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प्रगति, प्रगतिशीलता और प्रगतिवाद
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प्रगति का साधारण अर्थ आगे बढ़ना (प्र=आगे, गति=चाल, बढ़ना) होता है। प्रगतिशीलता को समझने के लिए सर्वप्रथम दो शब्द प्रगतिशील और प्रगतिवाद को जानना आवश्यक है। इनके अपने-अपने व्यापक अर्थ भी हैं और विशिष्ट अर्थ भी। गतिशील शब्द के भीतर वह सब कुछ आ जाता है जो आगे प्रगति कर रहा हो अथवा करने वाला हो। इसमें मानव जीवन और समाज अपने संपूर्ण रूप से अंतर भक्त हो जाता है इस तरह उस साहित्यकार को भी प्रगतिशील कहा जा सकता है जो मानव और मानव समाज के उच्चतर विकास के लिए तथा अर्थ रूप का अंकन करता हुआ आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करें। प्रगतिशीलता का सामान्य और व्यापक अर्थ है।
प्रगतिशील और प्रगतिवाद यह दोनों शब्द अंग्रेजी के प्रोग्रेसिव के समानार्थी हैं। प्रगतिशीलता जीवन का एक सामान्य नियम एक चिरंतन सत्य है और इसी कारण गतिशीलता साहित्य की भी एक सामान्य प्रवृत्ति है, क्योंकि साहित्य सदैव जीवन का अनुगामी रहा है। कुछ लोग प्रगतिवाद और प्रगतिशील साहित्य में अंतर करते हैं उनके अनुसार "मार्क्सीय सौंदर्यशास्त्र का नाम प्रगतिवाद है और आदि काल से लेकर अब तक की समस्त साहित्य परंपरा प्रगतिशील साहित्य है ।इस तरह से वे केवल छायावाद के बाद की साहित्यिक प्रवृति के लिए प्रगतिशील साहित्य नाम का प्रयोग अनुचित मानते हैं"(1 ) जैसा कि डॉक्टर शिवदान सिंह चौहान का मत है -"प्रगतिवाद साहित्य की धारा नहीं है साहित्य का मार्क्सवादी दृष्टिकोण है अतः प्रगतिवाद को सौंदर्यशास्त्र (एस्थेटिक) संबंधी दृष्टिकोण का हिंदी संस्करण समझना चाहिए।"(2)
दूसरी ओर ऐसे भी हैं जो मार्क्सवादी साहित्य सिद्धांत तथा इस सिद्धांत के अनुसार रचे हुए साहित्य को प्रगतिवाद कहना चाहते हैं और छायावाद के बाद की व्यापक सामाजिक चेतना वाले समस्त साहित्य को प्रगतिशील साहित्य कहते हैं, जिसमें विभिन्न राजनीतिक मतों के बावजूद एक सामान्य मानवतावादी भावना
व्याप्त है।(3 ) लेकिन नामवर सिंह का मानना है जिस तरह छायावाद और छायावादी कविता भिन्न नहीं है इसी तरह प्रगतिवाद और प्रगतिशील साहित्य भी भिन्न नहीं है। वाद की अपेक्षा शील को अधिक अच्छा और उदार समझकर इन दोनों में भेद करना कोरा बुद्धि विलास है और कुछ लोगों के इस मान्यता के पीछे प्रगतिशील साहित्य का प्रच्छन्न विरोध भाव छिपा है।(4)
प्रगतिवाद और प्रगतिशील दोनों शब्द कभी पर्यायवाची के रूप में तो कभी मतवादी के रूप में प्रचलित हैं। यह सही है कि बाद में चलकर छायावादी साहित्यकार भी प्रगतिवादी चेतना से संबंध होकर अपने को प्रगतिवादी घोषित करने लगे। छायावाद और परवर्ती व्यक्तिवाद के वे सभी कवि जो युग चेतना के अनुरूप कभी गांधीवादी थे,कभी व्यापक उदार मानवतावादी सभी प्रगतिवाद से सहमत होने लगे। इनके अतिरिक्त राष्ट्रीय भावना और उसकी सांस्कृतिक जनवादी चेतना से जो भी संबंध रहे वह सब के सब अपने को पूर्ण रूप से मार्क्सवाद से संबंध अत्यंतिक रूप से अग्रसेन प्रगतिवादी घोषित करने लगे। तबसे प्रगतिवादी चेतना में या शिकार होने लगा कि प्रगतिवादी और प्रगतिशील साहित्यकारों में अंतर है। इस विवाद का मूल कारण कुछ साहित्यकारों का राजनैतिक आंदोलन में भी सक्रिय रूप से संबंध हो जाना और मार्क्सवादी प्रगतिवादी चेतना को साहित्य का मानदंड घोषित करना है। यहीं से प्रगतिवादी साहित्य के नामकरण में वाद और शील का अंतर विवादास्पद विषय बन गया।
दरअसल प्रगतिवादी चेतना से सभी साहित्यकार प्रभावित हैं किंतु छायावादी अतिशय सौंदर्य दृष्टि का परिष्कार और परवर्ती व्यक्तिवादी प्रकृति का विकृत रूप भी, सामाजिक यथार्थ दृष्टि का समाहार करने करके ही प्रगतिवादी में लक्षित हुआ है। रूस और मार्च का नाम नवीन है तो योग जीवन और सामाजिक चेतना से संबंध होकर प्रगतिवाद के साथ समानांतर रूप से जो जीवन दर्शन या काव्य चेतना अपनी धाक जमाई रही वह सब प्रगतिशील चेतना है। तात्कालिक रूप से किसी मतवाद के झमेले में ना पड़ने के कारण उनका साहित्य पर अश्लील कहा गया। इसलिए 'वाद' की संकीर्णता की गंध से मुक्त होने से जीवन के भूत वर्तमान और भविष्य को दृष्टि में रखकर जो प्रगतिशील है, साहित्य उनका ही है।
फिर भी नामवर सिंह के शब्दों में कहा जा सकता है कि प्रगतिशील साहित्य कोई स्थिर मतवाद नहीं है; बल्कि यह एक निरंतर विकासशील विचारधारा है जिसके लेखकों का विश्वास है कि प्रगतिशील साहित्य लेखक की स्वयंभू अंतर प्रेरणा से उद्धृत नहीं होता बल्कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास के क्रम में या भी परिवर्तित और विकसित होता रहता है और उसके सिद्धांत उत्तरोत्तर स्पष्ट तथा अधिक पूर्ण होते चलते हैं।(5)
प्रगतिशील और प्रगतिवाद शब्द का प्रचलन हिंदी कविता के क्षेत्र में सन 1936 के आसपास हुआ। नवंबर 1935 में लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ नामक संस्था का जन्म हुआ था। उसी की प्रेरणा बस भारतवर्ष में सन 1936 में मुल्क राज आनंद और सज्जाद अली के प्रयत्नों से पहला प्रगतिशील लेखक- सम्मेलन हुआ, इसका सभापति त्व उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने किया। इस सम्मेलन में भाग लेने वाले जितने भी कवि अथवा साहित्यकार थे वे छायावादी भाव धारा को (जो अतिशय कल्पना प्रवण तथा जीवन के सुकुमार पक्ष को ही अधिक प्रधानता देने वाली थी) युग के लिए अनुपयुक्त मानकर जीवन के यथार्थ के पक्षपाती थे। शिवदान सिंह चौहान ने सन 1937 के मार्च के विशाल भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता शीर्षक से एक लेख लिखा, इसमें हिंदी कवियों एवं लेखकों को उन्होंने ललकारा- हमारा साहित्यिक नारा कला के लिए नहीं वरन कला संसार को बदलने के लिए है इस नारे को बुलंद करना प्रत्येक प्रगतिशील साहित्य का फर्ज है।
