Wednesday, May 10, 2023

'गोदान': एक संक्षिप्त पड़ताल-डॉ मनोज कुमार सिंह

 

 आलेख-

'गोदान' :एक संक्षिप्त पड़ताल

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                   ●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह

गोदान, प्रेमचंद जी के उपन्यासों का तीसरा  खंड है, अकेले अपने में पूर्ण यह उनकी कला की अंतिम पूर्णिमा है। उनके अबतक के कृतित्व का सारांश है। केवल इसे देख लेने में हम अबतक के प्रेमचंद को पा जाते हैं। इसमें प्रेमचंद जी ने हमारी अब तक की गार्हस्थिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रगति का निरीक्षण किया है। जिसका निष्कर्ष निकलता है- एक निःसहाय सूनी त्रासदी। अब तक जो कुछ देखा सुना है उसे और न देखने सुनने के लिए होरी की आँखें मूंद जाती हैं। गोदान में होरी स्वयं प्रेमचंद ही तो हैं ।
'प्रेमचंद जी अपने अन्य उपन्यास में कोई न कोई कार्यक्रम लेकर उपस्थित हुए हैं ,किन्तु गोदान में उन्होंने कोई कार्यक्रम नही दिया और न उन्होंने मार्ग प्रदर्शन ही किया है। अबतक का समग्र जीवन, क्या गार्हस्थिक, क्या सामाजिक, क्या राजनीतिक, क्या नागरिक क्या ग्रामीण- जैसे हैं उसे उन्होंने इसमें जस का तस उपस्थित कर दिया है। हाँ, चरित्र-चित्रण का रूख बदल गया किन्तु भाषा और शैली वहीं टकसाली है जिसे हम प्रेमचंद जी के अन्य उपन्यास में परिचित होते आए हैं।
इस उपन्यास के धरातल पर एक ही राष्ट्र के भीतर सबके जीवन के प्रवाह अगल-अलग स्रोतों में बह रहे हैं, उनमें कोई सामंजस्य नहीं है वे एक दूसरे विश्रृंखल है, एक दूसरे से खंडित है।पश्चिम में जैसे सबके कदम एक गति में सधे हुए हैं, वैसे हमारे नहीं| इस विविध चित्रखंड में देहात- एक शब्द में होरी- ही वह केन्द्रबिन्दु है जहाँ से हम अपने चारोंओर के अन्य वातावरण को परख सकते हैं।
क्लब ,पार्टी ,पिकनिक, नाटक, कौंसिल ऑफिस, कॉलेज, मिल, ये सब नागरिक वातावरण की सरसराहट मात्र हैं। केन्द्रविन्दु पर खड़े होकर हम देखते है पीठ पीछे समय, सभ्यता, समाज, अपनी अविरल तीव्रगति से निकले जा रहे हैं। यदि सचमुच कोई हमारा समाज और राष्ट्र है तो वह केवल 'गोदान' के  केन्द्रबिन्दु में है। उसी पर वैभव और नागरिक जीवन का दारोमदार है। नागरिक जीवन का भार देहात उसी तरह ढो रहा है, जिस तरह मिर्जा के शिकार को वह गरीब ।स्वयं ग्रामवासी  होने के कारण प्रेमचंद जी ने ग्रामीण जीवन को बड़ी बारीकी से देखा दिखाया है।उन्होंने दिखलाया है कि  ग्रामीण भी निरे संत नहीं हैं। उनका श्रमिक जीवन सरल अवश्य है, किन्तु उनकी व्यवहारिकता भी अपने अभावों की राजनीति (जो शोषण का अनिवार्य परिणाम है) लेकर वक्र हो गयी है । वे उनका कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्ष लेकर चले हैं। कही तो वे कृष्ण पक्ष में घिर गये हैं. कही शुक्ल पक्ष में खिल गये हैं। उसमें बड़े ही सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक अंतर्द्वंद्व दिख पड़ते हैं । इतने स्पष्ट रूप से ग्रामीण जीवन को उन्होने किसी अन्य उपन्यास में नही उपस्थित किया है गोदान में पहली बार मनुष्य को प्रेम चंदजी ने उसके हाड़-मांस में उपस्थित किया है। शरतचन्द्र की भाँति उसके उस दुर्बलताओं मे ही दिव्य व्यक्तित्व दे दिया है। यह व्यक्तित्व देहात के भीतर होरी दंपति के रूप मे है । प्रेमचंद ने नगरों मे भी कुछ अच्छे व्यक्तित्व देखे हैं, यथा- मिर्जा खुरशेदअली,डॉ मेहता,मालती, गोविन्दी, किन्तु ये समाज के वे. सबजेक्टिव (आत्मनिष्ठ) चरित्र हैं जिन्होंने जीवन की डाली से कुछ संकेत लेकर अंत में अपने जीवन को संतोष दे दिया है।वे अपनी इकाई में अब तक की लोक प्रगति की ऐतिहासिक सूचना नहीं हैं।
होरी दम्पत्ति ही वह ऐतिहासिक सूचना है, जिसमें अब तक की अपना खोखला पन दिखला गई है। यह दंपति इतिहास का करुण उच्छवास है।

प्रेमचंद जी ने अपने अभीष्ट पात्र 'होरी' में अर्थ और धर्म का द्वंद्व  दिखलाया है। होरी का धर्म पराजित नहीं होता, किन्तु अर्थ दारिद्र्य बनकर उसे ग्रस लेता है। धर्म के प्रतीक से प्रेमचंद जी ने प्राचीन आदर्शों को श्रेयस्कर बने रहने दिया है और आर्थिक समस्या को युग का मुख्य प्रश्न बनाकर आगे दिया है। आज के अर्थग्रस्त जीवन में आत्मा के उत्थान के साधन - शिक्षा - संस्कृति भगवत भक्ति, दानपुण्य, स्नेह सहयोग ये सब रूढ़ि मात्र रह गए हैं,एक  बधे हुए इतिहास की तरह। एक भाग आर्थिक प्रश्न साँप बनकर छाती पर बैठा हुआ है क्या नागरिक जीवन क्या ग्रामीण जीवन,क्या राष्ट्रीय जीवन  क्या अंतरराष्ट्रीय । उसी एक विषधर की विषधर से जर्जरित है। वह विष कही वैभव की मंदिर मूर्छना बन गया है तो कहीं दारिद्रय की दारुण यंत्रणा।

