Wednesday, January 25, 2023

★राष्ट्रीय जीवन के कैनवास पर★ (कविता)

वंदे मातरम्!मित्रो!अपनी एक कविता समर्पित कर रहा हूँ।इसे पढ़कर आप अपने विचारों से भी मुझे अवगत जरूर कराएँ।💐👏👏

★राष्ट्रीय जीवन के कैनवास पर★
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               ●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह

तोड़ने होंगे वे सारे स्तूप
जो गुलामी की जंजीरों में
जकड़े हैं आज भी 
मीनारों को,विचारों को।

ढहाने होंगे 
उन सभी अकादमिक संस्थानों को
जो गाते आ रहे हैं चारण गीत 
माओं,लेनिनों,स्टालिनों,कार्लमार्क्सों के।

कुचलने होंगे उन 
सभी मंसूबों को
जो देश की पीठ पर 
मारते रहते हैं खंजर।

मिटाने होंगे 
वे जातिवादी और मज़हबी अँधियारे
जिसमें घृणा में अंधे और कुंठित
जहरीले नाग 
डसते रहते हैं पल-पल 
मुल्क के आत्मीय रिश्तों को।

हटाने होंगे वे सारे धुन
जो विदेशी चाटुकारिता का
करते हैं पोषण
और
देसी धुनों का बहिष्कार।

खदेड़ने होंगे उन सभी
मुखौटेधारी भेड़ियों को
जो छिपकर करते हैं
पीछे से वार 
देश की अखंडता पर।

याद करने होंगे 
उन आजादी के दीवानों को
जो मातृभूमि की 
गुलामी की बेड़ियों को
काटते-काटते 
हो गए थे शहीद।

उठाने होंगे वे सारे कदम
जो धीरे-धीरे खोई हुई 
अस्मिता और स्वत्व को 
ढूढ़ कर प्रतिष्ठापित करे
नई आजादी की तस्वीर,
फैलाये अपनी स्वायत्तता की
चाँदनी 
मन के विस्तृत फलक पर।

जोड़ने होंगे मन के तार
सिलने होंगे मन की फटी चादर
मिलाने होंगे कदम से कदम

गाने होंगे 
मातृभूमि के अमृतगान
फैलाने होंगे 
प्रेमपुष्प की आत्मीय सुगंध
जन-जन के मन में।

रचने होंगे 
विश्वास के सूरज
स्नेह के बरसते बादल
इन्द्रधनुषी स्वप्न
राष्ट्रीय जीवन के कैनवास पर।।

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Sunday, January 22, 2023

मेरी तीन माह की दौहित्री सानवी सिंह


मेरी तीन माह की दौहित्री सानवी सिंह 

Friday, January 6, 2023

जीवन -पथ पर (कविता)

वन्देमातरम्!मित्रो!मेरी एक छोटी कविता समर्पित है-

जीवन-पथ पर
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असत्य की राह पर 
चलने से अच्छा है 
सत्य के रास्ते पर चलकर 
असफल हो जाना।
खो जाना उन बीहडों में 
जहाँ से लौटने की गुंजाइश न बचे।
लौटे तो मरे
लोग तुम्हें ढूढ़ने जाएँ
पर तुम न मिलो,
मिले तो मरे
मरने के लिए
सांस बंद करने की जरूरत नहीं
बस जरूरत के मुताबिक
धीरे धीरे डूब जाना 
अविश्वास के अंधे कूप में
तैरना कुंठाओं की काली नदी में
उगना घृणा के खेत मे
ओढ़ लेना स्वार्थ की चादर
अपनी आत्मा की देह पर
पहन लेना बर्फ के चश्मे
अपनी सोच की ठंडी आँखों पर
फिर देखना तुम धीरे-धीरे मर जाओगे
तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि
कब मर गए
न कोई दर्द न तकलीफ़
मगर तुम्हें जीना होगा
असफलता की सीढ़ियों से
नीचे उतरना होगा
धीरे-धीरे सच की खुरदरी जमीन पर
चलना होगा
अनवरत ससीम से असीम की ओर
यही है असली जीवन का पथ। 

●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह

Tuesday, January 3, 2023

चतुर्थ अध्याय- छायावादी कवि 'निराला' में प्रगतिशील चेतना

                  चतुर्थ अध्याय
                   ◆◆◆◆◆

छायावादी कवि 'निराला' में प्रगतिशील चेतना
★★★★★★★★★★★★ ★★★★★


निराला सर्वप्रथम छायावादी कवि हैं, जिन्होंने कविकर्म की कठोरता का अनुभव किया था ।उनके मस्तिष्क में व्याकुल मानवता की पीड़ा का नक्शा विद्यमान था, इसलिए उन्होंने कवि के रूप में अपना कर्त्तव्य अनुभव किया। सामान्य परिवार में जन्म लेने के कारण इनकी दृष्टि सदैव दीन- दुखियों और असहाय व्यक्तियों पर रही है। उन्होंने देश के एक लंबे समुदाय को उदर भरण की चिंता में दौड़ते देखा था। बहुतों को समस्या की इस देहली पर दम तोड़ते भी पाया। दैन्य और असमर्थता का इससे बढ़कर और कौन उदाहरण हो सकता है। ऐसी उपेक्षित प्राणियों के प्रति महाकवि ने सदैव सहानुभूति का प्रदर्शन किया।इन्हें हिंदी का रविंद्र कहा जा सकता है। किसी मायने में कम नहीं, हर तरफ से बराबर। निराला स्वभाव से अक्खड़ तथा मनमौजी किस्म के आदमी थे।संपूर्ण विश्व कुटुंब तुल्य और गरीब इनके भाई थे।सामाजिक असमानता और वैयक्तिक जीवन के अभाव ने निराला को विद्रोही बना दिया था ऐसे वैसे नहीं-पक्का। निष्ठुर बंधन और जर्जर रूढ़ियों को कबूलना या गलत मान्यताओं को स्वीकृति देना, उन्हें कभी मान्य न था।इसी कारण समाज अपने रास्ते पर चला गया और निराला विपरीत दिशा में गीत गुनगुनाते रहे ,जैसे जो कुछ घट रहा है। उससे कोई सरोकार ही नही। बेमेल और कंटकाकीर्ण परिस्थितियों के सामने महाकवि ने कभी सिर नहीं झुकाया। अपनी अपार शक्ति और अलौकिक प्रतिभा के बल पर ही वे निराला कहलाए काव्य जगत के निराला। जो आकाश की तरह व्यापक सूर्य की तरह प्रभावपूर्ण पृथ्वी-सा ठोस  और सागर से भी अधिक गहरा हो- वही निराला से मेल खा सकता है। उथले और कमजोर किस्म के आदमी तो उनके सामने एक क्षण भी नहीं टिक सकते थे।

उनकी प्रतिच्छाया प्रतिरूप की कल्पना करते ही नस नस में बिजली सा स्पंदन छा जाता है ,क्योंकि वह दया ममता और करुणा की सजीव मूर्ति थे। उन्हें समय-समय पर जो पुरस्कार मिले या प्रकाशकों से पारिश्रमिक मिला उसे गरीबों असहायों और विद्यार्थियों में बाँट दिया। वे बीसवीं शताब्दी के कर्ण थे। स्वयं प्रचंड  झंझावातों का मुकाबला करते रहे।संकटों से जूझना ही उनके जीवन का आदर्श था कुछ लोग निराला को पागल या एबनॉर्मल कहा कहते रहे हैं ।यह वही लोग हैं, जो महाकवि के सशक्त व्यक्तित्व को देखकर निस्तेज,भयभीत और कुंठाग्रस्त हो जाते थे।मानसिक स्तर पर कुंठित और पराजित व्यक्ति भला किस को सम्मान दे सका है।निराला जीवन भर आर्थिक और सामाजिक विषमताओं से टकराने के बावजूद वे कभी विचलित नहीं हुए थे।यही दृढ़ता उनके स्वभाव का आवश्यक अंग बन गई थी और उसने उनके स्वाभिमान को कभी झुकने न दिया।अपने स्वाभिमान पर ठेस लगते हैं वे तिलमिला उठते थे। स्वाभिमान के प्रति उनका इतना आग्रह था कि पल्लव की भूमिका में पंत ने इन पर कुछ आक्षेप किए थे।उसकी घोर प्रतिक्रिया  से दुखी होकर उन्होंने 'पंत और पल्लव' निबंध लिखा और ब्याज सहित मूलधन चुका लिया। वे एक बार हिंदी के मसले पर 'गांधी और नेहरू' से भी भिड़ गए थे। निराला बड़े ही नेक दिल के व्यक्ति थे उनमें छल-कपट का कहीं नाम भी ना था। जिससे इनका कभी मनमुटाव हुआ अवसर पड़ने पर उसका सत्कार अवश्य करते थे।'पल्लव' की भूमिका तथा 'पंत तथा पल्लव' के घात प्रतिघात के बाद भी पंत और निराला की मैत्री में किसी प्रकार का अंतर नहीं आया।

साहित्य में तो निराला अक्खड़ थे ही, व्यावहारिक जीवन में भी वे बड़े निर्भीक थे। उनकी निर्भीकता का चित्रण करते हुए नंददुलारे वाजपेई ने लिखा है -"जब कभी वह गाँव आते, रात नौ या दस बजे तक हमारे गाँव पर ही रहा करते थे। उनसे कहा जाता कि रात यहीं रह जाइए,तो वे बहुत कम इस प्रस्ताव को स्वीकार करते। रात उजेली हो या अंधेरी वे चल देते और डेढ़ दो मील सूनी बाड़ियों और बगीचों को पार कर अपने घर पहुँचते ।बरसात के दिनों में लोन नामक नदी जो उनके रास्ते में पड़ती थी, बेहद भयावह हो जाती थी। उसका पाट बहुत खूब बढ़ जाता था और वेग का तो कहना ही क्या? परंतु निराला जी एक हाथ में कुर्ता धोती लिए दूसरे हाथ से तैर कर उस बरसाती नदी को ना जाने कितनी बार तैर गए थे ।कहा जाता है कि महिषादल में निराला श्मशान सेवन किया करते थे और साथ ही वहाँ के प्रसिद्ध मंदिर में देर तक बैठे रहते थे।"(1)
पूरे हिंदी साहित्य में इस प्रकार का क्रांतिकारी एवं निर्भीक व्यक्तित्व केवल कबीर को मिला था। निराला कबीर की भाँति ही सिर से पैर तक मस्त मौला थे। कबीर की भांति निराला की तेजस्विता भी स्तुत्य है  इतना होने पर भी निराला के नेतृत्व में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो अन्यत्र नहीं पाई जाती और इन्हीं विशेषताओं के कारण हिंदी कवियों में उनका प्रगतिशील व्यक्तित्व अपने ढंग का अकेला है। इस जन्मजात विषपायी को आजीवन विष का कड़वा घूंट ही पीना पड़ा।इनका जीवन संघर्ष का जीवन था ,परोपकार का जीवन था, वह किसी लीक पर  चलने वाले साहित्यकार नहीं थे। फिर भी ऐसी लीक छोड़ गए जो आज के साहित्यकारों की दिशा निर्देशक बनी हुई है। उनके व्यक्तित्व के निरालेपन का उल्लेख करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-" निराला का अध्ययन बहुत विशाल है, परंतु कभी भी उन्होंने पुराने और आधुनिक साहित्यकारों का अनुकरण नहीं किया ।वह नख से शिख तक मौलिक हैं ।वह किसी से हुबहू नहीं मिलते। उनका निराला उपनाम बिल्कुल सार्थक है...... क्या काव्य, क्या कहानी,क्या निबंध; निराला जी का व्यक्तित्व सर्वत्र ही अत्यंत मुखर होता है।............. इतना अद्भुत व्यक्तित्व हिंदी कवियों की वर्तमान दुनिया में ही नहीं।"(2)

साहित्य के क्षेत्र में 'निराला' के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए पंत लिखते हैं -"निराला का विकास प्रसाद की तरह मंद गजगामी गति से नहीं हुआ। उन्होंने कविता कानन में अपने समस्त प्रवेश के साथ सिंह की तरह प्रवेश किया और पहली ही रचना जूही की कली ने नई अभिव्यंजना तथा शिल्प कौशल के कारण आलोचकों की दृष्टि में हिंदी जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया।"(3) इसमें संदेह नहीं कि निराला की प्रथम रचना ने ही हिंदी साहित्य में तहलका मचा दिया और आलोचक प्रायः इन्हें शंका  की दृष्टि से देखने लगे, जिससे इनके साहित्य का समुचित मूल्यांकन नहीं हो पाया इनकी विधायक कल्पना में वह अपूर्व शक्ति थी जिसने बरबस ही आलोचकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया शास्त्रीय परंपराओं की लकीर पीटना निराला के स्वभाव  के सर्वथा प्रतिकूल था। वह उस शार्दूल की भाँति थे जो झुंड में रहना नहीं पसंद करता, बल्कि गहन वन को चीरता हुआ अपने मार्ग का स्वयं निर्माण करके स्वच्छंद विचरण करता है। निराला के प्रगतिशील जीवन संघर्ष की कहानी युगांतर महाकाव्य की उदात्तता,सार्वभौम जीवन व्यापकता, स्मरणीय जीवन युद्ध की अद्भुतता के कारण जितनी रमणीयता है उतनी ही नवजीवन प्रदायिनी भी है। युग के अनेक मनीषियों,प्रतिभा संपन्न सुकवियों ने निराला से प्रेरणा ली है। निराला के जीवन में संकल्प की दृढ़ता एवं प्रगतिशील चेतना का दर्शन सरोज के विवाह में किया जा सकता है। इस समय निराला की आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी।एक और तो साधनहीन होने के कारण वे अत्यंत विवश थे, दूसरी ओर उनका विद्रोह पूर्ण संकल्प भी अटूट था। उनकी इस द्वंद्वात्मक मनोवृति का लेखा-जोखा आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के शब्दों में इस प्रकार है-" एक और वे अपनी विपन्नता से बाधित और विवश हो रहे थे, दूसरी ओर दृढ़ निश्चय से अडिग भी बने हुए थे  उन्होंने विवाह की सारी व्यवस्था जिस स्फूर्ति और समारंभ से की थी और व्यक्तिगत रूप से सारे विवाह कार्य को जिस तरह संपन्न किया था,वह उनके व्यक्तित्व के महान और निष्कम्प निश्चय का ही परिचायक है।"(4) सरोज स्मृति में समाज की अनेक रूढ़ियों पर भी कवि ने प्रहार किया है। सरोज के विवाह प्रसंग में निराला कान्यकुब्ज ऊपर अत्यंत व्यंग्य करते हैं। उनकी विशेषता बतलाते हैं-

" वे कान्यकुब्ज कुल-कुलंगार, 
खाकर पत्तल में करे छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय बेलि में विष ही फल
यह दग्ध मरुस्थल -नहीं सुजल।"(5)
कान्यकुब्जों के पैरों का वर्णन व्यंग्य मिश्रित हास्य को सफलतापूर्वक संमूर्तित करता है। विवाह में ससुर द्वारा दामाद का पाद प्रक्षालन एक आवश्यक प्रक्रिया है उसका स्मरण कर कान्यकुब्जों की उन्होंने अच्छी खबर ली है---

" वे जो जमुना के से कछार,
पद फटे बिवाई के उधार,
खाए थे मुख ज्यों पिये तेल,
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते, घोर गंध
उन चरणों को मैं यथा अंध,
कल घ्राण प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूँ,ऐसी नहीं शक्ति।
ऐसे शिव से गिरजा विवाह
करने को मुझको नहीं चाह।"(6)

सामाजिक रूढ़ियों एवं गलत परंपराओं का विरोध करते हुए निराला सरोज के विवाह में बहुत से सामाजिक विधानों को तोड़ने का आह्वान करते हुए कहते हैं--

" तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम,
लग्न के, पढ़ूंगा स्वयं मंत्र,
यदि पंडित जी होंगे स्वतंत्र।"(7)

सवाल पैदा होता है कि निराला के लिए यह बाध्यता स्वयं उनके द्वारा ओढ़ी हुई थी अथवा यह समाज की विधि निषेध पूर्ण संघटना के भीतर से उत्पन्न हुई थी। कहना ना होगा,यह आंशिक रूप से निराला की विद्रोह प्रकृति के कारण उत्पन्न हुई थी और आंशिक रूप से समाज में प्रचलित घिनौनी रूढ़ियों के कारण। निराला प्राचीन की व्यर्थता को जला देने को कहते हैं--

जला दे जीर्ण-शीर्ण प्राचीन क्या करूंगा तन जीवन हीन।"(8)

निराला ज्ञान के साधक और समर्थक थे।वे उसी बात को मान्यता देते थे जो ज्ञान से पोषित और मानवता की प्रगति में सहायक हो--

तान सरिता वह स्त्रस्त्र अरोर,
बह रही ज्ञानोदधि की ओर,
कटी रूढ़ियों के प्राण की डोर
देखता हूँ अहरह मैं जाग।"(9)

'उद्बोधन' निराला की क्रांतिकारी रचना है, जिसमें समस्त रूढ़ियों को हटाकर ज्ञान की प्रतिष्ठा की गई है---
मन्द्र उठा तू बन्द पर जलने वाली तान,
विश्व की नश्वरता कर नष्ट,
जीर्ण-शीर्ण जो,दीर्ण धरा में प्राप्त करें अवसान,
रहे अवशिष्ट सत्य जो स्पष्ट।"(10)

".......... निराला जैसे क्रांतिकारी और द्रष्टा के लिए स्वाभाविक है कि उनमें पौरुष की प्रधानता हो, रूढ़ियों को झकझोर देने की शक्ति हो और बुद्धि की तेजस्विता हो।"(11)

भारतवर्ष गुलामी की जंजीरों में शताब्दियों तक जकड़ा रहा जिसमें नारियों का शोषण किया गया एक ओर तो वे सामंती और पूंजीवादी आर्थिक परिस्थितियों के कारण शोषित वर्गों के पुरुष के साथ ही शोषण का शिकार बनी और दूसरी ओर अपने परिवार के पुरुषों पिता भाई और पति के द्वारा भी अतिरिक्त रूप से शोषित या पद दलित होती रही। कवि निराला ने नारियों को नारी संबंधी सारी ग्रंथों से मुक्त कर उसे सुंदरी और स्नेह उत्तेजक का स्थान दिया कामोत्तेजक का नहीं भोग्या का नहीं---
नहीं लाज भय,अनृत,अनय दु:ख,
लहराता उर मधुर प्रणय-सुख,
अनायास ही ज्योतिर्मय  मुख
स्नेह-पास-कसना।"(12)


भारतीय समाज का विजातियों द्वारा वैभव का उपभोग तो किया ही गया, साथ ही साथ भारतीय नारियों का अपमान भी किया गया। उनके अत्याचार की एक लंबी कहानी है ।इसी अत्याचार ने नारी स्वाधीनता को छीन लिया था। नारी चारदीवारी की सीड़न भरी कोठरी में बंद हो गई थी, फलतः उनके स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ा, जिसके कारण कन्या हत्या,बाल विवाह,सती प्रथा और विधवा विवाह वर्ज की कुत्सित विचारों का बाजार गर्म हो गया, जो नैतिकता स्वच्छंदता और रचनात्मकता को रसातल में पहुँचा दिया। निराला इस ऐतिहासिक सत्य से पूर्णरूपेण परिचित थे। वाचिक रूप से विधवा बने रहने में सम्मान की बात समझी जाती थी, किंतु यथार्थ में उसकी जो दुर्गति हुई,उससे भारतीय समाज का सिर नीचा हो जाता है। विधवा की इसी दीन-हीन दशा का स्मरण कर निराला करुणार्द्र होकर उसका एक चित्र हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं---

वह इष्ट देव के मंदिर की पूजा-सी,
वह दीप-शिखा-सी शांत भाव में लीन,
वह क्रूर काल-तांडव की स्मृति-रेखा सी,
वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन-
  दलित भारत की ही विधवा है।"(13)