सन 1936 के आसपास हिंदुस्तान में छायावादी कविता का विकास लगभग रुक सा गया था और कभी कुछ नए विचारों एवं व्यंजना के माध्यमों की खोज में थे। ऐसे ही समय यूरोप से लौटे हुए हिंदुस्तानी लेखकों ने प्रगति की आवाज लगाई और यह आवाज छायावादी कवियों को अपने अंतर की प्रतिध्वनि प्रतीत हुई। अल्ताफ सुमित्रानंदन पंत ने छायावाद का युगांत घोषित करके प्रतिवाद को युगवाणी रूप में तुरंत अपना लिया। देर सवेर निराला और महादेवी ने भी अपनी अपनी सीमाओं में इसे स्वीकार किया। लेकिन पंत की तरह निराला ने इस विषय में शीघ्रता इसलिए नहीं दिखलाई कि वह बहुत पहले से ही कविता को 'बहुजीवन की छवि' मानकर सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति करते आ रहे थे, और इसलिए भी कि पंत जी की अपेक्षा उनमें व्यक्ति का तथा अहंवाद अधिक था। इसी तरह महादेवी में मानसिक परिवर्तन में देर इसलिए हुई कि उनमें तब तक छायावादी भावुकता और कल्पना से विरक्ति पैदा नहीं हुई थी क्योंकि छायावाद में देर से आने के कारण अभी उनका भावावेग चरम सीमा पर पहुंच रहा था।
आलोचना के क्षेत्र में प्रगतिवाद ने साहित्य की मार्क्सवादी व्याख्या का नारा दिया, आलोचकों के लिए काफी विचारोत्तेजक प्रतीत हुआ। आलोचना के क्षेत्र में प्रगतिवाद का सबसे अधिक स्वागत हुआ।
कविता में भी कल्पना के स्थान पर फोर्स वास्तविकता और वैयक्तिक ता के स्थान पर सामाजिकता का आग्रह सन 30 के बाद से ही बढ़ने लगा था। आलोचना में आचार्य शुक्ल लोकमंगल की साधना अवस्था पर जोर दे रहे थे और इस तरह से वह साहित्य के सामाजिक मूल्यांकन के लिए मार्ग प्रशस्त कर रहे थे।
ऐसी सामाजिक और साहित्यिक परिस्थिति में प्रगतिवाद का प्रादुर्भाव होना युग की स्वाभाविक आवश्यकता थी। आवश्यकता की पूर्ति के लिए जिस प्रकार का प्रगतिशील साहित्य लिखा गया उससे यह प्रमाणित होता है कि प्रगतिवाद हिंदी साहित्य की परंपरा का स्वाभाविक विकास है।
प्रगतिवाद के नाम पर आरंभ में पंत जी ने मार्क्सवाद और गांधीवाद, भौतिकवाद और अध्यात्म बाद सामूहिकता और वैयक्तिकता, वहीं जगत और अंतर जगत भाव और रूप वगैरह का समन्वय करना चाहा, जिसमें छायावादी परंपरा का आग्रह स्पष्ट है। चित्र प्रगतिवाद के नाम पर दिनकर भगवती चरण वर्मा और नवीन ने जो डांस और विध्वंस का आह्वान किया उसमें पूर्ववर्ती व्यक्तिवाद की अराजकतावादी तथा विपक्ष का मनोवृति का ही विस्फोट है। जो भारतीय चिंतन धारा के निकट है।
प्रगतिवाद के आरंभ में यह जो अध्यात्मवाद, अराजकतावाद, विकृत यथार्थवाद की प्रवृतियां दिखाई पड़ती हैं उनका रिश्ता मार्क्सवाद से बहुत दूर का है- कि आज का सामान्य विद्यार्थी भी जानता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रगतिवादी कवियों में दो वर्ग दिखाई देते हैं -प्रथम वर्ग के कवियों में निराला और पंत आदि के नाम लिए जा सकते हैं। साम्यवादी भावना को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने रूसी साम्यवाद की अपेक्षा गांधीवाद को अधिक महत्व दिया है तथा सामाजिक कल्याण की कामना से प्रेरित होकर परिवर्तन की पुकार करते हुए भी क्रांति की अपेक्षा शांति को अधिक उत्तम साधन माना है।
दूसरे वर्ग के कवि क्रांति को ही एकमात्र और अंतिम उपाय मानते हैं। शांति और अहिंसा, ईश्वरीय न्याय धार्मिक व्यवस्था अमूर्त उपासना और अशरीरी सौंदर्य कल्पनाओं के प्रति उनमें विरक्ति का भाव लक्षित होता है। सामाजिक मान मर्यादाओं और व्यवस्थाओं के प्रति उनका असंतोष उनकी रचनाओं में प्रलय आग और तूफान का वाहक स्वर्ग बनकर प्रकट हुआ। अंचल, नरेंद्र ,शिवमंगल सिंह सुमन ,रामविलास शर्मा, नागार्जुन आदि के नाम इस वर्ग के अंतर्गत लिए जा सकते हैं। ये कवि पूर्णतः मार्क्स के विचारों के अनुवर्ती हैं।(6)
प्रगतिवाद अपने साथ लोकमंगल और जनकल्याण का महत् उद्देश्य लेकर आया था। प्रगतिवादी कवियों का लक्ष्य जनवाद समाजवाद आदि से प्रेरित एवं अनुप्राणित काव्य की सर्जना था, परंतु साम्यवादी विचारधारा के हिंदी के प्रारंभिक प्रगतिवादी साहित्य पर पड़ने वाले गहरे प्रभाव ने प्रगतिवाद के इस आंदोलन पर दो घातक प्रभाव डालें, जिनका परिणाम इन आंदोलनों तथा उनके समर्थकों के लिए शुभ नहीं रहा। आरंभ में रूस के साम्यवादी विचारकों ने रूसी भाषा के संपूर्ण प्राचीन साहित्य का बहिष्कार करने की आवाज उठाई थी। का कारण यह था कि साम्यवादी विचारधारा सामान्य रूप से प्राचीन साहित्य संस्कृति परंपरा धर्म इत्यादि को बुर्जुआ अर्थात सामंतवाद की देन मान उनका घोर विरोध करती है, क्योंकि ये सब सामंतवादी समाज व्यवस्था के पोषक और समर्थक रहे हैं। इसी कारण हिंदी के कुछ उग्र प्रगतिवादी विचार को ने भी संस्कृत हिंदी आदि सभी के प्राचीन साहित्य का विरोध कर उसका संपूर्ण बहिष्कार करने की मांग की है। वाल्मीकि कालिदास कबीर तुलसी सूर बिहारी घनानंद आदि सभी को सामंतवाद का समर्थक और घोर प्रतिक्रियावादी कवि घोषित कर दिया। यह स्थिति बड़ी चिंताजनक थी। यदि इन लोगों की बात मान ली जाती है तो आरंभ से ही छायावाद तक का सारा हिंदी साहित्य पूरी तरह से नष्ट कर डालना पड़ता,फिर हिंदी के पास रह क्या जाता?