होरी आज के पूँजीवादी विषमता में एक नि:सहाय पुकार है। उसकी त्रासदी में सारा उपन्यास आर्थिक प्रश्न की ओर एकोन्मुख हो गया है।। कल तक प्रेमचंद्र उस प्रश्न को कांग्रेस के राष्ट्रीय कार्यक्रम के माध्यम से हल करते रहे, किन्तु गोदाम में प्रेमचंद
जी ने उसका कोई हल नहीं दिया। उन्होंने तो सिर्फ दिखला दिया है कि आज भी हमारे जीवन की गतिविधि क्या है। जब तक पुरानी राजनीतिक समाज व्यवस्था बनी हुई है, तबतक यह प्रश्न हल होने का नहीं। गाँवों में उसी तरह होरी और धनिया पिसते रहेंगे; नगरों में राय साहब, मिस्टर खन्ना ,मि.तन्खा उसी तरह शराफत के चोंगे में अपनी छुपी पशुता को सम्मान्य बनाए रखेंगे।। किन्तु इस युग का अर्थचक्र कुछ ऐसा सर्वग्रासी है कि उससे न दानवता के उपासक ही सुखी हैं न मानवता के उपासक।
 आर्थिक आवश्यकताओं के घेरे में हमारा समग्र जीवन एक विडम्बना बन गया है। पूँजी का विषम वर्गीकरण एक-दूसरे को मनुष्यता के धरातल पर मिलने का अवसर ही नहीं देता है परस्पर मिलते हैं तो अपने-अपने स्वार्थों के ट्रिक लेकर।
प्रेमचंद ही सब दिखलाकर विदा हो जाते हैं। जीवन के स्वस्थ
विकास के लिए जिस व्यक्तित्व को समुचित सामाजिक वातावरण की आवश्यकता है उसे होरी दम्पत्ति के रूप में छोड़ जाते हैं। उसे ही लेकर हमे युग की समस्याओं पर विचारना है उसे हम आत्मा और शरीर (जीवन और जीवन के साधन) के प्रश्न के रूप में अंगीकार कर सकते हैं। गोदान प्रेमचंद जी के जीवन की सबसे बड़ी हाय है। अबतक उन्होने  चरित्र के व्यक्तिगत साधना के रूप में देखा था, मिर्जा, मेहता, मालती, गोविन्दी अब भी रूप में इस उपन्यास में सम्मिलित है, प्रेमचन्द्र की पुरानी चित्रकला के नमूने होकर। हाँ, पहले उनका दृष्टिकोण केवल नैतिक, किन्तु अब गोदान में आर्थिक हो गया है। गोदान शब्द तो अब तक की नैतिकता धार्मिकता, दार्शनिकता का एक प्रतीक मात्र रह गया है। इस उपन्यास का आर्थिक पक्ष संकेत करता है कि आज धर्म के लिए पथ कहाँ रह गया है धनिया यंत्र की भाँति उठी, आज जो सुतली बेची थी, उसके बीस आने पैसे लायी और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादिन से बोली -महाराज घर में न गाय है न बछिया,न पैसा ।यही पैसे है, यही उनका गोदान है। इस प्रकार आज की आर्थिक ट्रेजडी में धन जीवन का मोक्ष बन गया है। प्राणी नगण्य हो गया है।
वह अर्थ और धर्म दोनों ही द्वारा शोषित है। असल में गोदान से प्रेमचंद युग की वास्तविक की ओर आ गये थे। नैतिक जीवन की आस्था अब भी उनके शेष थी, किन्तु  उनकी संकटग्रस्तता को भी उन्होंने देख लिया था। प्रेमचंद जी की नैतिक श्रद्रा को संतोष गाँधीवाद से मिलता रहा है, किन्तु आर्थिक विषमता को विकट समस्या के रूप प्रगतिशील युग के द्वार पर छोड़ गए हैं। यदि वे जीवित होते तो गांधीवाद और समाजवाद के बीच कदाचित एक संधि  श्रृंखला बन जाते । गोदान प्रेमचंद का अंतिम गोदान है-- उनके अपने व्यक्तित्व का अभिलाषाओं और विचारों का आदर्श है। गोदान का होरी गरीब स्थिति का किसान का प्रतीक है।उसका व्यक्तित्व उस वर्ग का व्यक्तित्व है। वह परिश्रमी है, कुटुंब वत्सल है और धर्म भीरु भी है।लाठी लेकर बाघ का सामना कर सकता है पर लाल पगड़ी देखते ही उसका सारा पुरुषत्व हवा हो जाता है। वह धर्मभीरु है सामाजिक दृष्टि से पर नर  को नारायण बनाने वाला धर्म उसमें नहीं। अपने सगे भाई के हिस्से के दो-चार रूपये कि दबा जाने लिए वह तीसरे को अधिक लाभ दे सकता है और उसी भाई के घर की तलाशी पुलिस ले, यह बात उसे असह्य हो जाती है। क्योंकि इसमें कुल का अपमान है। इस अपमान से, इस कलंक से कुल को बचाने के लिए वह स्वयं महाजन से कर्ज ले सकता है। वही भाई जब गाय की हत्या करके भाग जाता  है, तो वह अपनी खेती की की उपेक्षा करके उसकी खेती कर देता है ,जिसमे लोग यह ना कहे कि अनाथा भावल की सहायता उसने न की।आजकल समाज का कैसा यथार्थ चित्र है। यह चित्र ही होरी है। होरी वर्ग है, व्यक्ति नहीं । आज भारतीय समाज मे झूठ बोला, फरेब करना, ठगना, बुरा नही समझा जाता। होरी भी नहीं समझता। भाई-भाई में भयंकर झगड़ा हो, कोई चिंता नही, भाई का खून भी भाई कर सकता है। उसकी सम्पत्ति भी हजम कर सकता है, पर जब तक वह बालक है तब तक उसका पालन करना ही होगा, नहीं तो समाज निन्दा करेगा। समाजिक व्यवहार धूमधाम से होना ही चाहिए। इसी में कुल की मर्यादा है।व्यक्तिगत आचरण कैसा भी घृणित क्यों न हो बुरा या पाप नहीं समझा जाता। पैतृक परिवार की कल्पना अभी काम कर रही है, व्यक्तिगत सद्गुणों का लोप हो गया है सामाजिक सदाचार विकृत रूप में जीवित है,व्यक्तिगत सदाचार बिल्कुल लोप हो गया है। होरी में इसका चित्र  खींचा गया है। शायद प्रेमचंद का यह उद्देश्य न हो,पर वह तो वर्ग को ही देखते थे तथा समझते थे। होरी एक ऐसा ही पात्र है। उसमें और भी विशेषताएँ हैं पर वे भी उसके व्यक्तित्व में प्रस्फुटित नहीं होती। होरी व्यक्ति हमारे सामने उपस्थित नहीं होता वह  उपस्थित होता है  होरी का लड़का गोबरा शुरू शुरू मे एक व्यक्ति सा मालूम होता है सही, पर अंत में वह भी  वर्ग में लुप्त  हो जाता है। पाठक उसके गरीब-अजान, शोषित और अभिमानि वर्ग को देखते हैं और उसके लिए संवेदना का अनुभव भी करते हैं।
मातादीन ब्राह्मण पुत्र है ,उसको प्रेम एक चमारिन से हो गया है। यह बात सारा गाँव जानता है। पर मातादीन के पास पैसा है, वह सुबह स्नान और संध्या पूजा करता है चमारिन को  वह घर मे नहीं, अलग रखता है। उसके हाथ का खाता भी नहीं । अतः वह समाज एक प्रतिष्ठित व्यक्ति है, उसका कोई कुछ नही बिगाड़ सकता है । प्रेमचंद के शब्दों मे -"धर्म है हमारा भोजन,भोजन पवित्र रहे, फिर हमारे धर्म पर कोई आँच नहीं आ नहीं सकती। रोटियों हमारी ढाल बनकर अधर्म से हमारा रक्षा करती है। ऐसे धर्म के मूल में कुठाराघात करके सदाचार मूलक  धर्म की पुनः स्थापना करना प्रेमचंद का लक्ष्य है । प्रेमचंद सुधारक अवश्य हैं और उसके साथ-साथ भारतीय संस्कृति के पूर्ण भक्त भी हैं। उनके सुधार का अर्थ पश्चिम का अन्धानुकरण नहीं है। गोदान उनकी अंतिम कृति है यह उपन्यास लिखते समय प्रेमचंदजी पाश्चात्य साम्यवाद का भी अध्ययन कर चुके हैं, जिसकी झलक इस ग्रंथ में सर्वत्र दिखलाई पड़ती है। फिर भी वे  उनका अनुकरण नही कर रहे हैं। कहीं अपने पात्रों के मुख से उसका टीका भी करवाते हैं। यही बात स्त्री - शिक्षा और पारिवारिक -वैवाहिक जीवन के संबंध में भी है। सर्वत्र उनका आदर्श भारतीया संस्कृति है। पश्चिम का अनुकरण नहीं ।स्त्रियों के पुरुषों के समान अधिकार पाने के दावे का उत्तर प्रेमचंद ने डॉ मेहता के मुँह से दिलवाया है ।

