Tuesday, January 3, 2023

तृतीय अध्याय- छायावादी कवि 'प्रसाद' में प्रगतिशील चेतना

तृतीय अध्याय
★★★★★★

छायावादी कवि 'प्रसाद' में प्रगतिशील चेतना
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छायावादी कवि प्रसाद का हिंदी में आगमन एक नवीन दिशा का सूचक था। प्रसाद की प्रगतिशीलता समझने के लिए उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों पर प्रकाश डालना होगा। प्रसाद परंपरा के कवि हैं, संस्कृति के कवि हैं, अतीत की चिर-जीविता के कवि हैं। वह अपने परिवेश के प्रति परिवेश के समस्याओं के प्रति बहुत जागरूक थे ।पराधीन भारत की आशा, आकांक्षा और निराशा और विषाद की मिली- जुली स्वर भूमि में प्रसाद का साहित्यिक पदार्पण हुआ ।एक ओर चुनौती फेंकती युगीन समाज व राष्ट्र की परिस्थितियां दूसरी ओर उनके स्वयं के व्यक्तिगत जीवन का उथल-पुथल। जिस प्रलय का विशद चित्रण कामायनी में आता है ,उसे अनुभूति के स्तर पर देश,समाज और व्यक्तिगत जीवन के स्तर पर प्रसाद कई बार गुजर चुके थे। अपने राजनीतिक जीवन में प्रसाद पूर्ण देशभक्त थे। उन्होंने स्वयं राजनीति में सक्रिय भाग नहीं लिया,किंतु अपने विचारों में वे पूर्णतया देशप्रेमी थे।वे देश भक्ति के साथ-साथ ही सांस्कृतिक उत्थान के भी पक्षपाती थे ।अपने ऐतिहासिक नाटकों के द्वारा उन्होंने इसी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पुनरुत्थान का प्रयास किया। भारतीय संस्कृति के प्रति मोह रखते हुए भी वे रूढ़िवादी नहीं थे। जीवन में लंबे समय तक वे शुद्ध खद्दर पहनते रहे। जातिवाद छुआछूत पाखंड आदि से वे कोसों दूर थे।एक बार जब उनकी जाति के व्यक्तियों ने सभापति बना दिया, तब उन्होंने उसे ऊपरी मन से स्वीकार कर लिया और बाद में तार दे दिया कि न आ सकूंगा। वह शक्ति के उपासक होते हुए भी अहिंसा के पुजारी थे। उनकी धारणा थी कि करुणा ही मानव का कल्याण कर सकती है।प्रसाद के संपूर्ण साहित्य में करुणा-ममता का स्वर है। उन्होंने नारी उद्धार,अछूत- समस्या, रूढ़िवादिता धर्म आदि पर अपना विस्तृत विचार दिया है।


प्रसाद की हिंदी को महत्वपूर्ण देन, उनकी नारी भावना है। कवि ने नारी को शक्तिरूपा माना है ।नारी उनकी दृष्टि में केवल शारीरिक आकर्षण और सौंदर्य की वस्तु नहीं रह गई ।उन्होंने नारी को सदा आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा।वह नारी और पुरुष के मधुर संबंधों को सृष्टि का सर्वोत्तम लक्ष्य मानते हैं ।वे स्वयं  श्रद्धा के साथ स्त्रियों का विशेष आदर करते और उनका यह आदर केवल काल्पनिक या  शब्दाडंबर में नहीं , वरन उनके नित्य-प्रति के व्यवहार में प्रकट होता था ।जैसे कुछ मित्रों के साथ प्रसाद जी जब मार्ग में चलते और सामने से कुछ स्त्रियां या गंगा पुजैयावाली कुल कामिनीयों का गोल आता हुआ दिखाई देता तो वे झट मित्रों को एक दूसरे मार्ग से चलने के लिए संकेत करते और ऐसा करने में कभी- कभी मित्रों को घूम कर एक-दूसरे लंबे मार्ग से जाने में कुछ अधिक चलने का कष्ट भी करना पड़ता था।"(1)


प्रसाद जी ने जीवन भर जिस स्मृति को संजोने का प्रयास किया उसे कोई भी नहीं जान सका, यही उनके चरित्र की सबसे भारी विशेषता थी।वे साक्षात् शंकर थे,जो समस्त पीड़ा को स्वयं विष की भाँति पी लेना जानते थे। "आत्मगोपन की दुर्लभ कलात्मक क्षमता रखने वाला यह विलक्षण कलाकार आत्मगोपन की कला में भी पूर्ण पटु है।"(2)
प्रसाद जी ने हिंदी की प्रगति के विषय में कहा था कि आज हिंदी का कवि भी उसी परंपरा पर कार्य कर रहा है ,किंतु उसमें नूतनता है  आज प्रसाद मंदिर पर नागरी प्रचारिणी सभा का प्रस्तर लगा हुआ है, जो उन्हें हिंदी की नवीन शैली का प्रवर्तक कह रहा है। प्रसाद कवि से भी महान व्यक्ति थे, जिसे भलीभांति जान लेने पर उनके काव्य का पूर्ण आनंद लिया जा सकता है। 1940 में निराला जी ने आदरणीय प्रसाद जी के प्रति लिखा था--

"किया मूक को मुखर,लिया कुछ दिया अधिकतर,
पीया गरल पर किया जाति साहित्य को अमर।"
महान कवि का महान कृतित्व अध्ययन का विषय है,जिसमें उसकी चेतना निहित है। प्रेमचंद जी ने भी कहा था लेखक के पास होता ही क्या है,जिसे वह अलग अलग बांट दें। लेखक के पास तो उसकी तपस्या ही होती है ।वही सब को वह दे सकता है ।उससे सब लोग लाभ भी उठाते हैं ।लेखक तो अपनी तपस्या को अपने लिए नहीं छोड़ता और लोग जो तपस्या करते हैं वह तो अपने लिए। लेखक जो तपस्या करता है उसे जनता का कल्याण होता है। वह अपने लिए कुछ भी नहीं करता।"(3) प्रसाद जी के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनके विचार कथन और काव्य में समानता रहती थी। इसी कारण उनका साहित्य ही उनका जीवन है ।आदर्शवादी कवि ने यथार्थ भूमि पर खड़े होकर जिस सार्वभौमिक साहित्य का निर्माण अपनी कुशल तूलिका से किया है,वह आने वाली मानवता को रस देता रहेगा। इस महाकवि ने किसी परंपरा का पालन नहीं किया। उसका व्यक्तित्व और उसकी प्रतिभा ऐसी असाधारण है कि उसका अनुकरण भी संभव नहीं।

