छायावादी कविता और प्रगतिशीलता
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छायावादी कविता में प्रगतिशीलता पर विचार करने से पूर्व हमें 'छायावाद' के बारे में कुछ जानना आवश्यक है, क्योंकि आरंभिक स्तर पर छायावाद को अनेक दृष्टिओं का सामना करना पड़ा था। उसके नामकरण के बारे में मतैक्य नहीं था, किंतु अनेक आरोपों और प्रत्यारोपों के व्यंग्य-व्यथा सहकर भी वह इतना विकसित हो गया कि अंततः उसे हिंदी का 'स्वर्ण-काल' कहा जाने लगा।आचार्य शुक्ल जो उसके पक्के विरोधी थे, उन्हें भी अपना मत बदलना पड़ा और बाद में तो छायावाद के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत कुछ उदार एवं सहिष्णु हो गया था। आचार्य शुक्ल ने ही सर्वप्रथम छायावाद पर सुव्यवस्थित ढंग से विचार किया तथा छायावाद और रहस्यवाद को समानार्थी एवं पर्याय मानते हुए उन्होंने उसकी अभिन्नता स्वीकार की। रामकुमार वर्मा ने भी छायावाद और रहस्यवाद को अभिन्न माना है। उन्होंने उन की भेदकता अस्वीकार करते हुए लिखा- "छायावाद वास्तव में हृदय की एक अनुभूति है। भौतिक संसार के क्रोड़ में प्रवेश कर अनंत जीवन के तत्त्व ग्रहण करता है और उसे हमारे वास्तविक जीवन से जोड़कर हृदय में जीवन के प्रति एक गहरी संवेदना और आशावाद प्रदान करता है। कवि को ज्ञात है कि संसार में परिव्याप्त एक महान दैवी सत्ता का प्रतिबिंब जीवन के प्रत्येक अंग पर पड़ रहा है और उसी की छाया में जीवन का पोषण हो रहा है। एक अनिर्वचनीय सत्ता कण-कण में समाई हुई है। फूल में उसी की हँसी, लहरों में उसका बाहु-बंधन, तारों में उसका संकेत,भ्रमरों में उसका गुंजन और सुख में उसकी सौम्य हँसी छिपी हुई है। इस संसार में उस दैवी सत्ता दिग्दर्शन कराने के कारण ही इस प्रकार की कविता को छायावाद की संज्ञा दी गई।"(1)
लेकिन एक दूसरा वर्ग भी है जो छायावाद और रहस्यवाद को एक-दूसरे का पर्याय न मानकर उनकी अलग-अलग व्याख्या करता है ।श्रीमती महादेवी वर्मा ने सर्वप्रथम दोनों की भिन्नता की ओर संकेत करते हुए रहस्यवाद को छायावाद की एक विशेष प्रवृत्ति के रूप में स्वीकार किया और छायावाद को प्रकृति की जीवन का उद्गीथ कहा है। आज प्रायः सभी आलोचक इन दोनों के पृथक-पृथक अस्तित्व को स्वीकार करने लगे हैं।
छायावादी कवियों ने काव्य में इस अनुभूति को विशेष महत्व प्रदान करते हुए शुक्ल जी की तथाकथित धारणा को अनुपयुक्त सिद्ध किया है। जयशंकर प्रसाद की दृष्टि में छायावाद की मूल प्रकृति "अनुभूति तथा उसकी भंगिमा है।" उन्होंने लिखा भी है- "छाया भारतीय दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्यमय प्रतीक विधान तथा उपचार वक्रता के साथ सहानुभूति की विवृति छायावाद की विशेषताएं हैं।"(2)
महादेवी वर्मा और डॉ रामकुमार वर्मा ने भी छायावाद को क्रमशः व्यक्तिगत अनुभूति और हृदय की एक अनुभूति कहकर शुक्ल जी के मत का खंडन किया है ।डॉ नगेंद्र जैसे आलोचकों ने छायावाद की भूमि को नितांत लौकिक माना है, कुंठित वासनाओं को इसका प्रेरणा स्रोत कहा है और इस कविता को रूमानी प्रवृत्तियों के पुनरुत्कर्ष की संज्ञा दी है। उनके अनुसार -"छायावाद रोमानी कविता है और दोनों की परिस्थितियों में जागरण और कुंठा का मिश्रण है।"(3) सुश्री महादेवी वर्मा की भांति डॉ नगेंद्र ने भी विद्रोह को छायावाद का मूल स्वर माना है और इसे स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह कहा है।उनके अनुसार -"छायावाद जीवन के प्रति एक विशेष प्रकार का भावात्मक दृष्टिकोण है ,जो अंतरंग और व्यक्तिगत जीवन को अपना प्रेरक प्रमुख प्रतिपाद्य बनाता है उन्होंने एक दूसरे जगह लिखा है -छायावाद की कविता प्रधानतः श्रृंगारिक है ,क्योंकि उसका जन्म हुआ है व्यक्तिगत कुंठाओं से और व्यक्तिगत कुंठाएं प्रायः काम के चारों ओर केंद्रित रहती हैं।"(4)
आचार्य शुक्ल की दृष्टि में छायावाद ऐसी चित्र-भाषा शैली है, जिसमें कथ्य गौण तथा शिल्प पक्ष प्रमुख होता है और विषय वस्तु की संकीर्णता के कारण इसे शैली संबंधी एक 'वाद' ही कहा जा सकता है ।बहुत दिनों बाद हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे निर्मूल सिद्ध किया। जिस प्रकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी छायावाद को अन्योक्ति पद्धति समझते थे, उसी तरह आचार्य शुक्ल भी उसे शैली मानते थे, जिसमें अन्योक्ति के अतिरिक्त भी कई प्रकार की शैलियों का समावेश था।
डॉ रामविलास शर्मा ने स्वतंत्र कामना को छायावाद की मूलवृति स्वीकार करते हुए उसकी उत्पत्ति का कारण भारतीय पूंजीवाद को माना है और इनके अनुसार दरबारी संस्कृति के आश्रय में बनने वाली रीतिकालीन कविता तथा सुधार वाद के आवर्त में फंसी हुई द्विवेदी युगीन कविता के विरोध में छायावादी काव्यधारा का जन्म हुआ जिसमें विप्लव विद्रोह और क्रांति की ज्वाला के साथ ही समाज में आमूलचूल परिवर्तन करने की उत्कट अभिलाषा भी थी। डॉ शर्मा ने 'छायावाद' को अपने समय का प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन कहा है, जिसमें मध्यकालीन साहित्यिक रूढ़ियों के रूप में वर्णित नायिका भेद और नख शिख वर्णन के स्थान पर नारी की वैयक्तिक भावों की व्यंजना पाई जाती है।'छायावाद' हिंदी की रोमांटिक कविता है और रहस्यवाद उसकी प्रमुख दुर्बलता। छायावादी कवि निराशावादी पलायनशील एवं वेदनाकुल है और निराशा, दीनता, वेदना ,पलायन, विजय- विद्रोह, करुणा,मृत्यु-कामना संवेदना, सांस्कृतिक उद्बोधन,रहस्य,नारी एवं प्रकृति इसकी विषयगत प्रवृत्तियाँ हैं। श्री शिवदान सिंह चौहान की भांति यह पलायनवाद को छायावाद की प्रमुख विशेषता नहीं मानते ।उन्होंने एक ओर जहाँ पलायन भावना का दर्शन किया है,वहीं दूसरी ओर विजय, विद्रोह एवं मानवतावादी स्वरों की झंकार भी सुनी है।छायावादी कवियों को पलायनवादी और प्रतिक्रियावादी कहकर लांछित करने वालों को उत्तर देते हुए उन्होंने लिखा भी है- "उसे पलायनवादी प्रतिक्रियावादी कहकर लांछित करना सरासर अन्याय है। उसमें पराजय और पलायन की भावनाएं हैं, तो विद्रोह, विजय, मानव मात्र के प्रति सहानुभूति के स्वर भी हैं।"(5)
