चतुर्थ अध्याय
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छायावादी कवि 'निराला' में प्रगतिशील चेतना
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निराला सर्वप्रथम छायावादी कवि हैं, जिन्होंने कविकर्म की कठोरता का अनुभव किया था ।उनके मस्तिष्क में व्याकुल मानवता की पीड़ा का नक्शा विद्यमान था, इसलिए उन्होंने कवि के रूप में अपना कर्त्तव्य अनुभव किया। सामान्य परिवार में जन्म लेने के कारण इनकी दृष्टि सदैव दीन- दुखियों और असहाय व्यक्तियों पर रही है। उन्होंने देश के एक लंबे समुदाय को उदर भरण की चिंता में दौड़ते देखा था। बहुतों को समस्या की इस देहली पर दम तोड़ते भी पाया। दैन्य और असमर्थता का इससे बढ़कर और कौन उदाहरण हो सकता है। ऐसी उपेक्षित प्राणियों के प्रति महाकवि ने सदैव सहानुभूति का प्रदर्शन किया।इन्हें हिंदी का रविंद्र कहा जा सकता है। किसी मायने में कम नहीं, हर तरफ से बराबर। निराला स्वभाव से अक्खड़ तथा मनमौजी किस्म के आदमी थे।संपूर्ण विश्व कुटुंब तुल्य और गरीब इनके भाई थे।सामाजिक असमानता और वैयक्तिक जीवन के अभाव ने निराला को विद्रोही बना दिया था ऐसे वैसे नहीं-पक्का। निष्ठुर बंधन और जर्जर रूढ़ियों को कबूलना या गलत मान्यताओं को स्वीकृति देना, उन्हें कभी मान्य न था।इसी कारण समाज अपने रास्ते पर चला गया और निराला विपरीत दिशा में गीत गुनगुनाते रहे ,जैसे जो कुछ घट रहा है। उससे कोई सरोकार ही नही। बेमेल और कंटकाकीर्ण परिस्थितियों के सामने महाकवि ने कभी सिर नहीं झुकाया। अपनी अपार शक्ति और अलौकिक प्रतिभा के बल पर ही वे निराला कहलाए काव्य जगत के निराला। जो आकाश की तरह व्यापक सूर्य की तरह प्रभावपूर्ण पृथ्वी-सा ठोस और सागर से भी अधिक गहरा हो- वही निराला से मेल खा सकता है। उथले और कमजोर किस्म के आदमी तो उनके सामने एक क्षण भी नहीं टिक सकते थे।
उनकी प्रतिच्छाया प्रतिरूप की कल्पना करते ही नस नस में बिजली सा स्पंदन छा जाता है ,क्योंकि वह दया ममता और करुणा की सजीव मूर्ति थे। उन्हें समय-समय पर जो पुरस्कार मिले या प्रकाशकों से पारिश्रमिक मिला उसे गरीबों असहायों और विद्यार्थियों में बाँट दिया। वे बीसवीं शताब्दी के कर्ण थे। स्वयं प्रचंड झंझावातों का मुकाबला करते रहे।संकटों से जूझना ही उनके जीवन का आदर्श था कुछ लोग निराला को पागल या एबनॉर्मल कहा कहते रहे हैं ।यह वही लोग हैं, जो महाकवि के सशक्त व्यक्तित्व को देखकर निस्तेज,भयभीत और कुंठाग्रस्त हो जाते थे।मानसिक स्तर पर कुंठित और पराजित व्यक्ति भला किस को सम्मान दे सका है।निराला जीवन भर आर्थिक और सामाजिक विषमताओं से टकराने के बावजूद वे कभी विचलित नहीं हुए थे।यही दृढ़ता उनके स्वभाव का आवश्यक अंग बन गई थी और उसने उनके स्वाभिमान को कभी झुकने न दिया।अपने स्वाभिमान पर ठेस लगते हैं वे तिलमिला उठते थे। स्वाभिमान के प्रति उनका इतना आग्रह था कि पल्लव की भूमिका में पंत ने इन पर कुछ आक्षेप किए थे।उसकी घोर प्रतिक्रिया से दुखी होकर उन्होंने 'पंत और पल्लव' निबंध लिखा और ब्याज सहित मूलधन चुका लिया। वे एक बार हिंदी के मसले पर 'गांधी और नेहरू' से भी भिड़ गए थे। निराला बड़े ही नेक दिल के व्यक्ति थे उनमें छल-कपट का कहीं नाम भी ना था। जिससे इनका कभी मनमुटाव हुआ अवसर पड़ने पर उसका सत्कार अवश्य करते थे।'पल्लव' की भूमिका तथा 'पंत तथा पल्लव' के घात प्रतिघात के बाद भी पंत और निराला की मैत्री में किसी प्रकार का अंतर नहीं आया।
साहित्य में तो निराला अक्खड़ थे ही, व्यावहारिक जीवन में भी वे बड़े निर्भीक थे। उनकी निर्भीकता का चित्रण करते हुए नंददुलारे वाजपेई ने लिखा है -"जब कभी वह गाँव आते, रात नौ या दस बजे तक हमारे गाँव पर ही रहा करते थे। उनसे कहा जाता कि रात यहीं रह जाइए,तो वे बहुत कम इस प्रस्ताव को स्वीकार करते। रात उजेली हो या अंधेरी वे चल देते और डेढ़ दो मील सूनी बाड़ियों और बगीचों को पार कर अपने घर पहुँचते ।बरसात के दिनों में लोन नामक नदी जो उनके रास्ते में पड़ती थी, बेहद भयावह हो जाती थी। उसका पाट बहुत खूब बढ़ जाता था और वेग का तो कहना ही क्या? परंतु निराला जी एक हाथ में कुर्ता धोती लिए दूसरे हाथ से तैर कर उस बरसाती नदी को ना जाने कितनी बार तैर गए थे ।कहा जाता है कि महिषादल में निराला श्मशान सेवन किया करते थे और साथ ही वहाँ के प्रसिद्ध मंदिर में देर तक बैठे रहते थे।"(1)
पूरे हिंदी साहित्य में इस प्रकार का क्रांतिकारी एवं निर्भीक व्यक्तित्व केवल कबीर को मिला था। निराला कबीर की भाँति ही सिर से पैर तक मस्त मौला थे। कबीर की भांति निराला की तेजस्विता भी स्तुत्य है इतना होने पर भी निराला के नेतृत्व में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो अन्यत्र नहीं पाई जाती और इन्हीं विशेषताओं के कारण हिंदी कवियों में उनका प्रगतिशील व्यक्तित्व अपने ढंग का अकेला है। इस जन्मजात विषपायी को आजीवन विष का कड़वा घूंट ही पीना पड़ा।इनका जीवन संघर्ष का जीवन था ,परोपकार का जीवन था, वह किसी लीक पर चलने वाले साहित्यकार नहीं थे। फिर भी ऐसी लीक छोड़ गए जो आज के साहित्यकारों की दिशा निर्देशक बनी हुई है। उनके व्यक्तित्व के निरालेपन का उल्लेख करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-" निराला का अध्ययन बहुत विशाल है, परंतु कभी भी उन्होंने पुराने और आधुनिक साहित्यकारों का अनुकरण नहीं किया ।वह नख से शिख तक मौलिक हैं ।वह किसी से हुबहू नहीं मिलते। उनका निराला उपनाम बिल्कुल सार्थक है...... क्या काव्य, क्या कहानी,क्या निबंध; निराला जी का व्यक्तित्व सर्वत्र ही अत्यंत मुखर होता है।............. इतना अद्भुत व्यक्तित्व हिंदी कवियों की वर्तमान दुनिया में ही नहीं।"(2)
साहित्य के क्षेत्र में 'निराला' के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए पंत लिखते हैं -"निराला का विकास प्रसाद की तरह मंद गजगामी गति से नहीं हुआ। उन्होंने कविता कानन में अपने समस्त प्रवेश के साथ सिंह की तरह प्रवेश किया और पहली ही रचना जूही की कली ने नई अभिव्यंजना तथा शिल्प कौशल के कारण आलोचकों की दृष्टि में हिंदी जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया।"(3) इसमें संदेह नहीं कि निराला की प्रथम रचना ने ही हिंदी साहित्य में तहलका मचा दिया और आलोचक प्रायः इन्हें शंका की दृष्टि से देखने लगे, जिससे इनके साहित्य का समुचित मूल्यांकन नहीं हो पाया इनकी विधायक कल्पना में वह अपूर्व शक्ति थी जिसने बरबस ही आलोचकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया शास्त्रीय परंपराओं की लकीर पीटना निराला के स्वभाव के सर्वथा प्रतिकूल था। वह उस शार्दूल की भाँति थे जो झुंड में रहना नहीं पसंद करता, बल्कि गहन वन को चीरता हुआ अपने मार्ग का स्वयं निर्माण करके स्वच्छंद विचरण करता है। निराला के प्रगतिशील जीवन संघर्ष की कहानी युगांतर महाकाव्य की उदात्तता,सार्वभौम जीवन व्यापकता, स्मरणीय जीवन युद्ध की अद्भुतता के कारण जितनी रमणीयता है उतनी ही नवजीवन प्रदायिनी भी है। युग के अनेक मनीषियों,प्रतिभा संपन्न सुकवियों ने निराला से प्रेरणा ली है। निराला के जीवन में संकल्प की दृढ़ता एवं प्रगतिशील चेतना का दर्शन सरोज के विवाह में किया जा सकता है। इस समय निराला की आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी।एक और तो साधनहीन होने के कारण वे अत्यंत विवश थे, दूसरी ओर उनका विद्रोह पूर्ण संकल्प भी अटूट था। उनकी इस द्वंद्वात्मक मनोवृति का लेखा-जोखा आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के शब्दों में इस प्रकार है-" एक और वे अपनी विपन्नता से बाधित और विवश हो रहे थे, दूसरी ओर दृढ़ निश्चय से अडिग भी बने हुए थे उन्होंने विवाह की सारी व्यवस्था जिस स्फूर्ति और समारंभ से की थी और व्यक्तिगत रूप से सारे विवाह कार्य को जिस तरह संपन्न किया था,वह उनके व्यक्तित्व के महान और निष्कम्प निश्चय का ही परिचायक है।"(4) सरोज स्मृति में समाज की अनेक रूढ़ियों पर भी कवि ने प्रहार किया है। सरोज के विवाह प्रसंग में निराला कान्यकुब्ज ऊपर अत्यंत व्यंग्य करते हैं। उनकी विशेषता बतलाते हैं-
" वे कान्यकुब्ज कुल-कुलंगार,
खाकर पत्तल में करे छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय बेलि में विष ही फल
यह दग्ध मरुस्थल -नहीं सुजल।"(5)
कान्यकुब्जों के पैरों का वर्णन व्यंग्य मिश्रित हास्य को सफलतापूर्वक संमूर्तित करता है। विवाह में ससुर द्वारा दामाद का पाद प्रक्षालन एक आवश्यक प्रक्रिया है उसका स्मरण कर कान्यकुब्जों की उन्होंने अच्छी खबर ली है---
" वे जो जमुना के से कछार,
पद फटे बिवाई के उधार,
खाए थे मुख ज्यों पिये तेल,
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते, घोर गंध
उन चरणों को मैं यथा अंध,
कल घ्राण प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूँ,ऐसी नहीं शक्ति।
ऐसे शिव से गिरजा विवाह
करने को मुझको नहीं चाह।"(6)
सामाजिक रूढ़ियों एवं गलत परंपराओं का विरोध करते हुए निराला सरोज के विवाह में बहुत से सामाजिक विधानों को तोड़ने का आह्वान करते हुए कहते हैं--
" तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम,
लग्न के, पढ़ूंगा स्वयं मंत्र,
यदि पंडित जी होंगे स्वतंत्र।"(7)
सवाल पैदा होता है कि निराला के लिए यह बाध्यता स्वयं उनके द्वारा ओढ़ी हुई थी अथवा यह समाज की विधि निषेध पूर्ण संघटना के भीतर से उत्पन्न हुई थी। कहना ना होगा,यह आंशिक रूप से निराला की विद्रोह प्रकृति के कारण उत्पन्न हुई थी और आंशिक रूप से समाज में प्रचलित घिनौनी रूढ़ियों के कारण। निराला प्राचीन की व्यर्थता को जला देने को कहते हैं--
जला दे जीर्ण-शीर्ण प्राचीन क्या करूंगा तन जीवन हीन।"(8)
निराला ज्ञान के साधक और समर्थक थे।वे उसी बात को मान्यता देते थे जो ज्ञान से पोषित और मानवता की प्रगति में सहायक हो--
तान सरिता वह स्त्रस्त्र अरोर,
बह रही ज्ञानोदधि की ओर,
कटी रूढ़ियों के प्राण की डोर
देखता हूँ अहरह मैं जाग।"(9)
'उद्बोधन' निराला की क्रांतिकारी रचना है, जिसमें समस्त रूढ़ियों को हटाकर ज्ञान की प्रतिष्ठा की गई है---
मन्द्र उठा तू बन्द पर जलने वाली तान,
विश्व की नश्वरता कर नष्ट,
जीर्ण-शीर्ण जो,दीर्ण धरा में प्राप्त करें अवसान,
रहे अवशिष्ट सत्य जो स्पष्ट।"(10)
".......... निराला जैसे क्रांतिकारी और द्रष्टा के लिए स्वाभाविक है कि उनमें पौरुष की प्रधानता हो, रूढ़ियों को झकझोर देने की शक्ति हो और बुद्धि की तेजस्विता हो।"(11)
भारतवर्ष गुलामी की जंजीरों में शताब्दियों तक जकड़ा रहा जिसमें नारियों का शोषण किया गया एक ओर तो वे सामंती और पूंजीवादी आर्थिक परिस्थितियों के कारण शोषित वर्गों के पुरुष के साथ ही शोषण का शिकार बनी और दूसरी ओर अपने परिवार के पुरुषों पिता भाई और पति के द्वारा भी अतिरिक्त रूप से शोषित या पद दलित होती रही। कवि निराला ने नारियों को नारी संबंधी सारी ग्रंथों से मुक्त कर उसे सुंदरी और स्नेह उत्तेजक का स्थान दिया कामोत्तेजक का नहीं भोग्या का नहीं---
नहीं लाज भय,अनृत,अनय दु:ख,
लहराता उर मधुर प्रणय-सुख,
अनायास ही ज्योतिर्मय मुख
स्नेह-पास-कसना।"(12)
भारतीय समाज का विजातियों द्वारा वैभव का उपभोग तो किया ही गया, साथ ही साथ भारतीय नारियों का अपमान भी किया गया। उनके अत्याचार की एक लंबी कहानी है ।इसी अत्याचार ने नारी स्वाधीनता को छीन लिया था। नारी चारदीवारी की सीड़न भरी कोठरी में बंद हो गई थी, फलतः उनके स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ा, जिसके कारण कन्या हत्या,बाल विवाह,सती प्रथा और विधवा विवाह वर्ज की कुत्सित विचारों का बाजार गर्म हो गया, जो नैतिकता स्वच्छंदता और रचनात्मकता को रसातल में पहुँचा दिया। निराला इस ऐतिहासिक सत्य से पूर्णरूपेण परिचित थे। वाचिक रूप से विधवा बने रहने में सम्मान की बात समझी जाती थी, किंतु यथार्थ में उसकी जो दुर्गति हुई,उससे भारतीय समाज का सिर नीचा हो जाता है। विधवा की इसी दीन-हीन दशा का स्मरण कर निराला करुणार्द्र होकर उसका एक चित्र हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं---
वह इष्ट देव के मंदिर की पूजा-सी,
वह दीप-शिखा-सी शांत भाव में लीन,
वह क्रूर काल-तांडव की स्मृति-रेखा सी,
वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन-
दलित भारत की ही विधवा है।"(13)
यह ऐसी विधवा है जो विवाह के बाद एक ही बार अपने पति से मिल पाई है। आज उसका पति उसके जीवन से दूर हो गया है, इसलिए उसके आर्द्र नेत्र करुणा प्लुत रहते हैं। उसके मुख से निकला हुआ प्रत्येक स्वर हाहाकार में परिवर्तित हो जाता है
वह एकांतवासिनी हो गई है,उसके वस्त्र फटे हुए हैं, वह अस्फुट स्वर में रोती सिसकती है, कि कहीं उसका रुदन कोई सुन न ले। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय समाज में विधवाओं की दयनीय स्थिति जातिवाद और रूढ़िग्रस्तता, आडंबर प्रधान नवीन सभ्यता, नवयुवकों की कुरुचि, निम्न वर्ग के प्रति उच्च वर्ग की अभिचार वृत्ति आदि पतनशीलता को निराला ने दर्शाया है। निराला ने हिंदू धर्म के कुसंस्कारों को तद्वत कभी स्वीकार नहीं किया। जन्म से मृत्यु तक शास्त्रकारों ने सोलह संस्कारों का विधान मुख्य रूप से किया है। इसमें अधिसंख्य अपनी अर्थवत्ता को खो चुके हैं, किंतु हिंदू समाज इन्हें बंदरिया के मृत बच्चों की भांति सीने से चिपकाए हुए हैं।निराला पुराण-ग्रंथ और रूढ़ि के विरोधी हैं। वह विधवा तथा अंतरजातीय विवाह के समर्थक हैं।विधवा की करुण दशा के प्रति उनका मन आर्द्र हो जाता है। क्या विधवा जैसी दुखी विधाता की दूसरी भी सृष्टि होगी, जो सखियों में भी खुले प्राणों से बातचीत नहीं कर सकती।भोग सुख वाले संस्कारों के बीच रहकर भी भोग- सुख से जिसे विरत रहना पड़ता है आँख के रहते भी जिसे चिरकाल तक दृष्टिहीन होकर रहना पड़ता है।"(14) निराला ने 'बिल्लेसुर बकरिहा' में विधवा विवाह कराया है। इस तरह की उनकी प्रगतिशील तथा उनके काव्य में भी झलकती है।