प्रसाद ने मानव के पूर्ण विकास के लिए अथक प्रयास किया मनुष्य की कमजोरियों का परिष्कार किस मनोवैज्ञानिक ढंग से करते हैं और जीवन का पूर्णत्व किस प्रकार प्राप्त हो सकता है, यह विचार उनके काव्य में देखने योग्य है। छायावाद को यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में देखने का उनका महान कार्य कैसे भुलाया जा सकता है। उनकी यथार्थवादी दृष्टि छायावादी प्रगतिशीलता को ठोस रूप प्रदान करती है ।वह केवल कल्पना व आदर्शों की संसार की वस्तु नहीं रहती। यथार्थवाद के कारण ही उन्होंने संतुलन का मार्ग अपनाया ,जिसका पूर्ण परिपाक हुआ सामरस्य के रूप में। छायावाद अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता चाहता था। इस स्वतंत्र अभिव्यक्ति के पीछे अति वैयक्तिक स्वर नहीं था। एक महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए,एक निश्चित गंतव्य तक पहुंचने के लिए स्वतंत्र राहों का निर्माण करना ही उसे अभीष्ट था। मुक्तक शैली के माध्यम से छायावादी कवि  हमें उस अनुभूत आनंद से परिचित कराना चाहता था, जिसका अनुभव उसे स्वयं अपने जीवन के व्यष्टि निरपेक्ष व साधना रक्त क्षणों में हुआ था। ऐसे गीतों का परिणाम यह होता है कि कभी सामान्य विषय से लेकर विश्व व्याप्त समस्याओं तक पहुंच जाता है।प्रसाद मानव मात्र की विसंगतियों से आकुल थे। अपने व्यक्तिगत जीवन की विडंबना का मानव जीवन की विस्तृत परिवेश में परिवर्तन कर सामरस्य भूमि की अवधारणा उनका जीवन ध्येय बन गया--

"धरणी दुख मांग रही है,आकाश छीनता सुख को,
अपने को देकर उनको, हूँ देख रहा उस मुख को।"(4)

कामायनी के 'ईड़ा' सर्ग में मनु को प्रबोधित करते हुए काम कहता है--

" कुछ मेरा हो यह राग भाग संकुचित पूर्णता है अजान,
मानस जलनिधि का  क्षुद्रयान।"(5)

और आनंद सर्ग में--
सब भेदभाव भुलवाकर,दुख सुख को दृश्य बनाता,
मानव कह रे! यह मैं हूँ, यह विश्व नीड़ बन जाता।।"(6)

प्रसाद विशुद्ध रूप से मानव चेतना को समर्पित हैं ।काव्य विकास के आरंभिक चरण में ही प्रकृति प्रेम,मानव-प्रेम और ईश्वर- प्रेम के त्रिविध संयोग में ही उन्होंने इसे स्पष्ट कर दिया था।
शाश्वत सत्य का एक छोर सामाजिक संदर्भों से जुड़ा होता है, तो उसका दूसरा छोर शाश्वत मूल्यों में अर्थ प्राप्त करता है। कामायनी की प्रतीक-योजना में समसामयिक यथार्थ की अभिव्यक्ति डॉ नामवर सिंह ने बताई है। उनके अनुसार-- प्रलय में देव संस्कृति के विध्वंसक का प्रसंग भारतीय संस्कृति के प्रतिमानों का अंग्रेजों द्वारा विध्वंस का प्रतीक है। श्रद्धा और मन का संघर्ष सन् तीस के आसपास के परिवेश में भारतीय युवा मानस का संघर्ष है। मनु के अधिनायक अथवा के मुंह में डॉ नामवर सिंह ने प्रजातंत्र और फांसी जिनके परस्पर टकराव की झलक देखी है।×××××××और इला को अर्पित मानव पलायनवादी अन्य- श्रद्धावादी मनु के विपरीत बुद्धिवादी नव पीढ़ी का प्रतीक है।"(7) कुछ विद्वतजनों के मतानुसार मनु का संघर्ष प्रसाद के स्वयं जीवन संघर्ष की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। प्रतिकार्थ में मत- वैभिन्य हो सकता है, किंतु यह निर्विवाद है कि कामायनी में समसामयिक यथार्थ भी अभिव्यक्त हुआ है। श्रद्धा द्वारा तकली काटना ,हिंसा के विरोध आदि में गांधीवाद का प्रभाव स्पष्ट है। प्रजातंत्र के लिए संघर्षरत प्रजा तत्कालीन भारतीय समाज का प्रतीक है।स्वार्थ पूर्ति-रत सत्ता मद-विह्वल अधिकार लिप्सा में अंधे मनु के प्रतिकारार्थ प्रजा का ही नहीं प्राकृतिक शक्तियां भी उठ खड़ा होती हैं-- यह स्वतंत्रता कामी भारतीय जनमानस का पक्ष समर्थन है।"(8)   इस प्रकार प्रसाद की आत्माभिव्यक्ति अपने शाश्वत व सम-सामयिक परिदृश्यों में समष्टि और जीवन यथार्थ के प्रति पर्याप्त जागरूकता का परिचय देती है ।व्यक्ति के स्तर पर पलायन ,वेदना भाव ,निर्वासन आदि की निवृत्ति होकर भी यह परोक्ष भाव में समष्टि के स्तर पर यह एक आदर्श लोक की अवधारणा है,जहां व्यक्ति और व्याप्ति दोनों के  अंतरद्वंद्वों का परिहार हो जाता है। इस दृष्टि से प्रसाद की यह कविता विशेष द्रष्टव्य है--
"ले चल वहां भुलावा देकर
मेरे नाविक धीरे-धीरे।।"(9)