इस स्थिति से चिंतित हो कुछ सुलझे हुए समझदार प्रगतिशील आलोचकों ने उपर्युक्त मांग का विरोध करते हुए यह कहा कि हमें हिंदी के उन पुराने कवियों का उनकी समकालीन परिस्थितियों के सही परिप्रेक्ष्य में ही मूल्यांकन कर उनके साहित्य में प्राप्त किए जाने वाले उपयोगी तत्वों को स्वीकार कर लेना चाहिए तथा शेष बातों का विरोध करना चाहिए। तभी हम उनके तथा उनके साहित्य के प्रति उचित न्याय कर सकेंगे। तो सब का विरोध करने वाले अपनी मांग पर डटे रहे। इसने प्रगतिवादी साहित्यकारों में एक भयंकर विवाद बंद कर दिया। इस विवाद से पहला दल कबीर और तुलसी को घोर प्रतिक्रियावादी और दूसरा दल उन्हें प्रगतिशील सिद्ध करने में जुटा रहा। इस विवाद में तुलसी की सबसे ज्यादा छीछालेदर की गई। इसका दूसरा परिणाम यह निकला है कि दोनों दलों के लोग एक दूसरे को कुत्सित समाजवादी आदि कह कर स्वयं को सही और अक्लमंद तथा दूसरों को गलत और बेवकूफ सिद्ध करने लगे। इस विवाद ने हिंदी साहित्य को सामान्य रूप से तथा प्रगतिशील आंदोलन को अपूरणीय क्षति पहुंचाई। यह तबेले में लतियाव जैसी स्थिति थी।(7) प्रगतिवादी आपस में ही उलझकर रह गए।
ऐसा ही एक दूसरा भयंकर विवाद यह खड़ा हुआ कि साहित्यकार पर राजनीति का अंकुश रहना चाहिए अथवा नहीं रहना चाहिए। भारतीय साम्यवादी दल के नीति निर्धारकों का यह मानना था कि साहित्य की रचना दल के राजनीतिक सिद्धांतों के अनुरूप और उसका पोषक होना चाहिए। ये लोग साहित्य को अपनी राजनीति का प्रत्यक्ष रूप से प्रचार करने वाला अस्त्र बनाना चाहते थे। इसके विपरीत कुछ लोगों का यह कहना था कि साहित्य राजनीति से प्रेरणा तो ले सकता है ,परंतु उस पर राजनीति का अंकुश नहीं रहना चाहिए, से राजनीति का प्रत्यक्ष प्रचार साधन नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि राजनीति को सामने रख रखा जाने वाला साहित्य निराश और एक निश्चित ढांचे में ढाला हुआ सा बन जाता है। उसे आम पाठक पढ़ना नहीं पसंद करते, इसलिए कि उसमें साहित्यिक
सरसता और मनोरंजन करने की शक्ति नहीं होती। इसलिए साहित्यकारों को राजनीति के अंकुश और उसकी संकरण सीमाओं से मुक्त रखना चाहिए। यह विवाद भी बहुत उग्र और कुत्सित रूप से काफी समय तक चलता रहा और अप्रत्यक्ष रूप से आज भी चल रहा है।
प्रगतिवादी आलोचकों के इस दुर्वह अहं और छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति ने प्रगतिशील आंदोलन को एक और दूसरी प्रकार का धक्का पहुंचाया था। इनमें से कुछ की यह आदत बन गई थी कि यह लोग जिन साहित्यकारों को पसंद करते थे उनकी बुराइयों की तरफ से आंखें बंद कर उनकी बहुत बढ़ा चढ़ाकर प्रशंसा करते रहते थे। इसके विपरीत जिन को पसंद नहीं करते थे अथवा जिन्हें अपने प्रिय साहित्यकारों का विरोधी या प्रतिद्वंदी समझते थे ।उनकी रचनाओं में चुन-चुन कर भाषा ,विचार ,शैली आदि संबंधी नाना प्रकार की गलतियां ढूंढते रहते थे और उन्हीं को आधार बना उनकी कटु आलोचना करते रहते थे। इसके साथ यह भी करते थे कि उनके विरोधी खेमे के आलोचकों द्वारा प्रशंसक साहित्यकारों को नीचा दिखाने के प्रयत्न में लगे रहते थे। उस समय 'पंत' जैसे छायावादी कवि भी प्रगतिवादी शैली की कविताएं करने लगे थे, परंतु कुछ प्रगतिवादी आलोचकों ने पंत काव्य की अनावश्यक कटु आलोचना कर अंततः पंत को प्रगतिवादी खेमे से बाहर निकल जाने को बाध्य कर दिया और पंथ प्रगतिवाद के कट्टर विरोधी बन गए। अंत जैसे दिग्गज साहित्यकार को ऐसी छीछालेदर होती देख वे लोग भी प्रगतिवाद के का साथ छोड़ गए जो बड़े उत्साह के साथ इस दल में शामिल हुए थे,
परंतु इन प्रगतिवादी आलोचकों ने एक अच्छा काम भी किया था। जो लोग प्रगतिवाद का लबादा ओढ़कर खेमे में घुस आए थे और प्रगतिवादी सिद्धांतों की दुहाई देते हुए साहित्य में अपनी काम कुंठा ओं का अश्लील चित्रण करने में लगे थे इन प्रगतिवादी आलोचकों ने उनकी कलई खोल उन्हें प्रगतिवादी खेमे से निकाल बाहर किया, क्योंकि इन लोगों की वजह से प्रगतिवाद पर अश्लील चित्रण करने का आरोप लगने लगा था। ऐसे लोग बाद में प्रगतिवाद के कट्टर आलोचक बन गए थे और तब उन्हें हिंदी के पूंजीवादी प्रकाशन संस्थानों में नौकरियां मिल गई थीं। आजकल यही लोग प्रगतिवाद और साम्यवाद के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं।(8)
प्रगतिवादी अवधारणा-
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समाज के प्रति गहरी लगावों ने प्रगतिवादियों का ध्यान समाज की विभिन्न बुराइयों तथा उसकी विषमताओं की ओर आकर्षित किया, क्योंकि प्रगतिवादियों के समस्त स्वप्नों, कल्पनाओं और आकांक्षाओं का मूलाधार समाज ही है। सामाजिक यथार्थ का चित्रण उनके धर्म और समाज की सड़ी गली जर्जर व्यवस्थाओं के प्रति क्रांति तथा सामाजिक शक्तियों के पुनर्गठन का संदेश देना उनके काव्य का उद्देश्य बन गया क्योंकि तत्कालीन समाज की सबसे बड़ी बुराई थी शक्ति संपन्न व्यक्तियों तथा वर्गों द्वारा अशक्त या अपेक्षाकृत कम शक्ति वाले वर्गों का शोषण। इसलिए प्रगतिवादी काव्य में सामाजिक उन्नति में घुन सदृश सिद्ध होने वाली इस शोषण नीति का दृढ़ता पूर्वक विरोध किया गया। शोषण चाहे किसी प्रकार का हो मिल मालिकों द्वारा मजदूरों का, जमींदारों द्वारा किसानों का, पंडा पुजारियों द्वारा श्रद्धालु जनता का, या पुरुष द्वारा नारी का; प्रगतिवादी कवियों ने सभी प्रकार के शोषण को अनुचित मानते हुए उनके अंत की कामना की। शोषण करने वालों के प्रति उनके हृदय का तीव्र आक्रोश व्यक्त हुआ है और बहुधा अत्यंत स्पष्ट शब्दों में उनके विनाश की कामना उनके द्वारा की गई है। अमित शोषित वर्ग के प्रति असीम करुणा और सहानुभूति के फलस्वरूप उन्हें चैतन्य और जागरूक बनाने का प्रयास प्रत्येक प्रगतिवादी अपना कर्तव्य समझने लगा। पीड़ित शोषित मानव समुदाय के प्रति सहानुभूति में उसे उस सामाजिक व्यवस्था का दुश्मन बना दिया जिसकी नींव शोषण पर खड़ी है।