यह ऐसी विधवा है जो विवाह के बाद एक ही बार अपने पति से मिल पाई है। आज उसका पति उसके जीवन से दूर हो गया है, इसलिए उसके आर्द्र नेत्र करुणा प्लुत रहते हैं। उसके मुख से निकला हुआ प्रत्येक स्वर हाहाकार में परिवर्तित हो जाता है
वह एकांतवासिनी हो गई है,उसके वस्त्र फटे हुए हैं, वह अस्फुट स्वर में रोती सिसकती है, कि कहीं उसका रुदन कोई सुन न ले। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय समाज में विधवाओं की दयनीय स्थिति जातिवाद और रूढ़िग्रस्तता, आडंबर प्रधान नवीन सभ्यता, नवयुवकों की कुरुचि, निम्न वर्ग के प्रति उच्च वर्ग की अभिचार वृत्ति आदि पतनशीलता को निराला ने दर्शाया है। निराला ने हिंदू धर्म के कुसंस्कारों को तद्वत कभी स्वीकार नहीं किया। जन्म से मृत्यु तक शास्त्रकारों  ने सोलह संस्कारों का विधान मुख्य रूप से किया है। इसमें अधिसंख्य अपनी अर्थवत्ता को खो चुके हैं, किंतु हिंदू समाज इन्हें बंदरिया के मृत बच्चों की भांति सीने से चिपकाए हुए हैं।निराला पुराण-ग्रंथ और रूढ़ि के विरोधी हैं। वह विधवा तथा अंतरजातीय विवाह के समर्थक हैं।विधवा की करुण दशा के प्रति उनका मन आर्द्र हो जाता है। क्या विधवा जैसी दुखी विधाता की दूसरी भी सृष्टि होगी, जो सखियों में भी खुले प्राणों से बातचीत नहीं कर सकती।भोग सुख वाले संस्कारों के बीच रहकर भी भोग- सुख से जिसे विरत रहना पड़ता है आँख के रहते भी जिसे चिरकाल तक दृष्टिहीन होकर रहना पड़ता है।"(14) निराला ने 'बिल्लेसुर बकरिहा' में विधवा विवाह कराया है। इस तरह की उनकी प्रगतिशील तथा उनके काव्य में भी झलकती है।

" स्नेह स्वप्न मग्न अमल कोमल तनु तरुणी, जूही की कली" के चित्रांकन के साथ निराला काव्य क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और परिवेश के प्रति कवि की उन्मुक्त दृष्टि उन्हें इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ने वाली युवा मजदूरनी नके ऊपर कुछ सोचने को मजबूर कर देती है।'तोड़ती पत्थर' एक प्रगतिशील रचना है।इस कविता में निराला ने श्रमिक वर्ग की नारी का हृदय विदारक चित्र अंकित किया है। स्मरणीय है कि मजदूरनी के इस जनवादी चित्र में गलदश्रु भावुकता नहीं है। यह चित्र निश्चय ही हमारी न्याय बुद्धि को झकझोरता है और यथास्थितिवाद के विरुद्ध एक सजग दृष्टि की मांग करता है। मजदूरनी इलाहाबाद के पथ पर खुले आकाश के नीचे बैठकर पत्थर तोड़ रही है। श्याम तन, नमित नयन युवती अपने कर्म में लीन है, हाथ में बड़ा हथौड़ा है, जिससे पत्थर पर वह निरंतर प्रहार कर रही है। सामने शायद पंडित मोतीलाल नेहरू का तरु मालिका से घिरा हुआ आनंद भवन है। ग्रीष्म का मौसम । कार्य करते करते दोपहर होने को आई है। झुलसाती हुई लू चल पड़ी।धूलिकण चिंगारी की भांति उड़ने लगे, किंतु तब भी वह पत्थर तोड़ती रही। कवि से उसका साक्षात्कार हुआ। युवती ने अट्टालिका की ओर देखा,कवि की ओर देखा और अंत में देखा कि संसार में उसका कोई नहीं। कवि  का मन उसकी दारुण दशा पर भर आता है---

"सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक क्षण के बाद वह कांपी सुधर
ढलक माथे से गिरे सीकर
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा
मैं तोड़ती पत्थर।"(15)

इस कथन के द्वारा उसने अपनी परवशता को व्यक्त किया है कि मुझे समाज व्यवस्था ने केवल पत्थर तोड़ने के लिए ही बनाया है। मुझे प्रेम करने का अधिकार नहीं है  पूरी कविता में समाज की असमान व्यवस्था के प्रति चोट की गई है ,पर सारी चोट लाक्षणिक प्रयोगों द्वारा है।जब कवि कहता है--

"गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार;
सामने तरु मालिका,अट्टालिका प्राकार।"(16)

तो इस तरुणी के गुरु हथौड़े से केवल पत्थर पर प्रहार नहीं होता,बल्कि उस पीड़ित समाज व्यवस्था पर उसका प्रहार पहुँचता है,जिसमें ऐसी विषम स्थितियाँ विद्यमान है।इतनी छोटी-सी गिने-चुने साधारण और सपाट शब्दों के उच्चारण द्वारा आज की पूंजीवादी व्यवस्था पर करारा व्यंग्य किया है ।

निराला ने मानवता के प्रति सर्वथा एक नवीन दृष्टि का विकास किया है, किन्तु यथास्थिति को उखाड़ फेंकने का आइवान मानवतावादी सारी कविताओं में प्राप्त नहीं है। नारी सम्बन्धी प्रगतिशील भावना की सही अनुगंज .. अनामिका की मुक्ति कविता में प्राप्त है जहाँ भाषा के अभिजात्य के साथ उन्होंने समस्त नारी वर्ग को दासता कारा को तोड़ने का आह्वान किया है ।

तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा

पत्थर की निकली फिर गंगा जलधारा ।17.

• यही नहीं, कवि की आकांक्षा है कि नारियां पार्वती की भांति होकर सत्य, शिव, सुन्दर को बल देती हुई नेतृत्व ग्रहण करें और दिग्भ्रांत लोगों को सन्मार्ग का अनुसरण करायें -

" गृह गृह की पार्वती ।
पुनः सत्य सुन्दर शिव को संवारती
उर उर की बनी आरती ।
प्रांतों की निश्चल ध्रुवतारा | 18

" नारी को संतों और भक्तों ने वासना की पुतली और मायाविक के रूप में देखा था। रीतिकाल में नायिका केवल काम क्रीड़ा की कन्दुक बन कर रह गई थी। छायावादी कवियों ने नारी के मन की गहराइयों की थाह ली। निराला ने नारी शक्ति की उपासना की । नारी उनकी दृष्टि में अबला न रहकर सबला कर समादृत हुई । नारी की दीनता, निराशा और असहायता का चित्रण करते हुए भी निराला ने उसे प्रेरणा और श्रोत के रूम में देखा। वह वासना का विष न होकर साधना का अमृत है । 19

आश्चर्य की बात है कि छायावादी कवियों में  निराला ही एकमात्र ऐसे कवि है, जिन्होंने धन्नासेठों दुवारा किये जा रहे शोषण और भूपतियों द्वारा शोषित किसानों की दयनीय दशा को गहराई से न केवल जान लिया था, बल्कि शोषको को मिटाने और 64

शोषितों को सुखी बनाने की विप्लवी ललकार भी मारी थी । निराला पौरुष के कवि है अतएव उनके रौद्र रूप को उनकी अनेक रचनाओं में देखा जा सकता है । ' तुलसीदास' और 'राम की शक्ति पूजा' के प्रतीकों में राष्ट्रीयता के सन्दर्भ में " महाराज शिवाजी  का पत्र" में यही प्रगतिशील और क्रान्तिकारी उष्मा है । 'परिमल'  के 'आह्वान'  कविता के माध्यम से कवि को वर्तमान व्यवस्था से असन्तोष दिखायी पड़ता है । इसलिये वह विनाश की प्रतीक श्यामा से प्रार्थना करता है कि अव्यवस्था को मिटाने के लिये तुम्हारा ही ताण्डव नर्तन होता है । इस समय अव्यवस्था भी है और ताण्डव के लिये पर्याप्त सामग्री भी-

"एक बार बस और नाच तू श्यामा |
सामान सभी तैयार,
कितने ही है असुर, चाहिए तुमको कितने हार |
कर - मेखला मुण्ड - मालाओं से बन मन अभिरामा -
एक बार बस और नाच तू श्यामा |" 20

महलों में बैठकर शोषण की योजना बनाने वालों का कवि ध्वंस चाहता है जो विद्रोह का नाम सुनकर ही कांप उठते है । निराला के  'बादल राग'  में शोषकों के प्रति यह दृष्टि-

''अट्टालिका नहीं है रे आतंक-भवन
X X X X X X X X X
रुद्ध कोष है, क्षुब्ध तोष, अंगना, अंग से लिपटे भी
आतंक - अंक पर काँप रहे है, धनी वज्र गर्जन से बादल । त्रस्त नयन मुख टॉप रहे है।'' 21

बादल की सर्वाधिक आवश्यकता दीन किसानों को होती है ; उसी के कारण उसकी कृषि फलवती होती है । यहाँ कवि की प्रगतिशील एवं रचनात्मक दृष्टि का उन्मेश हुआ है---

"जीर्ण बाहु, शीर्ण शरीर, तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर | चूस लिया है उसका सार,
हाड़ माँस ही है आधार, से जीवन के पारावार ।
हिल-हिल खिल-खिल,हाथ हिलाते तुझे बुलाते;
विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।।"22

फिर कवि बादल से याचना करता है, कि तुम अपनी गर्जना चालू रखो। जिससे जीर्ण-शीर्ण समाप्त हो जाय तथा अन्याय के पक्षधर भूधर कॉप उठे और समस्त संसार में जीवन  लहरा उठे । ध्वंसात्मकता तथा रचनात्मकता व प्रगतिशीलता का बहुत सुन्दर संगम निराला ने अपनी संश्लेषण प्रधान मेधा से कराया है -

"घन गर्जन से भर दो वन, तपादप पादप तन ।
जब तक गुंजन गुंजन पर नाची कलियों, कवि निर्भर
भौंरो ने मधु पी पीकर माना स्थिर मधु ऋतु कानन।
गरजी है मन्द्र वज्र स्वर थर्राए भूधर भूधर 
झर-झर-झरझर धरा झर पल्लव-पल्लव पर जीवन ॥" 23

".............निराला की यह जनमुक्ति की चिन्ता उस समय से उनकी कविताओं का जैगरी है, जब हिन्दुस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना भी नहीं हुई थी।"24

निराला के राष्ट्रीय गीतों में सांस्कृतिक चेतना की भास्वरता का स्वर विद्यमान है। मानवतावाद पर विचार करते हुए हमने देखा है, कि 'निराला' का राष्ट्रप्रेम उनकी मानवतावादी भावना को कहीं भी खंडित नहीं करता। इन गीतों के वर्ण्य-विषय-रुप में केवल जीवनोत्कर्ष की भावना को ही नहीं लिया गया है, बल्कि समाज की दयनीय स्थिति और उसकी विषमता पर दृष्टिपात करता हुआ कवि गौरवमय अतीत का अंतराल भी टटोलता है....

"क्या यह वही देश है
भीमार्जुन का आदि का कीर्ति क्षेत्र
चिर कुमार भीम की पताका ब्रह्मचर्यदीप्त
उड़ती है आज भी जहाँ के वायुमंडल में
उज्ज्वल, अधीर और चिर नवीन ?
श्रीमुख से कृष्ण के सुना था जहाँ भारत ने
गीता - गीत सिंहनाद
मर्म वाणी संग्राम की
सार्थक समन्वय ज्ञान- कर्म भक्ति-योग का । " 25

निराला ने सामाजिक चेतना से अनुप्राणित अनेक गीतों में जनमानस के सांस्कृतिक जागरण और प्रगतिशील भावनाओं को जगाने के लिये अपना विद्रोही स्वर दिया । सामाजिक वैषम्य के चलते दीन-हीन दु:खी वर्ग के प्रति इनके मन में अथाह दया और ममता है । समाज की विषमता सम्बन्धी एक उदाहरण देख सकते हैं-

" चाल ऐसी मत चलो
सृष्टि से ही गिर रहा जो
दृष्टि से फिर मत छलो ।
बनो बासंती मृदुल
पत्तिका तरु की अतल
फिर सुरस संचारिका
सुख सारिका उसकी मृदुल
फिर मधुर मधुदान से नव
प्राण देकर फलो || " 26

इस प्रकार के प्रगतिशील गीतों में निराला की मानवतावादी दृष्टि अधिक उभड़ी है । निराला ने देश प्रेम का स्वर 'गीतिका' के प्रथम गीत में ही वीणावादिनी से देश के मंगल की प्रार्थना करता हुआ कहता है-

"वर दे वीणा वादिनी वर दे |
प्रिय स्वतन्त्र-रव अमृत- मन्त्र -नव
भारत में भर दे ।
काट अन्ध उर के बन्धन-स्तर
वहा जननि, ज्योतिर्मय निर्भर;
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर,
जगमग जग कर दे।" 27

"जागो जीवन धनिके" में कवि माँ भारती से देश को आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बनाने की प्रार्थना करता है। 'नर जीवन के स्वार्थ सकल' में कवि देश कल्याण के लिये माँ से प्रार्थना करता है । 'भारति जय विजय करे' में भारत-गौरव वर्णित है।

'अणिमा' में निराला अपनी प्रगतिशीलता दिखाते हैं, जब सन्त कवि रैदास के प्रति जो एक चर्मकार हैं, अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहते हैं-

"हुआ पारस भी नहीं तुमने, रहे
कर्म के अभ्यास में, अविरत बहे
ज्ञान गंगा में, समुज्ज्वल चर्मकार
चरण छूकर कर रहा मैं नमस्कार।" 28

'बेला' की कतिपय कविताओं में उनकी प्रगतिशीलता स्पष्ट है। निराला स्वयं क्रान्तिकारी कवि हैं,जिन्होंने 'जल्द- जल्द पैर बढ़ाजी कविता में क्रांति के लिये प्रोत्साहित किया है - .

"जल्द-जल्द पैर बढाओ,आओ ,आओ
यहाँ जहाँ सेठ जी बैठते थे,
बनिये की आँख दिखाते हुए
उनके ऐंठाये ऐसे थे
धोखे पर धोखा खाते हुए
बैंक किसानों का खुलवाओ ।" 29

अगर हम 'कुकुरमुत्ता' को देखें तो हमें उसमें सामाजिक चेतना, यथार्थ दृष्टि, प्रगतिशील विचारधारा और व्यंग्य- वृत्ति मिलता है, जिसमें जीवन के विविध पार्श्वों पर कवि ने व्यंग्य कसा है। इतना तो कहा ही जा सकता है कि कुकुरमुत्ता के पीछे कोई साधारण काव्यात्मा कार्य नहीं करती।जितना तीव्र और मर्मभेदी  उसका व्यंग्य है, उतनी की व्यापक उसकी दृष्टि है। उसके व्यंग्य का लक्ष्य एक नहीं, अनेकोन्मुख है । कुकुरमुत्ता का पहला व्यंग्य तो उस समाज पर है जहाँ उच्च वर्गों का अधिपत्य होता है और निम्नवर्ग उपेक्षित रहता है। कुकुरमुत्ता उस गरीब मजदूर किसान का प्रतीक है ,जो सहज ही अपनी गरीबी और गंदगी भरे परिवार में जन्म लेता है और राम भरोसे जीता रहता है । वह शोषण की प्रवृत्ति के प्रतीक गुलाब से कहता है-

"अबे ओ गुलाब,
कहाँ से पाई तूने रंग ओ आब ।
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इठला रहा है कैपिटलिस्ट।" 30

इतना ही नहीं समाज का शत्रु कैपीटलिस्ट सर्वहारा को ही नहीं मध्यवर्ग को भी भटका देता है-

"ख्वाब में डुबा चमकता हो सितारा,
पेट में डंड पेले हो चूहे, जुबां पर लफ्ज प्यारा | " 31

'कुकुरमुत्ता' में निराला ने तत्कालीन हिन्दी कविता में तथाकथित प्रगतिवादी और प्रयोगवादी धराओं की अवस्था और अराजकता के प्रति भी व्यंग्य किया है । तत्कालीन प्रगतिवादी लेखकों में जो अनावश्यक जोश और एक दूसरे के प्रति कुत्सा का भाव आया था, जो अनर्गल जोश में ऊँचे कुलावे बांधते थे - उनके प्रति भी यह व्यंग्य है।

"जैसे प्रोग्रेसीव का लेखनी लेते
नहीं रोका रुकता जोश का पारा
यही से यह सब हुआ
जैसे अम्मा से बुआ ||" 32

इसी' प्रोग्रेसीव' जोश में यह सब हुआ जो कुकुरमुत्ता की अनर्गल बातें कही गयी है और टी० एस० इलिस्ट- वादियों पर व्यंग्य किया गया--

"कहीं का रोड़ा, कहीं का लिया पत्थर
टी० एस० इलियट ने जैसे दे मारा
पढ़ने वालों ने जिगर पर हाथ रखकर
कहा, कैसा लिख दिया संसार सारा।" 33

इस प्रकार हम देखते हैं कि कुकुरमुत्ता मैं व्यंग्य सीमित या एकोन्मुख नहीं है-अनेकोन्मुख है और उसकी चपेट में सभी अव्यवस्थित तथा असम्बद्ध आ जाते है । उनका व्यंग्य भी युग पर है और इस कथन में कुछ न कुछ सत्य अवश्य है कि "निराला ने इस कविता में सारे विश्व को बांधने और उसके विकास का पथ खोजने की चेष्टा की है।" 34

निराला के काव्य में नये पत्ते का निश्चित ही महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें उनकी प्रगतिशीलता और सामाजिक यथार्थवादी दृष्टि अभिव्यक्ति अधिक प्रकाश में आयी है । जहाँ 'महगूं महंगा रहा'- सा राष्ट्रीय चेतना से, सामाजिक पीड़ा से उद्बुद्ध कविताएं है, वहां तीव्रतम व्यंग्य प्रधान रचनायें भी । 'देवी सरस्वती' का सा ग्राम काव्य और नहीं देखा गया । रानी और कानी, खजोहरा, गर्म पकौड़ी, डिप्टी साहब आदि का व्यंग्य प्रखर है और संयत भी, लेकिन कुछ समीक्षकों को इनमें यथार्थ का नग्न रूप मिलता है" 35   एवं प्रतिक्रियावादी और कुत्सित अश्लीलता भी । लेकिन मेरा विश्वास है कि व्यंग्य की तीखी चोट हमेशा अनावृत होती है, आवृत रहे तो वह सतेज न होगी । जब तक उनके आक्षेप सीधे नहीं होंगे तब तक वे कुठित ही रहेंगे । सफल व्यंग्य में सीधी चोट तिलमिला देने वाला प्रहार, भर्त्सना और हल्का तिरस्कार तो होगा ही । यदि यह आक्षेप्य है तो व्यंग्य का दूसरा रूप भी नहीं है । नये पत्ते की पूरी रचनाओं का परिशीलन हमें निराला को प्रतिक्रियावादी नहीं कहने देता... हम उन्हें प्रगतिशील ही कह सकते है । 'रानी और कानी' शीर्षक व्यंग्य रचना से ही इसका आरंभ हुआ है इसमें कवि का दृष्टिकोण यथार्थवादी है । कवि ने कुरूपता तथा निर्धनता को जीवन का अभिशाप बताया है । रानी गृह कार्यो में दक्ष है, चतुर है, पर उसका विवाह इस कारण से नहीं हो पाता कि वह निर्धन और कुरूप है । रानी और उसके माँ के हृदयोद्गरों का जो चित्र कवि ने खींचा है, वह बड़ा करुण और मर्मस्पर्शी है--