इस कविता में प्रसाद ने व्यक्ति-बोध व समष्टि-बोध अपने सनातन मूल्य संदर्भ और संवेदन में उतराये हैं। अतीत के माध्यम से आत्म स्थितियों के साक्षात्कार में यह गीत बेजोड़ है। जहाँ कवि दिवा-स्वप्न की कुंठाविजड़ित एकाकी, आत्मग्रासी परिणति में चूक नहीं जाता,अपितु 'अमर जागरण' की दिशा में ले जाने की प्रार्थना करता है। प्रसाद के 'झरना' में संग्रहित रचनाओं से ही छायावाद का शुभारंभ हुआ।इसका प्रकाशन 1928 ईस्वी में हुआ था और 1914 तक की प्रसाद जी की रचनाओं का यह संग्रह है। इसमें छायावाद के विकास की प्रथम अवस्था है झरना काल में कवि अपने भाव संसार के आवश्यक उपादान ओं का संचय करता है वह स्थिरता और दृढ़ता की खोज में है-
"परिश्रम करता हूँ अभिराम, बनाता हूँ क्यारी और कुंज ।
खींचता दृगजल से सानंद, खिलेगा कभी मल्लिका पुंज।।"(10)


कवि प्रसाद ने प्रेम का दर्शन परिवर्तित व विशाल रूप में किया है।जीवन का प्रथम प्रभात उनमें गुदगुदी पैदा करता है प्रभात तो उनके जीवन में कई आए,पर यह नव-प्रभात था।आज तक कवि की मनोवृत्तियां सो रही थीं। स्वर्गीय गान से उसके प्राण स्पंदित और पुलकित हुए। नव सौंदर्य ने कवि मन को आलोकित किया--

"कैसी छवि ने बाल-अरुण सी प्रकट हो,
शून्य हृदय को नवल राग रंजीत किया।"(11)

जीवन के अमर तत्त्वों का खोजी कवि सौंदर्य प्रेरक रूप को जीवन में उतार लाना चाहता है।सौंदर्य के शोषित और स्वार्थ पंकिल रूप से कवि अनभिज्ञ है।वह सौंदर्य का जीवन में पूर्ण विकास चाहता है। जीवन पुष्प यदि अपने कली रूप में ही मुरझा जाए, तो सारा आनंद किरकिरा हो जाएगा। सच है कि विकट परिस्थितियों और जीवन का दुर्धर्ष-संघर्ष जीवन पुष्प के विकास को अवश्य अवरुद्ध कर देते हैं।इसलिए कवि लोलुप मधुप को चेतावनी देता है--

"न आशा कर तू अरे! अधीर कुसुम रज रस ले लूँगा गूँद।
फूल है नन्हा सा नादान, भरा मकरंद एक ही बूँद।।"(12)

प्रसाद के पूर्व हिंदी कवि रीतिकाल की घोर श्रृंगारिकता से सशंक और भयभीत हो गए थे।नारी के सौंदर्य का यदि अंकन हुआ भी तो वह बहुत स्थूल,बाह्य और नपा तुला। केवल ऊपरी हाव-भाव बाहरी मुद्राओं और स्थूल इंगितों के कारण शारीरिक वर्णन ही सामने आया और हृदयगत सौंदर्य नहीं।अतः उसे युग की प्रचलित काव्य दिशा को नया मोड़ देने में प्रसाद जी ने युगान्तकारी कार्य किया। अन्य कवियों ने नवीनता के नाम पर जो कुछ भी लिखा उसमें शैशवावस्था का विकास है, प्रसाद जैसी परिपक्वता नहीं। प्रसाद ने मधुर भावों की सृष्टि प्राकृतिक वर्णनों को गीतों के कलेवर में डालकर प्रस्तुत किया, जिसमें उनके हृदय की भावनाएं घनीभूत और केंद्रित होकर गेय हो उठीं। चित्र आधार की सूक्ष्म जिज्ञासा ए दिव्य सौंदर्य की ओर इंगित करती हैं उनमें प्रकृतिक ए हरम में रूपों और नारी का मनोहरता को स्थान मिला है। प्रेम पथिक में आकर प्रसाद मानव प्रेम में डूबकर तात्विक निष्कर्षों तक पहुंच जाते हैं इसमें कभी की अपनी अनुभूति और चिंतन के स्पष्ट छाप है प्रेम सुधाकर का मूर्ति करण प्रेम का आदर्श तथा गरिमा में स्वरूप अत्यधिक कलात्मक रूप में व्यक्त हुआ है कवि प्रेम के अत्यंत भव्य और उदात्त स्वरूप को सामने रखता है--

" पथिक!प्रेम की राह अनोखी,भूल भूलकर चलना है,
घनी छाँह है जो ऊपर तो नीचे कांटे बिछे हुए।"(13)

कवि का प्रेम को प्रकाश के रूप में देखना भव्य कल्पना है।कवि को प्रेम का पावन व स्थिर रूप ही अभीष्ट है।प्रेम के सुतीर्थ में स्नान करने से उसका मन उत्साह व पवित्रता से भर जाता है--

" सत्य सनातन हुआ मैं प्रेम सुतीर्थ में ,
मन पवित्र उत्साहपूर्ण-सा हो गया।"(14)

स्वच्छंदता और स्पष्टता का प्रेमी कभी अपने अंतर-बाह्य, दोनों रूपों में पूर्ण स्वतंत्र है।जीवन में वह केवल स्वस्थ कदम उठाना चाहता है ,इसीलिए किसी प्रकार की कृत्रिमता उसे सह्य नहीं है--

"दूर कृत्रिमते, यहाँ मत आ री,
यहाँ एकत्रित सरलता सारी।"(15)

कवि आडंबर रहित जीवन चाहता है। वह साफ साफ शब्दों में कहता है--

"प्रार्थना और तपस्या क्यों? पुजारी किसकी है यह भक्ति,
डरा है तू निज पापों से, उसी से करता निज अपमान।"(16)