" स्नेह स्वप्न मग्न अमल कोमल तनु तरुणी, जूही की कली" के चित्रांकन के साथ निराला काव्य क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और परिवेश के प्रति कवि की उन्मुक्त दृष्टि उन्हें इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ने वाली युवा मजदूरनी नके ऊपर कुछ सोचने को मजबूर कर देती है।'तोड़ती पत्थर' एक प्रगतिशील रचना है।इस कविता में निराला ने श्रमिक वर्ग की नारी का हृदय विदारक चित्र अंकित किया है। स्मरणीय है कि मजदूरनी के इस जनवादी चित्र में गलदश्रु भावुकता नहीं है। यह चित्र निश्चय ही हमारी न्याय बुद्धि को झकझोरता है और यथास्थितिवाद के विरुद्ध एक सजग दृष्टि की मांग करता है। मजदूरनी इलाहाबाद के पथ पर खुले आकाश के नीचे बैठकर पत्थर तोड़ रही है। श्याम तन, नमित नयन युवती अपने कर्म में लीन है, हाथ में बड़ा हथौड़ा है, जिससे पत्थर पर वह निरंतर प्रहार कर रही है। सामने शायद पंडित मोतीलाल नेहरू का तरु मालिका से घिरा हुआ आनंद भवन है। ग्रीष्म का मौसम । कार्य करते करते दोपहर होने को आई है। झुलसाती हुई लू चल पड़ी।धूलिकण चिंगारी की भांति उड़ने लगे, किंतु तब भी वह पत्थर तोड़ती रही। कवि से उसका साक्षात्कार हुआ। युवती ने अट्टालिका की ओर देखा,कवि की ओर देखा और अंत में देखा कि संसार में उसका कोई नहीं। कवि का मन उसकी दारुण दशा पर भर आता है---
"सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक क्षण के बाद वह कांपी सुधर
ढलक माथे से गिरे सीकर
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा
मैं तोड़ती पत्थर।"(15)
इस कथन के द्वारा उसने अपनी परवशता को व्यक्त किया है कि मुझे समाज व्यवस्था ने केवल पत्थर तोड़ने के लिए ही बनाया है। मुझे प्रेम करने का अधिकार नहीं है पूरी कविता में समाज की असमान व्यवस्था के प्रति चोट की गई है ,पर सारी चोट लाक्षणिक प्रयोगों द्वारा है।जब कवि कहता है--
"गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार;
सामने तरु मालिका,अट्टालिका प्राकार।"(16)
तो इस तरुणी के गुरु हथौड़े से केवल पत्थर पर प्रहार नहीं होता,बल्कि उस पीड़ित समाज व्यवस्था पर उसका प्रहार पहुँचता है,जिसमें ऐसी विषम स्थितियाँ विद्यमान है।इतनी छोटी-सी गिने-चुने साधारण और सपाट शब्दों के उच्चारण द्वारा आज की पूंजीवादी व्यवस्था पर करारा व्यंग्य किया है ।
निराला ने मानवता के प्रति सर्वथा एक नवीन दृष्टि का विकास किया है, किन्तु यथास्थिति को उखाड़ फेंकने का आइवान मानवतावादी सारी कविताओं में प्राप्त नहीं है। नारी सम्बन्धी प्रगतिशील भावना की सही अनुगंज .. अनामिका की मुक्ति कविता में प्राप्त है जहाँ भाषा के अभिजात्य के साथ उन्होंने समस्त नारी वर्ग को दासता कारा को तोड़ने का आह्वान किया है ।
तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा
पत्थर की निकली फिर गंगा जलधारा ।17.
• यही नहीं, कवि की आकांक्षा है कि नारियां पार्वती की भांति होकर सत्य, शिव, सुन्दर को बल देती हुई नेतृत्व ग्रहण करें और दिग्भ्रांत लोगों को सन्मार्ग का अनुसरण करायें -
" गृह गृह की पार्वती ।
पुनः सत्य सुन्दर शिव को संवारती
उर उर की बनी आरती ।
प्रांतों की निश्चल ध्रुवतारा | 18
" नारी को संतों और भक्तों ने वासना की पुतली और मायाविक के रूप में देखा था। रीतिकाल में नायिका केवल काम क्रीड़ा की कन्दुक बन कर रह गई थी। छायावादी कवियों ने नारी के मन की गहराइयों की थाह ली। निराला ने नारी शक्ति की उपासना की । नारी उनकी दृष्टि में अबला न रहकर सबला कर समादृत हुई । नारी की दीनता, निराशा और असहायता का चित्रण करते हुए भी निराला ने उसे प्रेरणा और श्रोत के रूम में देखा। वह वासना का विष न होकर साधना का अमृत है । 19
आश्चर्य की बात है कि छायावादी कवियों में निराला ही एकमात्र ऐसे कवि है, जिन्होंने धन्नासेठों दुवारा किये जा रहे शोषण और भूपतियों द्वारा शोषित किसानों की दयनीय दशा को गहराई से न केवल जान लिया था, बल्कि शोषको को मिटाने और 64
शोषितों को सुखी बनाने की विप्लवी ललकार भी मारी थी । निराला पौरुष के कवि है अतएव उनके रौद्र रूप को उनकी अनेक रचनाओं में देखा जा सकता है । ' तुलसीदास' और 'राम की शक्ति पूजा' के प्रतीकों में राष्ट्रीयता के सन्दर्भ में " महाराज शिवाजी का पत्र" में यही प्रगतिशील और क्रान्तिकारी उष्मा है । 'परिमल' के 'आह्वान' कविता के माध्यम से कवि को वर्तमान व्यवस्था से असन्तोष दिखायी पड़ता है । इसलिये वह विनाश की प्रतीक श्यामा से प्रार्थना करता है कि अव्यवस्था को मिटाने के लिये तुम्हारा ही ताण्डव नर्तन होता है । इस समय अव्यवस्था भी है और ताण्डव के लिये पर्याप्त सामग्री भी-
"एक बार बस और नाच तू श्यामा |
सामान सभी तैयार,
कितने ही है असुर, चाहिए तुमको कितने हार |
कर - मेखला मुण्ड - मालाओं से बन मन अभिरामा -
एक बार बस और नाच तू श्यामा |" 20
महलों में बैठकर शोषण की योजना बनाने वालों का कवि ध्वंस चाहता है जो विद्रोह का नाम सुनकर ही कांप उठते है । निराला के 'बादल राग' में शोषकों के प्रति यह दृष्टि-
''अट्टालिका नहीं है रे आतंक-भवन
X X X X X X X X X
रुद्ध कोष है, क्षुब्ध तोष, अंगना, अंग से लिपटे भी
आतंक - अंक पर काँप रहे है, धनी वज्र गर्जन से बादल । त्रस्त नयन मुख टॉप रहे है।'' 21
बादल की सर्वाधिक आवश्यकता दीन किसानों को होती है ; उसी के कारण उसकी कृषि फलवती होती है । यहाँ कवि की प्रगतिशील एवं रचनात्मक दृष्टि का उन्मेश हुआ है---
"जीर्ण बाहु, शीर्ण शरीर, तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर | चूस लिया है उसका सार,
हाड़ माँस ही है आधार, से जीवन के पारावार ।
हिल-हिल खिल-खिल,हाथ हिलाते तुझे बुलाते;
विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।।"22
फिर कवि बादल से याचना करता है, कि तुम अपनी गर्जना चालू रखो। जिससे जीर्ण-शीर्ण समाप्त हो जाय तथा अन्याय के पक्षधर भूधर कॉप उठे और समस्त संसार में जीवन लहरा उठे । ध्वंसात्मकता तथा रचनात्मकता व प्रगतिशीलता का बहुत सुन्दर संगम निराला ने अपनी संश्लेषण प्रधान मेधा से कराया है -
"घन गर्जन से भर दो वन, तपादप पादप तन ।
जब तक गुंजन गुंजन पर नाची कलियों, कवि निर्भर
भौंरो ने मधु पी पीकर माना स्थिर मधु ऋतु कानन।
गरजी है मन्द्र वज्र स्वर थर्राए भूधर भूधर
झर-झर-झरझर धरा झर पल्लव-पल्लव पर जीवन ॥" 23
".............निराला की यह जनमुक्ति की चिन्ता उस समय से उनकी कविताओं का जैगरी है, जब हिन्दुस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना भी नहीं हुई थी।"24
निराला के राष्ट्रीय गीतों में सांस्कृतिक चेतना की भास्वरता का स्वर विद्यमान है। मानवतावाद पर विचार करते हुए हमने देखा है, कि 'निराला' का राष्ट्रप्रेम उनकी मानवतावादी भावना को कहीं भी खंडित नहीं करता। इन गीतों के वर्ण्य-विषय-रुप में केवल जीवनोत्कर्ष की भावना को ही नहीं लिया गया है, बल्कि समाज की दयनीय स्थिति और उसकी विषमता पर दृष्टिपात करता हुआ कवि गौरवमय अतीत का अंतराल भी टटोलता है....