छायावादी कविता में अभिव्यक्त सांस्कृतिक चेतना को प्रसाद और महादेवी ने भारतीय वैदिक परंपरा से सम्बद्ध किया है ,तो आचार्य शुक्ल ने विलायती प्रभाव का परिणाम कहा है ।यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो छायावादी काव्य की सांस्कृतिक चेतना का भारतेंदु एवं द्विवेदी कालीन साहित्य की चेतना से संबंध प्रतीत होता है क्योंकि दोनों के निर्माण में परंपरा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। छायावादी कवियों ने संकुचित दृष्टिकोण एवं अतिशय नियमबद्धता से निरंतर विद्रोह किया। द्विवेदी युग के विषयनिष्ट, तथ्यपरक तथा इतिवृतात्मक दृष्टिकोण के स्थान पर उसने अपने व्यक्तिनिष्ट रागात्मक दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा की।सदियों की दासता के कारण भारतीय जनता आत्मकेंद्रित होती हुई रूढ़िग्रस्त हो गई थी। पाश्चात्य साम्राज्यवादियों के आगमन ने देश में एक विराट आंदोलन उत्पन्न कर दिया था ,जिसके कारण रूढ़ियों में ग्रस्त देश की जनता पूरी शक्ति और उद्वेलन के साथ जाग उठी। पाश्चात्य शिक्षा के परिणाम स्वरूप भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग देश की दु:खदाई स्थिति के प्रति सजग हुआ और उसके व्यापक सुधार की आवश्यकता की ओर ध्यान दिया गया। इस नवीन सांस्कृतिक चेतना के कारण छायावादी कवियों ने मध्य युग के कवियों के मूल स्वर भक्ति एवं आध्यात्मिकता की साधना पद्धति को स्वीकार नहीं किया। किसी के कारण छायावादी कवियों का नारी संबंधी दृष्टिकोण भी सर्वथा नवीन और व्यापक है। भक्त कवियों ने कामिनी को साधना मार्ग की बाधक शक्ति मानकर उसकी घोर निंदा की थी ,तो रीतिकाल में उसके शरीर की ही पूजा होने लगी। छायावादी कवियों ने सर्वप्रथम नारी को मानवीय धरातल पर प्रतिष्ठित कर न केवल सहानुभूति दिखाया,बल्कि श्रद्धा की प्रतिमूर्ति कहकर उसका सम्मान भी किया। उसके 'देवी,माँ, सहचरी,प्राण' सभी रूपों का निष्ठा पूर्वक उद्घाटन किया गया। वह पुरुषों के कदम से कदम मिलाकर चलने लगी और उसे मरकर भी जीवन के दाव जीतने की प्रेरणा मिली। 'इलाहाबाद के पथ पर' पत्थर तोड़ने वाली और मैले कुचैले वस्त्रों से आवेष्ठित मिट्टी ढोने वाली नारी के प्रति भी उन्होंने अपनी सहानुभूति प्रदर्शित की। छायावादी सांस्कृतिक चेतना अध्यात्मोन्मुख होकर भी लौकिक धरातल पर अधिष्ठित रही।
छायावाद' के स्वरूप विवेचन के साथ-साथ हमें हिंदी साहित्य में विकसित होने वाले उसके इतिहास को संक्षेप में जान लेना चाहिए। हिंदी साहित्य का द्विवेदी युग सन 1901 से लेकर 1920 तक माना गया है। इससे आगे द्विवेदी जी का प्रभाव क्षीण होने लगता है और छायावादी काव्य प्रवृत्ति हिंदी काव्य की सर्व-प्रधान और सर्वाधिक सुंदर प्रकृति के रूप में काव्य जगत पर अपना वर्चस्व स्थापित करती चली जाती है। 'छायावादी' काव्य का आरंभ सन 1909 ई0 में प्रसाद द्वारा स्थापित इंदु मासिक पत्रिका के प्रकाशन से माना जाता है।आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने "इतिहास में इसका समय संवत 1975 माना है।"(6) परंतु उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि छायावादी ढंग की कविताएं तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में इससे पूर्व भी संवत 1967 के आसपास ही निकलने लगी थी। डॉ रविंद्र सहाय वर्मा दो महायुद्धों के बीच की अवधि को 'छायावाद' का काल घोषित करते हैं। उनका मत है- "हिंदी में रोमांटिसिजम या छायावाद का प्रादुर्भाव 1914 के लगभग होता है तथा 1939 में द्वितीय महायुद्ध के प्रारंभ होते हुए वह तीव्र गति से ह्रासोन्मुख होने लगता है।(7) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसका समय सन् 1920 से 1935 ईस्वी तक मानते हैं।"(8)डॉक्टर शंभूनाथ सिंह छायावाद को विद्रोही युग मानते हैं और इसका समय 1918 से 1939 तक मानते हैं।(9)
डॉ शैलकुमारी छायावाद को परिवर्तन युग कहती हैं और इसका समय सन् 1920 से 1937 तक मानती हैं।(10)
इस प्रकार इस के काल के निर्धारण में विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न काल घोषित किया है,परंतु सभी के मत में कोई विशेष अंतर नहीं है, क्योंकि किसी भी काव्यधारा का विकास धीरे-धीरे होता रहता है और विस्फोट होने पर वह लक्षित होती है। उसी प्रकार वह काव्यधारा ह्रासशील होती हुई भी बहुत काल तक चलती रहती है ।अतः छायावादी काव्यधारा भी एक समय के गर्भ में से प्रस्फुटित हुई थी और कालचक्र में दब भी गई ।वैसे छायावाद की संपूर्ण काव्य प्रवृत्तियां सन् 1920 ईस्वी तक प्रस्फुटित हो गई थीं और सन् 1940 तक यह प्रवृतियां पूर्णतया लक्षित होती हैं। अतः 1920 ईस्वी से 1940 तक छायावाद का काल रहा है।
ज्ञात सूत्रों के अनुसार जबलपुर से प्रकाशित होने वाली श्री शारदा के जुलाई दिसंबर 1920 ईस्वी तक के अंको में श्री मुकुटधर पांडेय ने 'हिंदी छायावाद' शीर्षक से चार निबंधों की एक लेख माला प्रकाशित कराई थी, इन्हें छायावादी संबंधी प्रारंभिक निबंध कहा जा सकता है ।सरस्वती पत्रिका में जून 1921 ईस्वी के अंक में छायावाद का प्रथम उल्लेख मिलता है ।'हिंदी में छायावाद' शीर्षक से यह लेख एक सुशील कुमार ने लिखा।
लेकिन सम्यक् विचार करने पर प्रसाद जी ही छायावाद के प्रथम कवि ठहरते हैं,क्योंकि उनकी 1913- 14 ई० के आसपास 'इंदु' में छायावादी ढंग की कविताएं प्रकाशित हुई थीं, जो बाद में 'कानन-कुसुम' के रूप में संग्रहित की गई ।अतः प्रसाद जी खड़ी बोली के प्रथम कवि हैं। स्वयं पंत ने भी इसे स्वीकार किया है ।उन्होंने लिखा है-" प्रसाद जी को हम हिंदी में 'छायावाद का जनक' मान सकते हैं।"(11)छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो,परंतु व्यावहारिक दृष्टि से वह प्रसाद,निराला,पंत,महादेवी वर्मा की कविताओं के लिए रूढ़ हो गया है,जो 1918 से 1936 ईo के बीच लिखी गईं।
छायावाद की सांस्कृतिक चेतना 'बहुजन हिताय' की भावना से ओत-प्रोत तथा आदर्शोन्मुख रही है। इस युग में दलित और उपेक्षित वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति है।