सुधामय जीवन का पक्षपाती कवि इसलिए क्षुब्ध है कि "सुधा में मिला दिया क्यों गरल?"(17) हृदय का सौंदर्य इसी बात में है कि वह करुणा विगलित हो। सच्ची मानवता की यही निशानी है कि मानव का मानव के प्रति सद्भाव हो। हृदय की कठोरता पाशव सभ्यता का अवशेष है। कवि समस्त संसार को अनुराग की लालिमा से आच्छन्न देखना चाहता है।मानव मानव के मध्य रागात्मक संबंध स्थापित करते हुए कवि अपनी मंगल कामना का विश्व व्याप्त प्रचार चाहता है। दो हृदयों के बीच का प्रेम-प्रकाश इन पंक्तियों में विश्व प्रेम में परिणत होता है--

"अरुण हो विश्व सकल अनुराग,करुण हो निर्दय मानव चित।"(18)

हृदय की कठोरता भी एक तरह का आडंबर है,क्योंकि वह अपने मूल रूप में कोमल और सद्य है।

प्रसाद जी की रचना 'झरना' के गीतों में न रहस्यवाद है और न आध्यात्मिकता। उनका उत्स कवि के व्यक्तिगत अनुभवों में है, लेकिन उनमें वैयक्तिकता की तीव्रता भी नहीं आई। समाज कल्याण की ओर अग्रसर होने की प्रवृत्ति उनमें बराबर छलकी है।कवि अपने व्यक्तिगत  सुख-दुख, हर्ष-विषाद आदि का समाज सापेक्ष प्रसार चाहता है। जीवन में कल्याणकारी भावना एवं मंगल का इच्छुक कवि हरियाली की कामना करता है। हरियाली मंगल एवं कवि की गतिशीलता का द्योतक है, क्योंकि उसका प्रसार व्यापकता की ओर होता है,संकुचन की ओर नहीं---

"शून्य हृदय में प्रेम-जलद-माला कब फिर- फिर आवेगी?
वर्षा इन आँखों से होगी, कब हरियाली छावेगी।"(19)

प्रसाद जी के 'आँसू' का विरह न एकाकी है और न निराशा उत्पन्न करने वाला। उसके व्यापक रूप को नकारा नहीं जा सकता। छायावाद ने विरह को एक महान शक्ति के रूप में स्वीकार किया है।विरह जन्य स्थिति में मनुष्य-जीवन कर्मठ एवं साधनारत हो जाता है  वह परमुखापेक्षी होना नहीं जानता। विरह का अंत निखार और परिष्कार में होता है।कवि वेदना-ज्वाला से संसार का सारा कलुष जला देने के लिए निवेदन करता है। समस्त निर्मम संसार को मंगलमय प्रकाश देना चाहता है।कवि को विश्वास है कि हमारे आँसू हमें निष्कलुष बना डालते हैं और अश्रुओं की यह निर्मल धारा गंगा की पावन धारा से कम नहीं---

" जीवन सागर में पावन, बड़वानल की ज्वाला-सी,
यह सारा कलुष जलाकर,तुम जलो अनल बाला-सी।"(20)

'आँसू' के विरह का महत्त्व सार्वजनिक और सर्वकालिक है। वह विश्व वंद्य है।कवि प्रसाद उसको मानवता के सिर की रोली मानते हैं, जो सौभाग्य और मंगल का प्रतीक है।आँसू का झुकाव विश्व प्रेम और विश्व मानवता की ओर है। कवि की मानवीय करुणा उसकी वेदना का ही प्रतिफल है।वह वेदना की अतिशयता से निराश और जड़ नहीं बनता, और न वैराग्य की बात सोचता है, अपितु मानववादी भूमि पर वह जीवन का स्वस्थ सामंजस्य प्रस्तुत करता है। अभावों के बीच भी वह विश्वास नहीं खोता।सब का निचोड़ लेकर वह सूखे मानव जीवन को सरस बनाने का आकांक्षी है। कवि व्यक्तित्व से ऊपर उठकर अपनी वेदना को समग्र मानव गरिमा के उन्नयन हेतु सार्वभौमिकता प्रदान करता है।"बौद्ध दर्शन की करुणा जीवन के प्रति जिस वैराग्य को जन्म देती है उसी वेदना ने आंसू के प्रेमी को जीवन के रहस्य का द्वार खोल दिया। आँसू की यही सार्थकता है कि वह किसी निराशा जन्य जड़ता और  गत्यावरोध का कारण नहीं बन जाता, वरन्  कालिमा धुल जाते ही वातावरण स्वच्छ हो जाता है। कवि जीवन की गंभीरतम समस्याओं में प्रवेश करता है।"(21) कवि व्यक्तिगत पीड़ा में डूबकर हताश नहीं होता, अपनी वेदना को जीवन की स्थाई मूल्यों की प्रतिष्ठा में समर्पित कर देता है। महत्त्व की स्थापना के लिए यह लघु का त्याग है।

प्रसाद काव्य में उनके पुनरुत्थान का अथक प्रयास परिलक्षित है। दया,सहानुभूति, संवेदना आदि भावों की आज नितांत आवश्यकता है, अन्यथा आज का संघर्षपूर्ण जीवन बिना उच्च मानवीय भावों के जीने योग्य नहीं हो सकता।अश्रुधारा में वह शक्ति है कि वह पाषाण हृदय को गला कर उनमें ममता के भाव जगा सकती है। कवि प्रसाद अपने काव्य में वंचित भूखे और निराश नयनों को नहीं भूले हैं---

" फिर उन निराश नैनों की, जिनके आँसू सूखे हैं,
उस प्रलय दशा को देखा जो चिर संचित भूखे हैं।"(22)

कभी विश्व को अपने अधरों की मुस्कान दिखाता हुआ आला अधिकारी स्नेहिल मानवीय संबंध प्रतिष्ठित करना चाहता है वह इस क्षणभंगुर संसार में मानव जीवन की लालसा निराशा में ढल मल होते देखता है व्यतीत संसार को गौतम ने कार्य का जो दान दिया मानो उस दिन जगती की मंगलमय करुणा उषा बनकर प्रकट हुई थी--

"तप की तारुण्यमयी प्रतिभा, प्रज्ञा पारमिता की गरिमा,
इस व्यथित विश्व की चेतनता, गौतम सजीव बन आई थी।"(23)