"क्या यह वही देश है
भीमार्जुन का आदि का कीर्ति क्षेत्र
चिर कुमार भीम की पताका ब्रह्मचर्यदीप्त
उड़ती है आज भी जहाँ के वायुमंडल में
उज्ज्वल, अधीर और चिर नवीन ?
श्रीमुख से कृष्ण के सुना था जहाँ भारत ने
गीता - गीत सिंहनाद
मर्म वाणी संग्राम की
सार्थक समन्वय ज्ञान- कर्म भक्ति-योग का । " 25
निराला ने सामाजिक चेतना से अनुप्राणित अनेक गीतों में जनमानस के सांस्कृतिक जागरण और प्रगतिशील भावनाओं को जगाने के लिये अपना विद्रोही स्वर दिया । सामाजिक वैषम्य के चलते दीन-हीन दु:खी वर्ग के प्रति इनके मन में अथाह दया और ममता है । समाज की विषमता सम्बन्धी एक उदाहरण देख सकते हैं-
" चाल ऐसी मत चलो
सृष्टि से ही गिर रहा जो
दृष्टि से फिर मत छलो ।
बनो बासंती मृदुल
पत्तिका तरु की अतल
फिर सुरस संचारिका
सुख सारिका उसकी मृदुल
फिर मधुर मधुदान से नव
प्राण देकर फलो || " 26
इस प्रकार के प्रगतिशील गीतों में निराला की मानवतावादी दृष्टि अधिक उभड़ी है । निराला ने देश प्रेम का स्वर 'गीतिका' के प्रथम गीत में ही वीणावादिनी से देश के मंगल की प्रार्थना करता हुआ कहता है-
"वर दे वीणा वादिनी वर दे |
प्रिय स्वतन्त्र-रव अमृत- मन्त्र -नव
भारत में भर दे ।
काट अन्ध उर के बन्धन-स्तर
वहा जननि, ज्योतिर्मय निर्भर;
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर,
जगमग जग कर दे।" 27
"जागो जीवन धनिके" में कवि माँ भारती से देश को आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बनाने की प्रार्थना करता है। 'नर जीवन के स्वार्थ सकल' में कवि देश कल्याण के लिये माँ से प्रार्थना करता है । 'भारति जय विजय करे' में भारत-गौरव वर्णित है।
'अणिमा' में निराला अपनी प्रगतिशीलता दिखाते हैं, जब सन्त कवि रैदास के प्रति जो एक चर्मकार हैं, अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहते हैं-
"हुआ पारस भी नहीं तुमने, रहे
कर्म के अभ्यास में, अविरत बहे
ज्ञान गंगा में, समुज्ज्वल चर्मकार
चरण छूकर कर रहा मैं नमस्कार।" 28
'बेला' की कतिपय कविताओं में उनकी प्रगतिशीलता स्पष्ट है। निराला स्वयं क्रान्तिकारी कवि हैं,जिन्होंने 'जल्द- जल्द पैर बढ़ाजी कविता में क्रांति के लिये प्रोत्साहित किया है - .
"जल्द-जल्द पैर बढाओ,आओ ,आओ
यहाँ जहाँ सेठ जी बैठते थे,
बनिये की आँख दिखाते हुए
उनके ऐंठाये ऐसे थे
धोखे पर धोखा खाते हुए
बैंक किसानों का खुलवाओ ।" 29
अगर हम 'कुकुरमुत्ता' को देखें तो हमें उसमें सामाजिक चेतना, यथार्थ दृष्टि, प्रगतिशील विचारधारा और व्यंग्य- वृत्ति मिलता है, जिसमें जीवन के विविध पार्श्वों पर कवि ने व्यंग्य कसा है। इतना तो कहा ही जा सकता है कि कुकुरमुत्ता के पीछे कोई साधारण काव्यात्मा कार्य नहीं करती।जितना तीव्र और मर्मभेदी उसका व्यंग्य है, उतनी की व्यापक उसकी दृष्टि है। उसके व्यंग्य का लक्ष्य एक नहीं, अनेकोन्मुख है । कुकुरमुत्ता का पहला व्यंग्य तो उस समाज पर है जहाँ उच्च वर्गों का अधिपत्य होता है और निम्नवर्ग उपेक्षित रहता है। कुकुरमुत्ता उस गरीब मजदूर किसान का प्रतीक है ,जो सहज ही अपनी गरीबी और गंदगी भरे परिवार में जन्म लेता है और राम भरोसे जीता रहता है । वह शोषण की प्रवृत्ति के प्रतीक गुलाब से कहता है-
"अबे ओ गुलाब,
कहाँ से पाई तूने रंग ओ आब ।
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इठला रहा है कैपिटलिस्ट।" 30
इतना ही नहीं समाज का शत्रु कैपीटलिस्ट सर्वहारा को ही नहीं मध्यवर्ग को भी भटका देता है-
"ख्वाब में डुबा चमकता हो सितारा,
पेट में डंड पेले हो चूहे, जुबां पर लफ्ज प्यारा | " 31
'कुकुरमुत्ता' में निराला ने तत्कालीन हिन्दी कविता में तथाकथित प्रगतिवादी और प्रयोगवादी धराओं की अवस्था और अराजकता के प्रति भी व्यंग्य किया है । तत्कालीन प्रगतिवादी लेखकों में जो अनावश्यक जोश और एक दूसरे के प्रति कुत्सा का भाव आया था, जो अनर्गल जोश में ऊँचे कुलावे बांधते थे - उनके प्रति भी यह व्यंग्य है।
"जैसे प्रोग्रेसीव का लेखनी लेते
नहीं रोका रुकता जोश का पारा
यही से यह सब हुआ
जैसे अम्मा से बुआ ||" 32
इसी' प्रोग्रेसीव' जोश में यह सब हुआ जो कुकुरमुत्ता की अनर्गल बातें कही गयी है और टी० एस० इलिस्ट- वादियों पर व्यंग्य किया गया--
"कहीं का रोड़ा, कहीं का लिया पत्थर
टी० एस० इलियट ने जैसे दे मारा
पढ़ने वालों ने जिगर पर हाथ रखकर
कहा, कैसा लिख दिया संसार सारा।" 33
इस प्रकार हम देखते हैं कि कुकुरमुत्ता मैं व्यंग्य सीमित या एकोन्मुख नहीं है-अनेकोन्मुख है और उसकी चपेट में सभी अव्यवस्थित तथा असम्बद्ध आ जाते है । उनका व्यंग्य भी युग पर है और इस कथन में कुछ न कुछ सत्य अवश्य है कि "निराला ने इस कविता में सारे विश्व को बांधने और उसके विकास का पथ खोजने की चेष्टा की है।" 34
निराला के काव्य में नये पत्ते का निश्चित ही महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें उनकी प्रगतिशीलता और सामाजिक यथार्थवादी दृष्टि अभिव्यक्ति अधिक प्रकाश में आयी है । जहाँ 'महगूं महंगा रहा'- सा राष्ट्रीय चेतना से, सामाजिक पीड़ा से उद्बुद्ध कविताएं है, वहां तीव्रतम व्यंग्य प्रधान रचनायें भी । 'देवी सरस्वती' का सा ग्राम काव्य और नहीं देखा गया । रानी और कानी, खजोहरा, गर्म पकौड़ी, डिप्टी साहब आदि का व्यंग्य प्रखर है और संयत भी, लेकिन कुछ समीक्षकों को इनमें यथार्थ का नग्न रूप मिलता है" 35 एवं प्रतिक्रियावादी और कुत्सित अश्लीलता भी । लेकिन मेरा विश्वास है कि व्यंग्य की तीखी चोट हमेशा अनावृत होती है, आवृत रहे तो वह सतेज न होगी । जब तक उनके आक्षेप सीधे नहीं होंगे तब तक वे कुठित ही रहेंगे । सफल व्यंग्य में सीधी चोट तिलमिला देने वाला प्रहार, भर्त्सना और हल्का तिरस्कार तो होगा ही । यदि यह आक्षेप्य है तो व्यंग्य का दूसरा रूप भी नहीं है । नये पत्ते की पूरी रचनाओं का परिशीलन हमें निराला को प्रतिक्रियावादी नहीं कहने देता... हम उन्हें प्रगतिशील ही कह सकते है । 'रानी और कानी' शीर्षक व्यंग्य रचना से ही इसका आरंभ हुआ है इसमें कवि का दृष्टिकोण यथार्थवादी है । कवि ने कुरूपता तथा निर्धनता को जीवन का अभिशाप बताया है । रानी गृह कार्यो में दक्ष है, चतुर है, पर उसका विवाह इस कारण से नहीं हो पाता कि वह निर्धन और कुरूप है । रानी और उसके माँ के हृदयोद्गरों का जो चित्र कवि ने खींचा है, वह बड़ा करुण और मर्मस्पर्शी है--