आज के असंख्य पीड़ित मानव की कुत्सित झांकी देखकर प्रगतिवादी कवियों की ईश्वर के प्रति आस्था भी दिख गई और ईश्वरीय न्याय के प्रति उनके हृदय में अपार चौक उमड़ पड़ा।
प्रगतिवादी जिसने समाज की प्रतिष्ठा का स्वप्न देख रहे थे उसकी प्रतीक्षा या उन्हें दार्शनिक विचारक कार्ल मार्क्स के भौतिकता वादी दर्शन में तथा उसका आदर्श उन्हें रुसी सामाजिक व्यवस्था में उपलब्ध हुआ, बताइए उस ओर वे तेजी से झुक पड़े। लाल सेना रूस और मास्को की प्रशंसा में असंख्य गीत इन कवियों द्वारा लिखे गए। कार्ल मार्क्स ने जिस मत बाद को जन्म दिया भारतवर्ष की विभिन्न दार्शनिक धाराओं की भांति अध्यात्म से संबंधित ना होकर जीवन के भौतिक पक्ष को प्रधानता देता है जिसके अंतर्गत यह वस्तु जगत ही सत्य है, इससे परे किसी रहस्यमयी शक्ति अथवा ईश्वर की स्थिति कल्पना या भ्रम मात्र है। आध्यात्मिकता का संदेश सुनाने के बदले ठोस भौतिक धरातल पर जीवन और समाज की स्थितियों का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करने के फलस्वरूप मार्क्स की विचारधारा को 'द्वंद्वात्मक भौतिकवाद' कहा गया।(9)
मार्च के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का इतना स्पष्ट और गहरा प्रभाव प्रगतिवादी साहित्यकारों पर पड़ा कि बा प्रगतिवादी काव्य और मार्क्सवादी वैचारिक ता के आधार पर एक दूसरे के पर्याय प्रतीत होने लगे। हिंदी साहित्य में चित्रित वर्ग संघर्ष आर्थिक असमानता शोषण नीति के विरुद्ध क्रांति का आह्वान सामाजिक समता का स्वप्न साम्यवादी देशों के प्रति आंतरिक श्रद्धा आदि समस्त विशेषताओं का मूलाधार मार्क्स की विचारधारा को ही माना जा सकता है।
प्रगतिवादी कवियों में अपनी-अपनी कुछ निजी विशेषताएं हैं जैसे अमूर्त सौंदर्य उपासना का विरोध सभी प्रगतिवादी करते हैं किंतु मांसलता के प्रति प्रेम 'अंचल' में सर्वाधिक मात्रा में लक्षित होता है। उनकी रचनाओं में अनावृत वासना और तृष्णा के स्वर प्रबल हैं।
काव्य का आलंबन समाज को मानने के फलस्वरूप सामाजिक विषमताओं का चित्रण ऊंच-नीच भेद शोषण-नीति आर्थिक असमानता, पूंजीपतियों का अत्याचार आदि प्रगतिवादी के मुख्य वर्ण्य विषय बने। इन विषमताओं से समाज की मुक्ति हेतु क्रांति का आह्वान किया गया तथा इन को बढ़ावा देने वाली बुर्जुआ प्रवृत्तियों के प्रति घृणा व्यक्त की गई। इसी प्रसंग में धर्म, संस्कृति ईश्वर आदि पर व्यंग्य-प्रहार हुए। अपने स्वप्नों के समाज की छाया मार्क्सवादी दर्शन में देखने के फलस्वरुप मार्क्स के विचारों का खुलकर प्रचार किया गया। सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था के प्रति क्रांति की आवाज उठाने के बाद प्रगतिवाद का राजनीति से भी गठबंधन एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी।
बुद्धिवादी दृष्टिकोण और यथार्थ प्रेम में प्रगतिवादी काव्य के अभिव्यक्ति पक्ष में भी अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए।
हमारे साहित्य में 'सत्यम् ,शिवम्, सुंदरम्'का आदर्श चीर प्रचलित रहा है प्रत्येक युग के कवि अथवा साहित्यकार ने इन तीनों तत्त्वों के संबंध में ही साहित्य के उच्चतम रूप की कल्पना की है तथा प्रत्येक युग में किसी एक तत्त्व की प्रधानता और शेष दो का उसी में अंतर्भाव लक्षित होता है। भक्ति युग में कवि 'शिवम्' के साधक थे रीतियुग और छायावाद युग 'सुंदरम्' का उपासक एवं प्रगतिवादियों ने 'सत्यम्' को ही सर्वाधिक महत्त्व दिया है। उनके अनुसार जो सत्य है वही जीवनप्रद और सुंदर है, साहित्य में शिवम की स्थापना भी तभी संभव है जब काल्पनिक सौंदर्य की मूर्ति करने के बदले जीवन का सच्चा ईनो का सही रूप अंकित किया जाए। आदर्शों के चश्मे से नहीं, सौंदर्य को अपनी ही आंखों द्वारा देखना वे श्रेयस्कर समझते हैं और उसका मूल्यांकन सामाजिक उपयोगिता के आधार पर करते हैं। इसलिए जीवन के नगण्य तत्वों,सामान्य दृश्यों, समाज की विकृत स्थितियों में भी बहुधा उन्हें सौंदर्य और आकर्षण प्राप्त हुआ।
प्रगतिवाद का दृष्टिकोण पूर्णता है यथार्थवादी है इसलिए वह कोरी कल्पना के स्थान पर भौतिक जीवन के चित्रण पर ही सर्वाधिक बल देता है। वह जीवन के शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के रूपों का चित्रण करने का समर्थक है। परंतु हमारी इस शोषण प्रधान पूंजीवादी और परंपरा प्रिय समाज व्यवस्था में समाज के दिन हीन और घृणित कुत्सित रूपों की भी बहुतलता मिलती है, इसलिए प्रगतिवादी साहित्यकार समाज के इसी रूप का सर्वाधिक चित्रण कर वर्तमान समाज व्यवस्था को नष्ट कर देने की प्रेरणा प्रदान करता है। इसी प्रकार का चित्रण करने में उसका यही प्रधान उद्देश्य रहता है।