कानन कुसुम में प्रसाद जी कहते हैं कि दुखों के सागर के तीर पर मानव देव अधीर बैठा है। तांडव नृत्य की स्थिति संभाव्य है, कवि इच्छा व्यक्त करता हुआ कहता है--

"दूर हो दुर्बलता के जाल,दीर्घ निश्वासों का हो अंत,
नाच रे प्रवंचना के काल, दग्ध दावानल करे दिग्रंत
तुम्हारा यौवन रहे ललाम,
नम्रते!करुणे! तुम्हें प्रणाम!"(24)

प्रसाद जी की साहित्यिक प्रगतिशीलता जीवन की गहराई में आँकी जा सकती है। "प्रसाद जी तो विकासशील और उदार सामाजिक प्रवृत्तियों के निरूपक हैं। उनकी साहित्य सृष्टि एक आशा का ही और स्वातंत्र्य प्रेम-योग की प्रतिनिधि है साहित्यिक अर्थ में उनका साहित्य प्रगतिशील है।"(25) कवि प्रसाद उन्हीं युवकों को चिरंजीवी होने की कामना करते हैं,जो कर्मण्य हैं, अछूतों के जगन्नाथ हैं, संकल्पनिष्ट हैं और जिनकी छाती खुले किवाड़ सदृश है।

कवि प्रसाद जी ने 'लहर' में अपने विचारों की परिपक्वता व सुसंयत स्वरूप का परिचय दिया है। यौवन की अंधड़ की ओर मुड़कर कवि दार्शनिक की दृष्टि से देखता है। यौवन में उच्च कक्षाओं का जन्म होता है, परंतु वे आकांक्षाएं पूर्ण नहीं हो पातीं, क्योंकि युवक की कल्पना की तीव्र उड़ान उसकी सीमित शक्ति को बहुत पीछे छोड़ जाती है। अतीत की स्मृतियां कवि के मस्तिष्क में ताजा हैं,पर वह उनकी याद में तड़पता नहीं, गंभीर मंतव्य करता है।उसकी अनुभूतियां अब बहुत ऊपर उठ गई हैं--

" तुम्हारी आंखों का बचपन,
खेलता था जब अल्हड़ खेल अजर के उर में भरा कुलेल
हारता था हँस-हँसकर मन,आह रे वह व्यतीत जीवन।"(26)

कवि केवल प्रेम वेणु की स्वर-लहरी में जीवन का गीत सुनना चाहता है और चाहता है दुख से चिर दग्ध इस संसार को प्रेम का वृंदावन बनाना।कवि जीवन का पाथेय है, विश्व मानवतावाद। दृष्टि की इस विशालता का परिचय प्रसाद जी यों देते हैं ---

"तुम हो कौन और मैं क्या हूं,इसमें क्या है धरा सुना,
मानस जलधि रहे चिर चुम्बित, मेरे क्षितिज उदार बनो।"(27)

कवि प्रसाद की मान्यता है कि प्रेम का स्वरूप परिमित और व्यक्तिबद्ध होकर विश्वव्यापी है, यही ईश्वर का स्वरूप है जहाँ सभी को समानता प्राप्त है।सुख और दुख तो जीवन का क्रम है।मानव प्रेम सर्वदा लुटाने के लिए है,प्रतिदान की इच्छा व्यर्थ है--

"पागल रे वह मिलता है कब,
उसको तो देते ही हैं सब।"(28)

आशा-निराशा के समन्वय से और वेदना और करुणा के स्निग्ध जल से कवि विश्व जीवन को निखारना चाहता है और इस संघर्षपूर्ण जर्जरित जीवन में नवप्रभातोदय की सार्थक प्रतीक्षा करता है--

अब जागो जीवन के प्रभात।
वसुधा पर ओस बने बिखरे,
हिमकन आंसू जो क्षोभ भरे,
उषा बटोरती अरुण गात।"(29)

लहर की कविताओं को पढ़ने के बाद जो असर हमारे मन पर पड़ता है उससे यह सिद्ध होता है कि कवि विश्वमंगल की भावना से ओतप्रोत है और इस पृथ्वी में नव निर्माण की कल्पना करता है, तो कभी उच्च मानवीय भावों का विश्वास व्याप्त प्रसार चाहता है। कहीं पर राष्ट्रप्रेम की प्रेरणा है, तो कहीं आशा निराशा का संतुलित स्वर। निराशा का स्वर हर कदम पर फीका पड़ा दिखाई देता है, क्योंकि जीवन के प्रति कवि पूर्ण रूप से आस्थावान है ।कैसा जीवन? यही प्रश्न मुख्य रूप से कवि के सामने आया है। वह इस नवजीवन के उपयुक्त भूमि तैयार करने में सफल होता है।'लहर' में जीवन को हर दृष्टि से देखने का प्रयास किया गया है और कवि का झुकाव स्वस्थ संतुलन की ओर स्पष्ट परिलक्षित है।आज मानव हृदय मानवोचित भावों से रिक्त हो गया है।उसमें नवज्योति का प्रकाश भरने के लिए कवि याचना करता है---

"हृदय अँधेरी झोली में, इसमें ज्योति भीख देने आओ।"(30)

जीवन के अभिनव सृजन के लिए उपादान तो वही है, पर उसका युगानुरूप रूप परिवर्तन करना कवि का अभीष्ट है। दृष्टिकोण का विशध कवि प्रसाद ने अपनाया है, क्योंकि उनके कल्पना के मूल में विश्व मानवतावाद की प्रबल प्रेरणा है।उनकी इस नव सृजन का आधार निरी काल्पनिकता नहीं है। अनुभवों की जाँच से परिपक्व विचारणा का उसके साथ सुयोग है। कवि का आशापूर्ण स्वर और नव सृजन के प्रति आस्था का एक चित्र देखें--

" बीती विभावरी जाग री ।
अंबर पनघट में डुबो रही
तारा घट उषा नागरी।"(31)