"मां कहती है उसको रानी
चेचक के दाग, काली नक-चिप्टी
गंजा सर एक आँख कानी ।"36

लोगों का व्यंग्य सुनकर तथा माँ को दुखी देखकर जब वह रोती है, तो कानी आंख से आंसू भी नहीं गिरते हैं -

"लेकिन वह बायीं आंख कानी
ज्यों की त्यों रह गयी रखती निगरानी।"37

इस कविता में समाज के उस दृष्टिकोण की भर्त्सना भी है जो गुणों की उपेक्षा कर सौन्दर्य का ही उपासक बना हुआ है। 'गर्म पकौड़ी' में सामाजिक व्यंग्य दिखता  है। इसमें कंजूस पर व्यंग्य तो किया ही गया है परन्तु यदि गर्म पकौड़ी को तथाकथित नये विचार और नई अवस्था के आभासित बड़े-बड़े  शब्द मान लिया जाय तो रचनाव्यंग्य अधिक निखरता है। ये नये विचार उसी तरह आकर्षित करते हैं, जिस तरह गर्म पकौड़ी पहले दिल लेकर आकर्षित करती है । तथाकथित नये विचारों में दिल (भावनाओं) को प्रभावित करने की ही शक्ति होती है और बौद्धिकता ( यह पूर्व ज्ञान की  गर्म पकौड़ी को तत्काल ग्रहण करने से जीभ भी जल सकती है ) का अभाव । एक भावनात्मक जोश ही उनमें होता है और प्रभावित व्यक्ति उसे ग्रहण भी कर लेता है, लेकिन स्थिति वही होती है जो 'गर्म पकौड़ी' को दांत तले दबाने से होती है, फिर ऐसे व्यक्ति उनसे  चिपटे भी रहते हैं । कंजूस ( बौद्धिक विपन्न ) की तरह कौड़ी छोड़ते नहीं । इसके लिये शाश्वत एवं स्थायी मूल्यों को भी त्याग दिया जाता है अर्थात् कंजूस अभिजात्य की ह्रासोन्मुखी मानवता को भी तिरस्कृत कर देता है ।

'प्रेमसंगीत' में उन मनचले नवयुवकों पर व्यंग्य तो है जिसमें  'बाम्हन' का लड़का घर की पनिहारिन जात की कहारिन और कुरूप स्त्री से प्रेम करता है यह आज की सामाजिक स्थिति है। इसमें प्रेम का भदेस रूप ही आया है और प्रेम के परंपरित सुन्दर उपादान का विरोध है। फिर भी ऐसा करना समाज में अन्तर्जातीय विवाह को बल देता है, जिसे बुरा नहीं कहा जा सकता है क्योंकि ब्राह्मण का लड़का होकर एक उपेक्षिता से प्यार कर उसे अपने स्तर पर लाना चाहता है तो इसमें बुराई क्या है। उसकी इस उक्ति में प्रगतिशीलता में दृष्टिगत होती है जब कहता है -

" बाम्हन का लड़का मैं उससे प्यार करता हूँ
जात की कहारिन वह मेरे घर की पनिहारिन वह,
आती है होते तड़का, उसके पीछे मैं मरता हूँ।"38

"छलांग मारता चला गया, 'कुत्ता भौंकने लगा' आदि कविताओं में जमींदारी प्रथा पर व्यंग्य है। छलांग मारता हुआ मेढक तथा भौंकता हुआ कुत्ता में कृषकों की दयनीय एवं जीर्ण स्थिति का व्यंग्यात्मक चित्रण है।" राजे ने अपनी रखवाली की " में सामंतवादी व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है। जनता इन्हीं राजाओं की चापलूसी करती है | कवियों ने प्रशस्ति एवं बहादुरी के गीत गाये, तो लेखकों ने उन पर लेख लिखे, इतिहासकारों ने इतिहास लिखे, नाटककारों ने उन पर रूपक लिखकर रंगमंच पर अभिनीत किये, पर वे राजा उन्हें भ्रम में रखकर ठगते रहे ।

"झींगुर डटकर बोला' और 'महंगू महंगा रहा' में क्रूर तथा अत्याचारी जमीदारों के साथ- साथ राजनीतिक नेताओं पर व्यंग्य है। झींगुर और महंगू को निराला ने कृषक वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में चित्रित किया है जो इन अत्याचारियों का विरोध करने के लिये कटिबद्ध होते हैं ।

'थोड़ों के पेट में बहुतों को आना पड़ा' कविता में निराला ने परिवर्तन का आदर किया है, किन्तु सारी प्रगति के बावजूद भी देखने में यह आया कि इस पूंजीवादी शोषण ने 'लक्ष्मी' का हरण कर उसे कारागार में डाल दिया, इससे समाज मारा गया और एक का आतंक व्याप गया। परिवर्तन पर परिवर्तन आता रहा, दल पर दल बनते रहे, किन्तु सभी के भीतर 'छल और स्वार्थ का बास रहा । इसलिये थोड़े लोगों का शिकार बहुतों को बनना पड़ा---

"लहलही धरती पर रेगिस्तान जैसा तपा।
जोत में जल छिपा,धोखा छिपा, छल छिपा।
बदले दिमाग बढ़े, गोल बाँधे घेरे डाले,
अपना मतलब गांठा,फिर आँखें फेर ली।
जाल भी ऐसा चला
कि थोड़ों के पेट में बहुतों को जाना पड़ा।" 39

'मास्को डायलॉग्स' एक ऐसी रचना है जिसमें दिखाया गया है कि प्रचलित और विश्वसनीय सिद्धान्त या व्यक्ति का नाम लेकर लोग कैसे समाज को मूर्ख बनाते और धोखा देते है और समाज में अपना प्रभाव डालने के लिये साहित्य के कार्य में पूर्ण रूप  से अक्षम होते हुए भी साहित्य क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं।कवि ने इस कविता में समाजवादी नेताओं पर व्यंग्य किया है।'गिडवानी जी' इन्हीं समाजवादी नेताओं के प्रतिनिधि के रूप में चित्रित हैं---

"बहुत बड़े सोशलिस्ट
"मास्को डायलाग्स' लेकर जाये है मिलन ×××××××××××××××××××××××
एक से है एक मूर्ख, उनको फंसना है,
ऐसे कोई साला एक धेला नहीं देने का,
उपन्यास लिखा है, जरा देख लिजिए ।
अगर कहीं छप जाय
तो प्रभाव पड़ जाय उल्लू के पट्ठों पर
मनमाना रुपया ले इन लोगों से ।"40

'पांचक' में जनता और सरकार के बीच खड़े मध्यवर्तियों को कवि ने अच्छी खबर ली है। सीधा सम्बन्ध न होने के कारण ही जनता की क्रय शक्ति समाप्त हुई और वह विपन्नावस्था में आ गयी-

" माल हाट में है और भाव नहीं,
जैसे लड़ने को बड़े दांव नहीं । " 41

निराला ने इस काल की अपनी रचनाओं में तीबी व्यंग्य शैली का सहारा लिया है । संसार का सारा माहौल और संस्कृति निर्माण 'दाने' पर ही निर्भर है, किन्तु दाना उत्पन्न करने वाला आज भी असभ्य ही रह गया

"चूँकि यहाँ दाना है इसलिये दीन है, दीवाना है ।।" 42

वह सेठ जो रात दिन धन के मद में चूर रहता है और दूसरों पर अपने धन का रोब गालिब करता है, धन ही उसकी आशा- निराशा तथा उत्थान-पतन एवं जन्म- मरण है। उसके सुख- दुख का एक मात्र धन ही आधार है। लेकिन इन विजयी कहे जाने वाले महोदय का तब भेद खुल जाता है जब पता चलता है कि उनका सारा ताम-झाम दूसरों के रक्त शोषण पर आधारित है--

"किनारा वह हमसे किये जा रहे हैं ।
दिखाने को दर्शन दिये जा रहे हैं ।
X   X    X    x    x    X
खुला भेद, विजयी कहाए हुए जो,
लहू दूसरे का पिये जा रहे हैं ।"43

धनपतियों की लबरेज महफिलों के राज को कवि जानता है। नये समाज में इस रहस्य का पता चलना कठिन नहीं होगा-

"होंगे हृदय के खुलकर सभी गाने नये,
हाथ में आ जायेगा, वह राज जो महफिल में है।"44

कवि पूंजीपतियों को चेतावनी देते हुए उन्हें होश में आने को कहता है क्योंकि जनाक्रोश की लहर आने ही वाली है, जिसका भयंकर परिणाम हो सकता है -

"पेड़ टुटेंगे, मिलेंगे, जोर की आँधी चली,
हाथ मत डालो, हटाओ पैर, बिच्छू बिल में है।"45

पूँजीपतियों द्वारा शोषितों - पीड़ितों को कवि उत्साहित करता है ---

"राह पर बैठे, उन्हें आबाद तू जब तक न कर |
चैन मत ले गैर को बरबाद तू जब तक न कर 1" 46

इन बातों को देखकर हम निराला को विध्वंसक नहीं कह सकते, क्योंकि उनमें रचनात्मक और विद्रोहात्मक प्रतिभाओं का विचित्र संयोग है । वे ऐसे आदर्श समाज की स्थापना करना चाहते हैं, जो स्वावलम्बी हो--

"अंतस्थल से यदि की पुकार,
सब सहते साहस से बढ़कर जायेंगे, लेंगे भी उबार ।
X x X X X X ×××××××××××××××××××××X
"सुलझेंगी मन-मन की माखै, ज्योतिर्जग का होगा सुधार । । सादा भोजन, ऊंचा जीवन होगा चेतन का आश्वासन ।
हिंसा को जीतेंगे सज्जन, सीधी कपिला होगी दुधार ।
×××××××x××××××××× होंगी आँखें अंत: शीला
होगा न किसी का मुँह पीला, मिट जायेगा लेना उधार ।।" 47

पुरातन और जड़ संस्कारों का निराला ने सर्वदा विरोध किया है, इसलिये वे रुद्रताल से भैरव नर्तन कर उन्हें मिटाने और नये संदर्भों को उत्पन्न करने का आह्वान करते हैं---

"नाचो हे, रुद्रताल, आंचो जाग ऋतु- अराल ।
झरें जीवन जीर्ण शीर्ण, उद्भव ही नव प्रकीर्ण ।
करने को पुनः तीर्ण हो गहरे अन्तराल |
फिर नेतन तन लहरे, मुकुल ग्रंथ का छहरे,
उर तरु तरु का हहरे, नव मन सायं - सकाल।"48

" निराला की राष्ट्रीयता भारत की इस मिट्टी में उगती पनपती है, परन्तु इसमें प्रफुल्लित एवं पल्लवित होती हुई बहुत दूर जा कर वह समस्त मानवता में अपने को समेट लेती है। इसलिये उनकी राष्ट्रीय कविता का धरातल बड़ा विस्तृत और बहुरंगी है।"49
हम राष्ट्रीयता के अभाव में शताब्दियों तक पराधीन रहे जिससे हमारी राष्ट्रीयता की उद्भावना और उसका परिज्ञान समाप्तप्राय हो गयी थी । नव जागरण के कारण पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान और साहित्य से हमारा सम्पर्क हुआ तब हमें धीरे- धीरे राष्ट्रीयता के स्वरूप का बोध हुआ, तब हमने देश की राष्ट्रीयता को हीनावस्था में पाया । हम दूसरे के अधीन हैं, का व्यावहारिक बोध हुआ । इसके वास्तविक स्थिति का परिज्ञान निराला के 'तुलसीदास' के प्रथम छन्द में ही प्राप्त होता है । उसमें इतिहास के परिप्रेक्ष्य में मुसलमान शासकों के शासन का वर्णन किया गया है । यहाँ यदि 'मुसलमान' के जगह पर अंग्रेज रख दिया जाय तो भारत की तत्कालीन परिस्थिति का स्पष्ट चित्र सामने आ जायेगा । विदेशियों ने हमें ठगों की तरह खूब लूटा जैसे, एक ऋतु के बाद दूसरी ऋतु आकर  पृथ्वी के जल को सूखा जाती है, वैसे ही उदर पूर्ति करने वाले पराये लोग हमारे देश में आकर सुखी नहीं करते, बल्कि अपना-अपना पेट भर दुःखी बना जाते हैं। इसलिये लोक मानत व्याकुल हो जाता है ।शरीर से शक्तिहीन होकर हाहाकार करने लगते हैं-

"उठा आज कोलाल, गया लूट सकल संवल,
शक्तिहीन तन निश्चल, रहित रक्त से रंग-रंग।" 50

लेकिन ऐसे अंधकारपूर्ण वातावरण में निराला की अप्रतिहत प्रतिभा का चमत्कार देखने योग्य है। वे वास्तविकता को केवल अपने ही नहीं समझते, बल्कि पूरे देशवासियों को उस वास्तविकता से परिचय कराकर, लम्बे डग मारकर आगे बढ़ जाने की प्रेरणा भी देते हैं-

" मिला ज्ञान से जो धन, नहीं हुआ निश्चेतन,
बाधो उससे जीवन, साधो पग-पग पर यह डग | "51

तुलसीदास के रूप में निराला ने आधुनिक कवि के स्वाधीनता सम्बन्धी भावों के उदय और विकास का चित्रण किया है । छायावादी कवि की तरह निराला के तुलसीदास को भी देश की पराधीनता का बोध प्रकृति की पाठशाला में ही होता है; किन्तु छायावादी कवि की तरह वे भी कुछ दिनों के लिये नारी मोह में पड़कर उस भाव को भूल जाते हैं । अन्त में जो ज्ञान प्रकृति की पाठशाला में मिला था, उसका दीक्षान्त भाषण उसी नारी के विश्वविद्यालय में सुनने को मिलता है और भविष्यवाणी होती है कि---

"देश काल के शर से विधकर
यह जागा कवि अशेष छविधर
इसके स्वर में भारती मुखर होयेंगी।"52

'सेवा- प्रारंभ' में भारतीय मेहनतकश जनता भूखमरी- अकाल और महामारी का शिकार बनती दिखायी गयी है। जनता की चेतना-शक्ति कुण्ठित हो गयी है । वह नाना प्रकार की रूढ़ियों को झेलती- बुनती अपनी दीन अवस्था को ही स्वीकृत कर भाग्यवाद का वाहक बन गयी है। अपना रक्त शोषण वह स्वयं कर रही है। जैसे-जैसे विपत्ति में पड़कर वह भगवान का स्मरण करती है, वैसे ही कभी-कभी सरकार का भी स्मरण कर लेती है। इससे अधिक अपने दुःखी होने का उत्तरदायित्व किसी और पर वह नहीं डालना चाहती । लेकिन निराला भारतीय मानस के पतन के निम्नस्तरों को स्पर्श कर अनुभूति और अभिव्यक्ति का संगम
अपनी नवोन्मुखशालिनी प्रतिभा से उपस्थित करने में समर्थ है। यहाँ जलदश्रु भावुकता नहीं है, किन्तु यह न भूलना चाहिए कि ऊपर - ऊपर  वे हिमकठोर और तटस्थ दिखायी देते है, किन्तु नीचे आर्द्रजल का अतल स्रोत अपने में सब कुछ मिला लेने के लिये आकुल- व्याकुल है-

" बुढ़िया मर रही थी गन्दे में फ़र्श पर पड़ी
आँखों में ही कहा जैसे उस पर बीता था।"53

यही नहीं स्वाधीनता के इस बढ़ते हुए संघर्ष में निराला ने गरीबों पर बराबर ध्यान रखा और उनका पक्ष लिया। 'तुलसीदास' में भारत की दीन-दशा पर प्रकाश डालते हुए वे लिखते है-

"रण के अश्वों से शस्य सकल,
दलमल जाते ज्यो दल के दल
शुद्रगण क्षुद्र जीवन सम्बलपुर-पुर में
××××××××××××××
××××××××××××××××
वे चरण चरण बस, वर्णाश्रम रक्षण के।"54

परिमल की देश-प्रेम सम्बन्धी रचनाओं में 'जागो फिर एक बार', छत्रपति शिवाजी का पत्र' तथा 'यमुना के प्रति' विशेष उल्लेखनीय है । इन कविताओं के माध्यम से निराला ने गौरवमय अतीत का स्मरण दिलाते हुए जागरण का मन्त्र फूँका है। 'जागो फिर एक बार' में निराला ने बताया कि सिंह की मांद में स्यार का बलात् घुस जाना हास्यास्पद है, किन्तु सिंह जब अपनी प्रकृति को भूल जाय, तब गधे से अधिक उसका महत्व नहीं । सियार तो फिर भी मांस खा लेता है और दाँत नाखून भी चला लेता है । निराला को भारतीय शौर्य का बोध है , इसीलिये भारतीयों को उनकी प्रवृत्ति का स्मरण कराकर अंग्रेजों के विरुद्ध उत्तेजित करते हुए कहते हैं- --

शेरों की मांद में आया है आज स्यार-
जागो फिर एक बार ।" 55


निराला के गीत अपने समस्त अंगों से भैरव नर्तन करते हैं, तंत्रियों को झकझोर देते है, और अपनी अतल भेदी ध्वन्यात्मकता से सारा कलुष धो डालते हैं।अंग्रेजों को उन्होंने केवल एक ही बार सीधे निशाना बनाया है, इससे उनके सूक्ष्म मनोभावों को पकड़ने में सहायता मिलती है और उनकी क्रान्तिकारी विचारधारा से अवगत होया जा सकता है -

"चूम चरण मत चोरों के तू
गले लिपट मत गोरों के तू ।।" 56

'गीतिका' में निराला की भारत मुक्ति की कामना प्रबल एवं उत्कर्ष पर स्थित हो जाती है, वे अकुण्ठित भाव से माँ भारती के चरणों में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते है--

"नर जीवन के स्वार्थ सकल बलि होते तेरे चरणों पर माँ करके श्रम संचित सब फल।जीवन के रथ पर चढ़कर,
सदा मृत्यु पथ पर बढ़कर, महाकाल के खरतर शर सह
सकूँ, मुझे तू कर दृढ़तर, जागे मेरे उर में तेरी
मूर्ति अश्रुजल-धौत विमल दृग-जल से या बल,बलि कर दूँ |"57

विदेशियों के निर्मम पदाघात से भारत की धरती आहत हो गयी क्योंकि वे इस भारत भूमि को अर्थ-शून्य कर चले गए । यहाँ न केवल इस विपन्नता पर पश्चाताप किया गया है, अपितु देशवासियों को निराला ने 'गीतिका' में अपना तेवर बदलते हुए कमर कस कर कर्मयोग पर अग्रसर होने की प्रेरणा दिया है -

"क्यों अकर्मण्य सोचता बैठ, गिनता समर्थ हो व्यर्थ लहर
आये कितने ले गये अर्थ, बढ़ विषम बड़वानल-जलतर।"58

निराला को आर्थिक विपन्नता से हृदय पर बहुत चोट लगी है।लेकिन उनका मानना है कि यदि भारतवासी सन्नद्ध होकर इसके उत्थान कार्य में जुट जाएं तो विश्व हाट में इसका स्थान निश्चित हो जायेगा, क्योंकि यह धरती रत्नगर्भा है।वैश्य- शक्ति का इसमें अभाव नहीं है। बस लोग ज्ञान के तिमिर में भटक रहे हैं। जिसके चलते उनकी स्थिति ठीक नहीं है। महाकवि ने वास्तविक भारत की तस्वीर का दर्शन मानवीय  सत्य के आर्थिक पक्ष उभाड़कर कराया है। उसकी दृष्टि में भारत यही है--


"देखा है दृश्य और ही बदले-
दुबले दुबले जितने लोग,
समा देश भर को ज्यों रोग,
दौड़ते हुए दिन में स्यार
बस्ती में- बैठे गीध भी महाकार
आती बदबू रह रह,
××××××
x×××××××
कठिन हुआ यह, जो था बहुत सरल।"59