प्रगतिवाद विषमता का विरोधी और क्षमता का समर्थक सिद्धांत है। मूल लक्ष्य सभी प्रकार के भेदभाव का विरोध और विनाश कर सभी प्रकार की समानता की स्थापना करना है। इसमें जितना स्थान और महत्व अधिकार को दिया गया है उतना ही स्थान और महत्व कर्तव्य को भी मिला है, अर्थात अधिकार और कर्तव्य दोनों में पूर्ण संतुलन रहता है। इसमें उसी व्यक्ति को अधिकार मिलता है जो अपने कर्तव्य का पूरी शक्ति और निष्ठा के साथ पालन करता है। इसकी व्यवस्था ऐसी रहती है जिसमें कोई भी व्यक्ति दूसरे के परिश्रम का लाभ स्वयं उठा उसका शोषण नहीं कर सकता। इसलिए यह विचारधारा हर उस बात का विरोध करती है, जो दूसरों का शोषण करती है अथवा शोषण करने में सहायक होती है।(10)
प्रगतिवाद सामान्य जनजीवन का चितेरा है। वह जनता की वाणी है। प्रगतिवादी साहित्यकार समाज के विशिष्ट जनों की बात न कर कर जनसामान्य के विचारों,भावनाओं और सुख-दुख की बात कहता है और उसे सामान्यजन तक पहुंचाना चाहता है।
प्रगतिवाद धर्म को अफीम के समान समाज के लिए घातक मानता है क्योंकि धर्म के ठेकेदार धर्म के मूलाधार ईश्वर के नाम पर नाना प्रकार की भ्रांतियां फैला कर एक ओर तो जनता को भयभीत बनाए रख उसे खूब लूटते रहते हैं तथा दूसरी ओर समाज के शोषक वर्ग के संरक्षक और समर्थक बन मालिक और सरकार के प्रति स्वामी भक्ति और नमक हलाली की भावना का प्रचार कर सामान्य जन को उनके विरुद्ध विद्रोह करने को पाप बताते रहते हैं। इसके साथ ही यह लोग अपने स्वार्थपूर्ति के निमित्त शास्त्रों- पुराणों आदि की अपने स्वार्थ के अनुकूल मनमानी व्याख्या कर जनता के शोषण और अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह की भावना को दबाते रहते हैं। इसके लिए उन्होंने भाग्य बाद कर्मफल परलोकवाद आदि के बड़े आकर्षक और प्रभावशाली हथियार इजाद कर रखे हैं। इन्हीं का सहारा ले यह लोग सामान्य जन को मानसिक रुप से हमेशा दबाए और अपना गुलाम बनाए रखते हैं। इसलिए प्रगतिवाद धर्म का विरोध करता आया है।
प्रगतिवाद के अनुसार समाज केवल दो वर्गों में विभाजित है- सुविधा भोगी तथा सर्वहारा। इन्हें दूसरे शब्दों में धनी-निर्धन शोषक-शोषित अथवा अत्याचारी-अत्याचार पीड़ित आदि भी कहा जाता है, अर्थात समाज एक वर्ग जिसकी संख्या कम परंतु शक्ति बहुत अधिक है, ऐसा है, जो स्वयं तो परिश्रम नहीं करता,परंतु दूसरों के परिश्रम द्वारा उपार्जित सारे उत्पादनों और सुख साधनों पर अपना एकाधिकार जमाए आनंद का जीवन व्यतीत करता है। इसी वर्ग को सुविधा भोगी, धनी, शोषक और अत्याचारी वर्ग कहा गया है। इसके विपरीत दूसरा वर्ग वह है जिसकी संख्या अनुपात की दृष्टि से बहुत अधिक है,दिन-रात घोर परिश्रम करता है, परंतु जीवन की सभी जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी सामग्री पैदा करता और बनाता है, परंतु जिसे न पेटभर खाना मिलता है न तन ढकने को कपड़े और न रहने के लिए मकान ही मिलता है। इसी दूसरे वर्ग को सर्वहारा,निर्धन और शोषित कहा जाता है।
अपनी-अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए इन दोनों वर्गों का पारस्परिक संघर्ष भी 'वर्ग संघर्ष' कहलाता है। प्रगतिवाद सर्वहारा अर्थात किसान,मजदूर,दस्तकारों के वर्ग में अपने अधिकार-रक्षा की चेतना उत्पन्न कर उसे परस्पर संगठित हो शोषक वर्ग के विरुद्ध संघर्ष करने की भावना और उत्तेजना उत्पन्न करता है।
कुछ लोगों के अनुसार प्रगतिवाद में कुछ दोस्त भी लक्षित होते हैं। प्रगतिवाद आंदोलन का उद्देश्य निश्चित रूप से महान था, परंतु उसका जो व्यक्त रूप हमारे सामने आया, वह आशंकाओं और आपत्तियों से परे नहीं है। किसी देश अथवा साहित्य की कोई अच्छी प्रवृत्ति अपनाना अथवा किसी श्रेष्ठ विचार का प्रभाव ग्रहण करना उचित है, किंतु उसका अंधानुकरण उचित नहीं कहा जा सकता। भारतीय समाज की कुप्रथाओं और रूढ़ियों को तोड़ने का जो प्रयास प्रगतिवादियो ने किया, अवश्य श्लाघ्य है, किंतु इस बहाने जो कुछ पुराना है, सभी को गर्हित,घृणित और निन्दनीय ठहराना युक्तियुक्त नहीं लगता।
प्रगतिवाद में अभिजात्य वर्गों के प्रति जो घृणा और ईश्वर, धर्म ,संस्कृति आदि के प्रति जैसी अनास्था प्रकट हुई है निश्चय ही उसके मूल में मार्क्स के विचार और साम्यवादी देशों के प्रति अंधभक्ति ही है, परंतु उन्हें यह सत्य विस्मृत हो गया है कि सांस्कृतिक परंपराओं की भिन्नता बस एक देश में उपयोगी सिद्ध होने वाले आदर्श और विचार दूसरे देश पर यथारूप थोपे नहीं जा सकते। भारतीय समाज का ढांचा धर्म की नींद पर ही खड़ा हुआ है। यहां की धर्म प्राण जनता धर्म और ईश्वर को छोड़कर जी नहीं सकती।
प्रगतिवादी नारी को मात्र भोग की चीज समझते हैं इसी कारण उनके साहित्य में अश्लील यौन-चित्रण प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, जो साहित्य के लिए घातक है। यही नहीं अधिकांश प्रगतिवादी साहित्यकार समाज के निम्न वर्ग का जो चित्रण करते हैं वह स्वयं का भोगा हुआ अथवा देखा हुआ नहीं होता। इसी कारण उनकी रचनाएं अतिशयोक्ति परक कृत्रिम और भड़कीली होती हैं। मखमली सोफे पर बैठे पारकर पेन से बिजली के पंखे की हवा खाते हुए किसानों और मजदूरों का यथार्थ चित्रण नहीं किया जा सकता।