'पेशोला की प्रतिध्वनि' और 'प्रलय की छाया' में प्रसाद ने जिस प्रकार क्रमशः प्रेरणा और उद्बोधन एवं कमला के चरित्र चित्रण से श्रद्धा भक्ति उभारने का प्रयास किया है वह स्तुत्य है। प्रसाद की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने छायावाद को यथार्थ की भूमि पर प्रतिष्ठापित किया। कवि प्रसाद ने 'अशोक की चिंता' के माध्यम से विश्व कल्याण के उच्च ध्येय को ऊपर उठाया है। दुखों से संतप्त इस संसार में कवि करुणा की नदी बहाना चाहता है। इस कविता का समग्र भाव विश्व मंगल के भाव को परिलक्षित करता है।

इस प्रकार 'लहर' की तमाम कविताओं का निष्कर्ष यही है, प्रसाद जीवन में आशा आस्था को उत्पन्न करके एक संतुलन पैदा करना चाहते हैं।उनकी प्रगतिशीलता इसी बात से समझी जा सकती है कि वह एक ऐसे संसार की स्थापना करना चाहते हैं जिसमें  अधःस्वार्थ विगलित हो जाए और दया, ममता, करुणा,सहानुभूति,मनुष्यता इत्यादि मानवीय भावों का सर्वत्र साम्राज्य हो।

जहाँ तक प्रसाद के समग्र काव्य साहित्य का प्रश्न है,इससे स्पष्ट है कि उन्होंने वस्तु जगत को विकृत बनाकर प्रस्तुत करने में ही यथार्थ की इतिश्री नहीं समझी,वे आदर्श नीति, मानवीय करुणा और आत्मा के उन्नयन को भी देखते हैं ।उनकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतना उन्हें बहुजन हिताय की प्रेरणा देकर मानवीय आचारों-विचारों व आदर्शों की ओर उन्मुख करती है,जबकि "मार्क्स दर्शन जड़वादी होने के कारण करुणा,नीति आचारवाद पर विश्वास नहीं रखता। उसमें आध्यात्मिकता का स्वभावतः अभाव है।"(32) प्रसाद जी व्यक्ति के बहुमुखी प्रगति के समर्थक हैं एकांगी विकास नहीं चाहते। समाज के दलित और उपेक्षित वर्ग को ऊपर उठाकर उन्होंने समाज का गठन और निर्माण चाहा है  इसी कारण उनमें नारी जागरण का स्वर्णिम- विहान दिखलाई देता है। " सभी महान साहित्यकारों की भाँति उन्होंने अपने युग की प्रगतिशील शक्तियों को पहचाना और उन्हें अभिव्यक्ति दी।सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्थान सदैव नीचे स्तरों से होता है, इसलिए प्रसाद जी ने बहिष्कृत अपाहिजों और विशेषकर अबलाओं का साथ दिया।"(33)

वस्तुतः प्रसाद जी का काव्य मानवीय भूमि पर खड़ा है। उन्होंने मानव जीवन के सत्य को चित्रित किया है। वे पलायनवादी नहीं है। उन्होंने मानव दुख को उभारकर हमें द्रवित करते हुए उन्होंने उसे दूर करने की प्रेरणा भी दी है, अतः उनका यथार्थवाद विराट मानवता और करुणा की भूमि स्थापित करता है। संकीर्ण अर्थ में यथार्थवादी या प्रगतिशील नहीं है, या उनमें वैज्ञानिक प्रगति और भौतिकवाद नहीं है, बल्कि "प्रसाद उसी यथार्थवाद को उपादेय मानते हैं, जो लोक मंगल की भावना लेकर चले और जो वेदना और करुणा के व्यापक मानव भाव से प्रभावित हो। वह क्रांति का अग्रदूत होता है, पर केवल विध्वंस में विश्वास नहीं ।उसके लिए निर्माण की भूमि ध्वंस की भूमि से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है।"(34) कहने का तात्पर्य यह है कि मानव मूल्यों को समझ कर समस्याओं की व्यंजना और विचार करने की प्रगतिशील प्रेरणा प्रसाद में है।"कवि अपने काव्यों को मानवीय मूल्यों पर प्रस्तुत करने में सफल हुआ है।व्यष्टि से वह समष्टि पर पहुंचता है।"(35) प्रसाद की हार्दिक इच्छा निम्नलिखित पंक्तियों में द्रष्टव्य है---

मूक हो मतवाली ममता, खिले फूलों से विश्व अनंत।
चेतना बने अधीर मिलिंद, आह वहआवे विमल बसंत।।"(36)

कवि प्रसाद 'कामायनी' में मानव मात्र की शाश्वत समस्याओं का समाधान बड़ी कलात्मकता के साथ किया है।इसमें व्यष्टि से समष्टि की ओर विकास के चिह्न प्रारंभ से ही दिखाई देते हैं।जीवन की व्याख्या कामायनी के मूल में एकत्व का दर्शन है। कामायनी में शाश्वत समस्याओं का समाधान है ।यह जनजीवन और युग की प्रवृत्तियों का समग्र प्रतिनिधित्व नियमन और परिदर्शन कराने वाली कृति है ।पंद्रह सर्गों में विभाजित कामायनी मानवीय भावों पर अवलंबित है।वास्तव में कामायनी के मनु पूर्ण मानव है,जो उठते-गिरते क्रमशः गतिमान होते हैं और उसके साथ ही मानवता भी उत्कर्ष के सोपानों पर होती हुई चरम सीमा पर पहुँचती है।

प्रसाद नारी चित्रण में सर्वत्र सफल रहे हैं। कामायनी की नारी में निर्माण की शक्ति है और जीवन में संतुलन बनाए रखने की क्षमता। वह श्रद्धा,माँ, उपदेशिका, कल्याणी सब कुछ है।श्रद्धा वह शक्ति है,जो दो अतिवादों- देहात्मवाद तथा अपूर्ण आत्मवाद के द्वंद्व का शमन करके आस्तिक बुद्धि की स्थापना करती है--

एक था पूजता देह दीन
दूसरा अपूर्ण अहंता में अपने को समझ रहा प्रवीण,
××××××××××××××××××××
सचमुच मैं हूँ श्रद्धा विहीन।"(37)