गोदान मे प्रेमचंद के विचार परिपक्व हुए दिखाई देते हैं। सामाजिक जीवन के प्रत्येक अंग पर इस ग्रंथ में  इन्होंने अपने दृष्टिकोण से प्रकाश डाला है। वह कोण प्रेम का नही, सेवा और त्याग का है। महात्मा गाँधी- का प्रभाव स्पष्ट दिखाई दे रहा है। साम्यवाद का औचित्य स्वीकार करते हुए भी प्रेमचंद सर्वत्र सेवा और त्याग पर जोर देते दिखाई दे रहे हैं। प्राच्य त्याग, या पाश्चात्य भोग, प्रारंभ संयम और पाश्चात्य अनियम ईश्वर पर अंधविश्वास और मानवत्व मे ईशरत्व को प्राप्त करने की लालसा त्यागमय पारिवारिक जीवन और बाप-दादों के ऋण को अस्वीकार करने की कामना,इन विचारों का सम्मिश्रण गोदान मे जगह-जगह दिखाई देता है।
प्राच्य-पाश्चात्य संघर्ष से जीवन का एक शास्त्र गोदान में क्रमश: विकसित हो रहा है, पर दुर्भाग्यवश पूर्ण विकास नही होने पाता और प्रेमचंद जी हमे मजधार में छोड़कर सहसा अंतर्ध्यान हो जाते हैं।
प्रेमचंद जी का कथा साहित्य इतना विस्तृत है कि उसमें भारतीय जीवन का कोई भी अंश नहीं छूटता। नगर और देहात के मनुष्यों के चित्रण और सभी स्थितियों के वर्णन उसमें हैं और उनके समस्त चित्रों और वर्णनों में कथा  रस का ऐसा विकास हुआ है कि पाठक तन्मय हो जाता है।
प्रेमचंद का प्रेम मानव और मानवी का स्वस्थ, निर्मल और उत्तरदायित्व पूर्ण प्रेम है ।प्रेमकी विलासाश्रयी पल-पल परिवर्तनपूर्ण लीला नहीं, उनका प्रेम आदर्श है, अपनी स्थिति में ही काव्यात्मकता प्रेमचंद में पहली साहित्यिक विशेषता है। आध्यात्मवाद को प्रेमचंद सदा संदेहवादी दृष्टि से ही देखते है और प्रेमचंद का संदेहवाद गोदान मे आकर व्यापक हो गया है और यहाँ प्रेमचंद एक साथ ही ईश्वर, धर्म, अध्यात्म, गांधीवाद तथा सभी प्रकार के सिद्धांतों पर से अपना  विश्वास उठा लेते हैं। गोदान मे आज के मानव के हृदय और मस्तिष्क की उथल-पुथल और युग की सैद्धांतिक अव्यवस्था मानो साकार हो गयी हो।डॉ मेहता प्रेमचंद के कुछ पुराने और नये सिद्धांतों को घोषित करते हैं, किन्तु ऐसा लगता है कि मानों प्रेमचंद का विश्वास उन सिद्धांतों पर भी नहीं है और कोई नए जीवन-दर्शन की खोज की छटपटाहट में हैं।
धनिकों के वैभव-विलास, मध्यम वर्ग की अल्प वेतन में सफेदपोशी की समस्या और आत्मप्रदर्शन की प्रकृति, निम्न वर्ग और अस्पृश्यों की दरिद्रता और बेकारी की समस्या और उनकी समाज में आदरणीय स्थान प्राप्त करने की चेष्टा का वर्णन प्रेमचंद जी ने जिस विस्तृत रूप से किया है वैसा बहुत कम लेखकों ने किया है।  प्रेमचंद  की सफलता का सबसे बड़ा कारण है, अपने विषय के साथ पूर्ण तादात्म्य | वे अपने विषय के तलातल मे बैठकर रत्न या घोंघे निकालने में  सफल हुए हैं या नही, किन्तु वे जब अपने विषय में एकबार बैठ जाते हैं तो वे तब तक उससे निकलने की इच्छा नहीं रखते जबतक उसके पूरे फैलाव से परिचित नही हो जाते और देखने वाला उनका कौशल शक्ति और धैर्य से मस्त नहीं हो जाता है।  उनके उपन्यासों के कथानक विधान में कुछ  ऐसी रमणीयता रहती है कि उनके वर्णन में ऐसी स्वाभाविकता और प्राणपूरक प्रवीणता रहती है कि पाठक साँस बंद करके उनके किसी भी उपन्यास को तब तक पढ़ता जाता है जब तक कि उपन्यास समाप्त नहीं हो जाता| प्रेमचंद का  का साधारणीकरण का यह असाधारण गुण मोहक है।

यह भावना का कमल कीचड़ में  ही खिलता है, जीवन-संग्राम मे ही मानव के सद् विचारों और श्रेष्ठतम वृतियों का विकास  होता है, प्रेमचंद जी के साहित्य मे जगह-जगह बिखरी हुई मिलती है। गोदान में अपकृति और कलंक गोबर के अन्तरस्थल को मथकर उसे निकाल लिया जो अब तक छिपा पड़ा था।" " उस समय वह विलास की आग में जल  रही थी। आज भक्ति की शीतल छाया ने उसे प्रश्रय दिया था।संकट में पड़‌कर उसकी सदिच्छा जाग्रत हो गई थी तथा "कलयुग में परमात्मा इसी दुःख-सागर में  निवास करता है। गोदान का होरी स्वार्थसिद्धि के लिए छल-कपट करने से नही चूकता। घर में  दो चार रुपये पड़े रहने पर ही वह महाजन के सामने झूठ  बोलता है और कसमें खाता है कि उनके पास एक पाई नहीं है।
सन का वजन बढ़ाने के लिए उसे गीला करना या रुई में बिनौले भर देना उसके बायें हाथ का खेल था।पर उसकी यह स्वार्थसिद्धि प्रेमचंद जी की नजरों में कुत्सित नहीं है।"

होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना उसने सीखा ही नही था संकट की चीज लेना  पाप है यह बात जन्म जन्मांतर से उसकी आत्मा का अंग बन गयी थी। गोबर को शहर में पहुंचकर वहाँ की हवा लग गयी है, प्रेमचंद जी उसकी गर्मी उतारने  के लिए एक विशेष घटना की रचना कर उसे लाठियों से पिटवाते हैं और वह अधमरा  हो जाता है।

आत्मोन्नति और सद्वृतियों को जागृत करने के जितने भी
उपाय हो सकते है-संभव-असम्भव,लौकिक -अलौकिक, नर्म और कठोर, भौंडे-सुंदर सभी का प्रेमचंद जी सहारा लेते हैं और यह विशेषता है कि उसे पूरी निर्ममता के साथ खराद  पर चढ़ाकर  देखते हैं। उदाहरण के लिए राय साहब उस वर्ग के प्रतिनिधि है जो अपनी समाजिक उपयोगिता खो चुका है। खुद उन्हीं के शब्दों में - " हम जौ जौ और अंगुल-अंगुल और पोर-पोर भस्म हो रहे हैं। इस हाहाकार से बचने के लिए हम पुलिस की, हुक्काम की, अदालत की, वकीलों की शरण लेते हैं।" लेकिन राय साहब की असज्जनता में दुर्जनता की चेरी बन जाती है।

वे एक ऐसे सिंह का रूप धारण कर लेते हैं, जो गरजने गुर्राने के  बजाय मीठी बोली बोलकर आपना शिकार करता है। होरी भी तिल-तिल करके गलना तो पसन्द  करता है ,लेकिन अपनी मरजाद को बचाना चाहता है। अपनी उन सद्वृतियों की रक्षा करना चाहता है  जिसे उन्होंने जन्म जन्मांतर से पाला है। लेकिन होता क्या है ये सद्वृतियाँ उनका तिल तिल के गलना नहीं रोकतीं, बल्कि उल्टे इसमें सहायक होती हैं जिनकी सद्वृतियों  को अपने जीवन का आधार बनाना चाहता है।वे ही उसे ले डूबती है।

प्रेमचंद के सभी-पात्र, बिना अपवाद के हारी हुई लड़ाई लड़ते है ।ऐसे आदर्शों की  रक्षा करने की लड़ाई लड़ते है जो उन्हें हार की ओर ले जाते है, निराशा के अंधकार को दूर करने मे बजाय उसे घना करते हैं। उनकी मन:स्थिति करीब -करीब वैसा ही रूप धारण  कर लेती है जैसे कि गोदान की  एक स्त्री-पात्र ने किया था-" वह उस समय उस मनुष्य के सदृश थी जो अपने झोपड़े मे आग लग जाने के कारण इसलिए प्रसन्न होती है कि कुछ देर के लिए वह अंधकार से मुक्त हो जाएगी। उस गहन निराशा के बारे में खुद प्रेमचंदजी भी अपने पात्र मेहता के कहलवाते है -"उनकी आत्मा जैसे चारो ओर से निराश होकर अब अपने ही अंदर  टाँगे तोड़कर बैठ गयी है। यह निराशा प्रेमचंद जी के पात्रों को सर्वथा निरीह और दीन-दुनिया से बेखबर  बना देती है। - " देश मे कुछ भी हो क्राँति ही क्यों न आ जाए उनसे कोई मतलब नहीं है।
कोई दल उनके सामने सबल रूप में आए, उनके सामने झुकाने को तैयार। उनकी निरीहता जड़ता के हद तक पहुँच गयी है जिसे कोई कठोर आघात ही कर्मण्य बना सकता है । स्वयं प्रेमचंद जी के शब्दों में -मानव चरित्र न बिल्कुल श्यामलहोता है बिल्कुल श्वेत।उनमें दोनों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। अनुकुल स्थितियों में जो मनुष्य ऋषितुल्य होता है प्रतिकूल स्थितियों मे नही नराधम का जाता है। - वह अपनी परिस्थितियों काखिलौना भाग है। प्रेमचंद जी का समूचा साहित्य अगर कुछ सिद्ध करता है तो तो यही कि सज्जनता या दुर्जनता का निवास व्यक्ति की किन्हीं जन्मजात विशेषताओं पर नहीं, परिस्थितियों पर निर्भर करता है। जो चीज वे नहीं दिखा पाते कि वह यह कि व्यक्ति परिस्थितियों को बदल भी सकता है परिणाम इसका हमारे सामने है। उनके सभी पात्र हारी हुई लड़ाई लड़ते हैं।
अंधकार को दूर करने के स्थान पर उसे और  गहरा बनाते हैं।