प्रसाद ने गूंगे ,बहरे ,लंगड़े आदि के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए अपने साहित्य में स्थान दिया है। नारी के प्रति अपार आदर एवं आस्था है। इसे लक्ष्य कर आचार्य नंददुलारे बाजपेई ने लिखा है- "सभी साहित्यकारों की भांति उन्होंने अपने युग की प्रगतिशील शक्तियों को पहचाना और उन्हें अभिव्यक्ति दी। सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्थान सदैव नीचे स्तरों से होता है,इसलिए प्रसाद जी ने बहिष्कृत और विशेषकर अबलाओं का साथ दिया।"(12) रीतिकाल का जन समुदाय अशिक्षा एवं अज्ञान के कारण अंधविश्वासी हो गया था।उसकी धार्मिकता एवं भक्ति में बाह्याडम्बर आ गया था, जिसके कारण वे धर्म के मूलतत्त्व से कटकर बाह्य-अंगों पर ही दृष्टि रखते थे। पंडे, पुजारी एवं ढोंगियों द्वारा ही उस युग का धर्म परिचालित होता था। अंधविश्वास और रूढ़िवादिता चरम सीमा पर थी, परंतु छायावाद युग में आकर नई शिक्षा एवं सांस्कृतिक नवजागरण के परिणामस्वरूप नवीन विचारधाराएं पनपने लगीं थीं,जिससे धार्मिक अंधविश्वासों एवं बाह्याडंबरों का विरोध किया जाने लगा।धर्म के नाम पर ढोंग रचने वालों के प्रति निराला ने स्पष्ट रूप से अपना आक्रोश व्यक्त किया है ।उन्होंने 'आ रे गंगा के किनारे' शीर्षक कविता में धर्म के नाम पर ठगने वाले पंडो पर व्यंग्य किया है:-
" पंडों के सुघर-सुघर घाट हैं,
तिनके के टट्टी के ठाठ हैं ,
यात्री जाते हैं, श्राद्ध करते हैं ,
कहते हैं कितने तारे।"(13)
'दान' शीर्षक कविता में उन्होंने उन अंधविश्वासी धार्मिकों का उपहास किया है, जो क्षुधार्त तो मानव को छोड़ बंदरों को पुए खिलाते हैं-
मेरे पड़ोस के वे सज्जन ,
करते प्रतिदिन सरिता-मंजन,
झोली से पुए निकाल लिए,
बढ़ते कपियों के हाथ दिए ।
देखा भी नहीं उधर फिर कर ,
जिस ओर रहा वह भिक्षु इतर।
चिल्लाया किया दूर दानव,
बोला मैं- धन्य श्रेष्ठ मानव!!(14)
धर्म के नाम पर देवी-देवताओं की बलि चढ़ाने वाली अंधविश्वासी प्रवृत्ति का भी निराला ने खुलकर विरोध किया है-
तुझे मुंड माला पहनाते,
फिर भय खाते तपते लोग,
'दयामयी' कहकर चिल्लाते,
माँ दुनिया का देखा ढोंग।(15)
प्रसाद जी ने भी पापों पर आवरण डालने के लिए प्रार्थना जैसी जीर्ण-शीर्ण परंपराओं एवं अंधविश्वासों का खंडन किया है-
प्रार्थना और तपस्या क्यों,
पुजारी किसकी है यह भक्ति।
डरा है निज पापों से,
इसी से करता निज अपमान।(16)
प्रसाद जी के अनुसार जब तक ढोंग है। यह बाह्याडंबर है। यह धर्म के मूल नहीं हैं। अतएव जीवन में ग्राह्य नहीं हैं
उनका कथन है-
तप नहीं केवल जीवन सत्य,
करुण यह क्षणिक दीन अवसाद,
सरल आकांक्षाओं से भरा
सो रहा आशा का आह्लाद।(17)
कवि वैराग्य को जीवन का सत्य या धर्म नहीं मानता ।वह कर्मठ जीवन का आकांक्षी है। पंत जी मानव को देवोत्तर बनाना चाहते हैं।वे समस्त सृष्टि को ही ईश्वर रूप मानते हैं-
जीवन के प्रति श्रद्धा, मानव के प्रति आदर, जीवो के प्रति स्नेह, यही प्रभु का पूजन है। यह समस्त संसृति ही ईश्वर की प्रतिमा है, सार रूप में वही व्याप्त है निखिल जगत में, मानव का मन ही उसका पावन मंदिर है।(18)
अतः छायावादी धर्म में मानवता की,मानव के कल्याण की भावना निहित है।बाह्याडम्बरों एवं ढोंग की भावना नहीं है। छायावादी युग में रीतियुगीन खोखले अंधविश्वासों एवं रूढ़ियों का खंडन कर धर्म का द्वार सबके लिए खोल दिया गया और बाह्याडम्बरों से लोगों को मुक्ति प्रदान की गई।
पूर्ववर्ती धार्मिक भावना इतनी संकीर्ण हो गई थी कि मानव को मानव से मिलने पर रोक लगा दी थी। उस युग के भगवान ही नहीं,भक्त भी चहारदिवारी में बंद कर दिए गए थे,परंतु छायावाद युग में इस तुच्छ भावना का अंत हुआ और मानव मानव के समीप खींच आया। पुरानी धार्मिक भावना जात-पात के भेदभाव पर आधारित थी, जबकि छायावादी धार्मिक चेतना समस्त मानवता के कल्याण का द्योतक है। वह समस्त जाति-पांति, वर्ण,धर्म से ऊपर उठकर मनुष्यत्व को स्वीकार करती है--
नहीं आज का वह हिंदु,
आज का वह मुसलमान,
आज का इसाई, सिक्ख,
आज का यह मनोभाव
आज की रूप रेखा
नहीं यह कल्पना
सत्य है मनुष्य का
मनुष्यत्व के लिए
बंद है जो दल अभी
किरण सम्पात्त से
खुल गए वे सभी।(19)
ज्ञात सूत्रों के अनुसार जबलपुर से प्रकाशित होने वाली श्री शारदा के जुलाई दिसंबर 1920 ईस्वी तक के अंको में श्री मुकुटधर पांडेय ने 'हिंदी छायावाद' शीर्षक से चार निबंधों की एक लेख माला प्रकाशित कराई थी, इन्हें छायावादी संबंधी प्रारंभिक निबंध कहा जा सकता है ।सरस्वती पत्रिका में जून 1921 ईस्वी के अंक में छायावाद का प्रथम उल्लेख मिलता है ।'हिंदी में छायावाद' शीर्षक से यह लेख एक सुशील कुमार ने लिखा।
लेकिन सम्यक् विचार करने पर प्रसाद जी ही छायावाद के प्रथम कवि ठहरते हैं,क्योंकि उनकी 1913- 14 ई० के आसपास 'इंदु' में छायावादी ढंग की कविताएं प्रकाशित हुई थीं, जो बाद में 'कानन-कुसुम' के रूप में संग्रहित की गई ।अतः प्रसाद जी खड़ी बोली के प्रथम कवि हैं। स्वयं पंत ने भी इसे स्वीकार किया है ।उन्होंने लिखा है-" प्रसाद जी को हम हिंदी में 'छायावाद का जनक' मान सकते हैं।"(11)छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो,परंतु व्यावहारिक दृष्टि से वह प्रसाद,निराला,पंत,महादेवी वर्मा की कविताओं के लिए रूढ़ हो गया है,जो 1918 से 1936 ईo के बीच लिखी गईं।
छायावाद की सांस्कृतिक चेतना 'बहुजन हिताय' की भावना से ओत-प्रोत तथा आदर्शोन्मुख रही है। इस युग में दलित और उपेक्षित वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति है।
प्रसाद ने गूंगे ,बहरे ,लंगड़े आदि के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए अपने साहित्य में स्थान दिया है। नारी के प्रति अपार आदर एवं आस्था है। इसे लक्ष्य कर आचार्य नंददुलारे बाजपेई ने लिखा है- "सभी साहित्यकारों की भांति उन्होंने अपने युग की प्रगतिशील शक्तियों को पहचाना और उन्हें अभिव्यक्ति दी। सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्थान सदैव नीचे स्तरों से होता है,इसलिए प्रसाद जी ने बहिष्कृत और विशेषकर अबलाओं का साथ दिया।"(12) रीतिकाल का जन समुदाय अशिक्षा एवं अज्ञान के कारण अंधविश्वासी हो गया था।उसकी धार्मिकता एवं भक्ति में बाह्याडम्बर आ गया था, जिसके कारण वे धर्म के मूलतत्त्व से कटकर बाह्य-अंगों पर ही दृष्टि रखते थे। पंडे, पुजारी एवं ढोंगियों द्वारा ही उस युग का धर्म परिचालित होता था। अंधविश्वास और रूढ़िवादिता चरम सीमा पर थी, परंतु छायावाद युग में आकर नई शिक्षा एवं सांस्कृतिक नवजागरण के परिणामस्वरूप नवीन विचारधाराएं पनपने लगीं थीं,जिससे धार्मिक अंधविश्वासों एवं बाह्याडंबरों का विरोध किया जाने लगा।धर्म के नाम पर ढोंग रचने वालों के प्रति निराला ने स्पष्ट रूप से अपना आक्रोश व्यक्त किया है ।उन्होंने 'आ रे गंगा के किनारे' शीर्षक कविता में धर्म के नाम पर ठगने वाले पंडो पर व्यंग्य किया है:-