"मां कहती है उसको रानी
चेचक के दाग, काली नक-चिप्टी
गंजा सर एक आँख कानी ।"36
लोगों का व्यंग्य सुनकर तथा माँ को दुखी देखकर जब वह रोती है, तो कानी आंख से आंसू भी नहीं गिरते हैं -
"लेकिन वह बायीं आंख कानी
ज्यों की त्यों रह गयी रखती निगरानी।"37
इस कविता में समाज के उस दृष्टिकोण की भर्त्सना भी है जो गुणों की उपेक्षा कर सौन्दर्य का ही उपासक बना हुआ है। 'गर्म पकौड़ी' में सामाजिक व्यंग्य दिखता है। इसमें कंजूस पर व्यंग्य तो किया ही गया है परन्तु यदि गर्म पकौड़ी को तथाकथित नये विचार और नई अवस्था के आभासित बड़े-बड़े शब्द मान लिया जाय तो रचनाव्यंग्य अधिक निखरता है। ये नये विचार उसी तरह आकर्षित करते हैं, जिस तरह गर्म पकौड़ी पहले दिल लेकर आकर्षित करती है । तथाकथित नये विचारों में दिल (भावनाओं) को प्रभावित करने की ही शक्ति होती है और बौद्धिकता ( यह पूर्व ज्ञान की गर्म पकौड़ी को तत्काल ग्रहण करने से जीभ भी जल सकती है ) का अभाव । एक भावनात्मक जोश ही उनमें होता है और प्रभावित व्यक्ति उसे ग्रहण भी कर लेता है, लेकिन स्थिति वही होती है जो 'गर्म पकौड़ी' को दांत तले दबाने से होती है, फिर ऐसे व्यक्ति उनसे चिपटे भी रहते हैं । कंजूस ( बौद्धिक विपन्न ) की तरह कौड़ी छोड़ते नहीं । इसके लिये शाश्वत एवं स्थायी मूल्यों को भी त्याग दिया जाता है अर्थात् कंजूस अभिजात्य की ह्रासोन्मुखी मानवता को भी तिरस्कृत कर देता है ।
'प्रेमसंगीत' में उन मनचले नवयुवकों पर व्यंग्य तो है जिसमें 'बाम्हन' का लड़का घर की पनिहारिन जात की कहारिन और कुरूप स्त्री से प्रेम करता है यह आज की सामाजिक स्थिति है। इसमें प्रेम का भदेस रूप ही आया है और प्रेम के परंपरित सुन्दर उपादान का विरोध है। फिर भी ऐसा करना समाज में अन्तर्जातीय विवाह को बल देता है, जिसे बुरा नहीं कहा जा सकता है क्योंकि ब्राह्मण का लड़का होकर एक उपेक्षिता से प्यार कर उसे अपने स्तर पर लाना चाहता है तो इसमें बुराई क्या है। उसकी इस उक्ति में प्रगतिशीलता में दृष्टिगत होती है जब कहता है -
" बाम्हन का लड़का मैं उससे प्यार करता हूँ
जात की कहारिन वह मेरे घर की पनिहारिन वह,
आती है होते तड़का, उसके पीछे मैं मरता हूँ।"38
"छलांग मारता चला गया, 'कुत्ता भौंकने लगा' आदि कविताओं में जमींदारी प्रथा पर व्यंग्य है। छलांग मारता हुआ मेढक तथा भौंकता हुआ कुत्ता में कृषकों की दयनीय एवं जीर्ण स्थिति का व्यंग्यात्मक चित्रण है।" राजे ने अपनी रखवाली की " में सामंतवादी व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है। जनता इन्हीं राजाओं की चापलूसी करती है | कवियों ने प्रशस्ति एवं बहादुरी के गीत गाये, तो लेखकों ने उन पर लेख लिखे, इतिहासकारों ने इतिहास लिखे, नाटककारों ने उन पर रूपक लिखकर रंगमंच पर अभिनीत किये, पर वे राजा उन्हें भ्रम में रखकर ठगते रहे ।
"झींगुर डटकर बोला' और 'महंगू महंगा रहा' में क्रूर तथा अत्याचारी जमीदारों के साथ- साथ राजनीतिक नेताओं पर व्यंग्य है। झींगुर और महंगू को निराला ने कृषक वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में चित्रित किया है जो इन अत्याचारियों का विरोध करने के लिये कटिबद्ध होते हैं ।
'थोड़ों के पेट में बहुतों को आना पड़ा' कविता में निराला ने परिवर्तन का आदर किया है, किन्तु सारी प्रगति के बावजूद भी देखने में यह आया कि इस पूंजीवादी शोषण ने 'लक्ष्मी' का हरण कर उसे कारागार में डाल दिया, इससे समाज मारा गया और एक का आतंक व्याप गया। परिवर्तन पर परिवर्तन आता रहा, दल पर दल बनते रहे, किन्तु सभी के भीतर 'छल और स्वार्थ का बास रहा । इसलिये थोड़े लोगों का शिकार बहुतों को बनना पड़ा---
"लहलही धरती पर रेगिस्तान जैसा तपा।
जोत में जल छिपा,धोखा छिपा, छल छिपा।
बदले दिमाग बढ़े, गोल बाँधे घेरे डाले,
अपना मतलब गांठा,फिर आँखें फेर ली।
जाल भी ऐसा चला
कि थोड़ों के पेट में बहुतों को जाना पड़ा।" 39
'मास्को डायलॉग्स' एक ऐसी रचना है जिसमें दिखाया गया है कि प्रचलित और विश्वसनीय सिद्धान्त या व्यक्ति का नाम लेकर लोग कैसे समाज को मूर्ख बनाते और धोखा देते है और समाज में अपना प्रभाव डालने के लिये साहित्य के कार्य में पूर्ण रूप से अक्षम होते हुए भी साहित्य क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं।कवि ने इस कविता में समाजवादी नेताओं पर व्यंग्य किया है।'गिडवानी जी' इन्हीं समाजवादी नेताओं के प्रतिनिधि के रूप में चित्रित हैं---
"बहुत बड़े सोशलिस्ट
"मास्को डायलाग्स' लेकर जाये है मिलन ×××××××××××××××××××××××
एक से है एक मूर्ख, उनको फंसना है,
ऐसे कोई साला एक धेला नहीं देने का,
उपन्यास लिखा है, जरा देख लिजिए ।
अगर कहीं छप जाय
तो प्रभाव पड़ जाय उल्लू के पट्ठों पर
मनमाना रुपया ले इन लोगों से ।"40
'पांचक' में जनता और सरकार के बीच खड़े मध्यवर्तियों को कवि ने अच्छी खबर ली है। सीधा सम्बन्ध न होने के कारण ही जनता की क्रय शक्ति समाप्त हुई और वह विपन्नावस्था में आ गयी-
" माल हाट में है और भाव नहीं,
जैसे लड़ने को बड़े दांव नहीं । " 41
निराला ने इस काल की अपनी रचनाओं में तीबी व्यंग्य शैली का सहारा लिया है । संसार का सारा माहौल और संस्कृति निर्माण 'दाने' पर ही निर्भर है, किन्तु दाना उत्पन्न करने वाला आज भी असभ्य ही रह गया
"चूँकि यहाँ दाना है इसलिये दीन है, दीवाना है ।।" 42
वह सेठ जो रात दिन धन के मद में चूर रहता है और दूसरों पर अपने धन का रोब गालिब करता है, धन ही उसकी आशा- निराशा तथा उत्थान-पतन एवं जन्म- मरण है। उसके सुख- दुख का एक मात्र धन ही आधार है। लेकिन इन विजयी कहे जाने वाले महोदय का तब भेद खुल जाता है जब पता चलता है कि उनका सारा ताम-झाम दूसरों के रक्त शोषण पर आधारित है--
"किनारा वह हमसे किये जा रहे हैं ।
दिखाने को दर्शन दिये जा रहे हैं ।
X X X x x X
खुला भेद, विजयी कहाए हुए जो,
लहू दूसरे का पिये जा रहे हैं ।"43
धनपतियों की लबरेज महफिलों के राज को कवि जानता है। नये समाज में इस रहस्य का पता चलना कठिन नहीं होगा-
"होंगे हृदय के खुलकर सभी गाने नये,
हाथ में आ जायेगा, वह राज जो महफिल में है।"44