गोदान के अंत में गोबर  गाँव पहुंचता है तो न अपने पिता होरी को ही बल्कि समूचे गाँव समान विपदा मे फँसा देखता है। ऐसा मालूम होता है मानो उनके पापों की जगह वेदना बैठी हुई है। उन्हे कठपुतलियो की भाँति नचा रही है ।होरी का रोम रोम गांव की समूची वेदना को बटोरकर अंत में पुकार उठती है -भाइयों!मैं दया का पात्र हूँ लेकिन होरी के जीवन की यह घनीभूत वेदना दया का ,आँसुओं का संवेदनशीलता संचार नहीं करती।यह वेदना ऐसी है जो आँसुओं को सूखा देती है और हृदय में क्रोध का संचार करती है।गोबर के स्वर में स्वर मिलाकर उसकी आवाज को और भी बल प्रदान करते हुए कहने को जी चाहता है
  " होरी, औरों  की तरह अगर तुमने भी गला दबाया होता तो तुम भी भले आदमी होते । तुमने कभी नीति को नहीं छोड़ा। यह उसी का दंड है तुम्हारी जगह मैं होता तो या तो जेल मे होता या फाँसी पर चढ़ गया होता | लेकिन यह क्रोध भी जो आग बनकर फूट पड़ने को बेचैन हो उठता है, उतना  ही अंधा है जितना कि अंधा होरी का विश्वास- यह विश्वास कि वह नीति का पालन कर सकता है यह कि नीति का पालन करके भी वह जीवित रह सकता है। होरी का अंत उसके इसी विश्वास का अंत है। प्रेमचंद जी के शब्दों में-उसका  सारा विश्वास जो अगाध होकर स्थूल और अंधा हो गया था , मानो टूक टूक हो गया है। वह क्या चीज है जिसने होरी के इस विश्वास को खंडित किया? क्या पुलिस और हुक्काम ? जमीदार के जोर जुलुम?और कर्ज की शैतानी आल आल में इतनी शक्ति है कि वह किसी के विश्वास को चूर चूर कर दे ? दमन और मुसीबतें शरीर को चूर चूर कर सकती हैं,उनके चोटें खाकर प्राण पखेरू उड़ सकते हैं,लेकिन शरीर का चूर चूर होना प्राण पखेरू का उड़ जाना विश्वास का अंत नहीं है,जीवन का भी वह अंत नहीं है तब फिर वह क्या चीज है जो होरी के विश्वास को, सत्य और नीति के उसके बल को, मिट्टी में मिलाती है। प्रेमचंद जी का एक पात्र एक स्थान  पर कहता है- " डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूंगा हो जाता है। वही सिमेंट जो ईंट पर चढ़कर पक्का हो जाता है मिट्टी पर चढ़ा दिया जाय तो मिट्टी हो जाता है। गोदान मे सत्य के इस बल के अनेक रूप दिखाई पड़ते है होरी मे जो सत्य का बल है वह निश्चय ही सत्य के उस बल से कहीं  उज्ज्वल है जो रायसाहब में, मेहता में और दातादीन में- एक शब्द में यह कि जो पीड़क वर्ग के लोगों में  पाया जाता है।सिलिया और धर्म के रूप में पुरुखो की कमाई से वंचित हो जाने के बाद मातादीन भी होरी रूपी इसी वट वृक्ष के नीचे शरण पाते हैं। होरी के रूप मे प्रेमचंद जी का किसान के एक ऐसे जीवन से लगाव है"जिसे वह प्रकृति के साथ स्थायी सहयोग कहते हैं और  जिसमें उन्हीं के अनुसार कुत्सित स्वार्थ के लिए कोई स्थान नहीं होता।

सिलिया किसी ब्राम्हण की नही, बल्कि धर्म के एक ऐसे रूप के मेल मे प्यासी बनकर पड़ती है जो जजमानों को जमींदारी समझता है। पूरा बंक घर खुद दातादीन के शब्दों में -" जमीदारी मिट जाय, बँक घर टूट जाय, जजमानी तब तक बनी रहेगी, जब तक हिन्दू जाति रहेगी, तब तक ब्राह्मण की भी रहेंगे और यजमान भी। होरीके रूप में प्रेमचंद जी का लगाव एक ऐसी बिरादरी और समाज से हो जाता है कि जो समय की थपेड़ो की बात न लाकर छिन्न-भिन्न हो रही थी। उस विरादरी से अलग वह होरी की कल्पना नही कर पाते, शादी ब्याह, मुण्डन छेदन, जन्म-मरण सब विरादरी के हाथ में था। विरादरी उसके जीवन में वृक्ष की भाँति जड़ जमाए थी। उसकी नसें उसके रोम-रोम में बिधी हुई थी। भाग्य की अमिट लकीर की भाँति छिन्न-भिन्न हो रही विरादरी या समाज के साथ यह लगाव प्रेमचंद जी को गाँव के उन बड़े-बूढ़ के निकट ले जाता है, जिनके  लिए - अतीत के सुखों और वर्तमान के दुःखो तथा भविष्य के सर्वनाश से अधिक मनोरंजक विषय और कोई नहीं होता।

        डा० मेहता के बनैले रूप का परिचय उस समय मिलता है, जब वह राय साहब की महफिल में अपनी प्रेमिका को सम्मोहित और उसकी रूप ज्वाला वाले उसके आशिकों को आतंकित करने के लिए सरहदी खानों के सरदार का रूप धर कर आते हैं और अपनी प्रेमिका को संबोधित कर कहते हैं-" तुम हमारे साथ चलेगा दिलदार"- प्रेमिका का नाम है मालती जो अपने लोचन कटाक्ष से सबको उल्लू बनाने की कला में दक्ष है। इसी महफिल में वह खुद भी शाकाहारी ओंकारनाथ को शराब पिलाने के बाद खुशी से उछलने लगती है - "तोड़ दिया नमक कानून तोड़ दिया, नेम का घड़ा फोड़ दिया, धर्म का किला तोड़ दिया। प्रेमचंद जी के उपन्यासों की तुलना अगर हम चाहें तो उन पुराने इमारतों से कर सकते हैं। इनके प्रवेश द्वार के उपर एक भूलभुलैया भी रहती है।
जिनमे तहखानों, बाग-बगीचे और स्नान करने तालाबों की ओर खुलने वाले चोर दरबाजों की राह होती है। प्रेमचंद, जी की कल्पना और उनकी रचनाशैली मानो पुराने इमारतों की इसी परंपरा की संतान है। वह आसपास की चीजों को
बटोरते और उनसे भला-बुरा नाता जोड़ते चलते हैं, राह में योगी मिलता है सभी से वे राम-राम करते है। घर-गृहस्थी, खेत-खलिहान की बातें पूछते हैं। प्रेमचंद जी की तरह एक लम्बी परंपरा  से सीधी जुड़ी हुई है। अंग्रेजी मदरसे के विद्यार्थी की भाँति उनकी जड़े उतनी नहीं हिलीं कि उनका होकर रह जाये। प्रेम चंद जी में भारतेंदु काल की उस परम्परा का भी बड़ा हुआ रूप दिखाई देता है, जिसके बारे में एक ठंडी साँस लेते हुए  आचार्य रामचन्द्र भुक्ल ने कहा था सबसे बड़ी बात स्मरण रखने की यह है कि उन पुराने लेखकों के हृदय का मार्मिक सम्बन्ध भारतीय जीवन के विविध रूप के साथ बना था। भिन्न भिन्न ऋतुओं में पड़ने वाले त्यौहार उनके मन में उमंग उठाते थे ।परंपरा से चले आते हुए आमोद प्रमोद के मेले उनमें कुतूहल जगाते और प्रफुल्लता रहते आजकल का जीवन सामान्य जीवन से भिन्न न था। विदेश ने उनकी आँखों में इतनी धूल नहीं झोंकी थी कि अपने देश का रंग -रूप उन्हें सुझाई न पड़ता।
प्रेमचंद जी की कल्पना का फैलाव, सच पूछा जाय तो भारतीय जीवन का औघड़‌पन है। उनकी कल्पना होरी और धनिया जैसी पात्रों की रचना करने के साथ-साथ बनारस से पाँच मील दूर लमही गाँव से लेकर तिब्बत की बर्फ आच्छादित चोटियों, खोहों और गुफाओं की सैर करती है।
राकेट विमान के सहारे चन्द्रलोक की यात्रा करने का काम करती है जादू की चौकी पर लेटकर पूर्व जन्म का हाल-चाल जानती है, योग और तंत्रों के सहारे उस जवानी को लौटा लाती है, जिसके बारे में प्रसिद्ध है कि एक बार जाकर वह कभी नहीं लौटती, उस बुढ़ापे को थका बताती है जो महाजन के कर्ज की भाँति एक बार सिर पर चढ़ने के बाद फिर कभी पिण्ड नही छोड़ता।
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Thursday, February 16, 2023

आस्था और विज्ञान में विवेकसम्मत समन्वय जरूरी (आलेख)



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आस्था और विज्ञान में विवेकसम्मत समन्वय जरूरी 