" पंडों के सुघर-सुघर घाट हैं,
तिनके के टट्टी के ठाठ हैं ,
यात्री जाते हैं, श्राद्ध करते हैं ,
कहते हैं कितने तारे।"(13)
'दान' शीर्षक कविता में उन्होंने उन अंधविश्वासी धार्मिकों का उपहास किया है, जो क्षुधार्त तो मानव को छोड़ बंदरों को पुए खिलाते हैं-
मेरे पड़ोस के वे सज्जन ,
करते प्रतिदिन सरिता-मंजन,
झोली से पुए निकाल लिए,
बढ़ते कपियों के हाथ दिए ।
देखा भी नहीं उधर फिर कर ,
जिस ओर रहा वह भिक्षु इतर।
चिल्लाया किया दूर दानव,
बोला मैं- धन्य श्रेष्ठ मानव!!(14)
धर्म के नाम पर देवी-देवताओं की बलि चढ़ाने वाली अंधविश्वासी प्रवृत्ति का भी निराला ने खुलकर विरोध किया है-
तुझे मुंड माला पहनाते,
फिर भय खाते तपते लोग,
'दयामयी' कहकर चिल्लाते,
माँ दुनिया का देखा ढोंग।(15)
प्रसाद जी ने भी पापों पर आवरण डालने के लिए प्रार्थना जैसी जीर्ण-शीर्ण परंपराओं एवं अंधविश्वासों का खंडन किया है-
प्रार्थना और तपस्या क्यों,
पुजारी किसकी है यह भक्ति।
डरा है निज पापों से,
इसी से करता निज अपमान।(16)
प्रसाद जी के अनुसार जब तक ढोंग है। यह बाह्याडंबर है। यह धर्म के मूल नहीं हैं। अतएव जीवन में ग्राह्य नहीं हैं
उनका कथन है-
तप नहीं केवल जीवन सत्य,
करुण यह क्षणिक दीन अवसाद,
सरल आकांक्षाओं से भरा
सो रहा आशा का आह्लाद।(17)
कवि वैराग्य को जीवन का सत्य या धर्म नहीं मानता ।वह कर्मठ जीवन का आकांक्षी है। पंत जी मानव को देवोत्तर बनाना चाहते हैं।वे समस्त सृष्टि को ही ईश्वर रूप मानते हैं-
जीवन के प्रति श्रद्धा, मानव के प्रति आदर, जीवो के प्रति स्नेह, यही प्रभु का पूजन है। यह समस्त संसृति ही ईश्वर की प्रतिमा है, सार रूप में वही व्याप्त है निखिल जगत में, मानव का मन ही उसका पावन मंदिर है।(18)
अतः छायावादी धर्म में मानवता की,मानव के कल्याण की भावना निहित है।बाह्याडम्बरों एवं ढोंग की भावना नहीं है। छायावादी युग में रीतियुगीन खोखले अंधविश्वासों एवं रूढ़ियों का खंडन कर धर्म का द्वार सबके लिए खोल दिया गया और बाह्याडम्बरों से लोगों को मुक्ति प्रदान की गई।
पूर्ववर्ती धार्मिक भावना इतनी संकीर्ण हो गई थी कि मानव को मानव से मिलने पर रोक लगा दी थी। उस युग के भगवान ही नहीं,भक्त भी चहारदिवारी में बंद कर दिए गए थे,परंतु छायावाद युग में इस तुच्छ भावना का अंत हुआ और मानव मानव के समीप खींच आया। पुरानी धार्मिक भावना जात-पात के भेदभाव पर आधारित थी, जबकि छायावादी धार्मिक चेतना समस्त मानवता के कल्याण का द्योतक है। वह समस्त जाति-पांति, वर्ण,धर्म से ऊपर उठकर मनुष्यत्व को स्वीकार करती है--
नहीं आज का वह हिंदु,
आज का वह मुसलमान,
आज का इसाई, सिक्ख,
आज का यह मनोभाव
आज की रूप रेखा
नहीं यह कल्पना
सत्य है मनुष्य का
मनुष्यत्व के लिए
बंद है जो दल अभी
किरण सम्पात्त से
खुल गए वे सभी।(19)
अतः कवि का कथन है कि मनुष्यत्व धर्म ही सर्वोपरि है।यह श्रेष्ठ भावना सामंती युग में अलक्षित थी। धर्म और ईश्वर के संबंध में विवेकानंद ने लिखा है-" मैं उस धर्म और ईश्वर में विश्वास नहीं करता जो विधवाओं के आंसू पोछने या अनाथों को रोटी देने में असमर्थ है।"(20) विवेकानंद के इसी उद्गार से प्रभावित होकर निराला ने 'विधवा' और 'भिक्षुक' जैसी रचना की। इस प्रकार की धार्मिक भावना छायावाद के पूर्ववर्ती युग में ढूंढने पर भी प्राप्त नहीं हो सकेगी। मध्यकाल में धर्म और ईश्वर के सम्मुख मनुष्य नगण्य और क्षुद्र समझा जाता था, किंतु आधुनिक काल में ईश्वर और धर्म का स्थान मानवता और सामाजिक कल्याण की भावना ने लिया। पारलौकिक की जगह इहलौकिकता घर कर गई और मानव की मर्यादा स्थापित हुई।
उपर्युक्त विवेचना में हमें छायावादी कविता की प्रगतिशीलता देखने को मिलती है जिसमें बाह्याडंबर तथा ढोंग का विरोध किया गया तथा उसमें आत्मबल प्रदान करने की शक्ति है। साथ ही छायावादी धर्म की एक और विशेषता यह है कि उसमें जाति- पांति का भेदभाव न होकर समस्त मानवता के कल्याण की भावना समाहित है। मानव को उच्चता पर पहुंचाने वाले भाव,विचार, कर्म ही मानवता की श्रेणी में आ सकते हैं। मानव हृदय की संपूर्ण सद्भावनाएं मानवता में सन्निहित हैं,जो सर्वजन हिताय के साथ मानवीय आत्मोथान के लिए अपेक्षित है।
कोई भी कवि समाज से परांगमुख होकर काव्य-रचना नहीं कर सकता। वह सामाजिक सत्य को काव्य में अवश्य अभिव्यक्त करता है। छायावादी कवियों ने मानवीय जीवन के सत्य को रूपायित करने में सफलता प्राप्त की है।छायावाद में दीन दुखियों के प्रति दया और करुणा की भावना,शोषितों के प्रति सहानुभूति ,नारी के प्रति आदर और मुक्ति, मानव महत्ता और आत्म गौरव,समता और विश्वबंधुत्व की भावना देखी जाती है। युग- युग में पुरुषों की परतंत्रता की बेड़ी में जकड़ी हुई नारी को इस युग में मुक्ति की घोषणा की गई। छायावादी कवियों ने नारी स्वातंत्र्य की पुकार मचाई तथा भोग्या के संकीर्ण पर्दा को हटाकर उसे सौंदर्य और शक्ति की देवी माना।यही कारण है कि इस युग की नारी रीति-युगीन भोग्या का पद छोड़ अर्धांगिनी के पद पर सुशोभित हुई।वह पुरुष की सहायिका और सहचरी बन गई। छायावादी कवियों ने नारी मुक्ति का आह्वान उच्च स्वर में किया है।नारी मुक्ति का जयघोष करते हुए पंत प्रगतिशील दिखाई पड़ते हैं-
मुक्त करो नारी को मानव।
चिर बंदिनी नारी को
युग-युग की बर्बर कारा से,
जननि, सखी प्यारी को।
××××××××××××××××××
उसे मानवी का गौरव दे
पूर्ण सत्य दो नूतन,
उसका मुख जग का प्रकाश हो,
उठे अंध अवगुंठन।"(20)
छायावादी कवियों ने एक कुत्सित लिंग विभाजन को नष्ट कर उसे पुरुषों के समान अधिकार देने की घोषणा की। पंत ने स्पष्ट रूप से लिखा है-
योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवीय प्रतिष्ठित।
उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित।"(21)
निराला नारी की मांसलता को भी उदात्तता के स्तर पर ले जाते हैं-
"(प्रिय)यामिनी जागी।
अलस पंकज-दृग,अरुण-मुख तरुण अनुरागी।"(22)
फिर नारी की वासना की मुक्ति ,मुक्ता त्याग में ताजी के रूप में देखते हैं।