कवि पूंजीपतियों को चेतावनी देते हुए उन्हें होश में आने को कहता है क्योंकि जनाक्रोश की लहर आने ही वाली है, जिसका भयंकर परिणाम हो सकता है -
"पेड़ टुटेंगे, मिलेंगे, जोर की आँधी चली,
हाथ मत डालो, हटाओ पैर, बिच्छू बिल में है।"45
पूँजीपतियों द्वारा शोषितों - पीड़ितों को कवि उत्साहित करता है ---
"राह पर बैठे, उन्हें आबाद तू जब तक न कर |
चैन मत ले गैर को बरबाद तू जब तक न कर 1" 46
इन बातों को देखकर हम निराला को विध्वंसक नहीं कह सकते, क्योंकि उनमें रचनात्मक और विद्रोहात्मक प्रतिभाओं का विचित्र संयोग है । वे ऐसे आदर्श समाज की स्थापना करना चाहते हैं, जो स्वावलम्बी हो--
"अंतस्थल से यदि की पुकार,
सब सहते साहस से बढ़कर जायेंगे, लेंगे भी उबार ।
X x X X X X ×××××××××××××××××××××X
"सुलझेंगी मन-मन की माखै, ज्योतिर्जग का होगा सुधार । । सादा भोजन, ऊंचा जीवन होगा चेतन का आश्वासन ।
हिंसा को जीतेंगे सज्जन, सीधी कपिला होगी दुधार ।
×××××××x××××××××× होंगी आँखें अंत: शीला
होगा न किसी का मुँह पीला, मिट जायेगा लेना उधार ।।" 47
पुरातन और जड़ संस्कारों का निराला ने सर्वदा विरोध किया है, इसलिये वे रुद्रताल से भैरव नर्तन कर उन्हें मिटाने और नये संदर्भों को उत्पन्न करने का आह्वान करते हैं---
"नाचो हे, रुद्रताल, आंचो जाग ऋतु- अराल ।
झरें जीवन जीर्ण शीर्ण, उद्भव ही नव प्रकीर्ण ।
करने को पुनः तीर्ण हो गहरे अन्तराल |
फिर नेतन तन लहरे, मुकुल ग्रंथ का छहरे,
उर तरु तरु का हहरे, नव मन सायं - सकाल।"48
" निराला की राष्ट्रीयता भारत की इस मिट्टी में उगती पनपती है, परन्तु इसमें प्रफुल्लित एवं पल्लवित होती हुई बहुत दूर जा कर वह समस्त मानवता में अपने को समेट लेती है। इसलिये उनकी राष्ट्रीय कविता का धरातल बड़ा विस्तृत और बहुरंगी है।"49
हम राष्ट्रीयता के अभाव में शताब्दियों तक पराधीन रहे जिससे हमारी राष्ट्रीयता की उद्भावना और उसका परिज्ञान समाप्तप्राय हो गयी थी । नव जागरण के कारण पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान और साहित्य से हमारा सम्पर्क हुआ तब हमें धीरे- धीरे राष्ट्रीयता के स्वरूप का बोध हुआ, तब हमने देश की राष्ट्रीयता को हीनावस्था में पाया । हम दूसरे के अधीन हैं, का व्यावहारिक बोध हुआ । इसके वास्तविक स्थिति का परिज्ञान निराला के 'तुलसीदास' के प्रथम छन्द में ही प्राप्त होता है । उसमें इतिहास के परिप्रेक्ष्य में मुसलमान शासकों के शासन का वर्णन किया गया है । यहाँ यदि 'मुसलमान' के जगह पर अंग्रेज रख दिया जाय तो भारत की तत्कालीन परिस्थिति का स्पष्ट चित्र सामने आ जायेगा । विदेशियों ने हमें ठगों की तरह खूब लूटा जैसे, एक ऋतु के बाद दूसरी ऋतु आकर पृथ्वी के जल को सूखा जाती है, वैसे ही उदर पूर्ति करने वाले पराये लोग हमारे देश में आकर सुखी नहीं करते, बल्कि अपना-अपना पेट भर दुःखी बना जाते हैं। इसलिये लोक मानत व्याकुल हो जाता है ।शरीर से शक्तिहीन होकर हाहाकार करने लगते हैं-
"उठा आज कोलाल, गया लूट सकल संवल,
शक्तिहीन तन निश्चल, रहित रक्त से रंग-रंग।" 50
लेकिन ऐसे अंधकारपूर्ण वातावरण में निराला की अप्रतिहत प्रतिभा का चमत्कार देखने योग्य है। वे वास्तविकता को केवल अपने ही नहीं समझते, बल्कि पूरे देशवासियों को उस वास्तविकता से परिचय कराकर, लम्बे डग मारकर आगे बढ़ जाने की प्रेरणा भी देते हैं-
" मिला ज्ञान से जो धन, नहीं हुआ निश्चेतन,
बाधो उससे जीवन, साधो पग-पग पर यह डग | "51
तुलसीदास के रूप में निराला ने आधुनिक कवि के स्वाधीनता सम्बन्धी भावों के उदय और विकास का चित्रण किया है । छायावादी कवि की तरह निराला के तुलसीदास को भी देश की पराधीनता का बोध प्रकृति की पाठशाला में ही होता है; किन्तु छायावादी कवि की तरह वे भी कुछ दिनों के लिये नारी मोह में पड़कर उस भाव को भूल जाते हैं । अन्त में जो ज्ञान प्रकृति की पाठशाला में मिला था, उसका दीक्षान्त भाषण उसी नारी के विश्वविद्यालय में सुनने को मिलता है और भविष्यवाणी होती है कि---
"देश काल के शर से विधकर
यह जागा कवि अशेष छविधर
इसके स्वर में भारती मुखर होयेंगी।"52
'सेवा- प्रारंभ' में भारतीय मेहनतकश जनता भूखमरी- अकाल और महामारी का शिकार बनती दिखायी गयी है। जनता की चेतना-शक्ति कुण्ठित हो गयी है । वह नाना प्रकार की रूढ़ियों को झेलती- बुनती अपनी दीन अवस्था को ही स्वीकृत कर भाग्यवाद का वाहक बन गयी है। अपना रक्त शोषण वह स्वयं कर रही है। जैसे-जैसे विपत्ति में पड़कर वह भगवान का स्मरण करती है, वैसे ही कभी-कभी सरकार का भी स्मरण कर लेती है। इससे अधिक अपने दुःखी होने का उत्तरदायित्व किसी और पर वह नहीं डालना चाहती । लेकिन निराला भारतीय मानस के पतन के निम्नस्तरों को स्पर्श कर अनुभूति और अभिव्यक्ति का संगम
अपनी नवोन्मुखशालिनी प्रतिभा से उपस्थित करने में समर्थ है। यहाँ जलदश्रु भावुकता नहीं है, किन्तु यह न भूलना चाहिए कि ऊपर - ऊपर वे हिमकठोर और तटस्थ दिखायी देते है, किन्तु नीचे आर्द्रजल का अतल स्रोत अपने में सब कुछ मिला लेने के लिये आकुल- व्याकुल है-
" बुढ़िया मर रही थी गन्दे में फ़र्श पर पड़ी
आँखों में ही कहा जैसे उस पर बीता था।"53
यही नहीं स्वाधीनता के इस बढ़ते हुए संघर्ष में निराला ने गरीबों पर बराबर ध्यान रखा और उनका पक्ष लिया। 'तुलसीदास' में भारत की दीन-दशा पर प्रकाश डालते हुए वे लिखते है-
"रण के अश्वों से शस्य सकल,
दलमल जाते ज्यो दल के दल
शुद्रगण क्षुद्र जीवन सम्बलपुर-पुर में
××××××××××××××
××××××××××××××××
वे चरण चरण बस, वर्णाश्रम रक्षण के।"54
परिमल की देश-प्रेम सम्बन्धी रचनाओं में 'जागो फिर एक बार', छत्रपति शिवाजी का पत्र' तथा 'यमुना के प्रति' विशेष उल्लेखनीय है । इन कविताओं के माध्यम से निराला ने गौरवमय अतीत का स्मरण दिलाते हुए जागरण का मन्त्र फूँका है। 'जागो फिर एक बार' में निराला ने बताया कि सिंह की मांद में स्यार का बलात् घुस जाना हास्यास्पद है, किन्तु सिंह जब अपनी प्रकृति को भूल जाय, तब गधे से अधिक उसका महत्व नहीं । सियार तो फिर भी मांस खा लेता है और दाँत नाखून भी चला लेता है । निराला को भारतीय शौर्य का बोध है , इसीलिये भारतीयों को उनकी प्रवृत्ति का स्मरण कराकर अंग्रेजों के विरुद्ध उत्तेजित करते हुए कहते हैं- --
शेरों की मांद में आया है आज स्यार-
जागो फिर एक बार ।" 55