आज आर्थिक सम्पन्नता पर ही मनुष्य की स्तरीयता का परिगणन होता है। सम्पन्न मनुष्य चाहे कितना ही व्यसनी, अयोग्य और लम्पट हो, अपने धन के बल पर वह संवादपत्रों, विद्याधरों और बड़ों- बड़ों से अपना सम्मान करा लेता है। निराला ने 'वन बेला' में उत्तम पुरुष की शैली में इस ढोंग पर करारा व्यंग्य किया है--

"फिर लगा सोचने यथासूत्र- मैं भी होता
यदि राजपुत्र - मैं क्यों न सदा कलंक ढोता
ये होते जितने विद्याधर -मेरे अनुचर
×××××××××××
जीवन चरित्र
लिख अग्रलेख अथवा छापते विशाल चित्र।"60

"पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के असंख्य दुर्गुण हैं। सच तो यह है कि भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति में पूँजीवादी व्यवस्था चल ही
नही सकती । हमने विज्ञान की सहायता से शोषण के पेचीदे स्वरूपों और परिस्थितियों को उत्पन्न कर दिया है- सामन्तवादी समाज के भग्नावशेषों से उत्पन्न आधुनिक बुर्जुआ-समाज वर्ग-विरोध से अलग नहीं हो पाया, अपितु इसने प्राचीन के स्थान पर नये वर्गों,शोषण की नवीन परिस्थितियों और नए संघर्ष के रूपों का निर्माण कर दिया।"61
इस परिस्थिति और नवीन व्यवस्था में श्रमकर्ता रात-दिन परिश्रम करके एड़ी - चोटी का पसीना एक कर देता है, फिर भी दो जून की रोटी उसे नसीब नहीं होती है, दूसरे तरफ देखे तो भ्रष्टाचार में लिप्त पूँजीपति रात-दिन रंगरेलियों में
मस्त रहते हैं । उनके लाडले विदेशों में पढ़ने का ढोंग करते है। वे स्वयं धन के बल पर राजनीतिक दांव पेंच के परम पंडित होते हैं। वे किसी न किसी तरह से धन पर एकाधिकार रखते है ।वे गिरगिट की तरह रंग बदलने में बहुत माहिर होते है । हवा के साथ अपना रुख बदलते रहते हैं। " स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व कांग्रेस का जो स्वरूप और स्वभाव था, और उसमें बूढ़े लोगों के जो निहित स्वार्थ थे, उनको तत्कालीन बहुसंख्यक जनता ने भले ही न समझा हो, लेकिन हिन्दी के साहित्यकारों ने खूब समझा था । प्रेमचन्द के उपन्यासों में भी ऐसे जन विरोधी पूँजीपतियों और भूमिपतियों से समझौता किये हुए , नेताओं के चित्र है । निराला ने भी ऐसे तथाकथित बगुला भगत नेताओं का चित्र खींचा है।"62 रचना के आधार पर धनिक निर्धन में कोई अन्तर नहीं है। धनी को अपार धन प्राप्त है, गरीब को दुर्बल शरीर। पर क्या इसी आधार धनी पवित्र और गरीब अपवित्र हो गया ? कवि निराला ने धनी को सावधान होकर मनुष्य बनने की सलाह दी है--

मिला तुम्हें सच है अपार धन,
पाया कुश उसने कैसा तन ।
क्या तुम निर्मल, वही अपावन
सोचो भी संभलो।"63

कवि मानवता की प्रगति के लिये त्याग को सर्वोच्च स्थान देता है। उसने एक उदाहरण प्रस्तुत किया कि बुद्ध राजकुमार थे। उनके पास धन सम्पत्ति की कमी नहीं थी।वे चाहते तो जीवन का सर्वोत्तम आर्थिक सुख भोग सकते थे, परन्तु संसार में दुख ही दुख अनुभूत कर उन्होंने अपना राजमहल का जीवन त्यागकर तपस्या की और दुख निरोधों का मार्ग खोज निकाला

" वहाँ बिना कुछ कहे सत्य-वाणी के मन्दिर
जैसे उतरे थे तुम उतर रहे हो फिर-फिर
मानव के मन में- जैसे जीवन में निश्चित
विमुख भोग से, राजकुंवर त्याग कर सर्वस्थित
एक मात्र सत्य के लिये, रूढ़ि से विमुख, रत
कठिन तपस्या में,पहुँचे लक्ष्य को तथागत।" 64

" निराला ने अपने शील एवं साहित्य दोनों में ही संकीर्णता का  विरोध करते हुए अपनी महाप्राणता का परिचय दिया है। इसके लिये उन्होंने करुणा और विद्रोह दोनों का सहारा लिया है । करुणा उपेक्षित, पीड़ित एवं प्रताड़ित जन-समूह के लिये और विद्रोह अन्यायी शोषक वर्ग के प्रति- यही निराला की प्रगतिशील जनवादिता को आधारशिला है । उन्होंने प्रारंभ ही क्रान्ति का अवलम्ब लेकर मानवतावादी मूल्यों का अनुमोदन किया है। उन्होंने व्यक्ति को केवल व्यक्ति के रूप में देखा है, जातिगत संकीर्णता के चौखटे में फिट करके कभी नहीं देखने की कोशिश की । इसीलिये उन्होंने शाश्वत मानवता का उदात्त स्वरूप उन निरीह पात्रों में में भी देखा जो प्रचलित वर्ण- व्यवस्था के अनुसार अछूत और अंत्यज होने के बावजूद अंत: करण से सात्विक एवं चरित्र के धवल थे।65 " वीणा की तंत्री जब पूरे ताव पर होती है, तब एक मन्द स्पर्श भी उससे स्वर का प्रसार करता है। ऐसा ही ताव है निराला के हृदय का जो स्वयं कितनी ही यातनायें सहन कर सकता है, पर मानवता को शोकमग्न देखकर विचलित हो जाता है।"66 इस सम्बन्ध में अपनी ओर से न कहकर मात्र यही कहना अभिप्रेत है कि " एक दुःखी भाई को देखकर उसकी ( कवि निराला की ) वेदना उमड़ आती है वह पीड़ित के आँसू पोंछ उसे गले लगाता है। यथार्थ मानव उत्पीड़न से विमुख कविजन परीक्ष सूक्ष्म काल्पनिक सौन्दर्य की साधना में लगे थे । यही उनका अधिवास था । यही निराला का काव्य-साधना-अधिवास था। मानव मंगल में उसका यह अधिवास भी छूट जाय, तो भय नहीं। मानव सेवा सहायता यदि माया में फँसना है, तो माया उस अध्यात्म या कला साधना से अधिक महिमाशाली है, जो साधक को समाज से परांगमुख करती है ।"67 अधिवास कविता में अनुरक्ति-विरक्ति का ऐसा अंतर्द्वंद्व है जो कभी स्वामी विवेकानन्द के भी स्वामी के जीवन में आया था। स्वामी जी सर्वदा विरक्त ही रहे, किन्तु पीड़ित मानवता के उद्धार के लिये उनका आदर्श अनुकरणीय रहेगा । इसी प्रकार निराला सर्वदा अनुरक्त रहकर पीड़ित मानव का न केवल पक्ष लेते रहे, बल्कि आजीवन एक पीड़ित जीवन भी जीते रहे। इसीलिये अनुरक्ति-विरक्ति द्वंद्व में वे अपने दुःखी भाई को गले लगाने के लिये दौड़ पड़े -

" मैंने, 'मैं' शैली अपनायी देखा दुखी एक निज भाई
दुख की छाया पड़ी हृदय में मेरे,झट उमड़ वेदना आयी ।
उसके निकट गया मैं धाय, लगाया उसे गले से हाय।
फँसा माया में हूँ निरुपाय, कहो, फिर कैसे गति रुक जाय ? उसकी अश्रु भरी आँखों पर मेरे करुणांचल का स्पर्श
करता मेरी प्रगति अनन्त, किन्तु तो भी मैं नहीं विमर्ष,
छूटता है यद्यपि अधिवास, किन्तु फिर भी न मुझे कुछ त्रास।"68

निराला मानव को मानव ही समझते थे, उनका हृदय जाति-पांति और सम्प्रदाय की संकीर्णता में फँसने वाला नहीं था। वे व्यावहारिक जीवन में मुसलमानों के यहाँ भी खा लेते थे। निराला जी अपने सम्बन्ध में लिखते है " एक दफा लखनऊ में एक मुसलमान सज्जन के साथ में पुलाव, कबाब और रोगन जोश आदि खा रहा था। वह मन ही मन यह अक्ल ऐंठ रहे थे कि अब इसे मुसलमान बनाया । एक रोज वह मुसलमानों में बैठे पानी पी रहे थे - अमीनावाद पार्क में ।मैं गया और उनके साथी थे। पानी के लिये पुछते हुए संकुचित हो गये । उन्होंने पूछा, मुझे प्यास थी, मैंने पीया । तब खाने - पीने की बात चली ।वह मुझे एकान्त में बुला ले गए और कहा आप उस रोज की एक साथ खाने पीने वाली बात न कहियेगा। मैंने कहा, यह सबक हिंदू पढ़ें, मैं तो मुसलमान हूँ । उनको बड़ा हर्ष हुआ- 'आप मुसलमान हो गये' ? मैंने कहा- नहीं जी, मुसलिम ईमान।"
अब निराला के इन शब्दों के महत्व को परखिये-"मेरा कवि सदा निरपराध है। मैं क्या कहूँ, वह क्या क्या करता है ?" 69


सन्दर्भ
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1. नन्द दुलारे वाजपेयी कवि निराला, पृ0 4.

2• गंगाधर मिश्र - युगाराध्य निराला, पृ0 4-5 पर उद्धृत 3. श्री सुमित्रानन्दन पन्त छायावाद का पुनर्मूल्यांकन •

4. आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी - कवि निराला, पृ0 7-8 •

5. संपादक डा० राम विलास शर्मा - राग - विराग (निराला के कविताओं का संकलन से) पृ.88

6. यथोपरि •

7. यथोपरि, पृ0 89.

8. निराला - गीतिका, पृ० 39 •

9. यथोपरि, पृ0 85 •

10• निराला ( उद्बोधन), पृ0 68

।।• सं० डा० इन्द्रनाथ मदान ( डा० बच्चन सिंह) निराला, पृ0 7 •

12. निराला - गीतिका, पृ० 34 •

13. निराला, परिमल ( ), पृ० 119 .

14. निराला - बिल्लेसुर बकरिहा, पृ0 44 •

15. निराला - अनामिका, पृ० 82 •

16• यथोपरि •

17. निराला - अनामिका ( मुक्ति ) पृ० 141 •

18• यथोपरि, पृ० 131 ·

19. सं0 10 पद्मसिंह शर्मा : निराला, पृ० 50 पर श्री नरेन्द्र मानवत द्वारा लिखित निराला की राष्ट्रीयता ' लेख से ।

20. निराला परिमल ( आह्वान), पृ० 138 •

21. निराला : परिमल ( बादल राग), पृ0 167-168 •

22• यथोपरि, पृ० 168 •

23. निराला - गीतिका, पृ0 59.

24 श्री दूधनाथ सिंह : निराला : आत्महन्ता आस्था, पृ० 191.

25. चौथीराम यादव कायावादी काव्य एक दृष्टि में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला से पृ० 190 पर उद्धृत •

26• यथोपरि

27. निराला गीतिका, पृ० ३.

28. निराला अणिमा, सन्त रैदास के प्रति

29. निराला बेला, कविता संख्या 62.

30 निराला कुकुरमुत्ता, पृ० 32.

• यथोपरि •

32. निराला कुकुरमुत्ता, पृ० 10.

33. यथोपरि

34- गंगा प्रसाद पाण्डेय, महाप्राण निराला, पृ0 200 •

35. गिरिजाकुमार माथुर, आलोचना, 12.

36. निराला - नये पत्ते ( रानी और कानी) •

37. यथोपरि

38. निराला नये पत्ते ( प्रेम संगीत ) •

39. यथोपरि पृ० 30 •

40- यथोपरि (मास्क डायलाग्स) पृ0 25-26

41. यथोपरि ( पांचक ), पृ० 39.

42. निराला अणिमा, पृ० 86.

43. निराला-बेला-पृ. 68.

44 यथोपरि, पृ0 75

45 यथोपरि .

46• यथोपरि, पृ0 76 *

47. यथोपरि, पृ० 84

48. निराला आराधना, पृ० 55.

49 डॉ भगीरथ मिश्र- निराला काव्य का अध्ययन, पृ० 65.

50. निल गीतिका, पृ० 81

51. यथोपरि, पृ० 89

52 नामवर सिंह - छायावाद, पृ० 73 पर उद्धृत

53. निराला - अनामिका, पृ० 185

54. नामवर सिंह छायावाद, पृ० 82 पर उद्धृत

55 निराला - परिमल - जागो फिर एक बार (2), पृ० 188 • 56. श्री दूधनाथ सिंह निराला, आत्महन्ता आस्था, पृ० 172 पर उद्धृत

57. निराला, गौतिका, पृ0 22.

58. यथोपरि पृ० 57 •

59. निराला : अनामिका, पृ० 180

60. निराला, अनामिका (वन बेला), पृ0 87 •

61. मार्क्स एंजिल्स मैनीफेस्टो आफ दी कम्युनिस्ट पार्टी, पृ० 33.

62. सं0 डा0 पद्मसिंह शर्मा : निराला, पृ0 61-62 पर श्री श्याम सुन्दर घोष द्वारा लिखित 'निराला के काव्य में वर्ग चेतना और वर्ग संघर्ष' लेख से

63. निराला - गीतिका, पृ० 12 •

64. निराला अणिमा, पृ० 23-24 -

65. सं० डा० राममूर्ति शर्मा -युगकवि निराला, पृ० 112 पर प्रो० विपिन बिहारी ठाकुर के 'महाप्राण निराला की प्रगतिशीलता' लेख से ।

66• डा0 प्रेम नारायण टण्डन, निराला, व्यक्तित्व और कृतित्वः पृ0 154.

67. डॉ0 जयनाथ नलिन : काव्य पुरुष निराला, पृ0 231 68• निराला परिमल, पृ० 117 118

68. विनोद शंकर व्यास दिन रात, पृ० 109

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तृतीय अध्याय- छायावादी कवि 'प्रसाद' में प्रगतिशील चेतना

तृतीय अध्याय
★★★★★★

छायावादी कवि 'प्रसाद' में प्रगतिशील चेतना
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छायावादी कवि प्रसाद का हिंदी में आगमन एक नवीन दिशा का सूचक था। प्रसाद की प्रगतिशीलता समझने के लिए उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों पर प्रकाश डालना होगा। प्रसाद परंपरा के कवि हैं, संस्कृति के कवि हैं, अतीत की चिर-जीविता के कवि हैं। वह अपने परिवेश के प्रति परिवेश के समस्याओं के प्रति बहुत जागरूक थे ।पराधीन भारत की आशा, आकांक्षा और निराशा और विषाद की मिली- जुली स्वर भूमि में प्रसाद का साहित्यिक पदार्पण हुआ ।एक ओर चुनौती फेंकती युगीन समाज व राष्ट्र की परिस्थितियां दूसरी ओर उनके स्वयं के व्यक्तिगत जीवन का उथल-पुथल। जिस प्रलय का विशद चित्रण कामायनी में आता है ,उसे अनुभूति के स्तर पर देश,समाज और व्यक्तिगत जीवन के स्तर पर प्रसाद कई बार गुजर चुके थे। अपने राजनीतिक जीवन में प्रसाद पूर्ण देशभक्त थे। उन्होंने स्वयं राजनीति में सक्रिय भाग नहीं लिया,किंतु अपने विचारों में वे पूर्णतया देशप्रेमी थे।वे देश भक्ति के साथ-साथ ही सांस्कृतिक उत्थान के भी पक्षपाती थे ।अपने ऐतिहासिक नाटकों के द्वारा उन्होंने इसी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पुनरुत्थान का प्रयास किया। भारतीय संस्कृति के प्रति मोह रखते हुए भी वे रूढ़िवादी नहीं थे। जीवन में लंबे समय तक वे शुद्ध खद्दर पहनते रहे। जातिवाद छुआछूत पाखंड आदि से वे कोसों दूर थे।एक बार जब उनकी जाति के व्यक्तियों ने सभापति बना दिया, तब उन्होंने उसे ऊपरी मन से स्वीकार कर लिया और बाद में तार दे दिया कि न आ सकूंगा। वह शक्ति के उपासक होते हुए भी अहिंसा के पुजारी थे। उनकी धारणा थी कि करुणा ही मानव का कल्याण कर सकती है।प्रसाद के संपूर्ण साहित्य में करुणा-ममता का स्वर है। उन्होंने नारी उद्धार,अछूत- समस्या, रूढ़िवादिता धर्म आदि पर अपना विस्तृत विचार दिया है।


प्रसाद की हिंदी को महत्वपूर्ण देन, उनकी नारी भावना है। कवि ने नारी को शक्तिरूपा माना है ।नारी उनकी दृष्टि में केवल शारीरिक आकर्षण और सौंदर्य की वस्तु नहीं रह गई ।उन्होंने नारी को सदा आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा।वह नारी और पुरुष के मधुर संबंधों को सृष्टि का सर्वोत्तम लक्ष्य मानते हैं ।वे स्वयं  श्रद्धा के साथ स्त्रियों का विशेष आदर करते और उनका यह आदर केवल काल्पनिक या  शब्दाडंबर में नहीं , वरन उनके नित्य-प्रति के व्यवहार में प्रकट होता था ।जैसे कुछ मित्रों के साथ प्रसाद जी जब मार्ग में चलते और सामने से कुछ स्त्रियां या गंगा पुजैयावाली कुल कामिनीयों का गोल आता हुआ दिखाई देता तो वे झट मित्रों को एक दूसरे मार्ग से चलने के लिए संकेत करते और ऐसा करने में कभी- कभी मित्रों को घूम कर एक-दूसरे लंबे मार्ग से जाने में कुछ अधिक चलने का कष्ट भी करना पड़ता था।"(1)


प्रसाद जी ने जीवन भर जिस स्मृति को संजोने का प्रयास किया उसे कोई भी नहीं जान सका, यही उनके चरित्र की सबसे भारी विशेषता थी।वे साक्षात् शंकर थे,जो समस्त पीड़ा को स्वयं विष की भाँति पी लेना जानते थे। "आत्मगोपन की दुर्लभ कलात्मक क्षमता रखने वाला यह विलक्षण कलाकार आत्मगोपन की कला में भी पूर्ण पटु है।"(2)
प्रसाद जी ने हिंदी की प्रगति के विषय में कहा था कि आज हिंदी का कवि भी उसी परंपरा पर कार्य कर रहा है ,किंतु उसमें नूतनता है  आज प्रसाद मंदिर पर नागरी प्रचारिणी सभा का प्रस्तर लगा हुआ है, जो उन्हें हिंदी की नवीन शैली का प्रवर्तक कह रहा है। प्रसाद कवि से भी महान व्यक्ति थे, जिसे भलीभांति जान लेने पर उनके काव्य का पूर्ण आनंद लिया जा सकता है। 1940 में निराला जी ने आदरणीय प्रसाद जी के प्रति लिखा था--