इस प्रकार छायावाद युग में नारी मुक्ति और नारों के समान अधिकार प्रदान करने तथा नर नारी विभेद को समाप्त कर उसे मानवीय धरातल पर प्रस्तुत करना छायावादी कवियों की प्रगतिशीलता को दर्शाता है। छायावादी कवि मानव समानता का आकांक्षी है। वहाँ सुख-दुख को समान रूप से आपस में बँटवारा करना चाहता है। यह उदात्त मानवतावादी भावना विश्व बंधुत्व में परिणत होती है।छायावादी युग में व्यष्टि सुख की अपेक्षा समष्टि सुख की महत्ता प्रदान की गई है। मानव सेवा को सर्वोपरि माना गया है। कामायनी में श्रद्धा द्वारा प्रसाद जी ने कहलवाया है--
" औरों को हँसते देखो मनु
हँसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो,
सब को सुखी बनाओ।"(24)
छायावादी कवि संपूर्ण वर्ण जाति के संकुचित घेरे से बाहर निकलकर समानता की आकांक्षा करता है-
"दूर हो अभिमान संशय
वर्ण आश्रम-गत महाभय ,
जाति जीवन हो निरामय,
वह सदाशयता प्रखर दो।"(25)
छायावादी कवि जाति -भेद के विरुद्ध था। वह मानवता का पुजारी था,इसलिए वह संपूर्ण मानव को एक समान देखने का इच्छुक है ।यही कारण है कि वह अमीरों की हवेली को किसानों की पाठशाला बनाना चाहता है, जिसमें जाति-भेद नहीं है। छायावादी कवि सर्वत्र सुख-दुख का मिश्रण कर समानता चाहता है। कवि की आकांक्षा है--
"जग पीड़ित है अति दुख से
जगह पीड़ित रे अति सुख से
मानव जग में बँट जाएँ,
दुख-सुख से और सुख-दुख से।"(26)
निराला ने भी समाजवादी भावना की अभिव्यक्ति की है। उनके स्पष्ट उक्ति है--
" भेद कुल खुल जाय तो सूरत तुम्हारे दिल में है ।
देश को मिल जाय जो पूँजी तुम्हारे मिल में है।"(27)
छायावादी काव्य धारा में प्रवाहित होती हुई मानवतावाद की तीसरी विशेषता शोषितों के प्रति सहानुभूति,दीन-दुखियों के प्रति करुणा एवं आदर भावना है। छायावादी कवि सत्य और न्याय का समर्थक है। वह पीड़ितों के प्रति सहानुभूति प्रकट करता है और गरीब किसान, मजदूर, विधवा एवं पिछड़े वर्ग को संबल देता है। उनका काव्य विराट मानवता और लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत है। कवि प्रसाद का संदेश है--
" शक्ति के विद्युतकण जो व्यस्त,
विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय,
समन्वय उसका करे समस्त,
विजयनी मानवता हो जाय।।"(28)
निराला के काव्य में युग-युग से शोषित पीड़ित एवं अभावग्रस्त व्यक्तियों के लिए आधार करुणा है। यह मानवीय करुणा ही उन्हें क्रांतिकारी बना देती है। निराला ने जन- सामान्य की आंखों से बहने वाले आँसुओं में दुख देने का अनुभव किया था और वह पीड़ा भी उनके काव्य में व्यंग्य रूप में प्रस्फुटित हुई है। पूर्ववर्ती कवियों ने मानव की दुर्दशा पर आँसू बहाए थे,परंतु मूल कारणों की ओर लोगों का ध्यान नहीं गया था। निराला ने इस सामाजिक वैषम्य से उत्पन्न स्थिति का चित्रण 'दान' 'वह तोड़ती पत्थर' आदि कविताओं के माध्यम से किया है। भिक्षुक में नर कंकाल का चित्रण करते हुए लिखते हैं कि--
वह आता
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता ,
पेट-पीठ दोनों मिलकर है एक,
चल रहा कुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को,
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता-
दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।"(29)
उपर्युक्त विवेचना में हमें छायावादी कविता की प्रगतिशीलता देखने को मिलती है जिसमें बाह्याडंबर तथा ढोंग का विरोध किया गया तथा उसमें आत्मबल प्रदान करने की शक्ति है। साथ ही छायावादी धर्म की एक और विशेषता यह है कि उसमें जाति- पांति का भेदभाव न होकर समस्त मानवता के कल्याण की भावना समाहित है। मानव को उच्चता पर पहुंचाने वाले भाव,विचार, कर्म ही मानवता की श्रेणी में आ सकते हैं। मानव हृदय की संपूर्ण सद्भावनाएं मानवता में सन्निहित हैं,जो सर्वजन हिताय के साथ मानवीय आत्मोथान के लिए अपेक्षित है।
कोई भी कवि समाज से परांगमुख होकर काव्य-रचना नहीं कर सकता। वह सामाजिक सत्य को काव्य में अवश्य अभिव्यक्त करता है। छायावादी कवियों ने मानवीय जीवन के सत्य को रूपायित करने में सफलता प्राप्त की है।छायावाद में दीन दुखियों के प्रति दया और करुणा की भावना,शोषितों के प्रति सहानुभूति ,नारी के प्रति आदर और मुक्ति, मानव महत्ता और आत्म गौरव,समता और विश्वबंधुत्व की भावना देखी जाती है। युग- युग में पुरुषों की परतंत्रता की बेड़ी में जकड़ी हुई नारी को इस युग में मुक्ति की घोषणा की गई। छायावादी कवियों ने नारी स्वातंत्र्य की पुकार मचाई तथा भोग्या के संकीर्ण पर्दा को हटाकर उसे सौंदर्य और शक्ति की देवी माना।यही कारण है कि इस युग की नारी रीति-युगीन भोग्या का पद छोड़ अर्धांगिनी के पद पर सुशोभित हुई।वह पुरुष की सहायिका और सहचरी बन गई। छायावादी कवियों ने नारी मुक्ति का आह्वान उच्च स्वर में किया है।नारी मुक्ति का जयघोष करते हुए पंत प्रगतिशील दिखाई पड़ते हैं-
मुक्त करो नारी को मानव।
चिर बंदिनी नारी को
युग-युग की बर्बर कारा से,
जननि, सखी प्यारी को।
××××××××××××××××××
उसे मानवी का गौरव दे
पूर्ण सत्य दो नूतन,
उसका मुख जग का प्रकाश हो,
उठे अंध अवगुंठन।"(20)
छायावादी कवियों ने एक कुत्सित लिंग विभाजन को नष्ट कर उसे पुरुषों के समान अधिकार देने की घोषणा की। पंत ने स्पष्ट रूप से लिखा है-
योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवीय प्रतिष्ठित।
उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित।"(21)
निराला नारी की मांसलता को भी उदात्तता के स्तर पर ले जाते हैं-
"(प्रिय)यामिनी जागी।
अलस पंकज-दृग,अरुण-मुख तरुण अनुरागी।"(22)
फिर नारी की वासना की मुक्ति ,मुक्ता त्याग में ताजी के रूप में देखते हैं।
इस प्रकार छायावाद युग में नारी मुक्ति और नारों के समान अधिकार प्रदान करने तथा नर नारी विभेद को समाप्त कर उसे मानवीय धरातल पर प्रस्तुत करना छायावादी कवियों की प्रगतिशीलता को दर्शाता है। छायावादी कवि मानव समानता का आकांक्षी है। वहाँ सुख-दुख को समान रूप से आपस में बँटवारा करना चाहता है। यह उदात्त मानवतावादी भावना विश्व बंधुत्व में परिणत होती है।छायावादी युग में व्यष्टि सुख की अपेक्षा समष्टि सुख की महत्ता प्रदान की गई है। मानव सेवा को सर्वोपरि माना गया है। कामायनी में श्रद्धा द्वारा प्रसाद जी ने कहलवाया है--
" औरों को हँसते देखो मनु
हँसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो,
सब को सुखी बनाओ।"(24)
छायावादी कवि संपूर्ण वर्ण जाति के संकुचित घेरे से बाहर निकलकर समानता की आकांक्षा करता है-
"दूर हो अभिमान संशय
वर्ण आश्रम-गत महाभय ,
जाति जीवन हो निरामय,
वह सदाशयता प्रखर दो।"(25)