निराला के गीत अपने समस्त अंगों से भैरव नर्तन करते हैं, तंत्रियों को झकझोर देते है, और अपनी अतल भेदी ध्वन्यात्मकता से सारा कलुष धो डालते हैं।अंग्रेजों को उन्होंने केवल एक ही बार सीधे निशाना बनाया है, इससे उनके सूक्ष्म मनोभावों को पकड़ने में सहायता मिलती है और उनकी क्रान्तिकारी विचारधारा से अवगत होया जा सकता है -
"चूम चरण मत चोरों के तू
गले लिपट मत गोरों के तू ।।" 56
'गीतिका' में निराला की भारत मुक्ति की कामना प्रबल एवं उत्कर्ष पर स्थित हो जाती है, वे अकुण्ठित भाव से माँ भारती के चरणों में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते है--
"नर जीवन के स्वार्थ सकल बलि होते तेरे चरणों पर माँ करके श्रम संचित सब फल।जीवन के रथ पर चढ़कर,
सदा मृत्यु पथ पर बढ़कर, महाकाल के खरतर शर सह
सकूँ, मुझे तू कर दृढ़तर, जागे मेरे उर में तेरी
मूर्ति अश्रुजल-धौत विमल दृग-जल से या बल,बलि कर दूँ |"57
विदेशियों के निर्मम पदाघात से भारत की धरती आहत हो गयी क्योंकि वे इस भारत भूमि को अर्थ-शून्य कर चले गए । यहाँ न केवल इस विपन्नता पर पश्चाताप किया गया है, अपितु देशवासियों को निराला ने 'गीतिका' में अपना तेवर बदलते हुए कमर कस कर कर्मयोग पर अग्रसर होने की प्रेरणा दिया है -
"क्यों अकर्मण्य सोचता बैठ, गिनता समर्थ हो व्यर्थ लहर
आये कितने ले गये अर्थ, बढ़ विषम बड़वानल-जलतर।"58
निराला को आर्थिक विपन्नता से हृदय पर बहुत चोट लगी है।लेकिन उनका मानना है कि यदि भारतवासी सन्नद्ध होकर इसके उत्थान कार्य में जुट जाएं तो विश्व हाट में इसका स्थान निश्चित हो जायेगा, क्योंकि यह धरती रत्नगर्भा है।वैश्य- शक्ति का इसमें अभाव नहीं है। बस लोग ज्ञान के तिमिर में भटक रहे हैं। जिसके चलते उनकी स्थिति ठीक नहीं है। महाकवि ने वास्तविक भारत की तस्वीर का दर्शन मानवीय सत्य के आर्थिक पक्ष उभाड़कर कराया है। उसकी दृष्टि में भारत यही है--
"देखा है दृश्य और ही बदले-
दुबले दुबले जितने लोग,
समा देश भर को ज्यों रोग,
दौड़ते हुए दिन में स्यार
बस्ती में- बैठे गीध भी महाकार
आती बदबू रह रह,
××××××
x×××××××
कठिन हुआ यह, जो था बहुत सरल।"59
आज आर्थिक सम्पन्नता पर ही मनुष्य की स्तरीयता का परिगणन होता है। सम्पन्न मनुष्य चाहे कितना ही व्यसनी, अयोग्य और लम्पट हो, अपने धन के बल पर वह संवादपत्रों, विद्याधरों और बड़ों- बड़ों से अपना सम्मान करा लेता है। निराला ने 'वन बेला' में उत्तम पुरुष की शैली में इस ढोंग पर करारा व्यंग्य किया है--
"फिर लगा सोचने यथासूत्र- मैं भी होता
यदि राजपुत्र - मैं क्यों न सदा कलंक ढोता
ये होते जितने विद्याधर -मेरे अनुचर
×××××××××××
जीवन चरित्र
लिख अग्रलेख अथवा छापते विशाल चित्र।"60
"पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के असंख्य दुर्गुण हैं। सच तो यह है कि भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति में पूँजीवादी व्यवस्था चल ही
नही सकती । हमने विज्ञान की सहायता से शोषण के पेचीदे स्वरूपों और परिस्थितियों को उत्पन्न कर दिया है- सामन्तवादी समाज के भग्नावशेषों से उत्पन्न आधुनिक बुर्जुआ-समाज वर्ग-विरोध से अलग नहीं हो पाया, अपितु इसने प्राचीन के स्थान पर नये वर्गों,शोषण की नवीन परिस्थितियों और नए संघर्ष के रूपों का निर्माण कर दिया।"61
इस परिस्थिति और नवीन व्यवस्था में श्रमकर्ता रात-दिन परिश्रम करके एड़ी - चोटी का पसीना एक कर देता है, फिर भी दो जून की रोटी उसे नसीब नहीं होती है, दूसरे तरफ देखे तो भ्रष्टाचार में लिप्त पूँजीपति रात-दिन रंगरेलियों में
मस्त रहते हैं । उनके लाडले विदेशों में पढ़ने का ढोंग करते है। वे स्वयं धन के बल पर राजनीतिक दांव पेंच के परम पंडित होते हैं। वे किसी न किसी तरह से धन पर एकाधिकार रखते है ।वे गिरगिट की तरह रंग बदलने में बहुत माहिर होते है । हवा के साथ अपना रुख बदलते रहते हैं। " स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व कांग्रेस का जो स्वरूप और स्वभाव था, और उसमें बूढ़े लोगों के जो निहित स्वार्थ थे, उनको तत्कालीन बहुसंख्यक जनता ने भले ही न समझा हो, लेकिन हिन्दी के साहित्यकारों ने खूब समझा था । प्रेमचन्द के उपन्यासों में भी ऐसे जन विरोधी पूँजीपतियों और भूमिपतियों से समझौता किये हुए , नेताओं के चित्र है । निराला ने भी ऐसे तथाकथित बगुला भगत नेताओं का चित्र खींचा है।"62 रचना के आधार पर धनिक निर्धन में कोई अन्तर नहीं है। धनी को अपार धन प्राप्त है, गरीब को दुर्बल शरीर। पर क्या इसी आधार धनी पवित्र और गरीब अपवित्र हो गया ? कवि निराला ने धनी को सावधान होकर मनुष्य बनने की सलाह दी है--
मिला तुम्हें सच है अपार धन,
पाया कुश उसने कैसा तन ।
क्या तुम निर्मल, वही अपावन
सोचो भी संभलो।"63
कवि मानवता की प्रगति के लिये त्याग को सर्वोच्च स्थान देता है। उसने एक उदाहरण प्रस्तुत किया कि बुद्ध राजकुमार थे। उनके पास धन सम्पत्ति की कमी नहीं थी।वे चाहते तो जीवन का सर्वोत्तम आर्थिक सुख भोग सकते थे, परन्तु संसार में दुख ही दुख अनुभूत कर उन्होंने अपना राजमहल का जीवन त्यागकर तपस्या की और दुख निरोधों का मार्ग खोज निकाला
" वहाँ बिना कुछ कहे सत्य-वाणी के मन्दिर
जैसे उतरे थे तुम उतर रहे हो फिर-फिर
मानव के मन में- जैसे जीवन में निश्चित
विमुख भोग से, राजकुंवर त्याग कर सर्वस्थित
एक मात्र सत्य के लिये, रूढ़ि से विमुख, रत
कठिन तपस्या में,पहुँचे लक्ष्य को तथागत।" 64