"किया मूक को मुखर,लिया कुछ दिया अधिकतर,
पीया गरल पर किया जाति साहित्य को अमर।"
महान कवि का महान कृतित्व अध्ययन का विषय है,जिसमें उसकी चेतना निहित है। प्रेमचंद जी ने भी कहा था लेखक के पास होता ही क्या है,जिसे वह अलग अलग बांट दें। लेखक के पास तो उसकी तपस्या ही होती है ।वही सब को वह दे सकता है ।उससे सब लोग लाभ भी उठाते हैं ।लेखक तो अपनी तपस्या को अपने लिए नहीं छोड़ता और लोग जो तपस्या करते हैं वह तो अपने लिए। लेखक जो तपस्या करता है उसे जनता का कल्याण होता है। वह अपने लिए कुछ भी नहीं करता।"(3) प्रसाद जी के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनके विचार कथन और काव्य में समानता रहती थी। इसी कारण उनका साहित्य ही उनका जीवन है ।आदर्शवादी कवि ने यथार्थ भूमि पर खड़े होकर जिस सार्वभौमिक साहित्य का निर्माण अपनी कुशल तूलिका से किया है,वह आने वाली मानवता को रस देता रहेगा। इस महाकवि ने किसी परंपरा का पालन नहीं किया। उसका व्यक्तित्व और उसकी प्रतिभा ऐसी असाधारण है कि उसका अनुकरण भी संभव नहीं।

प्रसाद ने मानव के पूर्ण विकास के लिए अथक प्रयास किया मनुष्य की कमजोरियों का परिष्कार किस मनोवैज्ञानिक ढंग से करते हैं और जीवन का पूर्णत्व किस प्रकार प्राप्त हो सकता है, यह विचार उनके काव्य में देखने योग्य है। छायावाद को यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में देखने का उनका महान कार्य कैसे भुलाया जा सकता है। उनकी यथार्थवादी दृष्टि छायावादी प्रगतिशीलता को ठोस रूप प्रदान करती है ।वह केवल कल्पना व आदर्शों की संसार की वस्तु नहीं रहती। यथार्थवाद के कारण ही उन्होंने संतुलन का मार्ग अपनाया ,जिसका पूर्ण परिपाक हुआ सामरस्य के रूप में। छायावाद अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता चाहता था। इस स्वतंत्र अभिव्यक्ति के पीछे अति वैयक्तिक स्वर नहीं था। एक महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए,एक निश्चित गंतव्य तक पहुंचने के लिए स्वतंत्र राहों का निर्माण करना ही उसे अभीष्ट था। मुक्तक शैली के माध्यम से छायावादी कवि  हमें उस अनुभूत आनंद से परिचित कराना चाहता था, जिसका अनुभव उसे स्वयं अपने जीवन के व्यष्टि निरपेक्ष व साधना रक्त क्षणों में हुआ था। ऐसे गीतों का परिणाम यह होता है कि कभी सामान्य विषय से लेकर विश्व व्याप्त समस्याओं तक पहुंच जाता है।प्रसाद मानव मात्र की विसंगतियों से आकुल थे। अपने व्यक्तिगत जीवन की विडंबना का मानव जीवन की विस्तृत परिवेश में परिवर्तन कर सामरस्य भूमि की अवधारणा उनका जीवन ध्येय बन गया--

"धरणी दुख मांग रही है,आकाश छीनता सुख को,
अपने को देकर उनको, हूँ देख रहा उस मुख को।"(4)

कामायनी के 'ईड़ा' सर्ग में मनु को प्रबोधित करते हुए काम कहता है--

" कुछ मेरा हो यह राग भाग संकुचित पूर्णता है अजान,
मानस जलनिधि का  क्षुद्रयान।"(5)

और आनंद सर्ग में--
सब भेदभाव भुलवाकर,दुख सुख को दृश्य बनाता,
मानव कह रे! यह मैं हूँ, यह विश्व नीड़ बन जाता।।"(6)

प्रसाद विशुद्ध रूप से मानव चेतना को समर्पित हैं ।काव्य विकास के आरंभिक चरण में ही प्रकृति प्रेम,मानव-प्रेम और ईश्वर- प्रेम के त्रिविध संयोग में ही उन्होंने इसे स्पष्ट कर दिया था।
शाश्वत सत्य का एक छोर सामाजिक संदर्भों से जुड़ा होता है, तो उसका दूसरा छोर शाश्वत मूल्यों में अर्थ प्राप्त करता है। कामायनी की प्रतीक-योजना में समसामयिक यथार्थ की अभिव्यक्ति डॉ नामवर सिंह ने बताई है। उनके अनुसार-- प्रलय में देव संस्कृति के विध्वंसक का प्रसंग भारतीय संस्कृति के प्रतिमानों का अंग्रेजों द्वारा विध्वंस का प्रतीक है। श्रद्धा और मन का संघर्ष सन् तीस के आसपास के परिवेश में भारतीय युवा मानस का संघर्ष है। मनु के अधिनायक अथवा के मुंह में डॉ नामवर सिंह ने प्रजातंत्र और फांसी जिनके परस्पर टकराव की झलक देखी है।×××××××और इला को अर्पित मानव पलायनवादी अन्य- श्रद्धावादी मनु के विपरीत बुद्धिवादी नव पीढ़ी का प्रतीक है।"(7) कुछ विद्वतजनों के मतानुसार मनु का संघर्ष प्रसाद के स्वयं जीवन संघर्ष की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। प्रतिकार्थ में मत- वैभिन्य हो सकता है, किंतु यह निर्विवाद है कि कामायनी में समसामयिक यथार्थ भी अभिव्यक्त हुआ है। श्रद्धा द्वारा तकली काटना ,हिंसा के विरोध आदि में गांधीवाद का प्रभाव स्पष्ट है। प्रजातंत्र के लिए संघर्षरत प्रजा तत्कालीन भारतीय समाज का प्रतीक है।स्वार्थ पूर्ति-रत सत्ता मद-विह्वल अधिकार लिप्सा में अंधे मनु के प्रतिकारार्थ प्रजा का ही नहीं प्राकृतिक शक्तियां भी उठ खड़ा होती हैं-- यह स्वतंत्रता कामी भारतीय जनमानस का पक्ष समर्थन है।"(8)   इस प्रकार प्रसाद की आत्माभिव्यक्ति अपने शाश्वत व सम-सामयिक परिदृश्यों में समष्टि और जीवन यथार्थ के प्रति पर्याप्त जागरूकता का परिचय देती है ।व्यक्ति के स्तर पर पलायन ,वेदना भाव ,निर्वासन आदि की निवृत्ति होकर भी यह परोक्ष भाव में समष्टि के स्तर पर यह एक आदर्श लोक की अवधारणा है,जहां व्यक्ति और व्याप्ति दोनों के  अंतरद्वंद्वों का परिहार हो जाता है। इस दृष्टि से प्रसाद की यह कविता विशेष द्रष्टव्य है--
"ले चल वहां भुलावा देकर
मेरे नाविक धीरे-धीरे।।"(9)

इस कविता में प्रसाद ने व्यक्ति-बोध व समष्टि-बोध अपने सनातन मूल्य संदर्भ और संवेदन में उतराये हैं। अतीत के माध्यम से आत्म स्थितियों के साक्षात्कार में यह गीत बेजोड़ है। जहाँ कवि दिवा-स्वप्न की कुंठाविजड़ित एकाकी, आत्मग्रासी परिणति में चूक नहीं जाता,अपितु 'अमर जागरण' की दिशा में ले जाने की प्रार्थना करता है। प्रसाद के 'झरना' में संग्रहित रचनाओं से ही छायावाद का शुभारंभ हुआ।इसका प्रकाशन 1928 ईस्वी में हुआ था और 1914 तक की प्रसाद जी की रचनाओं का यह संग्रह है। इसमें छायावाद के विकास की प्रथम अवस्था है झरना काल में कवि अपने भाव संसार के आवश्यक उपादान ओं का संचय करता है वह स्थिरता और दृढ़ता की खोज में है-
"परिश्रम करता हूँ अभिराम, बनाता हूँ क्यारी और कुंज ।
खींचता दृगजल से सानंद, खिलेगा कभी मल्लिका पुंज।।"(10)


कवि प्रसाद ने प्रेम का दर्शन परिवर्तित व विशाल रूप में किया है।जीवन का प्रथम प्रभात उनमें गुदगुदी पैदा करता है प्रभात तो उनके जीवन में कई आए,पर यह नव-प्रभात था।आज तक कवि की मनोवृत्तियां सो रही थीं। स्वर्गीय गान से उसके प्राण स्पंदित और पुलकित हुए। नव सौंदर्य ने कवि मन को आलोकित किया--

"कैसी छवि ने बाल-अरुण सी प्रकट हो,
शून्य हृदय को नवल राग रंजीत किया।"(11)

जीवन के अमर तत्त्वों का खोजी कवि सौंदर्य प्रेरक रूप को जीवन में उतार लाना चाहता है।सौंदर्य के शोषित और स्वार्थ पंकिल रूप से कवि अनभिज्ञ है।वह सौंदर्य का जीवन में पूर्ण विकास चाहता है। जीवन पुष्प यदि अपने कली रूप में ही मुरझा जाए, तो सारा आनंद किरकिरा हो जाएगा। सच है कि विकट परिस्थितियों और जीवन का दुर्धर्ष-संघर्ष जीवन पुष्प के विकास को अवश्य अवरुद्ध कर देते हैं।इसलिए कवि लोलुप मधुप को चेतावनी देता है--

"न आशा कर तू अरे! अधीर कुसुम रज रस ले लूँगा गूँद।
फूल है नन्हा सा नादान, भरा मकरंद एक ही बूँद।।"(12)

प्रसाद के पूर्व हिंदी कवि रीतिकाल की घोर श्रृंगारिकता से सशंक और भयभीत हो गए थे।नारी के सौंदर्य का यदि अंकन हुआ भी तो वह बहुत स्थूल,बाह्य और नपा तुला। केवल ऊपरी हाव-भाव बाहरी मुद्राओं और स्थूल इंगितों के कारण शारीरिक वर्णन ही सामने आया और हृदयगत सौंदर्य नहीं।अतः उसे युग की प्रचलित काव्य दिशा को नया मोड़ देने में प्रसाद जी ने युगान्तकारी कार्य किया। अन्य कवियों ने नवीनता के नाम पर जो कुछ भी लिखा उसमें शैशवावस्था का विकास है, प्रसाद जैसी परिपक्वता नहीं। प्रसाद ने मधुर भावों की सृष्टि प्राकृतिक वर्णनों को गीतों के कलेवर में डालकर प्रस्तुत किया, जिसमें उनके हृदय की भावनाएं घनीभूत और केंद्रित होकर गेय हो उठीं। चित्र आधार की सूक्ष्म जिज्ञासा ए दिव्य सौंदर्य की ओर इंगित करती हैं उनमें प्रकृतिक ए हरम में रूपों और नारी का मनोहरता को स्थान मिला है। प्रेम पथिक में आकर प्रसाद मानव प्रेम में डूबकर तात्विक निष्कर्षों तक पहुंच जाते हैं इसमें कभी की अपनी अनुभूति और चिंतन के स्पष्ट छाप है प्रेम सुधाकर का मूर्ति करण प्रेम का आदर्श तथा गरिमा में स्वरूप अत्यधिक कलात्मक रूप में व्यक्त हुआ है कवि प्रेम के अत्यंत भव्य और उदात्त स्वरूप को सामने रखता है--

" पथिक!प्रेम की राह अनोखी,भूल भूलकर चलना है,
घनी छाँह है जो ऊपर तो नीचे कांटे बिछे हुए।"(13)

कवि का प्रेम को प्रकाश के रूप में देखना भव्य कल्पना है।कवि को प्रेम का पावन व स्थिर रूप ही अभीष्ट है।प्रेम के सुतीर्थ में स्नान करने से उसका मन उत्साह व पवित्रता से भर जाता है--

" सत्य सनातन हुआ मैं प्रेम सुतीर्थ में ,
मन पवित्र उत्साहपूर्ण-सा हो गया।"(14)

स्वच्छंदता और स्पष्टता का प्रेमी कभी अपने अंतर-बाह्य, दोनों रूपों में पूर्ण स्वतंत्र है।जीवन में वह केवल स्वस्थ कदम उठाना चाहता है ,इसीलिए किसी प्रकार की कृत्रिमता उसे सह्य नहीं है--

"दूर कृत्रिमते, यहाँ मत आ री,
यहाँ एकत्रित सरलता सारी।"(15)

कवि आडंबर रहित जीवन चाहता है। वह साफ साफ शब्दों में कहता है--

"प्रार्थना और तपस्या क्यों? पुजारी किसकी है यह भक्ति,
डरा है तू निज पापों से, उसी से करता निज अपमान।"(16)

सुधामय जीवन का पक्षपाती कवि इसलिए क्षुब्ध है कि "सुधा में मिला दिया क्यों गरल?"(17) हृदय का सौंदर्य इसी बात में है कि वह करुणा विगलित हो। सच्ची मानवता की यही निशानी है कि मानव का मानव के प्रति सद्भाव हो। हृदय की कठोरता पाशव सभ्यता का अवशेष है। कवि समस्त संसार को अनुराग की लालिमा से आच्छन्न देखना चाहता है।मानव मानव के मध्य रागात्मक संबंध स्थापित करते हुए कवि अपनी मंगल कामना का विश्व व्याप्त प्रचार चाहता है। दो हृदयों के बीच का प्रेम-प्रकाश इन पंक्तियों में विश्व प्रेम में परिणत होता है--

"अरुण हो विश्व सकल अनुराग,करुण हो निर्दय मानव चित।"(18)

हृदय की कठोरता भी एक तरह का आडंबर है,क्योंकि वह अपने मूल रूप में कोमल और सद्य है।

प्रसाद जी की रचना 'झरना' के गीतों में न रहस्यवाद है और न आध्यात्मिकता। उनका उत्स कवि के व्यक्तिगत अनुभवों में है, लेकिन उनमें वैयक्तिकता की तीव्रता भी नहीं आई। समाज कल्याण की ओर अग्रसर होने की प्रवृत्ति उनमें बराबर छलकी है।कवि अपने व्यक्तिगत  सुख-दुख, हर्ष-विषाद आदि का समाज सापेक्ष प्रसार चाहता है। जीवन में कल्याणकारी भावना एवं मंगल का इच्छुक कवि हरियाली की कामना करता है। हरियाली मंगल एवं कवि की गतिशीलता का द्योतक है, क्योंकि उसका प्रसार व्यापकता की ओर होता है,संकुचन की ओर नहीं---

"शून्य हृदय में प्रेम-जलद-माला कब फिर- फिर आवेगी?
वर्षा इन आँखों से होगी, कब हरियाली छावेगी।"(19)

प्रसाद जी के 'आँसू' का विरह न एकाकी है और न निराशा उत्पन्न करने वाला। उसके व्यापक रूप को नकारा नहीं जा सकता। छायावाद ने विरह को एक महान शक्ति के रूप में स्वीकार किया है।विरह जन्य स्थिति में मनुष्य-जीवन कर्मठ एवं साधनारत हो जाता है  वह परमुखापेक्षी होना नहीं जानता। विरह का अंत निखार और परिष्कार में होता है।कवि वेदना-ज्वाला से संसार का सारा कलुष जला देने के लिए निवेदन करता है। समस्त निर्मम संसार को मंगलमय प्रकाश देना चाहता है।कवि को विश्वास है कि हमारे आँसू हमें निष्कलुष बना डालते हैं और अश्रुओं की यह निर्मल धारा गंगा की पावन धारा से कम नहीं---

" जीवन सागर में पावन, बड़वानल की ज्वाला-सी,
यह सारा कलुष जलाकर,तुम जलो अनल बाला-सी।"(20)

'आँसू' के विरह का महत्त्व सार्वजनिक और सर्वकालिक है। वह विश्व वंद्य है।कवि प्रसाद उसको मानवता के सिर की रोली मानते हैं, जो सौभाग्य और मंगल का प्रतीक है।आँसू का झुकाव विश्व प्रेम और विश्व मानवता की ओर है। कवि की मानवीय करुणा उसकी वेदना का ही प्रतिफल है।वह वेदना की अतिशयता से निराश और जड़ नहीं बनता, और न वैराग्य की बात सोचता है, अपितु मानववादी भूमि पर वह जीवन का स्वस्थ सामंजस्य प्रस्तुत करता है। अभावों के बीच भी वह विश्वास नहीं खोता।सब का निचोड़ लेकर वह सूखे मानव जीवन को सरस बनाने का आकांक्षी है। कवि व्यक्तित्व से ऊपर उठकर अपनी वेदना को समग्र मानव गरिमा के उन्नयन हेतु सार्वभौमिकता प्रदान करता है।"बौद्ध दर्शन की करुणा जीवन के प्रति जिस वैराग्य को जन्म देती है उसी वेदना ने आंसू के प्रेमी को जीवन के रहस्य का द्वार खोल दिया। आँसू की यही सार्थकता है कि वह किसी निराशा जन्य जड़ता और  गत्यावरोध का कारण नहीं बन जाता, वरन्  कालिमा धुल जाते ही वातावरण स्वच्छ हो जाता है। कवि जीवन की गंभीरतम समस्याओं में प्रवेश करता है।"(21) कवि व्यक्तिगत पीड़ा में डूबकर हताश नहीं होता, अपनी वेदना को जीवन की स्थाई मूल्यों की प्रतिष्ठा में समर्पित कर देता है। महत्त्व की स्थापना के लिए यह लघु का त्याग है।

प्रसाद काव्य में उनके पुनरुत्थान का अथक प्रयास परिलक्षित है। दया,सहानुभूति, संवेदना आदि भावों की आज नितांत आवश्यकता है, अन्यथा आज का संघर्षपूर्ण जीवन बिना उच्च मानवीय भावों के जीने योग्य नहीं हो सकता।अश्रुधारा में वह शक्ति है कि वह पाषाण हृदय को गला कर उनमें ममता के भाव जगा सकती है। कवि प्रसाद अपने काव्य में वंचित भूखे और निराश नयनों को नहीं भूले हैं---

" फिर उन निराश नैनों की, जिनके आँसू सूखे हैं,
उस प्रलय दशा को देखा जो चिर संचित भूखे हैं।"(22)

कभी विश्व को अपने अधरों की मुस्कान दिखाता हुआ आला अधिकारी स्नेहिल मानवीय संबंध प्रतिष्ठित करना चाहता है वह इस क्षणभंगुर संसार में मानव जीवन की लालसा निराशा में ढल मल होते देखता है व्यतीत संसार को गौतम ने कार्य का जो दान दिया मानो उस दिन जगती की मंगलमय करुणा उषा बनकर प्रकट हुई थी--

"तप की तारुण्यमयी प्रतिभा, प्रज्ञा पारमिता की गरिमा,
इस व्यथित विश्व की चेतनता, गौतम सजीव बन आई थी।"(23)

कानन कुसुम में प्रसाद जी कहते हैं कि दुखों के सागर के तीर पर मानव देव अधीर बैठा है। तांडव नृत्य की स्थिति संभाव्य है, कवि इच्छा व्यक्त करता हुआ कहता है--

"दूर हो दुर्बलता के जाल,दीर्घ निश्वासों का हो अंत,
नाच रे प्रवंचना के काल, दग्ध दावानल करे दिग्रंत
तुम्हारा यौवन रहे ललाम,
नम्रते!करुणे! तुम्हें प्रणाम!"(24)

प्रसाद जी की साहित्यिक प्रगतिशीलता जीवन की गहराई में आँकी जा सकती है। "प्रसाद जी तो विकासशील और उदार सामाजिक प्रवृत्तियों के निरूपक हैं। उनकी साहित्य सृष्टि एक आशा का ही और स्वातंत्र्य प्रेम-योग की प्रतिनिधि है साहित्यिक अर्थ में उनका साहित्य प्रगतिशील है।"(25) कवि प्रसाद उन्हीं युवकों को चिरंजीवी होने की कामना करते हैं,जो कर्मण्य हैं, अछूतों के जगन्नाथ हैं, संकल्पनिष्ट हैं और जिनकी छाती खुले किवाड़ सदृश है।