उपर्युक्त दोष अधिकांश एकांगी पक्षपातपूर्ण एवं द्वेष से ही अधिक प्रेरित होते हैं। जैसे प्रगतिवादी केवल जहां तक धर्म का संबंध है वह धर्म का घोर विरोधी है, क्योंकि धर्म और उसके ठेकेदार अनादिकाल से समाज के शोषक वर्ग के समर्थक रहे हैं और ईश्वर के नाम पर सामान्य जनता को ठगते तथा अपने संरक्षकों- राजा महाराजाओं तथा धनी लोगों का समर्थन करते रहे हैं।इसी कारण प्रगतिवाद धर्म के इस आडंबर भरे छली और पक्षपाती रूप का घोर विरोधी है। नारी को प्रगतिवाद में जितना महत्त्व और सम्मान मिला है उतना हिंदी के अन्य किसी भी साहित्य में नहीं मिल सका है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रगतिवाद में लक्षित दोष आंशिक रूप से सत्य तथा भ्रम पूर्ण है।
छायावादी काव्य में प्रगतिशीलता की झलक
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प्रगतिवादी काव्य की स्पष्ट प्राथमिक दशा की झलक जुलाई सन 1938 में श्री सुमित्रानंदन पंत और श्री नरेंद्र शर्मा के संपादकत्व में निकलने वाले कालाकांकर की मासिक पत्र 'रूपाभ' में मिली। 'रूपाभ' थोड़े ही दिनों बाद बंद हो गया 'रूपाभ' का प्रकाशन स्थान- प्रकाश गृह, कालाकांकर (अवध) था। उसका वार्षिक मूल्य ₹4 था प्रथम अंक में एक प्रति का मूल्य नहीं छपा था ,परंतु पर दूसरे में एक प्रति छ्ह आने लगा था, परंतु दुर्भाग्य से यह पत्रिका दीर्घायु ना हो सकी। इधर प्रगतिवाद की विशद् व्याख्याएँ और रचनाएं काशी के हंस में व्यवस्थित रूप से प्रकाशित होने लगी,जब से (सन 1941) उसके संपादक श्री शिवदान सिंह चौहान हुए। इसी बीच प्रगतिवाद की चर्चा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में होती रही। हिंदी साहित्य की इस नवीन प्रवृति पर पूना अधिवेशन में पंडित नंददुलारे वाजपेई ने विस्तृत प्रकाश डाला।
अब तक पंत जी की युगवाणी प्रकाशित हो चुकी थी और बहुत से कवियों ने इस प्रकार की रचनाएं लिखनी प्रारंभ कर दी थीं। मार्क्स के भौतिकवाद से प्रभावित होकर रचनाएं करने वालों में पंत जी सबसे आगे आए। इन भौतिकवादी विचारों को लक्ष्य में रखकर पहले पहल लिखी गई प्रगतिवादी रचना पंत की 'युगवाणी' तथा 'मानव पशु' है।(11) पंत के 'युगांत' को छायावाद और प्रगतिवाद के संधि काल की रचना कहा जा सकता है। इस संदर्भ में पंडित शांतिप्रिय द्विवेदी का कथन अत्यंत उपयुक्त है, उन्होंने लिखा है- पंत की प्रगतिशील रचनाओं में 'युगांत' का वही आरंभिक स्थान है जो छायावाद काल में उनकी 'वीणा' का। वीणा में अस्पष्ट सौंदर्य बोध था, युगांत में अस्पष्ट युगबोध। एक में छायावाद का शैशव था, दूसरे में प्रगतिवाद का बाल्यकाल। वीणा का विकास पल्लव और गुंजन में हुआ, 'युगांत' का विकास 'युगवाणी' और 'ग्राम्या' में।(12)
'रूपाभ' में पंत की नए ढंग की कई रचनाएं एक साथ प्रकाशित होने लगी थीं, जिसके कारण बहुत नवयुवक कवि इस ओर आकृष्ट हुए। पंत जी की ऐसी रचनाओं के कुछ अंश उद्धृत किए जाते हैं ,जिसमें उनकी प्रगतिशील का दिखाई देती है:-
" आत्मा ही बन जाए देह नव
ज्ञान ज्योति ही विश्व स्नेह नव,
हास अश्रु आशा आकांक्षा
बन जाएं खाद्य मधु पानी।
युग की वाणी।"
-(युगवाणी)
" देव और पशु भागों में जो सीमित
युग युग में होता परिवर्तित अवसित
सब मानव- पशु ने किया आज भाव अर्जित मानव देव हुआ अब वह सम्मानित
मानव के पशु के प्रति
मध्य वर्ग की हो रति।"(13)
(मानव पशु)
-रूपाभ, जुलाई,38
आज सत्य, शिव सुंदर केवल
वर्गों में है सीमित
उर्ध्वमूल संस्कृति को होना
अधोमूल है निश्चित।(14)
(मूल्यांकन)
-रूपाभ,अगस्त'38'
इन पंक्तियों में पीड़ित जन समुदाय की उस विपणन अवस्था का वर्णन है जिसे समाज के उच्च वर्ग ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए संभव बनाया है। शत-शत नैतिक बन्धनों के जाल बिछाकर निम्न वर्ग को समाज ने जकड़ लिया था, पर आज उनमें नवीन जागृति और चेतना का आविर्भाव हो गया है। अब वह रूढ़ियों और नीतियों के ताड़न नहीं सहेगा। वर्तमान समय में सत्य,शिव, सुंदर वस्तुयें उच्च वर्ग की सीमा में ही संकुचित हैं। ऐसी वर्ग समाज का नाश करके धरा में ऐसा स्वर्ग समुपस्थित करना चाहिए, जिसमें न तो श्रेणी संघर्ष हो, न रूढ़ियों का जाल हो और न जहाँ 'जन-श्रम' शोषण हो।
प्रगतिवादी काव्य चेतना में जिस दृष्टि से 'वाद' और 'शील' का भेद समझा जाता है, उसी प्रकार प्रवर्तक और प्रगतिवादी श्रद्धा के विषय में विभिन्न मत हैं। इस काव्य प्रवृत्ति के प्रचलन के योग में मार्क्सवादी भी हैं और अन्य भी। इसी बिंदु पर इस विषय का विवेचन मिलता है एक और छायावादी कवियों में पंत और निराला ने प्रगतिवादी चेतना का आह्वान किया तो दूसरी ओर दिनकर नवीन और नरेंद्र शर्मा आदि भी इस काव्य प्रवृति के साथ दृष्टिगत होते हैं। इनके अतिरिक्त मार्क्सवाद की घोषणा के साथ त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन आदि की रचनाएं भी इसी समय प्रकाशित हुईं।
शिल्प की दृष्टि से सरलता और सहजता को स्वीकार करते हुए छायावादी विकृति को तिरस्कृत कर व्यक्तिवादी भावना से समष्टिगत चेतना का आह्वान करने वालों में नरेंद्र शर्मा आदि को नंददुलारे बाजपेयी इस प्रवृत्ति का प्रवर्तक मानते हैं।(15) इसके विपरीत डॉ नगेंद्र जी पंतजी को 'युगांत' 'युगवाणी' व 'ग्राम्या' के आधार पर प्रगतिवाद का प्रवर्तक मानते हैं।(16)