मनु की आत्म स्वीकृति श्रद्धा के महत्त्व को समझने के लिए अत्यंत उपादेय है। गिरते हुए मन को श्रद्धा अनेक स्थलों पर संभालती है।संघर्ष के बाद निर्वेद की स्थिति में मनु श्रद्धा का संबल पाकर कृत्य कृत्य हो गए हैं। अंत में श्रद्धा बुद्धि समन्वित मनु सामरस्य की स्थापना करने में पूर्ण सफल हो जाते हैं। स्पष्ट है कि नारी के प्रति विशेष रागात्मक अनुभूति होने के कारण कवि ने हीं प्रेम और परिणय जैसी विभिन्न मनोवैज्ञानिक स्थितियों का काव्यात्मक विश्लेषण किया है। वस्तुतः प्रसाद ने अपनी रचनाओं में नारी को जितने उच्च पद पर प्रतिष्ठित किया है, समसामयिक साहित्य में कहीं नहीं किया गया।नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत उदार है। वह उसे सदैव अग्र भूमि पर प्रतिष्ठित करते रहे हैं।

" नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष स्रोत-सी बहा करो,जीवन के सुंदर समतल में।।"(38)

कवि का प्रगतिशील दृष्टिकोण हमेशा कर्मठ जीवन का समर्थक रहा है। उसकी निराशा जड़ता का पर्याय नहीं बनती।कवि ने वैराग्य या निवृत्ति को जीवन का सत्य कभी नहीं माना। वह व्यक्ति में इस नश्वर दीन भाव को प्रश्रय नहीं देना चाहते। प्रसाद का प्रगतिशील चिंतन सर्वदा नवीनता का आग्रह लेकर चला है। वे पुरातनता  की केंचुली उतार फेंकना चाहते हैं, क्योंकि नित-नूतनता गतिशील जीवन का पर्याय है।परिवर्तन और प्रगति का आवश्यक तत्त्व है। रूढ़ियों के प्रति कवि की कोई आस्था नहीं है। श्रद्धा इस परिवर्तनशील जगत में नित्य नूतनता को महत्त्व देती है और अगाध विश्वास के साथ आत्मसमर्पण करती है----

" दया माया ममता लो आज, मधुरिमा लो अगाध विश्वास।
हमारा हृदय रत्न निधि स्वच्छ, तुम्हारे लिए खुला है पास।"(39)

प्रसाद ने 'कामसर्ग' में अपनी प्रगतिशीलता का परिचय दिया है।उन्होंने काम को मन की स्वस्थ और विकासशील अवस्था का साधन माना है ।काम जीवन को गतिशील बनाने वाली चेतना है।श्रद्धा भी काम गोत्रजा है और काम उसे स्वयं मनु को समर्पित कर उसके सहयोग से जीवन के समस्त लाभ प्राप्त करने का संदेश देता है।काम देवताओं में वासना की आंधी उठाने वाला था किंतु प्रसाद ने यहां उसे निर्माणात्मक शक्ति के रूप में अपनी मौलिक कल्पना और प्रगतिशील विचारधारा का परिचय दिया है। वह श्रद्धा को निर्मल कामकला कह कर उसे एक वरदान के रूप में निरूपित करता है। काम ने मनु को प्रवृत्तिमूलक जीवन दृष्टि दी है। प्रसाद कभी जीवन से भागे नहीं है,वे तो कठोर कर्मठता का संदेश देते हैं ।उनके प्रगतिशील चिंतन का यह एक महत्वपूर्ण पक्ष---

" यह नीड़ मनोहर कृतियों का,यह विश्वकर्म रंगस्थल है।
है परंपरा लग रही यहाँ, ठहरा जिसमें जितना बल है।"(40)

काम के बाद वासना का जन्म लेना स्वाभाविक है। प्रसाद जी का स्वस्थ प्रगतिशील चिंतन वासना सर्ग में कहीं भी कलुषता को स्थान नहीं देता। वासना की तृप्ति के बाद कर्म भावना का जन्म होता है। यज्ञ की कामना और सोम की प्यास तीव्र होती है ।असुरों के पुरोहित 'आकुलि' और 'किलात' मनु को यज्ञ प्रेरणा देकर श्रद्धा के प्रिय पशु की बलि चढ़ाते हैं। श्रद्धा हार्दिक दुख के साथ मनु जियो और जीने दो का संदेश देती है।जीवन की सार्थकता प्रेम पूर्वक जीने और दूसरों को सुख देने में निहित है। मनु तो केवल व्यक्तिगत स्वार्थ में ही भूले हुए हैं,घोर व्यक्तिवादी हैं, किंतु प्रसाद ने श्रद्धा के द्वारा सुख को सीमित कर समष्टिगत धरातल पर मानव सेवा का जो संदेश दिया है वह चिरंतन मानव धर्म है। कवि प्रसाद की प्रगतिशीलता मार्क्सवादी चिंतन के आधार पर हिंसात्मक क्रांति पर नहीं टिकी। वह बल प्रयोग और ध्वंस द्वारा परिवर्तन नहीं चाहते ।आंतरिक परिवर्तन पर महत्त्व देते हैं ।निरीह और आश्रितों के प्रति करुणा प्रसाद जी का ही उदार प्रगतिशील चेतना का द्योतक है ।उनकी संवेदना व्यापक धरातल पर है।पशुओं से विद्रोह कैसा?फिर मनुष्य और पशु में अंतर कैसा?