कवि प्रसाद जी ने 'लहर' में अपने विचारों की परिपक्वता व सुसंयत स्वरूप का परिचय दिया है। यौवन की अंधड़ की ओर मुड़कर कवि दार्शनिक की दृष्टि से देखता है। यौवन में उच्च कक्षाओं का जन्म होता है, परंतु वे आकांक्षाएं पूर्ण नहीं हो पातीं, क्योंकि युवक की कल्पना की तीव्र उड़ान उसकी सीमित शक्ति को बहुत पीछे छोड़ जाती है। अतीत की स्मृतियां कवि के मस्तिष्क में ताजा हैं,पर वह उनकी याद में तड़पता नहीं, गंभीर मंतव्य करता है।उसकी अनुभूतियां अब बहुत ऊपर उठ गई हैं--

" तुम्हारी आंखों का बचपन,
खेलता था जब अल्हड़ खेल अजर के उर में भरा कुलेल
हारता था हँस-हँसकर मन,आह रे वह व्यतीत जीवन।"(26)

कवि केवल प्रेम वेणु की स्वर-लहरी में जीवन का गीत सुनना चाहता है और चाहता है दुख से चिर दग्ध इस संसार को प्रेम का वृंदावन बनाना।कवि जीवन का पाथेय है, विश्व मानवतावाद। दृष्टि की इस विशालता का परिचय प्रसाद जी यों देते हैं ---

"तुम हो कौन और मैं क्या हूं,इसमें क्या है धरा सुना,
मानस जलधि रहे चिर चुम्बित, मेरे क्षितिज उदार बनो।"(27)

कवि प्रसाद की मान्यता है कि प्रेम का स्वरूप परिमित और व्यक्तिबद्ध होकर विश्वव्यापी है, यही ईश्वर का स्वरूप है जहाँ सभी को समानता प्राप्त है।सुख और दुख तो जीवन का क्रम है।मानव प्रेम सर्वदा लुटाने के लिए है,प्रतिदान की इच्छा व्यर्थ है--

"पागल रे वह मिलता है कब,
उसको तो देते ही हैं सब।"(28)

आशा-निराशा के समन्वय से और वेदना और करुणा के स्निग्ध जल से कवि विश्व जीवन को निखारना चाहता है और इस संघर्षपूर्ण जर्जरित जीवन में नवप्रभातोदय की सार्थक प्रतीक्षा करता है--

अब जागो जीवन के प्रभात।
वसुधा पर ओस बने बिखरे,
हिमकन आंसू जो क्षोभ भरे,
उषा बटोरती अरुण गात।"(29)

लहर की कविताओं को पढ़ने के बाद जो असर हमारे मन पर पड़ता है उससे यह सिद्ध होता है कि कवि विश्वमंगल की भावना से ओतप्रोत है और इस पृथ्वी में नव निर्माण की कल्पना करता है, तो कभी उच्च मानवीय भावों का विश्वास व्याप्त प्रसार चाहता है। कहीं पर राष्ट्रप्रेम की प्रेरणा है, तो कहीं आशा निराशा का संतुलित स्वर। निराशा का स्वर हर कदम पर फीका पड़ा दिखाई देता है, क्योंकि जीवन के प्रति कवि पूर्ण रूप से आस्थावान है ।कैसा जीवन? यही प्रश्न मुख्य रूप से कवि के सामने आया है। वह इस नवजीवन के उपयुक्त भूमि तैयार करने में सफल होता है।'लहर' में जीवन को हर दृष्टि से देखने का प्रयास किया गया है और कवि का झुकाव स्वस्थ संतुलन की ओर स्पष्ट परिलक्षित है।आज मानव हृदय मानवोचित भावों से रिक्त हो गया है।उसमें नवज्योति का प्रकाश भरने के लिए कवि याचना करता है---

"हृदय अँधेरी झोली में, इसमें ज्योति भीख देने आओ।"(30)

जीवन के अभिनव सृजन के लिए उपादान तो वही है, पर उसका युगानुरूप रूप परिवर्तन करना कवि का अभीष्ट है। दृष्टिकोण का विशध कवि प्रसाद ने अपनाया है, क्योंकि उनके कल्पना के मूल में विश्व मानवतावाद की प्रबल प्रेरणा है।उनकी इस नव सृजन का आधार निरी काल्पनिकता नहीं है। अनुभवों की जाँच से परिपक्व विचारणा का उसके साथ सुयोग है। कवि का आशापूर्ण स्वर और नव सृजन के प्रति आस्था का एक चित्र देखें--

" बीती विभावरी जाग री ।
अंबर पनघट में डुबो रही
तारा घट उषा नागरी।"(31)

'पेशोला की प्रतिध्वनि' और 'प्रलय की छाया' में प्रसाद ने जिस प्रकार क्रमशः प्रेरणा और उद्बोधन एवं कमला के चरित्र चित्रण से श्रद्धा भक्ति उभारने का प्रयास किया है वह स्तुत्य है। प्रसाद की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने छायावाद को यथार्थ की भूमि पर प्रतिष्ठापित किया। कवि प्रसाद ने 'अशोक की चिंता' के माध्यम से विश्व कल्याण के उच्च ध्येय को ऊपर उठाया है। दुखों से संतप्त इस संसार में कवि करुणा की नदी बहाना चाहता है। इस कविता का समग्र भाव विश्व मंगल के भाव को परिलक्षित करता है।

इस प्रकार 'लहर' की तमाम कविताओं का निष्कर्ष यही है, प्रसाद जीवन में आशा आस्था को उत्पन्न करके एक संतुलन पैदा करना चाहते हैं।उनकी प्रगतिशीलता इसी बात से समझी जा सकती है कि वह एक ऐसे संसार की स्थापना करना चाहते हैं जिसमें  अधःस्वार्थ विगलित हो जाए और दया, ममता, करुणा,सहानुभूति,मनुष्यता इत्यादि मानवीय भावों का सर्वत्र साम्राज्य हो।

जहाँ तक प्रसाद के समग्र काव्य साहित्य का प्रश्न है,इससे स्पष्ट है कि उन्होंने वस्तु जगत को विकृत बनाकर प्रस्तुत करने में ही यथार्थ की इतिश्री नहीं समझी,वे आदर्श नीति, मानवीय करुणा और आत्मा के उन्नयन को भी देखते हैं ।उनकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतना उन्हें बहुजन हिताय की प्रेरणा देकर मानवीय आचारों-विचारों व आदर्शों की ओर उन्मुख करती है,जबकि "मार्क्स दर्शन जड़वादी होने के कारण करुणा,नीति आचारवाद पर विश्वास नहीं रखता। उसमें आध्यात्मिकता का स्वभावतः अभाव है।"(32) प्रसाद जी व्यक्ति के बहुमुखी प्रगति के समर्थक हैं एकांगी विकास नहीं चाहते। समाज के दलित और उपेक्षित वर्ग को ऊपर उठाकर उन्होंने समाज का गठन और निर्माण चाहा है  इसी कारण उनमें नारी जागरण का स्वर्णिम- विहान दिखलाई देता है। " सभी महान साहित्यकारों की भाँति उन्होंने अपने युग की प्रगतिशील शक्तियों को पहचाना और उन्हें अभिव्यक्ति दी।सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्थान सदैव नीचे स्तरों से होता है, इसलिए प्रसाद जी ने बहिष्कृत अपाहिजों और विशेषकर अबलाओं का साथ दिया।"(33)

वस्तुतः प्रसाद जी का काव्य मानवीय भूमि पर खड़ा है। उन्होंने मानव जीवन के सत्य को चित्रित किया है। वे पलायनवादी नहीं है। उन्होंने मानव दुख को उभारकर हमें द्रवित करते हुए उन्होंने उसे दूर करने की प्रेरणा भी दी है, अतः उनका यथार्थवाद विराट मानवता और करुणा की भूमि स्थापित करता है। संकीर्ण अर्थ में यथार्थवादी या प्रगतिशील नहीं है, या उनमें वैज्ञानिक प्रगति और भौतिकवाद नहीं है, बल्कि "प्रसाद उसी यथार्थवाद को उपादेय मानते हैं, जो लोक मंगल की भावना लेकर चले और जो वेदना और करुणा के व्यापक मानव भाव से प्रभावित हो। वह क्रांति का अग्रदूत होता है, पर केवल विध्वंस में विश्वास नहीं ।उसके लिए निर्माण की भूमि ध्वंस की भूमि से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है।"(34) कहने का तात्पर्य यह है कि मानव मूल्यों को समझ कर समस्याओं की व्यंजना और विचार करने की प्रगतिशील प्रेरणा प्रसाद में है।"कवि अपने काव्यों को मानवीय मूल्यों पर प्रस्तुत करने में सफल हुआ है।व्यष्टि से वह समष्टि पर पहुंचता है।"(35) प्रसाद की हार्दिक इच्छा निम्नलिखित पंक्तियों में द्रष्टव्य है---

मूक हो मतवाली ममता, खिले फूलों से विश्व अनंत।
चेतना बने अधीर मिलिंद, आह वहआवे विमल बसंत।।"(36)

कवि प्रसाद 'कामायनी' में मानव मात्र की शाश्वत समस्याओं का समाधान बड़ी कलात्मकता के साथ किया है।इसमें व्यष्टि से समष्टि की ओर विकास के चिह्न प्रारंभ से ही दिखाई देते हैं।जीवन की व्याख्या कामायनी के मूल में एकत्व का दर्शन है। कामायनी में शाश्वत समस्याओं का समाधान है ।यह जनजीवन और युग की प्रवृत्तियों का समग्र प्रतिनिधित्व नियमन और परिदर्शन कराने वाली कृति है ।पंद्रह सर्गों में विभाजित कामायनी मानवीय भावों पर अवलंबित है।वास्तव में कामायनी के मनु पूर्ण मानव है,जो उठते-गिरते क्रमशः गतिमान होते हैं और उसके साथ ही मानवता भी उत्कर्ष के सोपानों पर होती हुई चरम सीमा पर पहुँचती है।

प्रसाद नारी चित्रण में सर्वत्र सफल रहे हैं। कामायनी की नारी में निर्माण की शक्ति है और जीवन में संतुलन बनाए रखने की क्षमता। वह श्रद्धा,माँ, उपदेशिका, कल्याणी सब कुछ है।श्रद्धा वह शक्ति है,जो दो अतिवादों- देहात्मवाद तथा अपूर्ण आत्मवाद के द्वंद्व का शमन करके आस्तिक बुद्धि की स्थापना करती है--

एक था पूजता देह दीन
दूसरा अपूर्ण अहंता में अपने को समझ रहा प्रवीण,
××××××××××××××××××××
सचमुच मैं हूँ श्रद्धा विहीन।"(37)

मनु की आत्म स्वीकृति श्रद्धा के महत्त्व को समझने के लिए अत्यंत उपादेय है। गिरते हुए मन को श्रद्धा अनेक स्थलों पर संभालती है।संघर्ष के बाद निर्वेद की स्थिति में मनु श्रद्धा का संबल पाकर कृत्य कृत्य हो गए हैं। अंत में श्रद्धा बुद्धि समन्वित मनु सामरस्य की स्थापना करने में पूर्ण सफल हो जाते हैं। स्पष्ट है कि नारी के प्रति विशेष रागात्मक अनुभूति होने के कारण कवि ने हीं प्रेम और परिणय जैसी विभिन्न मनोवैज्ञानिक स्थितियों का काव्यात्मक विश्लेषण किया है। वस्तुतः प्रसाद ने अपनी रचनाओं में नारी को जितने उच्च पद पर प्रतिष्ठित किया है, समसामयिक साहित्य में कहीं नहीं किया गया।नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत उदार है। वह उसे सदैव अग्र भूमि पर प्रतिष्ठित करते रहे हैं।

" नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष स्रोत-सी बहा करो,जीवन के सुंदर समतल में।।"(38)

कवि का प्रगतिशील दृष्टिकोण हमेशा कर्मठ जीवन का समर्थक रहा है। उसकी निराशा जड़ता का पर्याय नहीं बनती।कवि ने वैराग्य या निवृत्ति को जीवन का सत्य कभी नहीं माना। वह व्यक्ति में इस नश्वर दीन भाव को प्रश्रय नहीं देना चाहते। प्रसाद का प्रगतिशील चिंतन सर्वदा नवीनता का आग्रह लेकर चला है। वे पुरातनता  की केंचुली उतार फेंकना चाहते हैं, क्योंकि नित-नूतनता गतिशील जीवन का पर्याय है।परिवर्तन और प्रगति का आवश्यक तत्त्व है। रूढ़ियों के प्रति कवि की कोई आस्था नहीं है। श्रद्धा इस परिवर्तनशील जगत में नित्य नूतनता को महत्त्व देती है और अगाध विश्वास के साथ आत्मसमर्पण करती है----

" दया माया ममता लो आज, मधुरिमा लो अगाध विश्वास।
हमारा हृदय रत्न निधि स्वच्छ, तुम्हारे लिए खुला है पास।"(39)

प्रसाद ने 'कामसर्ग' में अपनी प्रगतिशीलता का परिचय दिया है।उन्होंने काम को मन की स्वस्थ और विकासशील अवस्था का साधन माना है ।काम जीवन को गतिशील बनाने वाली चेतना है।श्रद्धा भी काम गोत्रजा है और काम उसे स्वयं मनु को समर्पित कर उसके सहयोग से जीवन के समस्त लाभ प्राप्त करने का संदेश देता है।काम देवताओं में वासना की आंधी उठाने वाला था किंतु प्रसाद ने यहां उसे निर्माणात्मक शक्ति के रूप में अपनी मौलिक कल्पना और प्रगतिशील विचारधारा का परिचय दिया है। वह श्रद्धा को निर्मल कामकला कह कर उसे एक वरदान के रूप में निरूपित करता है। काम ने मनु को प्रवृत्तिमूलक जीवन दृष्टि दी है। प्रसाद कभी जीवन से भागे नहीं है,वे तो कठोर कर्मठता का संदेश देते हैं ।उनके प्रगतिशील चिंतन का यह एक महत्वपूर्ण पक्ष---

" यह नीड़ मनोहर कृतियों का,यह विश्वकर्म रंगस्थल है।
है परंपरा लग रही यहाँ, ठहरा जिसमें जितना बल है।"(40)

काम के बाद वासना का जन्म लेना स्वाभाविक है। प्रसाद जी का स्वस्थ प्रगतिशील चिंतन वासना सर्ग में कहीं भी कलुषता को स्थान नहीं देता। वासना की तृप्ति के बाद कर्म भावना का जन्म होता है। यज्ञ की कामना और सोम की प्यास तीव्र होती है ।असुरों के पुरोहित 'आकुलि' और 'किलात' मनु को यज्ञ प्रेरणा देकर श्रद्धा के प्रिय पशु की बलि चढ़ाते हैं। श्रद्धा हार्दिक दुख के साथ मनु जियो और जीने दो का संदेश देती है।जीवन की सार्थकता प्रेम पूर्वक जीने और दूसरों को सुख देने में निहित है। मनु तो केवल व्यक्तिगत स्वार्थ में ही भूले हुए हैं,घोर व्यक्तिवादी हैं, किंतु प्रसाद ने श्रद्धा के द्वारा सुख को सीमित कर समष्टिगत धरातल पर मानव सेवा का जो संदेश दिया है वह चिरंतन मानव धर्म है। कवि प्रसाद की प्रगतिशीलता मार्क्सवादी चिंतन के आधार पर हिंसात्मक क्रांति पर नहीं टिकी। वह बल प्रयोग और ध्वंस द्वारा परिवर्तन नहीं चाहते ।आंतरिक परिवर्तन पर महत्त्व देते हैं ।निरीह और आश्रितों के प्रति करुणा प्रसाद जी का ही उदार प्रगतिशील चेतना का द्योतक है ।उनकी संवेदना व्यापक धरातल पर है।पशुओं से विद्रोह कैसा?फिर मनुष्य और पशु में अंतर कैसा?

'स्वप्न' सर्ग में युगीन सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्र प्रसाद ने अंकित किया है। मनु इड़ा को  अंक-शायिनी बनाना चाहते हैं।वह ज्यों ही जबरदस्ती आलिंगन करते हैं,धरती काँप उठती है, रूद्र विध्वंसकारी हो उठे। मनु को मदिरा की मादकता ने पाशविक बना दिया।  प्रजा विद्रोह कर देती है । श्रद्धा का स्वप्न सत्य बनता है और संघर्ष की स्थिति आती है  उस संघर्ष में अपने अहं के उदात्तीकरण न कर पाने के कारण भीषण जन विद्रोह हुआ और वे घायल हुए ।उसमें प्रसाद ने अत्याचार के विरुद्ध जनता के विद्रोह का बहुत स्वाभाविक चित्र उकेरा है, क्योंकि आज का जन सामान्य प्रगतिशील है, रूढ़ियों और शोषण पर अंकुश लगाता है। प्रसाद ने वर्गगत विषमताओं की व्यंजना इन शब्दों में किया है--

"श्रम भाग वर्ग बन गया जिन्हें,अपने बल का है गर्व उन्हें,
नियमों की करनी सृष्टि जिन्हें, विप्लव की करनी वृष्टि उन्हें।"(41)

इस उपर्युक्त कविता में प्रसाद जी ने वर्ग संघर्ष और उनके परिणामों का स्पष्ट संकेत दिया है कि यदि शोषितों की यह स्थिति रही तो क्रांति निश्चित है।

आनंद सर्ग में प्रसाद ने जीवन की समरसता अद्वैत भावना और आनंदवाद की प्रतिष्ठा के साथ ही इस विश्व की सत्यम् शिवम् सुंदरम् का ही प्रतिरूप बतलाया है।मनु आनंद की चरम स्थिति में सब को बतलाते हैं --

"शापित न यहाँ है कोई ,तापित पापी न यहाँ है ।
जीवन वसुधा समतल है, समरस है जो भी जहाँ है।"(42)



इसमें कवि प्रसाद ने साम्य पर आधारित नव समाज की आदर्श स्थिति का निरूपण करते हुए अपनी प्रगतिशीलता का परिचय दिया है। भौतिकता का संतुलन कर आत्मा के उन्नयन द्वारा प्रसाद जी ने समग्र मानवता को आनंद की स्थिति तक पहुंचाया है। उन्होंने मार्क्सवादी प्रगतिशीलता अपनाकर केवल अर्थसाम्य की स्थिति नहीं रखी, जीवन का सार्वत्रिक विकास सांस्कृतिक भाव भूमि पर प्रतिष्ठित किया है। उनकी प्रगतिशीलता भारतीय परंपरा के अनुरूप है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि प्रसाद का काव्य सच्चे अर्थों में प्रगतिशील है । प्रसाद ने अपने काव्य में मानव को सर्वोपरि मानकर मानवत्व को देवत्व से ऊँचा आसन दिया है। "जियो और जीने दो" का सिद्धांत अहिंसा का संदेश आज के युग की पुकार है। प्रसाद साहित्य में सतही दृष्टि से जीवन और साहित्य का ऐक्य नहीं भावनात्मक गहराई की पैठ है। साहित्यिक प्रगति का अर्थ वर्ग-संघर्ष क्रांति या साम्यवादी विचारों का समर्थन नहीं है।प्रसाद जीवन के आकर्षण और कठोर कर्म मार्ग की साधना का संकेत देते हैं। उनका मुख्य लक्ष्य "विजयिनी मानवता हो जाय"(43) है। एक ओर उनका पौरुष प्राणों का मोह त्याग करना सीखलाता है तथा दूसरी ओर उनकी मानवीय करुणा प्राणी मात्र में सम सृष्टि का संदेश देती है। नारियों का सम्मान मानवीय मूल्यों का उच्चतर विकास तथा नूतन सृजनशीलता आदि की भावना प्रसाद को निसंदेह प्रगतिशील साबित कर देती है।