इन दोनों से अलग डॉ नामवर सिंह का विवेचन भी विचारणीय है- एक ओर पंत जी
दनादन 'युगवाणी' और 'ग्राम्या' दे रहे थे और दूसरी ओर निराला जी जैसे रास्ता ढूंढ रहे थे।********* लेकिन ग्राम्या के आगे इस रेखाकारी पर बहुत कम लोगों का ध्यान गया। तभी निराला के विक्षिप्त होने का बुरा समाचार आया। थोड़े दिनों के बाद इसी स्थिति में उनके 'कुकुरमुत्ता' और 'नए पत्ते' निकले। कुकुरमुत्ता, गरम पकौड़ी, खजुराहो, महंगू महँगा रहा, डिप्टी साहब आए, कुत्ता भौंकने लगा,आदि व्यंग्यों को देखकर साधारण पाठकों में बड़ी निराशा हुई। जिस मजाक के ढंग से वे कविताएं कही गई थीं उससे अधिक मजाक के रूप में वे ली गईं। कुछ नहीं कहा यह पागलपन है और कुछ ने कहा यह निरालापन। निराला के भक्तों ने इस यथार्थवाद की बड़ी-बड़ी वारीक बातें खोज निकालीं। इतना सब होते हुए भी साहित्य के सामान्य पाठक तथा चौहान जैसे आलोचक पंत को ही प्रगतिवाद का प्रवर्तक समझते रहे। निराला की प्रगतिशीलता की ओर लोगों का ध्यान नहीं रहा।(17)
" प्रगतिवादी काव्यकारों से भी अधिक निराला जी समाजवादी थे।साम्यवादी न हों वह दूसरी बात है।"(18) डॉ नामवर सिंह का उक्त कथन ईमानदारी की बात ही नहीं है बल्कि इस बात की ओर न तो किसी आलोचक का और न किसी साधारण पाठक का ध्यान गया यह वास्तव में सोचनीय बात है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अधिकांश कवि एवं आलोचक पंत जी को ही प्रगतिवाद का प्रवर्तक समझते हैं।
संदर्भ सूची
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1-नामवर और सिंह आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां -पृष्ठ 77
2- साहित्य की समस्याएं: ' प्रगतिवाद' लेख पृष्ठ 54
3- नामवर सिंह -आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां- पृष्ठ 77
4- यथोपरि, पृष्ठ 77-78
5-यथोपरि, पृष्ठ 84
6- डॉ0 (श्रीमती) संतोष ललोरिया- 'हिंदी कविता में प्रगतिवादी आंदोलन' लेख से हिंदुस्तानी' भाग- 43 अंक -4 अक्टूबर- दिसंबर, 1982, संपादक -डॉ रामकुमार वर्मा पृष्ठ -29
7- डॉ रमेशचंद्र शर्मा- छायावाद से नयी कविता,पृष्ठ -99
8-यथोपरि,पृष्ठ-101
9- डॉ श्रीमती संतोष ललोरिया- हिंदी कविता में प्रगतिवादी आंदोलन- हिंदुस्तानी पत्रिका 4 ,भाग- 43 ,अंक- 4 अक्टूबर- दिसंबर 1982, पृष्ठ -28
10- डॉ रमेश चंद्र शर्मा -छायावाद से नयी कविता,पृष्ठ 81
11- विजय शंकर मल्ल-प्रगतिवाद का इतिहास, पृष्ठ -33
12- शांतिप्रिय द्विवेदी का कथन, ज्योति विहग, उद्धृत -छायावादी काव्य एक दृष्टि, पृष्ठ -113
13- पंत- युगवाणी
14-पंत रूपाभ,जुलाई '38'
15- पंत -(मूल्यांकन -रूपाभ, अगस्त '38')
16- द्रष्टव्य,आधुनिक साहित्य ,प्रगतिशील साहित्य, (लेख) पृष्ठ -369
17- आधुनिक हिंदी की मुख्य प्रवृत्तियां, द्रष्टव्य, प्रगतिवाद।
18- नामवर सिंह -आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां,पृष्ठ -89 तथा 90.
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प्रगतिवादी काव्य की स्पष्ट प्राथमिक दशा की झलक जुलाई सन 1938 में श्री सुमित्रानंदन पंत और श्री नरेंद्र शर्मा के संपादकत्व में निकलने वाले कालाकांकर की मासिक पत्र 'रूपाभ' में मिली। 'रूपाभ' थोड़े ही दिनों बाद बंद हो गया 'रूपाभ' का प्रकाशन स्थान- प्रकाश गृह, कालाकांकर (अवध) था। उसका वार्षिक मूल्य ₹4 था प्रथम अंक में एक प्रति का मूल्य नहीं छपा था ,परंतु पर दूसरे में एक प्रति छ्ह आने लगा था, परंतु दुर्भाग्य से यह पत्रिका दीर्घायु ना हो सकी। इधर प्रगतिवाद की विशद् व्याख्याएँ और रचनाएं काशी के हंस में व्यवस्थित रूप से प्रकाशित होने लगी,जब से (सन 1941) उसके संपादक श्री शिवदान सिंह चौहान हुए। इसी बीच प्रगतिवाद की चर्चा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में होती रही। हिंदी साहित्य की इस नवीन प्रवृति पर पूना अधिवेशन में पंडित नंददुलारे वाजपेई ने विस्तृत प्रकाश डाला।
अब तक पंत जी की युगवाणी प्रकाशित हो चुकी थी और बहुत से कवियों ने इस प्रकार की रचनाएं लिखनी प्रारंभ कर दी थीं। मार्क्स के भौतिकवाद से प्रभावित होकर रचनाएं करने वालों में पंत जी सबसे आगे आए। इन भौतिकवादी विचारों को लक्ष्य में रखकर पहले पहल लिखी गई प्रगतिवादी रचना पंत की 'युगवाणी' तथा 'मानव पशु' है।(11) पंत के 'युगांत' को छायावाद और प्रगतिवाद के संधि काल की रचना कहा जा सकता है। इस संदर्भ में पंडित शांतिप्रिय द्विवेदी का कथन अत्यंत उपयुक्त है, उन्होंने लिखा है- पंत की प्रगतिशील रचनाओं में 'युगांत' का वही आरंभिक स्थान है जो छायावाद काल में उनकी 'वीणा' का। वीणा में अस्पष्ट सौंदर्य बोध था, युगांत में अस्पष्ट युगबोध। एक में छायावाद का शैशव था, दूसरे में प्रगतिवाद का बाल्यकाल। वीणा का विकास पल्लव और गुंजन में हुआ, 'युगांत' का विकास 'युगवाणी' और 'ग्राम्या' में।(12)
'रूपाभ' में पंत की नए ढंग की कई रचनाएं एक साथ प्रकाशित होने लगी थीं, जिसके कारण बहुत नवयुवक कवि इस ओर आकृष्ट हुए। पंत जी की ऐसी रचनाओं के कुछ अंश उद्धृत किए जाते हैं ,जिसमें उनकी प्रगतिशील का दिखाई देती है:-
" आत्मा ही बन जाए देह नव
