाते हैं, सपनों से डर लगता है |
दुनिया के रिश्तों में अब तो, अपनों से डर लगता है |

गले लगाया था जिनको, हार समझकर जीवन में ,
बने गले की फाँस वहीं अब, गहनों से डर लगता है |

भूख,गरीबी के आँसू अब, सन्नाटों के मरुथल हैं ,
सूखती ताल-तलैया जैसे, नयनों से डर लगता है |

साँप नेवले लहूलुहान हैं ,लोग तालियाँ पीट रहे ,
देख मदारी की करतूतें ,मजमों से डर लगता है |

उंगुली पकड़ सिखाया हमने, बचपन से चलना जिसको ,
आज उसी की चाल बदलते क़दमों से डर लगता है |
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डॉ मनोज कुमार सिंह
चेतना की आग कैसे जिंदगी गरमाएगी |
नींद में चलते रहे तो सुबह कैसे आएगी |

मील का पत्थर ये साबित हो सकेगी जिंदगी ,
जब भी ये बेख़ौफ़ होकर मौत से टकराएगी |

वक्त का घोड़ा, लगामें संयमों की कस ज़रा ,
देखना दीवार भी एक रास्ता दे जाएगी |

फूल की खुश्बू क्षणिक है ,शब्द में खुश्बू रचो ,
शब्द की खुश्बू सदी तक हर दिशा महकाएगी |

आदमी के खेत में गर ,आदमी उगता रहा ,
है भरोसा इस धरा को ,हर ख़ुशी मिल जाएगी |

वक्त तो बलवान है ,उससे भी आगे की तू सोच ,
नहीं तो ये जिंदगी बेमौत हीं मर जाएगी |
......................... डॉ मनोज कुमार सिंह
कभी-कभी एक तिनका भी, भरपूर सहारा देता है |


बच्चों की खुशियाँ, जैसे कि एक गुब्बारा देता है |

खोकर भी कुछ दे जाने की, रीति अनोखी अब भी है ,

डूबकर भी सूरज दुनिया को, चाँद ,सितारा देता है |

गीत मुहब्बत के ,इंसानी रिश्तों की कुछ भेंट हमें ,

आकर मेरे गाँव आज भी, एक बंजारा देता है |

जब भी घोर अँधेरा, अपनी मनमानी करने लगता ,

एक दीप हीं अँधियारे को, चोट करारा देता है |

तूफानों ने जब भी घेरा, कश्ती को मझधारों में ,

संकल्पों का मांझी, उसको बचा किनारा देता है |

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डॉ मनोज कुमार सिंह
जाति-लिंग में बाँट-बाँट कर ,आज अदीबों की दुनिया ,


कुंठाओं से ग्रस्त यहाँ कुछ ,अपनी फितरत लिखते हैं |



दलित ,दलित कुछ चिल्लाते हैं ,औरत,औरत चिल्लाती ,


इसी बहाने कुछ तो अपनी , दिल की नफरत लिखते हैं |



आज मुहब्बत खतरे में है, इंसानों के बीच यहाँ ,


उनको क्या चिंता जो केवल, दौलत ,शोहरत लिखते हैं |



माँ ,बेटी औ बहन रूप से, औरत जबसे मुक्त हुई ,


तब से प्रगति की प्यासी, अधरों की हसरत लिखते हैं |



सुनने को तैयार नहीं, कोई भी हम दीवानों की ,


जो जीवन के धड़कन की, इक सही जरुरत लिखते हैं |

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डॉ मनोज कुमार सिंह
फैशन के नंगेपन में हम ,चैम्पियन होने लगे |
नक़ल करके आज हम योरोपियन होने लगे |
नाम पर स्वच्छंदता के ,इतनी उपलब्धि मिली ,
आचरण से लोग गे औ लेस्बियन होने लगे |
.............................डॉ मनोज कुमार सिंह