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मेरी समझ से आस्था और विज्ञान इन दोनों से बड़ा विवेक सम्मत ज्ञान होता है।यह निरंतर बदलाव में संचरित होकर नित नूतन तेवर और कलेवर के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहता है यानी ज्ञान एक प्रगतिशील प्रक्रिया है।ज्ञान जब विनम्रता से जुड़ता है,तो भाव के तंतु कोमल हो जाते हैं,लेकिन ज्ञान जब विज्ञान से जुड़ता है तो वह जड़ ठोस और शुष्कता को प्राप्त कर लेता है।आस्था अंधभक्ति नहीं होती,इसमें आत्मीयता का मूलाधार होता है।माँ को कोई भी जानने से ज्यादा मानने में विश्वास करता है।माँ जिसे पिता बताती है,बच्चा उसे अपना बाप मान लेता है,लेकिन जब  किसी माँ को अपने बच्चे के लिए पिता की जरूरत होती है और कोई पिता होने से इनकार करता है, तो विज्ञान उसका डीएनए टेस्ट द्वारा दूध का दूध पानी का पानी कर देता है।बच्चे को उसका हक़ मिल जाता है।
मनुष्य के लिए कोमलता और कठोरता दोनों आवश्यक है।बस आस्था में भय का स्थान नहीं होना चाहिए,इसमें  प्रेम और विश्वास को प्रमुखता से जोड़ा जाना चाहिए।विज्ञान भय मुक्त करता है,लेकिन मनुष्यद्रोही आचरण इसे भयानक रूप में प्रयोग कर रहा है।जिसके कारण दुनिया विध्वंस के कगार पर खड़ी है यानी ज्ञान को संस्कारित न किया जाए तो विध्वंसक रूप ले लेता है।इसका ताज़ा उदाहरण रूस और यूक्रेन युद्ध है।
आस्था और तर्क मनुष्यों के लिए ही है।विवेक सम्मत ज्ञान ही विश्व कल्याण कर सकता है।विनम्रता से प्राप्त ज्ञान कल्याणकारी होता है।आस्था से अंतर्मन विशुद्ध होता है,वही विज्ञान से भौतिक उत्थान।इसीलिए मनुष्य को आस्थावान वैज्ञानिक होना चाहिए,जिससे उसका सम्पूर्ण विकास हो।आस्था धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , स्वच्छता , इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ( अक्रोध )  के धर्म तन्तुओं से निर्मित भाव है जो मनुष्य के उदात्त रूप को परिलक्षित करता है।विज्ञान मनुष्य को मंगलग्रह और चाँद पर तो पहुँचा दिया,लेकिन वह मनुष्य को मनुष्य के दिल तक पहुँचाने में सफल नहीं हो सका है,लेकिन ये दोनों ही मनुष्य की अपार शक्ति के स्रोत हैं। विज्ञान जहाँ मनुष्य को समस्त भौतिक सुखों की प्राप्ति कराता है, वहीं धर्म तन्तुओं पर आधारित आस्था से मनुष्य में आध्यात्मिक शक्ति आती है।विवेक सम्मत ज्ञान इन दोनों को नियंत्रित करता है।आस्था और विज्ञान के बारे में यहीं सही मार्ग है कि मनुष्य मनुष्यता के लिए कोमल भाव रखे, मगर दानवी प्रवृत्तियों के लिए कठोर व्यवहार रखे।
जीवन का यही असली आध्यात्मिक विज्ञान है। 

जहाँ एक ओर विज्ञान ने पूर्वाग्रहरहित सत्यान्वेषण की वैज्ञानिक पद्धति देकर दुनिया की सेवा की है, वही वह अपनी सीमाओं का भी अतिक्रमण कर बैठा है। इससे उपजे प्रत्यक्षवाद ने शुरुआत में ही जोर-शोर से यह कहना शुरू कर दिया था कि जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है, जो प्रत्यक्ष नहीं उसका कोई अस्तित्व नहीं। चूँकि चेतना का (आत्मा का) प्रत्यक्ष प्रमाण उसे अपनी प्रयोगशाला में नहीं मिला, अतः इसके अस्तित्व को ही नकार दिया गया। इस तरह मनुष्य एक चलता-फिरता पेड़-पौधा भर बनकर रह गया। यह प्रकारान्तर से भोगवाद एवं संकीर्ण स्वार्थ वृत्ति ही का प्रतिपादन हुआ। साथ ही इससे प्रेम, त्याग, सेवा, संयम, परोपकार, नीति, मर्यादा जैसी मानवीय गरिमा की पोषक धार्मिक मान्यताएँ सर्वथा खंडित होती चली गई। 

इसके अलावा इस विज्ञान से उपजे भोगवादी दर्शन ने साधनों के सदुपयोग करने की जगह दुरुपयोग ही सिखलाया। संकीर्ण स्वार्थों की अंधी दौड़ में प्रकृति का दोहन इस कदर हुआ कि प्रकृति भी भूकंप, बाढ़, दुर्भिक्ष, अकाल आदि के रूप में अपना विनाश-तांडव करने के लिए मजबूर हो गई। यही वजह है कि आज प्राकृतिक संतुलन पूर्णतः डगमगा गया है। वायुमंडल में कार्बन डाइ ऑक्साइड का बढ़ना, तापमान के बढ़ने से हिमखंडों का पिघलना, प्रदूषण, तेजाबी वर्षा, परमाणु विकिरण जैसे सर्वनाशी संकट मानवीय अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा हुए है। 

आज विज्ञान का आधुनिक चेहरा जिन लोगों के बगैर पहचाना नहीं जा सकता, उनमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण नाम मैक्स प्लांक का है। वैसे तो आधुनिक भौतिकी को बहुत कुछ दिया, पर उनकी सबसे महत्वपूर्ण देन है क्वांटम सिद्धांत। परमाणु और उप-परमाणु जगत के प्रति हमारी समझ के विकास में इस सिद्धांत का क्रांतिकारी योगदान है। साथ ही, ईश्वर की सत्ता के प्रति भी प्लांक उतने ही आस्थावान और उदारचेता थे। 

जर्मन वैज्ञानिक प्लांक ने वर्ष 1937 में एक व्याख्यान दिया था। धर्म और प्राकृतिक शक्तियां विषय पर दिए गए इस व्याख्यान में उन्होंने वैज्ञानिक तर्कों से यह साबित करने की कोशिश की थी कि ईश्वर हर जगह उपस्थित है। सर्वव्याप्त होने के बावजूद हमारे हर तरह के बोध से परे मौजूद उस सत्ता की पवित्रता का आभास प्रतीकों की पवित्रता के माध्यम से ही किया जा सकता है। प्लांक अपने धर्म के समर्पित साधक होने के बावजूद दूसरे धर्मो की मान्यताओं के प्रति भी उदारचेता थे। वे 1920 में चर्च के वार्डन बने और 1947 तक यहां सेवा करते रहे। उनके मुताबिक धर्म और विज्ञान दोनों ही संशयवाद, हठधर्मिता, अनास्था और अंधविश्वास के विरुद्ध अंतहीन युद्ध में लगे हुए हैं और यही वह मार्ग है जो परमात्मा की ओर जाता है। 

इतना ही नहीं लार्ड केल्विन 19 वीं सदी के महान वैज्ञानिकों में गिने जाते हैं। वे एक धर्मनिष्ठ ईसाई थे, जिन्होंने अपने धर्म और विज्ञान में सामंजस्य बिठाने का तरीका ढूंढा लेकिन इसके लिए उन्हें डार्विन सहित अपने ज़माने के वैज्ञानिकों से संघर्ष करना पड़ा। 

उस वक़्त के इस संघर्ष की गूंज मौजूदा दौर में विज्ञान और धर्म की बहस में भी सुनाई देती हैं।
केल्विन पैमाने के अलावा यांत्रिक यानी मैकनिकल ऊर्जा और गणित के क्षेत्र में उनका शोध यूरोप और अमरीका को जोड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाली ट्रांस अटलांटिक केबल को बिछाने में अहम साबित हुआ है। वे ब्रिटेन के पहले वैज्ञानिक थे जिन्हें हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में जगह मिली. उनका हमेशा ये विश्वास रहा कि उनकी आस्था से उन्हें बल मिला है और उनके वैज्ञानिक शोध को प्रेरणा मिली है। 

अमरीका के टेक्सास की राइस यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर एलीन एक्लंड ने साल 2005 में अमरीका के आला विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों में सर्वे किया, उन्होंने पाया कि 48% लोगों की धार्मिक आस्था थी और 75% लोग मानते थे कि धर्म से महत्त्वपूर्ण सच का पता चलता है।
वो कहती हैं, "ये कहना ग़लत होगा कि आज उन वैज्ञानिकों की संख्या ज़्यादा है जो ईसाई हैं। लेकिन निश्चित रूप से ऐसे वैज्ञानिक हैं, जो अपने वैज्ञानिक काम को अपनी आस्था से जुड़ा हुआ मानते हैं।" 

ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर जॉन लेनक्स ने साल 2010 में लिखे एक लेख में हॉकिंग के तर्कों का विरोध किया। लेनक्स ने कहा, "हॉकिंग के तर्कों के पीछे जो वजह है वो इस विचार में है कि विज्ञान और धर्म में एक संघर्ष है लेकिन मैं इस अनबन को नहीं मानता।"! 