छायावादी कवि जाति -भेद के विरुद्ध था। वह मानवता का पुजारी था,इसलिए वह संपूर्ण मानव को एक समान देखने का इच्छुक है ।यही कारण है कि वह अमीरों की हवेली को किसानों की पाठशाला बनाना चाहता है, जिसमें जाति-भेद नहीं है। छायावादी कवि सर्वत्र सुख-दुख का मिश्रण कर समानता चाहता है। कवि की आकांक्षा है--
"जग पीड़ित है अति दुख से
जगह पीड़ित रे अति सुख से
मानव जग में बँट जाएँ,
दुख-सुख से और सुख-दुख से।"(26)
निराला ने भी समाजवादी भावना की अभिव्यक्ति की है। उनके स्पष्ट उक्ति है--
" भेद कुल खुल जाय तो सूरत तुम्हारे दिल में है ।
देश को मिल जाय जो पूँजी तुम्हारे मिल में है।"(27)
छायावादी काव्य धारा में प्रवाहित होती हुई मानवतावाद की तीसरी विशेषता शोषितों के प्रति सहानुभूति,दीन-दुखियों के प्रति करुणा एवं आदर भावना है। छायावादी कवि सत्य और न्याय का समर्थक है। वह पीड़ितों के प्रति सहानुभूति प्रकट करता है और गरीब किसान, मजदूर, विधवा एवं पिछड़े वर्ग को संबल देता है। उनका काव्य विराट मानवता और लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत है। कवि प्रसाद का संदेश है--
" शक्ति के विद्युतकण जो व्यस्त,
विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय,
समन्वय उसका करे समस्त,
विजयनी मानवता हो जाय।।"(28)
निराला के काव्य में युग-युग से शोषित पीड़ित एवं अभावग्रस्त व्यक्तियों के लिए आधार करुणा है। यह मानवीय करुणा ही उन्हें क्रांतिकारी बना देती है। निराला ने जन- सामान्य की आंखों से बहने वाले आँसुओं में दुख देने का अनुभव किया था और वह पीड़ा भी उनके काव्य में व्यंग्य रूप में प्रस्फुटित हुई है। पूर्ववर्ती कवियों ने मानव की दुर्दशा पर आँसू बहाए थे,परंतु मूल कारणों की ओर लोगों का ध्यान नहीं गया था। निराला ने इस सामाजिक वैषम्य से उत्पन्न स्थिति का चित्रण 'दान' 'वह तोड़ती पत्थर' आदि कविताओं के माध्यम से किया है। भिक्षुक में नर कंकाल का चित्रण करते हुए लिखते हैं कि--
वह आता
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता ,
पेट-पीठ दोनों मिलकर है एक,
चल रहा कुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को,
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता-
दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।"(29)
भिक्षुक के प्रति कवि हृदय में दया,स्नेह और करुणा है। मुट्ठी भर दाने के लिए तरसती हुई दीनता आंसुओं की घूंट पीकर भाग्य विधाता की ओर साकार रूप में खड़ी है।जूठी पत्तल को भी कुत्ते छीन झपट लेना चाहते हैं। कवि भिक्षुक के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करता हुआ कहता है कि--
"ठहरो अहो मेरे हृदय में है अमृत मैं सींच दूंगा।
×××××××××××××××××××××××××××
तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूंगा।"(30)
कवि ने क्रंदन और अभावग्रस्त अशांत स्वर को वाणी दिया है।'दीन' शीर्षक कविता मानव हृदय को झकझोर देने में सफल है। कवि मानव समाज का सेवक है। वह समाज के शोषण के प्रति क्रांति का आह्वान करता है और इसके लिए विप्लव के वीर बादल को आमंत्रित करता है। 'जागो फिर एक बार' कविता में कवि दीन भाव को नश्वर मानता है। कवि का आग्रह है कि वह व्यथित संसार की पीड़ा को दूर करें---
माँ मुझे वहाँ तू ले चल,
देखूंगा वह द्वार,
दिवस का पार--
मूर्छित हुआ पड़ा है जहाँ,
वेदना का संसार।"(31)
इस प्रकार देखते हैं कि निराला के काव्य की प्रगतिशीलता का मूल स्वर मानवतावादी भावना है, जिसका मूल्यांकन करते हुए डॉक्टर भगीरथ मिश्र ने लिखा है--" मानवता धर्म ही निराला जी का सहज धर्म रहा है। निराला जी का समस्त काव्य इस मानव धर्म की व्याख्या,स्थापना और विकास का जन-जन के कल्याण का मार्ग खोलने की अमर गाथा है। उनका समस्त जीवन-दर्शन ही मानवतावादी था।"(32)
पंत जी 'युगांत', 'युगवाणी' और 'ग्राम्या' में मानवता की लहर काफी ऊँची है।'युगांत' में नई जागृति और क्रांति है। कवि ने स्वीकार किया है, 'युगांत' की क्रांति भावना में आवेश है और नवीन मनुष्य के प्रति संकेत। नवीन सत्य के प्रति मेरे मन का आकर्षण अधिक वास्तविक मन नवीन मानवता के रूप में प्रस्फुटित होने लगता है।"(33) पंत जी की यह रचनाएं क्रांति भावना के साथ ही मानवतावादी भूमि पर स्थित हैं। युगवाणी में मध्ययुगीन संकीर्ण नैतिकता का विरोध तथा नवीन जागरण का संदेश है। कवि वर्गहीन और शोषणहीन समाज की स्थापना करना चाहता है।वह साम्यवाद का समर्थक है ग्राम्या में ग्राम्य जीवन और ग्राम-संस्कृति की अभिव्यक्ति की गई है तथा ग्रामीणों की दबी आत्मा के स्वर को मुखरित किया गया है। तात्पर्य यह है कि पंत के काव्य में नव मानवता और नवानुभूतियों का संगीत सुरक्षित है। चिदंबरा की भूमिका में उन्होंने लिखा है---" हमारे साहित्य में जीवन यथार्थ की धारणा इतनी एकांगी, खोखली तथा रुग्ण हो गई है कि हमें शोषित,जर्जर और लघु मानव के ऋण चित्रण में ही कलात्मक परितृप्ति मिलती है।"(34)
पंत जी वर्ग संघर्ष तथा रक्त क्रांति की अपेक्षा मानव चेतना के समस्त पहलुओं का उचित संतुलन सांस्कृतिक दृष्टिकोण से चाहते हैं। कवि कोकिल के पाचक कण बरसाकर जीर्ण शीर्ण रूढ़ियों को नष्ट करने की याचना करता है ,क्योंकि पुरानी संकीर्णता में उसका दम घुट रहा था। अतः सामाजिक जीवन की संकीर्णता का अंत करना चाहता है और नवीन मानवता का आवाहन---
गा कोकिल वर्षा पाचक कण।
नष्ट भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन,
ध्वंस,भ्रंस जग के जग बंधन।
पाचक-पग धर आवे नूतन,
हो पल्लवित नवल मानवपन।"(35)
पंत जी ने दीन-हीनो के प्रति क्षोभ व्यक्त करते हुए,उन्हें शक्ति प्रदान करना चाहा है। उन्होंने चिदंबरा में संग्रहित 'कृषक', 'श्रमजीवी', 'ग्राम युवती' 'ग्राम नारी' आदि शीर्षक कविताओं में इनका चित्रण किया है।'वह बुड्ढा' शीर्षक कविता में निष्प्रभ,निःसहाय, नरकंकाल का चित्रण मिलता है,तो 'ग्राम युवती' शीर्षक कविता में अभावग्रस्त जीवन के कारण व युवती का असमय ढलते यौवन का चित्रण उपस्थित करता है ।कवि का मन करुणा से आर्द्र हो जाता है--
रे दो दिन का
उसका यौवन ।
सपना छिन का
रहता न स्मरण ।
दुखों से पिस,
दुर्दिन में घिस,
जर्जर हो जाता उसका तन।
ढह जाता असमय यौवन।"(36)