संदर्भ-सूची-

1- संगम प्रसाद स्मृति अंक 18 फरवरी 1951 पृष्ठ 43
2- जागरण 31 अक्टूबर 1932
3- प्रेमचंद घर में, पृष्ठ 340
4- प्रसाद, आंसू ,पृष्ठ 49
5- तदेव, कामायनी (इड़ा सर्ग),पृष्ठ 171
6- तदेव, आनंद सर्ग, पृष्ठ 297
7- डॉ नामवर सिंह, कामायनी के प्रतीक, लेख,कामायनी: मूल्यांकन और मूल्यांकन, पृष्ठ 136 और पृष्ठ 140-141
8- देखिए कामायनी 'स्वप्न सर्ग' के अंतिम पृष्ठ पर संघर्ष सर्ग, पृष्ठ 192 से 210 तक
9- प्रसाद ,लहर, पृष्ठ 14
10- तदेव, झरना,पृष्ठ 24
11- तदेव, पृष्ठ 18
12-तदेव,पृष्ठ-21
13-प्रेम पथिक,पृष्ठ-22
14-तदेव,झरना, पृष्ठ-18
15-तदेव,पृष्ठ-77
16-तदेव,पृष्ठ-76
17-तदेव,पृष्ठ-82
18-तदेव,पृष्ठ-64
19- तदेव, पृष्ठ 37
20- प्रसाद ,आंसू ,पृष्ठ 61
21- डॉ प्रेमशंकर प्रसाद का काव्य, पृष्ठ 161
22- प्रसाद, आंसू ,पृष्ठ 78
23- प्रसाद ,लहर ,पृष्ठ 33
24- प्रसाद, कानन कुसुम,पृष्ठ 95
25- नंददुलारे वाजपेयी, जयशंकर प्रसाद प्रसाद (भूमिका)
26- प्रसाद, लहर, पृष्ठ 23
27- तदेव, पृष्ठ 10
28-तदेव,पृष्ठ 36
29-तदेव,पृष्ठ 24
30-तदेव,लहर
31-प्रसाद ,लहर,पृष्ठ19
32- विनय मोहन शर्मा, कवि प्रसाद और अन्य कृतियां
33- नंददुलारे बाजपेयी, जयशंकर प्रसाद
पृष्ठ- 2
34- डॉ राम रतन भटनागर ,प्रसाद की विचारधारा,
पृष्ठ 128
35- डॉ प्रेम शंकर,प्रसाद का काव्य,
पृष्ठ -207
36- प्रसाद ,लहर, पृष्ठ 24
37- तदेव, कामायनी, पृष्ठ 169
38-तदेव,पृष्ठ-114
39-तदेव,पृष्ठ-57
40-तदेव,पृष्ठ-83
41-तदेव,पृष्ठ-269
42-तदेव, पृष्ठ-288
43-तदेव,पृष्ठ-67

द्वितीय अध्याय- छायावादी कविता और प्रगतिशीलता

द्वितीय अध्याय-

छायावादी कविता और प्रगतिशीलता
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छायावादी कविता में प्रगतिशीलता पर विचार करने से पूर्व हमें 'छायावाद' के बारे में कुछ जानना आवश्यक है, क्योंकि आरंभिक स्तर पर छायावाद को अनेक दृष्टिओं का सामना करना पड़ा था। उसके नामकरण के बारे में मतैक्य नहीं था, किंतु अनेक आरोपों और प्रत्यारोपों के व्यंग्य-व्यथा सहकर भी वह इतना विकसित हो गया कि अंततः उसे हिंदी का 'स्वर्ण-काल' कहा जाने लगा।आचार्य शुक्ल जो उसके पक्के विरोधी थे, उन्हें भी अपना मत बदलना पड़ा और बाद में तो छायावाद के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत कुछ उदार एवं सहिष्णु हो गया था। आचार्य शुक्ल ने ही सर्वप्रथम छायावाद पर सुव्यवस्थित ढंग से विचार किया तथा छायावाद और रहस्यवाद को समानार्थी एवं पर्याय मानते हुए उन्होंने उसकी अभिन्नता स्वीकार की। रामकुमार वर्मा ने भी छायावाद और रहस्यवाद को अभिन्न माना है। उन्होंने उन की भेदकता अस्वीकार करते हुए लिखा- "छायावाद वास्तव में हृदय की एक अनुभूति है। भौतिक संसार के क्रोड़ में प्रवेश कर अनंत जीवन के तत्त्व ग्रहण करता है और उसे हमारे वास्तविक जीवन से जोड़कर हृदय में जीवन के प्रति एक गहरी संवेदना और आशावाद प्रदान करता है। कवि को ज्ञात है कि संसार में परिव्याप्त एक महान दैवी सत्ता का प्रतिबिंब जीवन के प्रत्येक अंग पर पड़ रहा है और उसी की छाया में जीवन का पोषण हो रहा है। एक अनिर्वचनीय सत्ता कण-कण में समाई हुई है। फूल में उसी की हँसी, लहरों में उसका बाहु-बंधन, तारों में उसका संकेत,भ्रमरों में उसका गुंजन और सुख में उसकी सौम्य हँसी छिपी हुई है। इस संसार में उस दैवी सत्ता दिग्दर्शन कराने के कारण ही इस प्रकार की कविता को छायावाद की संज्ञा दी गई।"(1)

  लेकिन एक दूसरा वर्ग भी है जो छायावाद और रहस्यवाद को एक-दूसरे का पर्याय न मानकर उनकी अलग-अलग व्याख्या करता है ।श्रीमती महादेवी वर्मा ने सर्वप्रथम दोनों की भिन्नता की ओर संकेत करते हुए रहस्यवाद को छायावाद की एक विशेष प्रवृत्ति के रूप में स्वीकार किया और छायावाद को प्रकृति की जीवन का उद्गीथ कहा है। आज प्रायः सभी आलोचक इन दोनों के पृथक-पृथक अस्तित्व को स्वीकार करने लगे हैं।
छायावादी कवियों ने काव्य में इस अनुभूति को विशेष महत्व प्रदान करते हुए शुक्ल जी की तथाकथित धारणा को अनुपयुक्त सिद्ध किया है। जयशंकर प्रसाद की दृष्टि में छायावाद की मूल प्रकृति "अनुभूति तथा उसकी भंगिमा है।" उन्होंने लिखा भी है- "छाया भारतीय दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्यमय प्रतीक विधान तथा उपचार वक्रता के साथ सहानुभूति की विवृति छायावाद की विशेषताएं हैं।"(2)
महादेवी वर्मा और डॉ रामकुमार वर्मा ने भी छायावाद को क्रमशः व्यक्तिगत अनुभूति और हृदय की एक अनुभूति कहकर शुक्ल जी के मत का खंडन किया है ।डॉ नगेंद्र जैसे आलोचकों ने छायावाद की भूमि को नितांत लौकिक माना है, कुंठित वासनाओं को इसका प्रेरणा स्रोत कहा है और इस कविता को रूमानी प्रवृत्तियों के पुनरुत्कर्ष की संज्ञा दी है। उनके अनुसार -"छायावाद रोमानी कविता है और दोनों की परिस्थितियों में जागरण और कुंठा का मिश्रण है।"(3) सुश्री महादेवी वर्मा की भांति डॉ नगेंद्र ने भी विद्रोह को छायावाद का मूल स्वर माना है और इसे स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह कहा है।उनके अनुसार -"छायावाद जीवन के प्रति एक विशेष प्रकार का भावात्मक दृष्टिकोण है ,जो अंतरंग और व्यक्तिगत जीवन को अपना प्रेरक प्रमुख प्रतिपाद्य बनाता है उन्होंने एक दूसरे जगह लिखा है -छायावाद की कविता प्रधानतः श्रृंगारिक है ,क्योंकि उसका जन्म हुआ है व्यक्तिगत कुंठाओं से और व्यक्तिगत कुंठाएं  प्रायः काम के चारों ओर केंद्रित रहती हैं।"(4)

आचार्य शुक्ल की दृष्टि में छायावाद ऐसी चित्र-भाषा शैली है, जिसमें कथ्य गौण तथा शिल्प पक्ष प्रमुख होता है और विषय वस्तु की संकीर्णता के कारण इसे शैली संबंधी एक 'वाद' ही कहा जा सकता है ।बहुत दिनों बाद हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे निर्मूल सिद्ध किया। जिस प्रकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी छायावाद को अन्योक्ति पद्धति समझते थे, उसी तरह आचार्य शुक्ल भी उसे शैली मानते थे, जिसमें अन्योक्ति के अतिरिक्त भी कई प्रकार की शैलियों का समावेश था।

डॉ रामविलास शर्मा ने स्वतंत्र कामना को छायावाद की मूलवृति स्वीकार करते हुए उसकी उत्पत्ति का कारण भारतीय पूंजीवाद को माना है और इनके अनुसार दरबारी संस्कृति के आश्रय में बनने वाली रीतिकालीन कविता तथा सुधार वाद के आवर्त में फंसी हुई द्विवेदी युगीन कविता के विरोध में छायावादी काव्यधारा का जन्म हुआ जिसमें विप्लव विद्रोह और क्रांति की ज्वाला के साथ ही समाज में आमूलचूल परिवर्तन करने की उत्कट अभिलाषा भी थी। डॉ शर्मा ने 'छायावाद' को अपने समय का प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन कहा है, जिसमें मध्यकालीन साहित्यिक रूढ़ियों के रूप में वर्णित नायिका भेद और नख शिख वर्णन के स्थान पर नारी की वैयक्तिक भावों की व्यंजना पाई जाती है।'छायावाद' हिंदी की रोमांटिक कविता है और रहस्यवाद उसकी प्रमुख दुर्बलता। छायावादी कवि निराशावादी पलायनशील एवं वेदनाकुल है और निराशा, दीनता, वेदना ,पलायन, विजय- विद्रोह, करुणा,मृत्यु-कामना संवेदना, सांस्कृतिक उद्बोधन,रहस्य,नारी एवं प्रकृति इसकी विषयगत प्रवृत्तियाँ हैं। श्री शिवदान सिंह चौहान की भांति यह पलायनवाद को छायावाद की प्रमुख विशेषता नहीं मानते ।उन्होंने एक ओर जहाँ पलायन भावना का दर्शन किया है,वहीं दूसरी ओर विजय, विद्रोह एवं मानवतावादी स्वरों की झंकार भी सुनी है।छायावादी कवियों को पलायनवादी और प्रतिक्रियावादी कहकर लांछित करने वालों को उत्तर देते हुए उन्होंने लिखा भी है- "उसे पलायनवादी प्रतिक्रियावादी कहकर लांछित करना सरासर अन्याय है। उसमें पराजय और पलायन की भावनाएं हैं, तो विद्रोह, विजय, मानव मात्र के प्रति सहानुभूति के स्वर भी हैं।"(5)

छायावादी कविता में अभिव्यक्त सांस्कृतिक चेतना को प्रसाद और महादेवी ने भारतीय वैदिक परंपरा से सम्बद्ध किया है ,तो आचार्य शुक्ल ने विलायती प्रभाव का परिणाम कहा है ।यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो छायावादी काव्य की सांस्कृतिक चेतना का भारतेंदु एवं द्विवेदी कालीन साहित्य की चेतना से संबंध प्रतीत होता है क्योंकि दोनों के निर्माण में परंपरा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। छायावादी कवियों ने संकुचित दृष्टिकोण एवं अतिशय नियमबद्धता से निरंतर विद्रोह किया। द्विवेदी युग के विषयनिष्ट, तथ्यपरक तथा इतिवृतात्मक दृष्टिकोण के स्थान पर उसने अपने व्यक्तिनिष्ट रागात्मक दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा की।सदियों की दासता के कारण भारतीय जनता आत्मकेंद्रित होती हुई रूढ़िग्रस्त हो गई थी। पाश्चात्य साम्राज्यवादियों के आगमन ने देश में एक विराट आंदोलन उत्पन्न कर दिया था ,जिसके कारण रूढ़ियों  में ग्रस्त देश की जनता पूरी शक्ति और उद्वेलन के साथ जाग उठी। पाश्चात्य शिक्षा के परिणाम स्वरूप भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग देश की दु:खदाई स्थिति के प्रति सजग हुआ और उसके व्यापक सुधार की आवश्यकता की ओर ध्यान दिया गया। इस नवीन सांस्कृतिक चेतना के कारण छायावादी कवियों ने मध्य युग के कवियों के मूल स्वर भक्ति एवं आध्यात्मिकता की साधना पद्धति को स्वीकार नहीं किया। किसी के कारण छायावादी कवियों का नारी संबंधी दृष्टिकोण भी सर्वथा नवीन और व्यापक है। भक्त कवियों ने कामिनी को साधना मार्ग की बाधक शक्ति मानकर उसकी घोर निंदा की थी ,तो रीतिकाल में उसके शरीर की ही पूजा होने लगी। छायावादी कवियों ने सर्वप्रथम नारी को मानवीय धरातल पर प्रतिष्ठित कर न केवल सहानुभूति दिखाया,बल्कि श्रद्धा की प्रतिमूर्ति कहकर उसका सम्मान भी किया। उसके 'देवी,माँ, सहचरी,प्राण' सभी रूपों का निष्ठा पूर्वक उद्घाटन किया गया। वह पुरुषों के कदम से कदम मिलाकर चलने लगी और उसे मरकर भी जीवन के दाव जीतने की प्रेरणा मिली। 'इलाहाबाद के पथ पर' पत्थर तोड़ने वाली और मैले कुचैले वस्त्रों से आवेष्ठित मिट्टी ढोने वाली नारी के प्रति भी उन्होंने अपनी सहानुभूति प्रदर्शित की। छायावादी सांस्कृतिक चेतना अध्यात्मोन्मुख होकर भी लौकिक धरातल पर अधिष्ठित रही।

छायावाद' के स्वरूप विवेचन के साथ-साथ हमें हिंदी साहित्य में विकसित होने वाले उसके इतिहास को संक्षेप में जान लेना चाहिए। हिंदी साहित्य का द्विवेदी युग सन 1901 से लेकर 1920 तक माना गया है। इससे आगे द्विवेदी जी का प्रभाव क्षीण होने लगता है और छायावादी काव्य प्रवृत्ति हिंदी काव्य की सर्व-प्रधान और सर्वाधिक सुंदर प्रकृति के रूप में काव्य जगत पर अपना वर्चस्व स्थापित करती चली जाती है। 'छायावादी' काव्य का आरंभ सन 1909 ई0 में प्रसाद द्वारा स्थापित इंदु मासिक पत्रिका के प्रकाशन से माना जाता है।आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने "इतिहास में इसका समय संवत 1975 माना है।"(6) परंतु उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि छायावादी ढंग की कविताएं तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में इससे पूर्व भी संवत 1967 के आसपास ही निकलने लगी थी। डॉ रविंद्र सहाय वर्मा दो महायुद्धों के बीच की अवधि को 'छायावाद' का काल घोषित करते हैं। उनका मत है- "हिंदी में रोमांटिसिजम या छायावाद का प्रादुर्भाव 1914 के लगभग होता है तथा 1939 में द्वितीय महायुद्ध के प्रारंभ होते हुए वह तीव्र गति से ह्रासोन्मुख होने लगता है।(7) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसका समय सन् 1920 से 1935 ईस्वी तक मानते हैं।"(8)डॉक्टर शंभूनाथ सिंह छायावाद को विद्रोही युग मानते हैं और इसका समय 1918 से 1939 तक मानते हैं।(9)
डॉ शैलकुमारी छायावाद को परिवर्तन युग कहती हैं और इसका समय सन् 1920 से 1937 तक मानती हैं।(10)

इस प्रकार इस के काल के निर्धारण में विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न काल घोषित किया है,परंतु सभी के मत में कोई विशेष अंतर नहीं है, क्योंकि किसी भी काव्यधारा का विकास धीरे-धीरे होता रहता है और विस्फोट होने पर वह लक्षित होती है। उसी प्रकार वह काव्यधारा ह्रासशील होती हुई भी बहुत काल तक चलती रहती है ।अतः छायावादी काव्यधारा भी एक समय के गर्भ में से प्रस्फुटित हुई थी और कालचक्र में दब भी गई ।वैसे छायावाद की संपूर्ण काव्य प्रवृत्तियां सन् 1920 ईस्वी तक प्रस्फुटित हो गई थीं और सन् 1940 तक यह प्रवृतियां पूर्णतया लक्षित होती हैं। अतः 1920 ईस्वी से 1940 तक छायावाद का काल रहा है।

ज्ञात सूत्रों के अनुसार जबलपुर से प्रकाशित होने वाली श्री शारदा के जुलाई दिसंबर 1920 ईस्वी तक के अंको में श्री मुकुटधर पांडेय ने 'हिंदी छायावाद' शीर्षक से चार निबंधों की एक लेख माला प्रकाशित कराई थी, इन्हें छायावादी संबंधी प्रारंभिक निबंध कहा जा सकता है ।सरस्वती पत्रिका में जून 1921 ईस्वी के अंक में छायावाद का प्रथम उल्लेख मिलता है ।'हिंदी में छायावाद' शीर्षक से यह लेख एक सुशील कुमार ने लिखा।

लेकिन सम्यक् विचार करने पर प्रसाद जी ही छायावाद के प्रथम कवि ठहरते हैं,क्योंकि उनकी 1913- 14 ई० के आसपास 'इंदु' में छायावादी ढंग की कविताएं प्रकाशित हुई थीं, जो बाद में 'कानन-कुसुम' के रूप में संग्रहित की गई ।अतः प्रसाद जी खड़ी बोली के प्रथम कवि हैं। स्वयं पंत ने भी इसे स्वीकार किया है ।उन्होंने लिखा है-" प्रसाद जी को हम हिंदी में 'छायावाद का जनक' मान सकते हैं।"(11)छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो,परंतु व्यावहारिक दृष्टि से वह प्रसाद,निराला,पंत,महादेवी वर्मा की कविताओं के लिए रूढ़ हो गया है,जो 1918 से 1936 ईo के बीच लिखी गईं।

छायावाद की सांस्कृतिक चेतना 'बहुजन हिताय' की भावना से ओत-प्रोत तथा आदर्शोन्मुख रही है। इस युग में दलित और उपेक्षित वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति है।
प्रसाद ने गूंगे ,बहरे ,लंगड़े आदि के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए अपने साहित्य में स्थान दिया है। नारी के प्रति अपार आदर एवं आस्था है। इसे लक्ष्य कर आचार्य नंददुलारे बाजपेई ने लिखा है- "सभी साहित्यकारों की भांति उन्होंने अपने युग की प्रगतिशील शक्तियों को पहचाना और उन्हें अभिव्यक्ति दी। सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्थान सदैव नीचे स्तरों से होता है,इसलिए प्रसाद जी ने बहिष्कृत और विशेषकर अबलाओं का साथ दिया।"(12) रीतिकाल का जन समुदाय अशिक्षा एवं अज्ञान के कारण अंधविश्वासी हो गया था।उसकी धार्मिकता एवं भक्ति में बाह्याडम्बर आ गया था, जिसके कारण वे धर्म के मूलतत्त्व से कटकर बाह्य-अंगों पर ही दृष्टि रखते थे। पंडे, पुजारी एवं ढोंगियों द्वारा ही उस युग का धर्म परिचालित होता था। अंधविश्वास और रूढ़िवादिता चरम सीमा पर थी, परंतु छायावाद युग में आकर नई शिक्षा एवं सांस्कृतिक नवजागरण के परिणामस्वरूप नवीन विचारधाराएं पनपने लगीं थीं,जिससे धार्मिक अंधविश्वासों एवं बाह्याडंबरों का विरोध किया जाने लगा।धर्म के नाम पर ढोंग रचने वालों के प्रति निराला ने स्पष्ट रूप से अपना आक्रोश व्यक्त किया है ।उन्होंने 'आ रे गंगा के किनारे' शीर्षक कविता में धर्म के नाम पर ठगने वाले पंडो पर व्यंग्य किया है:-

" पंडों के सुघर-सुघर घाट हैं,
तिनके के टट्टी के ठाठ हैं ,
यात्री जाते हैं, श्राद्ध करते हैं ,
कहते हैं कितने तारे।"(13)

'दान' शीर्षक कविता में उन्होंने उन अंधविश्वासी धार्मिकों का उपहास किया है, जो क्षुधार्त तो मानव को छोड़ बंदरों को पुए खिलाते हैं-