कुछ साल पहले वैज्ञानिक जोसेफ़ नीडहैम ने चीन में तकनीकी विकास को लेकर अध्ययन किया। वो ये जानना चाहते थे कि आखिर क्यों शुरुआती खोजों के बावजूद चीन विज्ञान की प्रगति में यूरोप से पिछड़ गया।
वो अनिच्छापूर्वक इस नतीजे पर पहुंचे कि "यूरोप में विज्ञान एक तार्किक रचनात्मक ताकत, जिसे भगवान कहते हैं, मैं भरोसे की वजह से आगे बढ़ा, जिससे सभी वैज्ञानिक नियम समझने लायक बन गए." 

बहाई धर्म सिखाता है कि विज्ञान और धर्म के बीच एक सामंजस्य या एकता है ,और यह भी कि सच्चा विज्ञान और सच्चा धर्म कभी संघर्ष नहीं कर सकता। यह सिद्धांत बहाई धर्मग्रंथों के विभिन्न कथनों में निहित है । 

अंततः कहा जा सकता है कि आस्था और विज्ञान इन दोनों का उद्देश्य जब मानव कल्याण ही है,तो कुछ विसंगतियों को दरकिनार कर विवेकसम्मत ज्ञान से दोनों के समन्वय से कल्याणकारी गतिविधियों को संचालित करते रहने में लाभ ही लाभ है। 

                                         ●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह

गीतिका मनोज की -(भाग-3)

गीतिका मनोज की -(भाग-3)

1-
पाला था जिनको, कितने अरमान सजाकर ,
करता नहीं जो अपने, माँ -बाप का लिहाज़ ।

बेशर्मियों के दौर में, मैं क्या कहूँ जनाब ,
मिलता नहीं यहाँ अब, किसी नाप का लिहाज़ ।

पल-पल में डँसने वाले, इंसान से अधिक ,
अच्छा हीं नहीं बेहतर, है साँप का लिहाज़ ।

घुघरु ने पाई शोहरत, महफ़िल में सरेयाम,
पाँवो ने किया जबकी, हर थाप का लिहाज़।

रिश्तों को आजमाना आसान है 'मनोज', 
रिश्तों को पर निभाना, है ताप का लिहाज़।


2-
छोटी सी औकात है लेकिन, झूठी शान दिखाते हैं ।
आत्मप्रकाशन करने में हीं,  सारा समय बिताते हैं।

फेसबुक पर विज्ञापन का ,है एक ऐसा दौर चला ,
चार कवि मिलकर आपस में, विश्व कवि बन जाते हैं।

सूरदास ,तुलसी ,कबीर को, पढ़कर कुछ परदेश गए ,
बाज़ारों में रख कर उनको, डॉलर खूब कमाते हैं ।

मौलिकता का मूल सिपाही ,धूल चाटता सड़कों पर,
चोरों को देखा मंचों पर, गा-गाकर छा जाते हैं ।


3-
अब हो गया है आदमी, दूकान की तरह ।
बिकता है जहाँ प्यार भी, सामान की तरह ।

बेईमानियों का व्याकरण ,अब आचरण हुआ ,
ओढ़ा है जिसे आदमी, ईमान की तरह ।

पहचानना भी मुश्किल, मुखौटों के दौर में ,
दिखता है भेड़िया भी, इंसान की तरह ।

जो देश अपनी बेटियों को, लाश बना दे,
वह देश नहीं देश है, हैवान की तरह ।

खादी औ खाकियों से, विश्वास उठ चुका ,
लगती हैं राष्ट्र भाल पे, अपमान की तरह ।

है अजनबी सा जी रहा ,दीवार ओढ़कर ,
अपने हीं घर में आदमी मेहमान की तरह ।


4-
एफ डी आइ के बहाने देखिये ,
गिरगिटों की चांदियाँ होने लगी हैं ।

क्या सही है क्या गलत मतलब नहीं ,
स्वार्थ में गुटबंदियां होने लगी है ।

भाव से मृत शब्द का पत्थर लिए ,
काव्य में तुकबन्दियाँ होने लगी है।

इस सियासत का करिश्मा देखिये ,
राम रावण संधियाँ होने लगी है ।

राजपथ की रौनकें जबसे बढ़ीं ,
गुम यहाँ पगडंडियाँ होने लगीं है ।

आम जन के दर्द को महसूस करके ,
आज गीली पंक्तियाँ होने लगीं हैं ।


5-
अब काफी मशहूर हो रहे, सारे चोर उचक्के लोग ।
सज्जन तो गुमनाम हो गए, नाम कमाए छक्के लोग ।

एक तरफ सुविधाओं में पलते कुत्ते दरबारों में ,
एक तरफ सडकों पर खाते फिरते रहते धक्के लोग ।

श्रद्धा औ विश्वास देश की सदियों से पूजित नारी,
आज मसाला विज्ञापन की देख हुए भौचक्के लोग ।

संस्कार का दीपक फिर भी बचा हुआ है कवियों में ,
कविताओं से फैलाते हैं प्रेम ज्योत्स्ना पक्के लोग ।


6-
अब राम का पद चिह्न , मिटाने  लगे कुछ लोग   ।
रावन की फिर से लंका , बसाने लगे कुछ लोग ।।

संगीत इस तरह कुछ , अंदाज़े-बयां कुछ ,
 अब राष्ट्रगान पॉप में , गाने लगे कुछ लोग ।।

अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का लाभ उठाकर ,
गाँधी  को गालियों से सजाने लगे कुछ लोग ।

टूजी हो ,कालाधन हो,या आदर्श मामला ,
सच्चाईयों पे पर्दा, लगाने लगे कुछ लोग ।


7-
इन्सां को किसने हिन्दु- मुसलमां बना दिया |
फिर नफरतों से आग का तूफां बना दिया |

इन्सां  को बनाना  था  इनसान  दोस्तों ,
ज़रा सोंचिये कि हमने उसे क्या बना दिया |

प्रगति की अंधी दौड़ में भूलने लगे रिश्ते ,
निज स्वार्थ ने इनसान को ,हैवां बना दिया |

इनसान को इनसान बनाने के वास्ते ,
धरती पे ख़ुदा ख़ुद को हीं, एक  माँ बना दिया | 

रोते हुए बच्चे की ,उस जिद के सामने ,
कविता को अपनी हमने ,खिलौना बना दिया |



8-
सच का सूरज संग जो, लेकर चलेगा मान्यवर |
तपिश में उसकी सदा  , खुद भी जलेगा मान्यवर ||

सदियों का अनुभव ,जो बोया है वहीँ तू काटेगा |
नागफनियों से सदा काँटा  मिलेगा मान्यवर |

जिसके दिल में पत्थरों- सी नफरतें बैठी हुईं,
ख़ाक उनसे प्यार का तोहफा मिलेगा ,मान्यवर |

आईना सच बोलता है और ये भी जानता ,
उसको तोहफे की जगह, चाँटा  मिलेगा मान्यवर |

धर्म से निरपेक्ष होकर ,सत्य से जो कट गया ,
झूठे सपनों से नहीं, कुछ भी मिलेगा ,मान्यवर |

रेत और सीमेंट का सम्बन्ध एक -सत्रह का जब ,
कब तलक उस पुल का, जीवन चलेगा मान्यवर |

दूध तो है दूध, अपना खूं पिला के देख लें ,
आस्तीन का साँप तो केवल डंसेगा मान्यवर |

9-

तेरी सोच का इतना बड़ा कायल हुआ हूँ मैं
 इस जिंदगी में तेरा अमल सोच रहा हूँ |

कीचड़ भरे माहौल को तब्दील कर सकूँ ,
हर सांस में खुशबु का कँवल सोच रहा हूँ ।

हर तिफ्ल की मुस्कान से दुनिया बची हुई ,
मुस्कान है खुदा का फज़ल सोच रहा हूँ |

वैशाखियों के बल पे मंजिल जो पा गया ,
कितना है जिंदगी में सफल सोच रहा हूँ|

जो दे सके चुनौती हैवां को सरेआम ,
इन्सां की हुकूमत की दखल सोच रहा हूँ | 

कुछ दे सकूँ दुनिया को इस दौर में 'मनोज' ,
मैं प्यार की  खुशरू -सी ग़ज़ल सोच रहा हूँ |