संकीर्ण मनोवृत्तियों से ऊपर उठकर, शोषितों के प्रति सहानुभूति प्रकट करता हुआ कवि नवीन मानव मूल्यों को प्रश्रय देता है ।वह साम्यवाद का समर्थक है और समस्त मानव का कल्याण चाहने वाला। इसी भावना को कवि ने अभिव्यक्त करते हुए लिखा है--
"साम्यवाद के साथ स्वर्णयुग करता मधुर पदार्पण।
मुक्त निखिल मानवता करती मानव का अभिनंदन।।"(37)
महादेवी करुणा की प्रतिमूर्ति हैं। उनका संवेदनशील हृदय विश्व पीड़ा को देखकर द्रवित हो जाता है ।वह विश्व वेदना में अपनी वेदना मिला देना ही कवि का मोक्ष मानती हैं। उनकी वेदना लोक संवेदना बनकर करुणा सौहार्द और मानवता को जन्म देती है। विश्व की दीनता से महादेवी पूर्णतया परिचित हैं ।अतः वे करुणा प्रदर्शित करती हुई कहती हैं-
"भिक्षुक-सा यह विश्व खड़ा है पाने करुणा प्यार।
हंस उठ रे नादान खोल दे पंखुड़ियों के द्वार।।"(38)
महादेवी के काव्य में लोकहित की भावना विद्यमान है ।वह सांसारिक क्रंदन से अनभिज्ञ नहीं है। अतः वे तृषित,दुखित और कष्टों से झूलती हुई पृथ्वी को मेघों की तरह सुखद तृप्ति देना चाहती हैं--
प्यासे का जान ग्राम,
झुलसे का पूछ नाम,
धरती के चरणों पर
नभ के धर शत प्रणाम।"(39)
वे प्रकृति माँ से पूछती हैं कि तेरी चिर यौवना सुषमा को देखूं या जर्जर मानव जीवन को। कवयित्री का झुकाव जर्जर मानव जीवन की ओर है--
" कह दे माँ क्या देखूं।
देखूं खिलती कलियां या,
प्यासे सूखे अधरों को,
तेरी चिर यौवन सुषमा
या जर्जर जीवन को।"(40)
महाश्वेता महादेवी अपनी निजी अनुभूतियों को मानवता से मंडित किया है।यह व्यथित संसार और मुरझाई कलियों की तरफ देखने का संदेश देती हैं--
"मेरे हँसते अधर नहीं जग की आंसू लड़िया देखो।
मेरे गीले पलक छुओ मत,
मुरझाई कलियां देखो।"(41)
अतः स्पष्ट है कि कवयित्री की दृष्टि लोक परके रही है।उन्होंने लोके पीड़ा को मुखरित किया है ।उनमें सर्वहित की भावना है तथा उनका काव्य मानवीय भूमि पर संस्थित होता हुआ लोक मंगल की कामना से संपृक्त है।
संदर्भ सूची-
1- प्रोफेसर श्री गोपाल सिंह 'क्षेम', छायावाद की काव्य साधना, पृष्ठ - 94
2- जयशंकर प्रसाद, काव्य और कला तथा अन्य निबंध,पृष्ठ -149
3- डॉ नगेंद्र, आधुनिक हिंदी कविता की मुख्य प्रवृत्तियां पृष्ठ 14
4- यथोपरि, पृष्ठ 10
5- डॉ रामविलास शर्मा ,संस्कृति और साहित्य, पृष्ठ- 44-45
6- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, सं0 2025 विo, पृष्ठ-610
7- डॉ रवीन्द्र सहाय वर्मा,हिंदी काव्य पर आंग्ल प्रभाव, सं 2011विo, पृष्ठ-129
8- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी,हिंदी साहित्य उद्भव और विकास, सन् 1964,पृष्ठ- 549
9- डॉक्टर शंभू नाथ सिंह, छायावाद युग ,प्र0सं0,1952,पृष्ठ-24
10 डॉ शैल कुमारी ,आधुनिक हिंदी काव्य में नारी भावना, भूमिका, पृष्ठ-2
11- अवंतिका( काव्यलोचनांक),पृष्ठ190,उद्धृत-छायावाद, रवींद्र भ्रमर प्रथम संस्करण,पृष्ठ-51 से।
12- आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, जयशंकर प्रसाद (भूमिका), द्वितीय संशोधित संस्करण, पृष्ठ-2
13- निराला ,बेला, पृष्ठ -60
14- यथोपरि, अनामिका ,पांचवां संस्करण, पृष्ठ -25
15-यथोपरि, अपरा,नवां संस्करण,1971,पृष्ठ-138
16- प्रसाद,करुणा, पंचम संस्करण,सं0 2004 पृष्ठ- 64
17- प्रसाद, कामायनी,( श्रद्धा सर्ग )अष्टम संस्करण,सं0 2010, पृष्ठ -55
18- पंत, शिल्पी, पृष्ठ -33
19- निराला,अणिमा, 1971 ईस्वी,
पृष्ठ- 37
20- विवेकानंद,शक्तिदायिनी,विचार,पृष्ठ-33
21- पंत,युगवाणी,
षष्ठ संस्करण1966,पृष्ठ-64
22-यथोपरि, चिदम्बरा(ग्राम्या),तृतीय संस्करण1970,पृष्ठ-95
23- निराला,गीतिका, पृष्ठ -4
24- प्रसाद ,कामायनी,( कर्म सर) अष्टम संस्करण ,सं02010, पृष्ठ -132
25- निराला, अणिमा ,1971ई0, पृष्ठ-8
26- पंत ,गुंजन, एकादश आवृत्ति, सं0 2021, पृष्ठ- 16
27- निराला, बेला, पृष्ठ -75
28- प्रसाद,कामायनी, श्रद्धा सर्ग ,अष्टम संस्करण, सं0 2010, पृष्ठ -59
29- निराला,अपरा ,नवां संस्करण, सन् 1971, पृष्ठ- 67
30-यथोपरि, पृष्ठ-67
31- निराला,परिमल ,11 वां संस्करण 1969 ई0, पृष्ठ -195
32- डॉ भागीरथ मिश्र,निराला काव्य का अध्ययन, पृष्ठ -73
33- पंत,रश्मिबंध (भूमिका) 15 वां संस्करण 1971, पृष्ठ-13
34-यथोपरि, चिदंबरा, (भूमिका) तृतीय संस्करण 1970, पृष्ठ- 17
35- यथोपरि, युगांत, चतुर्थ संस्करण 1968, पृष्ठ -16
36-यथोपरि, ग्राम्या, सातवां संस्करण 1967, पृष्ठ-19
37-यथोपरि, युगवाणी,षष्ठ संस्करण 1966, पृष्ठ- 45
38- महादेवी वर्मा, यामा,नीरजा, तृतीय संस्करण सं0 2008, पृष्ठ -177
39-यथोपरि, दीपशिखा, संस्करण 1970, पृष्ठ- 29
40- यथोपरि, यामा,( रश्मि) तृतीय संस्करण सं0 2008, पृष्ठ- 99
41-यथोपरि,(नीरजा),तृतीय संस्करण, सं02008,पृष्ठ-150
"ठहरो अहो मेरे हृदय में है अमृत मैं सींच दूंगा।
×××××××××××××××××××××××××××
तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूंगा।"(30)
कवि ने क्रंदन और अभावग्रस्त अशांत स्वर को वाणी दिया है।'दीन' शीर्षक कविता मानव हृदय को झकझोर देने में सफल है। कवि मानव समाज का सेवक है। वह समाज के शोषण के प्रति क्रांति का आह्वान करता है और इसके लिए विप्लव के वीर बादल को आमंत्रित करता है। 'जागो फिर एक बार' कविता में कवि दीन भाव को नश्वर मानता है। कवि का आग्रह है कि वह व्यथित संसार की पीड़ा को दूर करें---
माँ मुझे वहाँ तू ले चल,
देखूंगा वह द्वार,
दिवस का पार--
मूर्छित हुआ पड़ा है जहाँ,
वेदना का संसार।"(31)
इस प्रकार देखते हैं कि निराला के काव्य की प्रगतिशीलता का मूल स्वर मानवतावादी भावना है, जिसका मूल्यांकन करते हुए डॉक्टर भगीरथ मिश्र ने लिखा है--" मानवता धर्म ही निराला जी का सहज धर्म रहा है। निराला जी का समस्त काव्य इस मानव धर्म की व्याख्या,स्थापना और विकास का जन-जन के कल्याण का मार्ग खोलने की अमर गाथा है। उनका समस्त जीवन-दर्शन ही मानवतावादी था।"(32)