मेरे पड़ोस के वे सज्जन ,
करते प्रतिदिन सरिता-मंजन,
झोली से पुए निकाल लिए,
बढ़ते कपियों के हाथ दिए ।
देखा भी नहीं उधर फिर कर ,
जिस ओर रहा वह भिक्षु इतर।
चिल्लाया किया दूर दानव,
बोला मैं- धन्य श्रेष्ठ मानव!!(14)

धर्म के नाम पर देवी-देवताओं की बलि चढ़ाने वाली अंधविश्वासी प्रवृत्ति का भी निराला ने खुलकर विरोध किया है-

तुझे मुंड माला पहनाते,
फिर भय खाते तपते लोग,
'दयामयी' कहकर चिल्लाते,
माँ दुनिया का देखा ढोंग।(15)

प्रसाद जी ने भी पापों पर  आवरण डालने के लिए प्रार्थना जैसी जीर्ण-शीर्ण परंपराओं एवं अंधविश्वासों का खंडन किया है-

प्रार्थना और तपस्या क्यों,
पुजारी किसकी है यह भक्ति।
डरा है निज पापों से,
इसी से करता निज अपमान।(16)

प्रसाद जी के अनुसार जब तक ढोंग है। यह बाह्याडंबर है। यह धर्म के मूल नहीं हैं। अतएव जीवन में ग्राह्य नहीं हैं
उनका कथन है-

तप नहीं केवल जीवन सत्य,
करुण यह क्षणिक दीन अवसाद,
सरल आकांक्षाओं से भरा
सो रहा आशा का आह्लाद।(17)

कवि वैराग्य को जीवन का सत्य या धर्म नहीं मानता ।वह कर्मठ जीवन का आकांक्षी है। पंत जी मानव को देवोत्तर बनाना चाहते हैं।वे समस्त सृष्टि को ही ईश्वर रूप मानते हैं-

जीवन के प्रति श्रद्धा, मानव के प्रति आदर, जीवो के प्रति स्नेह, यही प्रभु का पूजन है। यह समस्त संसृति ही ईश्वर की प्रतिमा है, सार रूप में वही व्याप्त है निखिल जगत में, मानव का मन ही उसका पावन मंदिर है।(18)

अतः छायावादी धर्म में मानवता की,मानव के कल्याण की भावना निहित है।बाह्याडम्बरों एवं ढोंग की भावना नहीं है। छायावादी युग में रीतियुगीन खोखले अंधविश्वासों एवं रूढ़ियों का खंडन कर धर्म का द्वार सबके लिए खोल दिया गया और बाह्याडम्बरों से लोगों को मुक्ति प्रदान की गई।

पूर्ववर्ती धार्मिक भावना इतनी संकीर्ण हो गई थी कि मानव को मानव से मिलने पर रोक लगा दी थी। उस युग के भगवान ही नहीं,भक्त भी चहारदिवारी में बंद कर दिए गए थे,परंतु छायावाद युग में इस तुच्छ भावना का अंत हुआ और मानव मानव के समीप खींच आया। पुरानी धार्मिक भावना जात-पात के भेदभाव पर आधारित थी, जबकि छायावादी धार्मिक चेतना समस्त मानवता के कल्याण का द्योतक है। वह समस्त जाति-पांति, वर्ण,धर्म से ऊपर उठकर मनुष्यत्व को स्वीकार करती है--

नहीं आज का वह हिंदु,
आज का वह मुसलमान,
आज का इसाई, सिक्ख,
आज का यह मनोभाव
आज की रूप रेखा
नहीं यह कल्पना
सत्य है मनुष्य का
मनुष्यत्व के लिए
बंद है जो दल अभी
किरण सम्पात्त  से
खुल गए वे सभी।(19)


अतः कवि का कथन है कि मनुष्यत्व धर्म ही सर्वोपरि है।यह श्रेष्ठ भावना सामंती युग में अलक्षित थी। धर्म और ईश्वर के संबंध में विवेकानंद ने लिखा है-" मैं उस धर्म और ईश्वर में विश्वास नहीं करता जो विधवाओं के आंसू पोछने या अनाथों को रोटी देने में असमर्थ है।"(20) विवेकानंद के इसी उद्गार से प्रभावित होकर निराला ने 'विधवा' और 'भिक्षुक' जैसी रचना की। इस प्रकार की धार्मिक भावना छायावाद के पूर्ववर्ती युग में ढूंढने पर भी प्राप्त नहीं हो सकेगी। मध्यकाल में धर्म और ईश्वर के सम्मुख मनुष्य नगण्य और क्षुद्र समझा जाता था, किंतु आधुनिक काल में ईश्वर और धर्म का स्थान मानवता और सामाजिक कल्याण की भावना ने लिया। पारलौकिक की जगह इहलौकिकता घर कर गई और मानव की मर्यादा स्थापित हुई।

उपर्युक्त विवेचना में हमें छायावादी कविता की प्रगतिशीलता देखने को मिलती है जिसमें बाह्याडंबर तथा ढोंग का विरोध किया गया तथा उसमें आत्मबल प्रदान करने की शक्ति है। साथ ही छायावादी धर्म की एक और विशेषता यह है कि उसमें जाति- पांति का भेदभाव न होकर समस्त मानवता के कल्याण की भावना समाहित है। मानव को उच्चता पर पहुंचाने वाले भाव,विचार, कर्म ही मानवता की श्रेणी में आ सकते हैं। मानव हृदय की संपूर्ण सद्भावनाएं मानवता में सन्निहित हैं,जो सर्वजन हिताय के साथ मानवीय आत्मोथान के लिए अपेक्षित है।

कोई भी कवि समाज से परांगमुख होकर काव्य-रचना नहीं कर सकता। वह सामाजिक सत्य को काव्य में अवश्य अभिव्यक्त करता है। छायावादी कवियों ने मानवीय जीवन के सत्य को रूपायित करने में सफलता प्राप्त की है।छायावाद में दीन दुखियों के प्रति दया और करुणा की  भावना,शोषितों के प्रति सहानुभूति ,नारी के प्रति आदर और मुक्ति, मानव महत्ता और आत्म गौरव,समता और विश्वबंधुत्व की भावना देखी जाती है। युग- युग में पुरुषों की परतंत्रता की बेड़ी में जकड़ी हुई नारी को इस युग में मुक्ति की घोषणा की गई। छायावादी कवियों ने नारी स्वातंत्र्य की पुकार मचाई तथा भोग्या के संकीर्ण पर्दा को हटाकर उसे सौंदर्य और शक्ति की देवी माना।यही कारण है कि इस युग की नारी रीति-युगीन भोग्या का पद छोड़ अर्धांगिनी के पद पर सुशोभित हुई।वह पुरुष की सहायिका और सहचरी बन गई। छायावादी कवियों ने नारी मुक्ति का आह्वान उच्च स्वर में किया है।नारी मुक्ति का जयघोष करते हुए पंत प्रगतिशील दिखाई पड़ते हैं-

मुक्त करो नारी को मानव।
चिर बंदिनी नारी को
युग-युग की बर्बर कारा से,
जननि, सखी प्यारी को।
××××××××××××××××××
उसे मानवी का गौरव दे
पूर्ण सत्य दो नूतन,
उसका मुख जग का प्रकाश हो,
उठे अंध अवगुंठन।"(20)



छायावादी कवियों ने एक कुत्सित लिंग विभाजन को नष्ट कर उसे पुरुषों के समान अधिकार देने की घोषणा की। पंत ने स्पष्ट रूप से लिखा है-

योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवीय प्रतिष्ठित।
उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित।"(21)

निराला नारी की मांसलता को भी उदात्तता के स्तर पर ले जाते हैं-
"(प्रिय)यामिनी जागी।
अलस पंकज-दृग,अरुण-मुख तरुण अनुरागी।"(22)


फिर नारी की वासना की मुक्ति ,मुक्ता त्याग में ताजी के रूप में देखते हैं।

इस प्रकार छायावाद युग में नारी मुक्ति और नारों के समान अधिकार प्रदान करने तथा नर नारी विभेद को समाप्त कर उसे मानवीय धरातल पर प्रस्तुत करना छायावादी कवियों की प्रगतिशीलता को दर्शाता है। छायावादी कवि मानव समानता का आकांक्षी है। वहाँ सुख-दुख को समान रूप से आपस में बँटवारा करना चाहता है। यह उदात्त मानवतावादी भावना विश्व बंधुत्व में परिणत होती है।छायावादी युग में व्यष्टि सुख की अपेक्षा समष्टि सुख की महत्ता प्रदान की गई है। मानव सेवा को सर्वोपरि माना गया है। कामायनी में श्रद्धा द्वारा प्रसाद जी ने कहलवाया है--

" औरों को हँसते देखो मनु
हँसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो,
सब को सुखी बनाओ।"(24)

छायावादी कवि संपूर्ण वर्ण जाति के संकुचित घेरे से बाहर निकलकर समानता की आकांक्षा करता है-

"दूर हो अभिमान संशय
वर्ण आश्रम-गत महाभय ,
जाति जीवन हो निरामय,
वह सदाशयता प्रखर दो।"(25)

छायावादी कवि जाति -भेद के विरुद्ध था। वह मानवता का पुजारी था,इसलिए वह संपूर्ण मानव को एक समान देखने का इच्छुक है ।यही कारण है कि वह अमीरों की हवेली को किसानों की पाठशाला बनाना चाहता है, जिसमें जाति-भेद नहीं है। छायावादी कवि सर्वत्र सुख-दुख का मिश्रण कर समानता चाहता है। कवि की आकांक्षा है--

"जग पीड़ित है अति दुख से
जगह पीड़ित रे अति सुख से
मानव जग में बँट जाएँ,
दुख-सुख से और सुख-दुख से।"(26)

निराला ने भी समाजवादी भावना की अभिव्यक्ति की है। उनके स्पष्ट उक्ति है--

" भेद कुल खुल जाय तो सूरत तुम्हारे दिल में है ।
देश को मिल जाय जो पूँजी तुम्हारे मिल में है।"(27)

छायावादी काव्य धारा में प्रवाहित होती हुई मानवतावाद की तीसरी विशेषता शोषितों के प्रति सहानुभूति,दीन-दुखियों के प्रति करुणा एवं आदर भावना है। छायावादी कवि सत्य और न्याय का समर्थक है। वह पीड़ितों के प्रति सहानुभूति प्रकट करता है और गरीब किसान, मजदूर, विधवा एवं पिछड़े वर्ग को संबल देता है। उनका काव्य विराट मानवता और लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत है। कवि प्रसाद का संदेश है--

" शक्ति के विद्युतकण जो व्यस्त,
विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय,
समन्वय उसका करे समस्त,
विजयनी मानवता हो जाय।।"(28)

निराला के काव्य में युग-युग से शोषित पीड़ित एवं अभावग्रस्त व्यक्तियों के लिए आधार करुणा है। यह मानवीय करुणा ही उन्हें क्रांतिकारी बना देती है। निराला ने जन- सामान्य की आंखों से बहने वाले आँसुओं में दुख देने का अनुभव किया था और वह पीड़ा भी उनके काव्य में व्यंग्य रूप में प्रस्फुटित हुई है। पूर्ववर्ती कवियों ने मानव की दुर्दशा पर आँसू बहाए थे,परंतु मूल कारणों की ओर लोगों का ध्यान नहीं गया था। निराला ने इस सामाजिक वैषम्य से उत्पन्न स्थिति का चित्रण 'दान' 'वह तोड़ती पत्थर' आदि कविताओं के माध्यम से किया है। भिक्षुक में नर कंकाल का चित्रण करते हुए लिखते हैं कि--

वह आता
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता ,
पेट-पीठ दोनों मिलकर है एक,
चल रहा कुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को,
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता-
दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।"(29)

भिक्षुक के प्रति कवि हृदय में दया,स्नेह और करुणा है। मुट्ठी भर दाने के लिए तरसती हुई दीनता आंसुओं की घूंट पीकर भाग्य विधाता की ओर साकार रूप में खड़ी है।जूठी पत्तल को भी कुत्ते छीन झपट लेना चाहते हैं। कवि भिक्षुक के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करता  हुआ कहता है कि--

"ठहरो अहो मेरे हृदय में है अमृत मैं सींच दूंगा।
×××××××××××××××××××××××××××
तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूंगा।"(30)

कवि ने क्रंदन और अभावग्रस्त अशांत स्वर को वाणी दिया है।'दीन' शीर्षक कविता मानव हृदय को झकझोर देने में सफल है। कवि मानव समाज का सेवक है। वह समाज के शोषण के प्रति क्रांति का आह्वान करता है और इसके लिए विप्लव के वीर बादल को आमंत्रित करता है। 'जागो फिर एक बार' कविता में कवि दीन भाव को नश्वर मानता है। कवि का आग्रह है कि वह व्यथित संसार की पीड़ा को दूर करें---

माँ मुझे वहाँ तू ले चल,
देखूंगा वह द्वार,
दिवस का पार--
मूर्छित हुआ पड़ा है जहाँ,
वेदना का संसार।"(31)

इस प्रकार देखते हैं कि निराला के काव्य की प्रगतिशीलता का मूल स्वर मानवतावादी भावना है, जिसका मूल्यांकन करते हुए डॉक्टर भगीरथ मिश्र ने लिखा है--" मानवता धर्म ही निराला जी का सहज धर्म रहा है। निराला जी का समस्त काव्य इस मानव धर्म की व्याख्या,स्थापना और विकास का जन-जन के कल्याण का मार्ग खोलने की अमर गाथा है। उनका समस्त जीवन-दर्शन ही मानवतावादी था।"(32)

पंत जी 'युगांत', 'युगवाणी' और 'ग्राम्या' में मानवता की लहर काफी ऊँची है।'युगांत' में नई जागृति और क्रांति है। कवि ने स्वीकार किया है, 'युगांत' की क्रांति भावना में आवेश है और नवीन मनुष्य के प्रति संकेत। नवीन सत्य के प्रति मेरे मन का आकर्षण अधिक वास्तविक मन नवीन मानवता के रूप में प्रस्फुटित होने लगता है।"(33)  पंत जी की यह रचनाएं क्रांति भावना के साथ ही मानवतावादी भूमि पर स्थित हैं। युगवाणी में मध्ययुगीन संकीर्ण नैतिकता का विरोध तथा नवीन जागरण का संदेश है। कवि वर्गहीन और शोषणहीन समाज की स्थापना करना चाहता है।वह साम्यवाद का समर्थक है ग्राम्या में ग्राम्य जीवन और ग्राम-संस्कृति की अभिव्यक्ति की गई है तथा ग्रामीणों की दबी आत्मा के स्वर को मुखरित किया गया है। तात्पर्य यह है कि पंत के काव्य में नव मानवता और नवानुभूतियों का संगीत सुरक्षित है। चिदंबरा की भूमिका में उन्होंने लिखा है---" हमारे साहित्य में जीवन यथार्थ की धारणा इतनी एकांगी, खोखली तथा रुग्ण हो गई है कि हमें शोषित,जर्जर और लघु मानव के ऋण चित्रण में ही कलात्मक परितृप्ति मिलती है।"(34)

पंत जी वर्ग संघर्ष तथा रक्त क्रांति की अपेक्षा मानव चेतना के समस्त पहलुओं का उचित संतुलन सांस्कृतिक दृष्टिकोण से चाहते हैं। कवि कोकिल के पाचक कण बरसाकर जीर्ण शीर्ण रूढ़ियों को नष्ट करने की याचना करता है ,क्योंकि पुरानी संकीर्णता में उसका दम घुट रहा था। अतः सामाजिक जीवन की संकीर्णता का अंत करना चाहता है और नवीन मानवता का आवाहन---

गा कोकिल वर्षा पाचक कण।
नष्ट भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन,
ध्वंस,भ्रंस जग के जग बंधन।
पाचक-पग धर आवे नूतन,
हो पल्लवित नवल मानवपन।"(35)

पंत जी ने दीन-हीनो के प्रति क्षोभ व्यक्त करते हुए,उन्हें शक्ति प्रदान करना चाहा है। उन्होंने चिदंबरा में संग्रहित 'कृषक', 'श्रमजीवी', 'ग्राम युवती'  'ग्राम नारी' आदि शीर्षक कविताओं में इनका चित्रण किया है।'वह बुड्ढा' शीर्षक कविता में निष्प्रभ,निःसहाय, नरकंकाल का चित्रण मिलता है,तो 'ग्राम युवती' शीर्षक कविता में अभावग्रस्त जीवन के कारण व युवती का असमय ढलते यौवन का चित्रण उपस्थित करता है ।कवि का मन करुणा से आर्द्र हो जाता है--

रे दो दिन का
उसका यौवन ।
सपना छिन का
रहता न स्मरण ।
दुखों से पिस,
दुर्दिन में घिस,
जर्जर हो जाता उसका तन।
ढह जाता असमय यौवन।"(36)

संकीर्ण मनोवृत्तियों से ऊपर उठकर, शोषितों के प्रति सहानुभूति प्रकट करता हुआ कवि नवीन मानव मूल्यों को प्रश्रय देता है ।वह साम्यवाद का समर्थक है और समस्त मानव का कल्याण चाहने वाला। इसी भावना को कवि ने अभिव्यक्त करते हुए लिखा है--

"साम्यवाद के साथ स्वर्णयुग करता मधुर पदार्पण।
मुक्त निखिल मानवता करती मानव का अभिनंदन।।"(37)

महादेवी करुणा की प्रतिमूर्ति हैं। उनका संवेदनशील हृदय विश्व पीड़ा को देखकर द्रवित हो जाता है ।वह विश्व वेदना में अपनी वेदना मिला देना ही कवि का मोक्ष मानती हैं। उनकी वेदना लोक संवेदना बनकर करुणा सौहार्द और मानवता को जन्म देती है। विश्व की दीनता से महादेवी पूर्णतया परिचित हैं ।अतः वे करुणा प्रदर्शित करती हुई कहती हैं-

"भिक्षुक-सा यह विश्व खड़ा है पाने करुणा प्यार।
हंस उठ रे नादान खोल दे पंखुड़ियों के द्वार।।"(38)

महादेवी के काव्य में लोकहित की भावना विद्यमान है ।वह सांसारिक क्रंदन से अनभिज्ञ नहीं है। अतः वे तृषित,दुखित और कष्टों से झूलती हुई पृथ्वी को मेघों की तरह सुखद तृप्ति देना चाहती हैं--

प्यासे का जान ग्राम,
झुलसे का पूछ नाम,
धरती के चरणों पर
नभ के धर शत प्रणाम।"(39)

वे प्रकृति माँ से पूछती हैं कि तेरी चिर यौवना सुषमा को देखूं या जर्जर मानव जीवन को। कवयित्री का झुकाव जर्जर मानव जीवन की ओर है--

" कह दे माँ क्या देखूं।
देखूं खिलती कलियां या,
प्यासे सूखे अधरों को,
तेरी चिर यौवन सुषमा
या जर्जर जीवन को।"(40)

महाश्वेता महादेवी अपनी निजी अनुभूतियों को मानवता से मंडित किया है।यह व्यथित संसार और मुरझाई कलियों की तरफ देखने का संदेश देती हैं--

"मेरे हँसते अधर नहीं जग की आंसू लड़िया देखो।
मेरे गीले पलक छुओ मत,
मुरझाई कलियां देखो।"(41)

अतः स्पष्ट है कि कवयित्री की दृष्टि लोक परके रही है।उन्होंने लोके पीड़ा को मुखरित किया है ।उनमें सर्वहित की भावना है तथा उनका काव्य मानवीय भूमि पर संस्थित होता हुआ लोक मंगल की कामना से संपृक्त है।


संदर्भ सूची-

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40- यथोपरि, यामा,( रश्मि) तृतीय संस्करण सं0 2008, पृष्ठ- 99
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