10-
आओ कुछ हम काम की बातें करें ।
सुबह की और शाम की बातें करें ।

जिंदगी का क्या भरोसा ,इसलिए ,
हम खुदा के नाम की बातें करें ।

फूल, चिड़िया, पेड़, बच्चों की हँसी,
प्यार के पैगाम की बातें करें ।

जब तलक इंसानियत खतरे में है ,
ना कभी आराम की बातें करें ।

कुर्सियों से अब भरोसा छोडिये ,
खुद हीं  हम आवाम की बातें करें ।

गिरगिटों के रंग को पहचान कर ,
राष्ट्रहित परिणाम की बातें करें।

 नग्नता-से पूर्ण फैशन त्यागकर,
फिर से राधे-श्याम की बातें करें ।

हिन्दू मुस्लिम एकता के वास्ते ,
तुलसी औ खैयाम की बातें करें ।

चढ़ सके फाँसी  यहाँ अफज़ल गुरु ,
हर गली कोहराम की बातें करें ।

11-

डर्टी -डर्टी पिक्चर देखा ,सत्ता में तो अक्सर देखा ।
विश्वासों के पुनीत हस्त में फूल सरीखा पत्थर देखा ।

घोषित है खुश हाल आदमी ,गज़ट-बज़ट  के पन्नों में ,
सडकों पर बदहाल आदमी ,जीता है हँसकर देखा ।

भरी अदालत सच बोला था ,तब से उसका पता नहीं ,
वो भी तो बर्बाद हो गए ,जिसने वो मंज़र देखा ।

आसमान तक पहुँचा था ,नादान परिंदा बसने को ,
आप बताएं आसमान का  ,अब तक कोई घर देखा ।


12-
हर भूखे की भूख मिटाना ,अच्छा लगता हैं |
हर चेहरे पे चाँद उगाना ,अच्छा लगता है |

अभी-अभी रोता वो बच्चा, माँ को पाकर खुश लगता ,
माँ का उसको दूध पिलाना ,अच्छा लगता है |

बच्चे तो बच्चे होते हैं, भले बात वे ना मानें ,
फिर भी बच्चों को समझाना ,अच्छा लगता है |

पाकर खोना ,खोकर पाना, है जीवन की  विडंबना,
रोते-रोते फिर मुस्काना ,अच्छा लगता है |

चिड़ियों के कलरव ,मधुकर के गुंजन से भी मधुर ध्वनी ,
नन्हें बच्चों का का तुतलाना ,अच्छा लगता है |



13-
खुरच दे झूठ का चेहरा सच की बानी लिखना |
मरी -सी  जिंदगी में  जोश- रवानी लिखना | 

चुनौती दे रहा हूँ लिख सको, तो लिखना तुम ,
घृणा की आँख में मुहब्बत रूहानी  लिखना  |

रंगों - खुश्बू हो ,जब भी  अल्हड मस्ती हो ,
उस क्षण को, खुबसूरत जवानी लिखना । 

मैं कर न सका और कुछ,तो प्यार कर लिया ,
मेरी जिंदगी की ये सब, नादानी लिखना । 

जब उदास होना ,जिंदगी की बेरुखी  से ,
उस वक्त कुछ, कविता और कहानी लिखना ।

14-

गज़नी व गोरी ,हज़ारों ने लूटा | 
अंग्रेजों के संग, जमींदारों ने लूटा |

किसने नहीं, देश लूटा है यारों ,
सत्ता के सब, रिश्तेदारों ने लूटा |

बाजार के, मस्त अंगड़ाईयों से ,
लुभा के हमें, साहूकारों ने लूटा |

लड़की बलत्कृत को, पहले दिखाकर ,
टीवी टीआरपी, अखबारों ने लूटा |

जिन्हें सौंप दौलत, सोया देश अपना , 
उन्हीं रक्षकों ,पहरेदारों ने लूटा |


15-

सच बोलूं दिल मिले ना मिले ,मिलना एक बहाना आज |
मित्रता की बनी कसौटी, केवल हाथ मिलाना आज |

कौन निभाये, किसको फुर्सत ,तीव्र गति कि दुनिया में ,
रिश्तों के दर्पण में देखा ,अपनापन अनजाना आज |

वेश्या की मुस्कान लिए है ,संबंधों की डोर यहाँ ,
करवट बदली ,ग्राहक बदले ,धंधा वहीँ पुराना आज |

नैतिकता ,ईमान ,धर्म आहत हैं ,उनकी महफ़िल में ,
जाल फ़रेबी ,दंभ झूठ सब ,पहने सच का बाना आज |

द्रौपदी के चिर हरण में ,चले जानवर इन्सां बन,
अस्मत कितनी चढ़ी दाँव पर,गिनना और गिनाना आज |

कुहरे हीं कुहरे हैं फिर भी ,धुल के मेले चारो ओर,
इस मंज़र में राह दिखाए ,कविता और फ़साना आज |



16-

मातृभूमि का सदा, सम्मान करना चाहिए |
इसकी रक्षा हित हमें, बलिदान करना चाहिए |

जिन शहीदों ने आज़ादी, दी हमें सौगात में ,
उन शहीदों का हमें, यशगान करना चाहिए |

कोई लड़े ना जाति, मज़हब ,प्रांत के अब नाम पर ,
सबको मिलाकर एक, हिंदुस्तान करना चाहिए |

आज भ्रष्टाचारियों से, राष्ट्र मर्माहत हुआ ,
उनका अब तिहाड़ में, स्थान करना चाहिए |.


17-

मंचों के कवि मंचों तक रह जाते हैं |
छंदों के कवि छंदों तक रह जाते हैं |

ताली ,यश औ वाह-वाह की चाहत में ,
कंधों के कवि ,कंधों तक रह जाते हैं |

परपीड़ा जो समझ सके, न  देख सके ,
अंधों के कवि अंधों तक रह जाते हैं |

कलम बेच कोई भले तमगा पाले ,
धंधों के कवि धंधों तक रह जाते हैं |

छंद सुना के चार जो झंडा गाड़ रहे ,
झंडों के कवि झंडों तक रह जाते हैं |

सूर कबीर तुलसी तो सदियों के मानक ,
पंडों के कवि पंडों तक रह जाते हैं |

फेसबुक पर भेंड -झुंड- से कवि मिले ,
झुंडों के कवि झुंडों तक रह जाते हैं|
                               
18-

तू ज्ञान अपना ,अपने पास रख ,तेरी ऐसी की तैसी |
तू अभिमान अपना ,अपने पास रख ,तेरी ऐसी की तैसी |

तू क्या देगा किसी को, घृणा के सिवा जिंदगी में ,
ये सम्मान अपना ,अपने पास रख ,तेरी ऐसी की तैसी |

जब आसमान हीं , उड़ान का दुश्मन  हो जाये ,
वो आसमान अपना,अपने पास रख ,तेरी ऐसी की तैसी |

इन्सान इन्सान होता है महज़, हमें मालूम है ,
तू हिन्दू ,मुसलमान अपना,अपने पास रख,तेरी ऐसी की तैसी।
 

Wednesday, January 25, 2023

★राष्ट्रीय जीवन के कैनवास पर★ (कविता)

वंदे मातरम्!मित्रो!अपनी एक कविता समर्पित कर रहा हूँ।इसे पढ़कर आप अपने विचारों से भी मुझे अवगत जरूर कराएँ।💐👏👏

★राष्ट्रीय जीवन के कैनवास पर★
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               ●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह

तोड़ने होंगे वे सारे स्तूप
जो गुलामी की जंजीरों में
जकड़े हैं आज भी 
मीनारों को,विचारों को।

ढहाने होंगे 
उन सभी अकादमिक संस्थानों को
जो गाते आ रहे हैं चारण गीत 
माओं,लेनिनों,स्टालिनों,कार्लमार्क्सों के।

कुचलने होंगे उन 
सभी मंसूबों को
जो देश की पीठ पर 
मारते रहते हैं खंजर।

मिटाने होंगे 
वे जातिवादी और मज़हबी अँधियारे
जिसमें घृणा में अंधे और कुंठित
जहरीले नाग 
डसते रहते हैं पल-पल 
मुल्क के आत्मीय रिश्तों को।

हटाने होंगे वे सारे धुन
जो विदेशी चाटुकारिता का
करते हैं पोषण
और
देसी धुनों का बहिष्कार।

खदेड़ने होंगे उन सभी
मुखौटेधारी भेड़ियों को
जो छिपकर करते हैं
पीछे से वार 
देश की अखंडता पर।

याद करने होंगे 
उन आजादी के दीवानों को
जो मातृभूमि की 
गुलामी की बेड़ियों को
काटते-काटते 
हो गए थे शहीद।

उठाने होंगे वे सारे कदम
जो धीरे-धीरे खोई हुई 
अस्मिता और स्वत्व को 
ढूढ़ कर प्रतिष्ठापित करे
नई आजादी की तस्वीर,
फैलाये अपनी स्वायत्तता की
चाँदनी 
मन के विस्तृत फलक पर।