पंत जी 'युगांत', 'युगवाणी' और 'ग्राम्या' में मानवता की लहर काफी ऊँची है।'युगांत' में नई जागृति और क्रांति है। कवि ने स्वीकार किया है, 'युगांत' की क्रांति भावना में आवेश है और नवीन मनुष्य के प्रति संकेत। नवीन सत्य के प्रति मेरे मन का आकर्षण अधिक वास्तविक मन नवीन मानवता के रूप में प्रस्फुटित होने लगता है।"(33) पंत जी की यह रचनाएं क्रांति भावना के साथ ही मानवतावादी भूमि पर स्थित हैं। युगवाणी में मध्ययुगीन संकीर्ण नैतिकता का विरोध तथा नवीन जागरण का संदेश है। कवि वर्गहीन और शोषणहीन समाज की स्थापना करना चाहता है।वह साम्यवाद का समर्थक है ग्राम्या में ग्राम्य जीवन और ग्राम-संस्कृति की अभिव्यक्ति की गई है तथा ग्रामीणों की दबी आत्मा के स्वर को मुखरित किया गया है। तात्पर्य यह है कि पंत के काव्य में नव मानवता और नवानुभूतियों का संगीत सुरक्षित है। चिदंबरा की भूमिका में उन्होंने लिखा है---" हमारे साहित्य में जीवन यथार्थ की धारणा इतनी एकांगी, खोखली तथा रुग्ण हो गई है कि हमें शोषित,जर्जर और लघु मानव के ऋण चित्रण में ही कलात्मक परितृप्ति मिलती है।"(34)
पंत जी वर्ग संघर्ष तथा रक्त क्रांति की अपेक्षा मानव चेतना के समस्त पहलुओं का उचित संतुलन सांस्कृतिक दृष्टिकोण से चाहते हैं। कवि कोकिल के पाचक कण बरसाकर जीर्ण शीर्ण रूढ़ियों को नष्ट करने की याचना करता है ,क्योंकि पुरानी संकीर्णता में उसका दम घुट रहा था। अतः सामाजिक जीवन की संकीर्णता का अंत करना चाहता है और नवीन मानवता का आवाहन---
गा कोकिल वर्षा पाचक कण।
नष्ट भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन,
ध्वंस,भ्रंस जग के जग बंधन।
पाचक-पग धर आवे नूतन,
हो पल्लवित नवल मानवपन।"(35)
पंत जी ने दीन-हीनो के प्रति क्षोभ व्यक्त करते हुए,उन्हें शक्ति प्रदान करना चाहा है। उन्होंने चिदंबरा में संग्रहित 'कृषक', 'श्रमजीवी', 'ग्राम युवती' 'ग्राम नारी' आदि शीर्षक कविताओं में इनका चित्रण किया है।'वह बुड्ढा' शीर्षक कविता में निष्प्रभ,निःसहाय, नरकंकाल का चित्रण मिलता है,तो 'ग्राम युवती' शीर्षक कविता में अभावग्रस्त जीवन के कारण व युवती का असमय ढलते यौवन का चित्रण उपस्थित करता है ।कवि का मन करुणा से आर्द्र हो जाता है--
रे दो दिन का
उसका यौवन ।
सपना छिन का
रहता न स्मरण ।
दुखों से पिस,
दुर्दिन में घिस,
जर्जर हो जाता उसका तन।
ढह जाता असमय यौवन।"(36)
संकीर्ण मनोवृत्तियों से ऊपर उठकर, शोषितों के प्रति सहानुभूति प्रकट करता हुआ कवि नवीन मानव मूल्यों को प्रश्रय देता है ।वह साम्यवाद का समर्थक है और समस्त मानव का कल्याण चाहने वाला। इसी भावना को कवि ने अभिव्यक्त करते हुए लिखा है--
"साम्यवाद के साथ स्वर्णयुग करता मधुर पदार्पण।
मुक्त निखिल मानवता करती मानव का अभिनंदन।।"(37)
महादेवी करुणा की प्रतिमूर्ति हैं। उनका संवेदनशील हृदय विश्व पीड़ा को देखकर द्रवित हो जाता है ।वह विश्व वेदना में अपनी वेदना मिला देना ही कवि का मोक्ष मानती हैं। उनकी वेदना लोक संवेदना बनकर करुणा सौहार्द और मानवता को जन्म देती है। विश्व की दीनता से महादेवी पूर्णतया परिचित हैं ।अतः वे करुणा प्रदर्शित करती हुई कहती हैं-
"भिक्षुक-सा यह विश्व खड़ा है पाने करुणा प्यार।
हंस उठ रे नादान खोल दे पंखुड़ियों के द्वार।।"(38)
महादेवी के काव्य में लोकहित की भावना विद्यमान है ।वह सांसारिक क्रंदन से अनभिज्ञ नहीं है। अतः वे तृषित,दुखित और कष्टों से झूलती हुई पृथ्वी को मेघों की तरह सुखद तृप्ति देना चाहती हैं--
प्यासे का जान ग्राम,
झुलसे का पूछ नाम,
धरती के चरणों पर
नभ के धर शत प्रणाम।"(39)
वे प्रकृति माँ से पूछती हैं कि तेरी चिर यौवना सुषमा को देखूं या जर्जर मानव जीवन को। कवयित्री का झुकाव जर्जर मानव जीवन की ओर है--
" कह दे माँ क्या देखूं।
देखूं खिलती कलियां या,
प्यासे सूखे अधरों को,
तेरी चिर यौवन सुषमा
या जर्जर जीवन को।"(40)
महाश्वेता महादेवी अपनी निजी अनुभूतियों को मानवता से मंडित किया है।यह व्यथित संसार और मुरझाई कलियों की तरफ देखने का संदेश देती हैं--
"मेरे हँसते अधर नहीं जग की आंसू लड़िया देखो।
मेरे गीले पलक छुओ मत,
मुरझाई कलियां देखो।"(41)
अतः स्पष्ट है कि कवयित्री की दृष्टि लोक परके रही है।उन्होंने लोके पीड़ा को मुखरित किया है ।उनमें सर्वहित की भावना है तथा उनका काव्य मानवीय भूमि पर संस्थित होता हुआ लोक मंगल की कामना से संपृक्त है।
संदर्भ सूची-
1- प्रोफेसर श्री गोपाल सिंह 'क्षेम', छायावाद की काव्य साधना, पृष्ठ - 94
2- जयशंकर प्रसाद, काव्य और कला तथा अन्य निबंध,पृष्ठ -149
3- डॉ नगेंद्र, आधुनिक हिंदी कविता की मुख्य प्रवृत्तियां पृष्ठ 14
4- यथोपरि, पृष्ठ 10
5- डॉ रामविलास शर्मा ,संस्कृति और साहित्य, पृष्ठ- 44-45
6- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, सं0 2025 विo, पृष्ठ-610
7- डॉ रवीन्द्र सहाय वर्मा,हिंदी काव्य पर आंग्ल प्रभाव, सं 2011विo, पृष्ठ-129
8- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी,हिंदी साहित्य उद्भव और विकास, सन् 1964,पृष्ठ- 549
9- डॉक्टर शंभू नाथ सिंह, छायावाद युग ,प्र0सं0,1952,पृष्ठ-24
10 डॉ शैल कुमारी ,आधुनिक हिंदी काव्य में नारी भावना, भूमिका, पृष्ठ-2
11- अवंतिका( काव्यलोचनांक),पृष्ठ190,उद्धृत-छायावाद, रवींद्र भ्रमर प्रथम संस्करण,पृष्ठ-51 से।
12- आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, जयशंकर प्रसाद (भूमिका), द्वितीय संशोधित संस्करण, पृष्ठ-2
13- निराला ,बेला, पृष्ठ -60
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18- पंत, शिल्पी, पृष्ठ -33
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षष्ठ संस्करण1966,पृष्ठ-64
22-यथोपरि, चिदम्बरा(ग्राम्या),तृतीय संस्करण1970,पृष्ठ-95
23- निराला,गीतिका, पृष्ठ -4
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26- पंत ,गुंजन, एकादश आवृत्ति, सं0 2021, पृष्ठ- 16
27- निराला, बेला, पृष्ठ -75
28- प्रसाद,कामायनी, श्रद्धा सर्ग ,अष्टम संस्करण, सं0 2010, पृष्ठ -59
29- निराला,अपरा ,नवां संस्करण, सन् 1971, पृष्ठ- 67
30-यथोपरि, पृष्ठ-67
31- निराला,परिमल ,11 वां संस्करण 1969 ई0, पृष्ठ -195
32- डॉ भागीरथ मिश्र,निराला काव्य का अध्ययन, पृष्ठ -73
33- पंत,रश्मिबंध (भूमिका) 15 वां संस्करण 1971, पृष्ठ-13
34-यथोपरि, चिदंबरा, (भूमिका) तृतीय संस्करण 1970, पृष्ठ- 17
35- यथोपरि, युगांत, चतुर्थ संस्करण 1968, पृष्ठ -16
36-यथोपरि, ग्राम्या, सातवां संस्करण 1967, पृष्ठ-19
37-यथोपरि, युगवाणी,षष्ठ संस्करण 1966, पृष्ठ- 45
38- महादेवी वर्मा, यामा,नीरजा, तृतीय संस्करण सं0 2008, पृष्ठ -177
39-यथोपरि, दीपशिखा, संस्करण 1970, पृष्ठ- 29
40- यथोपरि, यामा,( रश्मि) तृतीय संस्करण सं0 2008, पृष्ठ- 99
41-यथोपरि,(नीरजा),तृतीय संस्करण, सं02008,पृष्ठ-150
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