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आत्मा की लय पर
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मैं बिकती हुई
दुनिया के बारे में
सोचकर
दुखी हो
भरे बाज़ार में भी
रो सकता हूँ
मैं सड़कों पर
पागलों की तरह दौड़ते हुए
दे सकता हूँ एक सार्थक बयान
इस दुनिया की तबाही पर
और दे सकता हूँ
चिल्ला-चिल्ला कर
समाज को भद्दी -भद्दी गालियाँ
कि क्यों नहीं दिखती तुझे
वो सभी चीजें
जो तुम्हें देखने के लिए
आँख के साथ
विवेक का चश्मा भी
उधार में दिया है ईश्वर ने
मैं अनायास ईश्वर को
गाली नहीं दे सकता
क्योंकि मैं नहीं जानता उसे
जिसे मैं जानता हूँ
वह तुम हो या कि मैं
या कि ये सब जो ठहरे हुए
सुसभ्य झीलों की तरह
सभी शहरों और दिशाओं को
जकड़े जा रहे हैं
जहाँ पाँव रखना भी
जोखिम का काम है
सूखते हुए फूलों को देख
उनके दर्द सुन
रो सकता हूँ मैं अभी
[रो रहा हूँ ]
कि भीड़ के शहर में
उद्दाम वेगवती गाड़ियों की
चपेट में आये
उस चिड़िया के बच्चे को
लगाकर छाती से
भरपूर विलाप कर सकता हूँ
वाल्मीकि की अनुष्टुप छंद की तरह
कि इन्तजार के घोसले में बैठी माँ
सदियों से ढूढ़ती है
बच्चे का पता
कि जिसमें लौटने की आहट
एक भरोसा
अभी भी मौजूद है
नहीं आने तक की प्रतीक्षा के साथ
यह बहुत बड़ी दुर्घटना
कि अपनी हीं चारपाई पर
सुरक्षित नींद की तलाश में
सदियों भटकता रहा है आदमी
जिसे पता नहीं
उसकी नींद चुरा ली किसने ?
जिसको पाने के लिए
सदियों सोया नहीं
तब मैं क्यों नहीं रो सकता
सबके सामने चिक्का फाड़
कि किस पर करें विश्वास
कि आदमी मर रहा सरेआम
गंजी सभ्यता का
भारी लबादा ओढ़कर
धीरे,धीर,धीरे
अपनी जमीन पर हीं
अपनों के हीं बीच
कि मैं क्यों नहीं रो सकता
सबके सम्मुख
क्योंकि रोना नाटक नहीं है
या सार्वजनिक रूप से
पढ़ी जाने वाली मरसिया
जिसमें छाती पीट-पीटकर
रूहानी रिश्तों को
अखबारी इश्तेहार बना दिया जाए
या किसी पडोसी की
भागी हुई लड़की की
संवेदना प्रकटती चर्चे की तरह
जिस पर चौक चौराहे की दुकानें
सुबह से शाम चटखारे लेतीं
बीच बहस में
दिनभर की थकान उतारती
जुबान लड़ाते नहीं थकतीं
या दुःख पर लिखी
कवि की कविता की तरह
जो छपती है
बिकती है
दिखती भी है
पर उसमें दुःख
नहीं होता कहीं भी
जैसे मैंगो फ्रूटी में आम
कि रोते समय एक कंधे की
जरुरत होती है
जिस पर निढाल हो आंसू
रोते हुए बहुत रोते हैं
जब तक भींग नहीं जाती
कंधे की आत्मा की जमीन
मैं ढूढ़ रहा हूँ वह जमीन
जो सुन सके सन्नाटे की चीख
दे सके ढाढस
जैसे किसी बोझ ढोते पीठ पर
मालिक द्वारा लिखे समरगाथा को
पढ़ते हुए
भाषा की आँख
उबलकर
निकलकर
लटक जाती है
क्षितिज की छाती पर
बेजुबान हतभाग्य-सा
और तब कोई शब्द
थपकियाँ देता
सुनता रहता है
बेजुबान की धड़कन की सुबकन
आत्मा की लय पर |
....................डॉ मनोज कुमार सिंह
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