ज्ञान ज्योति ही विश्व स्नेह नव,
हास अश्रु आशा आकांक्षा
बन जाएं खाद्य मधु पानी।
युग की वाणी।"
-(युगवाणी)
" देव और पशु भागों में जो सीमित
युग युग में होता परिवर्तित अवसित
सब मानव- पशु ने किया आज भाव अर्जित मानव देव हुआ अब वह सम्मानित
मानव के पशु के प्रति
मध्य वर्ग की हो रति।"(13)
(मानव पशु)
-रूपाभ, जुलाई,38
आज सत्य, शिव सुंदर केवल
वर्गों में है सीमित
उर्ध्वमूल संस्कृति को होना
अधोमूल है निश्चित।(14)
(मूल्यांकन)
-रूपाभ,अगस्त'38'
इन पंक्तियों में पीड़ित जन समुदाय की उस विपणन अवस्था का वर्णन है जिसे समाज के उच्च वर्ग ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए संभव बनाया है। शत-शत नैतिक बन्धनों के जाल बिछाकर निम्न वर्ग को समाज ने जकड़ लिया था, पर आज उनमें नवीन जागृति और चेतना का आविर्भाव हो गया है। अब वह रूढ़ियों और नीतियों के ताड़न नहीं सहेगा। वर्तमान समय में सत्य,शिव, सुंदर वस्तुयें उच्च वर्ग की सीमा में ही संकुचित हैं। ऐसी वर्ग समाज का नाश करके धरा में ऐसा स्वर्ग समुपस्थित करना चाहिए, जिसमें न तो श्रेणी संघर्ष हो, न रूढ़ियों का जाल हो और न जहाँ 'जन-श्रम' शोषण हो।
प्रगतिवादी काव्य चेतना में जिस दृष्टि से 'वाद' और 'शील' का भेद समझा जाता है, उसी प्रकार प्रवर्तक और प्रगतिवादी श्रद्धा के विषय में विभिन्न मत हैं। इस काव्य प्रवृत्ति के प्रचलन के योग में मार्क्सवादी भी हैं और अन्य भी। इसी बिंदु पर इस विषय का विवेचन मिलता है एक और छायावादी कवियों में पंत और निराला ने प्रगतिवादी चेतना का आह्वान किया तो दूसरी ओर दिनकर नवीन और नरेंद्र शर्मा आदि भी इस काव्य प्रवृति के साथ दृष्टिगत होते हैं। इनके अतिरिक्त मार्क्सवाद की घोषणा के साथ त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन आदि की रचनाएं भी इसी समय प्रकाशित हुईं।
शिल्प की दृष्टि से सरलता और सहजता को स्वीकार करते हुए छायावादी विकृति को तिरस्कृत कर व्यक्तिवादी भावना से समष्टिगत चेतना का आह्वान करने वालों में नरेंद्र शर्मा आदि को नंददुलारे बाजपेयी इस प्रवृत्ति का प्रवर्तक मानते हैं।(15) इसके विपरीत डॉ नगेंद्र जी पंतजी को 'युगांत' 'युगवाणी' व 'ग्राम्या' के आधार पर प्रगतिवाद का प्रवर्तक मानते हैं।(16)
इन दोनों से अलग डॉ नामवर सिंह का विवेचन भी विचारणीय है- एक ओर पंत जी
दनादन 'युगवाणी' और 'ग्राम्या' दे रहे थे और दूसरी ओर निराला जी जैसे रास्ता ढूंढ रहे थे।********* लेकिन ग्राम्या के आगे इस रेखाकारी पर बहुत कम लोगों का ध्यान गया। तभी निराला के विक्षिप्त होने का बुरा समाचार आया। थोड़े दिनों के बाद इसी स्थिति में उनके 'कुकुरमुत्ता' और 'नए पत्ते' निकले। कुकुरमुत्ता, गरम पकौड़ी, खजुराहो, महंगू महँगा रहा, डिप्टी साहब आए, कुत्ता भौंकने लगा,आदि व्यंग्यों को देखकर साधारण पाठकों में बड़ी निराशा हुई। जिस मजाक के ढंग से वे कविताएं कही गई थीं उससे अधिक मजाक के रूप में वे ली गईं। कुछ नहीं कहा यह पागलपन है और कुछ ने कहा यह निरालापन। निराला के भक्तों ने इस यथार्थवाद की बड़ी-बड़ी वारीक बातें खोज निकालीं। इतना सब होते हुए भी साहित्य के सामान्य पाठक तथा चौहान जैसे आलोचक पंत को ही प्रगतिवाद का प्रवर्तक समझते रहे। निराला की प्रगतिशीलता की ओर लोगों का ध्यान नहीं रहा।(17)
" प्रगतिवादी काव्यकारों से भी अधिक निराला जी समाजवादी थे।साम्यवादी न हों वह दूसरी बात है।"(18) डॉ नामवर सिंह का उक्त कथन ईमानदारी की बात ही नहीं है बल्कि इस बात की ओर न तो किसी आलोचक का और न किसी साधारण पाठक का ध्यान गया यह वास्तव में सोचनीय बात है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अधिकांश कवि एवं आलोचक पंत जी को ही प्रगतिवाद का प्रवर्तक समझते हैं।
संदर्भ सूची
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1-नामवर और सिंह आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां -पृष्ठ 77
2- साहित्य की समस्याएं: ' प्रगतिवाद' लेख पृष्ठ 54
3- नामवर सिंह -आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां- पृष्ठ 77
4- यथोपरि, पृष्ठ 77-78
5-यथोपरि, पृष्ठ 84
6- डॉ0 (श्रीमती) संतोष ललोरिया- 'हिंदी कविता में प्रगतिवादी आंदोलन' लेख से हिंदुस्तानी' भाग- 43 अंक -4 अक्टूबर- दिसंबर, 1982, संपादक -डॉ रामकुमार वर्मा पृष्ठ -29
7- डॉ रमेशचंद्र शर्मा- छायावाद से नयी कविता,पृष्ठ -99
8-यथोपरि,पृष्ठ-101
9- डॉ श्रीमती संतोष ललोरिया- हिंदी कविता में प्रगतिवादी आंदोलन- हिंदुस्तानी पत्रिका 4 ,भाग- 43 ,अंक- 4 अक्टूबर- दिसंबर 1982, पृष्ठ -28
10- डॉ रमेश चंद्र शर्मा -छायावाद से नयी कविता,पृष्ठ 81
11- विजय शंकर मल्ल-प्रगतिवाद का इतिहास, पृष्ठ -33
12- शांतिप्रिय द्विवेदी का कथन, ज्योति विहग, उद्धृत -छायावादी काव्य एक दृष्टि, पृष्ठ -113
13- पंत- युगवाणी
14-पंत रूपाभ,जुलाई '38'
15- पंत -(मूल्यांकन -रूपाभ, अगस्त '38')
16- द्रष्टव्य,आधुनिक साहित्य ,प्रगतिशील साहित्य, (लेख) पृष्ठ -369
17- आधुनिक हिंदी की मुख्य प्रवृत्तियां, द्रष्टव्य, प्रगतिवाद।
18- नामवर सिंह -आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां,पृष्ठ -89 तथा 90.
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