'स्वप्न' सर्ग में युगीन सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्र प्रसाद ने अंकित किया है। मनु इड़ा को  अंक-शायिनी बनाना चाहते हैं।वह ज्यों ही जबरदस्ती आलिंगन करते हैं,धरती काँप उठती है, रूद्र विध्वंसकारी हो उठे। मनु को मदिरा की मादकता ने पाशविक बना दिया।  प्रजा विद्रोह कर देती है । श्रद्धा का स्वप्न सत्य बनता है और संघर्ष की स्थिति आती है  उस संघर्ष में अपने अहं के उदात्तीकरण न कर पाने के कारण भीषण जन विद्रोह हुआ और वे घायल हुए ।उसमें प्रसाद ने अत्याचार के विरुद्ध जनता के विद्रोह का बहुत स्वाभाविक चित्र उकेरा है, क्योंकि आज का जन सामान्य प्रगतिशील है, रूढ़ियों और शोषण पर अंकुश लगाता है। प्रसाद ने वर्गगत विषमताओं की व्यंजना इन शब्दों में किया है--

"श्रम भाग वर्ग बन गया जिन्हें,अपने बल का है गर्व उन्हें,
नियमों की करनी सृष्टि जिन्हें, विप्लव की करनी वृष्टि उन्हें।"(41)

इस उपर्युक्त कविता में प्रसाद जी ने वर्ग संघर्ष और उनके परिणामों का स्पष्ट संकेत दिया है कि यदि शोषितों की यह स्थिति रही तो क्रांति निश्चित है।

आनंद सर्ग में प्रसाद ने जीवन की समरसता अद्वैत भावना और आनंदवाद की प्रतिष्ठा के साथ ही इस विश्व की सत्यम् शिवम् सुंदरम् का ही प्रतिरूप बतलाया है।मनु आनंद की चरम स्थिति में सब को बतलाते हैं --

"शापित न यहाँ है कोई ,तापित पापी न यहाँ है ।
जीवन वसुधा समतल है, समरस है जो भी जहाँ है।"(42)



इसमें कवि प्रसाद ने साम्य पर आधारित नव समाज की आदर्श स्थिति का निरूपण करते हुए अपनी प्रगतिशीलता का परिचय दिया है। भौतिकता का संतुलन कर आत्मा के उन्नयन द्वारा प्रसाद जी ने समग्र मानवता को आनंद की स्थिति तक पहुंचाया है। उन्होंने मार्क्सवादी प्रगतिशीलता अपनाकर केवल अर्थसाम्य की स्थिति नहीं रखी, जीवन का सार्वत्रिक विकास सांस्कृतिक भाव भूमि पर प्रतिष्ठित किया है। उनकी प्रगतिशीलता भारतीय परंपरा के अनुरूप है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि प्रसाद का काव्य सच्चे अर्थों में प्रगतिशील है । प्रसाद ने अपने काव्य में मानव को सर्वोपरि मानकर मानवत्व को देवत्व से ऊँचा आसन दिया है। "जियो और जीने दो" का सिद्धांत अहिंसा का संदेश आज के युग की पुकार है। प्रसाद साहित्य में सतही दृष्टि से जीवन और साहित्य का ऐक्य नहीं भावनात्मक गहराई की पैठ है। साहित्यिक प्रगति का अर्थ वर्ग-संघर्ष क्रांति या साम्यवादी विचारों का समर्थन नहीं है।प्रसाद जीवन के आकर्षण और कठोर कर्म मार्ग की साधना का संकेत देते हैं। उनका मुख्य लक्ष्य "विजयिनी मानवता हो जाय"(43) है। एक ओर उनका पौरुष प्राणों का मोह त्याग करना सीखलाता है तथा दूसरी ओर उनकी मानवीय करुणा प्राणी मात्र में सम सृष्टि का संदेश देती है। नारियों का सम्मान मानवीय मूल्यों का उच्चतर विकास तथा नूतन सृजनशीलता आदि की भावना प्रसाद को निसंदेह प्रगतिशील साबित कर देती है।


संदर्भ-सूची-

1- संगम प्रसाद स्मृति अंक 18 फरवरी 1951 पृष्ठ 43
2- जागरण 31 अक्टूबर 1932
3- प्रेमचंद घर में, पृष्ठ 340
4- प्रसाद, आंसू ,पृष्ठ 49
5- तदेव, कामायनी (इड़ा सर्ग),पृष्ठ 171
6- तदेव, आनंद सर्ग, पृष्ठ 297
7- डॉ नामवर सिंह, कामायनी के प्रतीक, लेख,कामायनी: मूल्यांकन और मूल्यांकन, पृष्ठ 136 और पृष्ठ 140-141
8- देखिए कामायनी 'स्वप्न सर्ग' के अंतिम पृष्ठ पर संघर्ष सर्ग, पृष्ठ 192 से 210 तक
9- प्रसाद ,लहर, पृष्ठ 14
10- तदेव, झरना,पृष्ठ 24
11- तदेव, पृष्ठ 18
12-तदेव,पृष्ठ-21
13-प्रेम पथिक,पृष्ठ-22
14-तदेव,झरना, पृष्ठ-18
15-तदेव,पृष्ठ-77
16-तदेव,पृष्ठ-76
17-तदेव,पृष्ठ-82
18-तदेव,पृष्ठ-64
19- तदेव, पृष्ठ 37
20- प्रसाद ,आंसू ,पृष्ठ 61
21- डॉ प्रेमशंकर प्रसाद का काव्य, पृष्ठ 161
22- प्रसाद, आंसू ,पृष्ठ 78
23- प्रसाद ,लहर ,पृष्ठ 33
24- प्रसाद, कानन कुसुम,पृष्ठ 95
25- नंददुलारे वाजपेयी, जयशंकर प्रसाद प्रसाद (भूमिका)
26- प्रसाद, लहर, पृष्ठ 23
27- तदेव, पृष्ठ 10
28-तदेव,पृष्ठ 36
29-तदेव,पृष्ठ 24
30-तदेव,लहर
31-प्रसाद ,लहर,पृष्ठ19
32- विनय मोहन शर्मा, कवि प्रसाद और अन्य कृतियां
33- नंददुलारे बाजपेयी, जयशंकर प्रसाद
पृष्ठ- 2
34- डॉ राम रतन भटनागर ,प्रसाद की विचारधारा,
पृष्ठ 128
35- डॉ प्रेम शंकर,प्रसाद का काव्य,
पृष्ठ -207
36- प्रसाद ,लहर, पृष्ठ 24
37- तदेव, कामायनी, पृष्ठ 169
38-तदेव,पृष्ठ-114
39-तदेव,पृष्ठ-57
40-तदेव,पृष्ठ-83
41-तदेव,पृष्ठ-269
42-तदेव, पृष्ठ-288
43-तदेव,पृष्ठ-67

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