" निराला ने अपने शील एवं साहित्य दोनों में ही संकीर्णता का विरोध करते हुए अपनी महाप्राणता का परिचय दिया है। इसके लिये उन्होंने करुणा और विद्रोह दोनों का सहारा लिया है । करुणा उपेक्षित, पीड़ित एवं प्रताड़ित जन-समूह के लिये और विद्रोह अन्यायी शोषक वर्ग के प्रति- यही निराला की प्रगतिशील जनवादिता को आधारशिला है । उन्होंने प्रारंभ ही क्रान्ति का अवलम्ब लेकर मानवतावादी मूल्यों का अनुमोदन किया है। उन्होंने व्यक्ति को केवल व्यक्ति के रूप में देखा है, जातिगत संकीर्णता के चौखटे में फिट करके कभी नहीं देखने की कोशिश की । इसीलिये उन्होंने शाश्वत मानवता का उदात्त स्वरूप उन निरीह पात्रों में में भी देखा जो प्रचलित वर्ण- व्यवस्था के अनुसार अछूत और अंत्यज होने के बावजूद अंत: करण से सात्विक एवं चरित्र के धवल थे।65 " वीणा की तंत्री जब पूरे ताव पर होती है, तब एक मन्द स्पर्श भी उससे स्वर का प्रसार करता है। ऐसा ही ताव है निराला के हृदय का जो स्वयं कितनी ही यातनायें सहन कर सकता है, पर मानवता को शोकमग्न देखकर विचलित हो जाता है।"66 इस सम्बन्ध में अपनी ओर से न कहकर मात्र यही कहना अभिप्रेत है कि " एक दुःखी भाई को देखकर उसकी ( कवि निराला की ) वेदना उमड़ आती है वह पीड़ित के आँसू पोंछ उसे गले लगाता है। यथार्थ मानव उत्पीड़न से विमुख कविजन परीक्ष सूक्ष्म काल्पनिक सौन्दर्य की साधना में लगे थे । यही उनका अधिवास था । यही निराला का काव्य-साधना-अधिवास था। मानव मंगल में उसका यह अधिवास भी छूट जाय, तो भय नहीं। मानव सेवा सहायता यदि माया में फँसना है, तो माया उस अध्यात्म या कला साधना से अधिक महिमाशाली है, जो साधक को समाज से परांगमुख करती है ।"67 अधिवास कविता में अनुरक्ति-विरक्ति का ऐसा अंतर्द्वंद्व है जो कभी स्वामी विवेकानन्द के भी स्वामी के जीवन में आया था। स्वामी जी सर्वदा विरक्त ही रहे, किन्तु पीड़ित मानवता के उद्धार के लिये उनका आदर्श अनुकरणीय रहेगा । इसी प्रकार निराला सर्वदा अनुरक्त रहकर पीड़ित मानव का न केवल पक्ष लेते रहे, बल्कि आजीवन एक पीड़ित जीवन भी जीते रहे। इसीलिये अनुरक्ति-विरक्ति द्वंद्व में वे अपने दुःखी भाई को गले लगाने के लिये दौड़ पड़े -
" मैंने, 'मैं' शैली अपनायी देखा दुखी एक निज भाई
दुख की छाया पड़ी हृदय में मेरे,झट उमड़ वेदना आयी ।
उसके निकट गया मैं धाय, लगाया उसे गले से हाय।
फँसा माया में हूँ निरुपाय, कहो, फिर कैसे गति रुक जाय ? उसकी अश्रु भरी आँखों पर मेरे करुणांचल का स्पर्श
करता मेरी प्रगति अनन्त, किन्तु तो भी मैं नहीं विमर्ष,
छूटता है यद्यपि अधिवास, किन्तु फिर भी न मुझे कुछ त्रास।"68
निराला मानव को मानव ही समझते थे, उनका हृदय जाति-पांति और सम्प्रदाय की संकीर्णता में फँसने वाला नहीं था। वे व्यावहारिक जीवन में मुसलमानों के यहाँ भी खा लेते थे। निराला जी अपने सम्बन्ध में लिखते है " एक दफा लखनऊ में एक मुसलमान सज्जन के साथ में पुलाव, कबाब और रोगन जोश आदि खा रहा था। वह मन ही मन यह अक्ल ऐंठ रहे थे कि अब इसे मुसलमान बनाया । एक रोज वह मुसलमानों में बैठे पानी पी रहे थे - अमीनावाद पार्क में ।मैं गया और उनके साथी थे। पानी के लिये पुछते हुए संकुचित हो गये । उन्होंने पूछा, मुझे प्यास थी, मैंने पीया । तब खाने - पीने की बात चली ।वह मुझे एकान्त में बुला ले गए और कहा आप उस रोज की एक साथ खाने पीने वाली बात न कहियेगा। मैंने कहा, यह सबक हिंदू पढ़ें, मैं तो मुसलमान हूँ । उनको बड़ा हर्ष हुआ- 'आप मुसलमान हो गये' ? मैंने कहा- नहीं जी, मुसलिम ईमान।"
अब निराला के इन शब्दों के महत्व को परखिये-"मेरा कवि सदा निरपराध है। मैं क्या कहूँ, वह क्या क्या करता है ?" 69
सन्दर्भ
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1. नन्द दुलारे वाजपेयी कवि निराला, पृ0 4.
2• गंगाधर मिश्र - युगाराध्य निराला, पृ0 4-5 पर उद्धृत 3. श्री सुमित्रानन्दन पन्त छायावाद का पुनर्मूल्यांकन •
4. आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी - कवि निराला, पृ0 7-8 •
5. संपादक डा० राम विलास शर्मा - राग - विराग (निराला के कविताओं का संकलन से) पृ.88
6. यथोपरि •
7. यथोपरि, पृ0 89.
8. निराला - गीतिका, पृ० 39 •
9. यथोपरि, पृ0 85 •
10• निराला ( उद्बोधन), पृ0 68
।।• सं० डा० इन्द्रनाथ मदान ( डा० बच्चन सिंह) निराला, पृ0 7 •
12. निराला - गीतिका, पृ० 34 •
13. निराला, परिमल ( ), पृ० 119 .
14. निराला - बिल्लेसुर बकरिहा, पृ0 44 •
15. निराला - अनामिका, पृ० 82 •
16• यथोपरि •
17. निराला - अनामिका ( मुक्ति ) पृ० 141 •
18• यथोपरि, पृ० 131 ·
19. सं0 10 पद्मसिंह शर्मा : निराला, पृ० 50 पर श्री नरेन्द्र मानवत द्वारा लिखित निराला की राष्ट्रीयता ' लेख से ।
20. निराला परिमल ( आह्वान), पृ० 138 •
21. निराला : परिमल ( बादल राग), पृ0 167-168 •
22• यथोपरि, पृ० 168 •
23. निराला - गीतिका, पृ0 59.
24 श्री दूधनाथ सिंह : निराला : आत्महन्ता आस्था, पृ० 191.
25. चौथीराम यादव कायावादी काव्य एक दृष्टि में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला से पृ० 190 पर उद्धृत •
26• यथोपरि
27. निराला गीतिका, पृ० ३.
28. निराला अणिमा, सन्त रैदास के प्रति
29. निराला बेला, कविता संख्या 62.
30 निराला कुकुरमुत्ता, पृ० 32.
• यथोपरि •
32. निराला कुकुरमुत्ता, पृ० 10.
33. यथोपरि
34- गंगा प्रसाद पाण्डेय, महाप्राण निराला, पृ0 200 •
35. गिरिजाकुमार माथुर, आलोचना, 12.
36. निराला - नये पत्ते ( रानी और कानी) •
37. यथोपरि
38. निराला नये पत्ते ( प्रेम संगीत ) •
39. यथोपरि पृ० 30 •
40- यथोपरि (मास्क डायलाग्स) पृ0 25-26
41. यथोपरि ( पांचक ), पृ० 39.
42. निराला अणिमा, पृ० 86.
43. निराला-बेला-पृ. 68.
44 यथोपरि, पृ0 75
45 यथोपरि .
46• यथोपरि, पृ0 76 *
47. यथोपरि, पृ० 84
48. निराला आराधना, पृ० 55.
49 डॉ भगीरथ मिश्र- निराला काव्य का अध्ययन, पृ० 65.
50. निल गीतिका, पृ० 81
51. यथोपरि, पृ० 89
52 नामवर सिंह - छायावाद, पृ० 73 पर उद्धृत
53. निराला - अनामिका, पृ० 185
54. नामवर सिंह छायावाद, पृ० 82 पर उद्धृत
55 निराला - परिमल - जागो फिर एक बार (2), पृ० 188 • 56. श्री दूधनाथ सिंह निराला, आत्महन्ता आस्था, पृ० 172 पर उद्धृत
57. निराला, गौतिका, पृ0 22.
58. यथोपरि पृ० 57 •
59. निराला : अनामिका, पृ० 180
60. निराला, अनामिका (वन बेला), पृ0 87 •
61. मार्क्स एंजिल्स मैनीफेस्टो आफ दी कम्युनिस्ट पार्टी, पृ० 33.
62. सं0 डा0 पद्मसिंह शर्मा : निराला, पृ0 61-62 पर श्री श्याम सुन्दर घोष द्वारा लिखित 'निराला के काव्य में वर्ग चेतना और वर्ग संघर्ष' लेख से
63. निराला - गीतिका, पृ० 12 •
64. निराला अणिमा, पृ० 23-24 -
65. सं० डा० राममूर्ति शर्मा -युगकवि निराला, पृ० 112 पर प्रो० विपिन बिहारी ठाकुर के 'महाप्राण निराला की प्रगतिशीलता' लेख से ।
66• डा0 प्रेम नारायण टण्डन, निराला, व्यक्तित्व और कृतित्वः पृ0 154.
67. डॉ0 जयनाथ नलिन : काव्य पुरुष निराला, पृ0 231 68• निराला परिमल, पृ० 117 118
68. विनोद शंकर व्यास दिन रात, पृ० 109
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