जोड़ने होंगे मन के तार
सिलने होंगे मन की फटी चादर
मिलाने होंगे कदम से कदम

गाने होंगे 
मातृभूमि के अमृतगान
फैलाने होंगे 
प्रेमपुष्प की आत्मीय सुगंध
जन-जन के मन में।

रचने होंगे 
विश्वास के सूरज
स्नेह के बरसते बादल
इन्द्रधनुषी स्वप्न
राष्ट्रीय जीवन के कैनवास पर।।

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Sunday, January 22, 2023

मेरी तीन माह की दौहित्री सानवी सिंह


मेरी तीन माह की दौहित्री सानवी सिंह 

Friday, January 6, 2023

जीवन -पथ पर (कविता)

वन्देमातरम्!मित्रो!मेरी एक छोटी कविता समर्पित है-

जीवन-पथ पर
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असत्य की राह पर 
चलने से अच्छा है 
सत्य के रास्ते पर चलकर 
असफल हो जाना।
खो जाना उन बीहडों में 
जहाँ से लौटने की गुंजाइश न बचे।
लौटे तो मरे
लोग तुम्हें ढूढ़ने जाएँ
पर तुम न मिलो,
मिले तो मरे
मरने के लिए
सांस बंद करने की जरूरत नहीं
बस जरूरत के मुताबिक
धीरे धीरे डूब जाना 
अविश्वास के अंधे कूप में
तैरना कुंठाओं की काली नदी में
उगना घृणा के खेत मे
ओढ़ लेना स्वार्थ की चादर
अपनी आत्मा की देह पर
पहन लेना बर्फ के चश्मे
अपनी सोच की ठंडी आँखों पर
फिर देखना तुम धीरे-धीरे मर जाओगे
तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि
कब मर गए
न कोई दर्द न तकलीफ़
मगर तुम्हें जीना होगा
असफलता की सीढ़ियों से
नीचे उतरना होगा
धीरे-धीरे सच की खुरदरी जमीन पर
चलना होगा
अनवरत ससीम से असीम की ओर
यही है असली जीवन का पथ। 

●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह

Tuesday, January 3, 2023

चतुर्थ अध्याय- छायावादी कवि 'निराला' में प्रगतिशील चेतना

                  चतुर्थ अध्याय
                   ◆◆◆◆◆

छायावादी कवि 'निराला' में प्रगतिशील चेतना
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निराला सर्वप्रथम छायावादी कवि हैं, जिन्होंने कविकर्म की कठोरता का अनुभव किया था ।उनके मस्तिष्क में व्याकुल मानवता की पीड़ा का नक्शा विद्यमान था, इसलिए उन्होंने कवि के रूप में अपना कर्त्तव्य अनुभव किया। सामान्य परिवार में जन्म लेने के कारण इनकी दृष्टि सदैव दीन- दुखियों और असहाय व्यक्तियों पर रही है। उन्होंने देश के एक लंबे समुदाय को उदर भरण की चिंता में दौड़ते देखा था। बहुतों को समस्या की इस देहली पर दम तोड़ते भी पाया। दैन्य और असमर्थता का इससे बढ़कर और कौन उदाहरण हो सकता है। ऐसी उपेक्षित प्राणियों के प्रति महाकवि ने सदैव सहानुभूति का प्रदर्शन किया।इन्हें हिंदी का रविंद्र कहा जा सकता है। किसी मायने में कम नहीं, हर तरफ से बराबर। निराला स्वभाव से अक्खड़ तथा मनमौजी किस्म के आदमी थे।संपूर्ण विश्व कुटुंब तुल्य और गरीब इनके भाई थे।सामाजिक असमानता और वैयक्तिक जीवन के अभाव ने निराला को विद्रोही बना दिया था ऐसे वैसे नहीं-पक्का। निष्ठुर बंधन और जर्जर रूढ़ियों को कबूलना या गलत मान्यताओं को स्वीकृति देना, उन्हें कभी मान्य न था।इसी कारण समाज अपने रास्ते पर चला गया और निराला विपरीत दिशा में गीत गुनगुनाते रहे ,जैसे जो कुछ घट रहा है। उससे कोई सरोकार ही नही। बेमेल और कंटकाकीर्ण परिस्थितियों के सामने महाकवि ने कभी सिर नहीं झुकाया। अपनी अपार शक्ति और अलौकिक प्रतिभा के बल पर ही वे निराला कहलाए काव्य जगत के निराला। जो आकाश की तरह व्यापक सूर्य की तरह प्रभावपूर्ण पृथ्वी-सा ठोस  और सागर से भी अधिक गहरा हो- वही निराला से मेल खा सकता है। उथले और कमजोर किस्म के आदमी तो उनके सामने एक क्षण भी नहीं टिक सकते थे।

उनकी प्रतिच्छाया प्रतिरूप की कल्पना करते ही नस नस में बिजली सा स्पंदन छा जाता है ,क्योंकि वह दया ममता और करुणा की सजीव मूर्ति थे। उन्हें समय-समय पर जो पुरस्कार मिले या प्रकाशकों से पारिश्रमिक मिला उसे गरीबों असहायों और विद्यार्थियों में बाँट दिया। वे बीसवीं शताब्दी के कर्ण थे। स्वयं प्रचंड  झंझावातों का मुकाबला करते रहे।संकटों से जूझना ही उनके जीवन का आदर्श था कुछ लोग निराला को पागल या एबनॉर्मल कहा कहते रहे हैं ।यह वही लोग हैं, जो महाकवि के सशक्त व्यक्तित्व को देखकर निस्तेज,भयभीत और कुंठाग्रस्त हो जाते थे।मानसिक स्तर पर कुंठित और पराजित व्यक्ति भला किस को सम्मान दे सका है।निराला जीवन भर आर्थिक और सामाजिक विषमताओं से टकराने के बावजूद वे कभी विचलित नहीं हुए थे।यही दृढ़ता उनके स्वभाव का आवश्यक अंग बन गई थी और उसने उनके स्वाभिमान को कभी झुकने न दिया।अपने स्वाभिमान पर ठेस लगते हैं वे तिलमिला उठते थे। स्वाभिमान के प्रति उनका इतना आग्रह था कि पल्लव की भूमिका में पंत ने इन पर कुछ आक्षेप किए थे।उसकी घोर प्रतिक्रिया  से दुखी होकर उन्होंने 'पंत और पल्लव' निबंध लिखा और ब्याज सहित मूलधन चुका लिया। वे एक बार हिंदी के मसले पर 'गांधी और नेहरू' से भी भिड़ गए थे। निराला बड़े ही नेक दिल के व्यक्ति थे उनमें छल-कपट का कहीं नाम भी ना था। जिससे इनका कभी मनमुटाव हुआ अवसर पड़ने पर उसका सत्कार अवश्य करते थे।'पल्लव' की भूमिका तथा 'पंत तथा पल्लव' के घात प्रतिघात के बाद भी पंत और निराला की मैत्री में किसी प्रकार का अंतर नहीं आया।

साहित्य में तो निराला अक्खड़ थे ही, व्यावहारिक जीवन में भी वे बड़े निर्भीक थे। उनकी निर्भीकता का चित्रण करते हुए नंददुलारे वाजपेई ने लिखा है -"जब कभी वह गाँव आते, रात नौ या दस बजे तक हमारे गाँव पर ही रहा करते थे। उनसे कहा जाता कि रात यहीं रह जाइए,तो वे बहुत कम इस प्रस्ताव को स्वीकार करते। रात उजेली हो या अंधेरी वे चल देते और डेढ़ दो मील सूनी बाड़ियों और बगीचों को पार कर अपने घर पहुँचते ।बरसात के दिनों में लोन नामक नदी जो उनके रास्ते में पड़ती थी, बेहद भयावह हो जाती थी। उसका पाट बहुत खूब बढ़ जाता था और वेग का तो कहना ही क्या? परंतु निराला जी एक हाथ में कुर्ता धोती लिए दूसरे हाथ से तैर कर उस बरसाती नदी को ना जाने कितनी बार तैर गए थे ।कहा जाता है कि महिषादल में निराला श्मशान सेवन किया करते थे और साथ ही वहाँ के प्रसिद्ध मंदिर में देर तक बैठे रहते थे।"(1)
पूरे हिंदी साहित्य में इस प्रकार का क्रांतिकारी एवं निर्भीक व्यक्तित्व केवल कबीर को मिला था। निराला कबीर की भाँति ही सिर से पैर तक मस्त मौला थे। कबीर की भांति निराला की तेजस्विता भी स्तुत्य है  इतना होने पर भी निराला के नेतृत्व में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो अन्यत्र नहीं पाई जाती और इन्हीं विशेषताओं के कारण हिंदी कवियों में उनका प्रगतिशील व्यक्तित्व अपने ढंग का अकेला है। इस जन्मजात विषपायी को आजीवन विष का कड़वा घूंट ही पीना पड़ा।इनका जीवन संघर्ष का जीवन था ,परोपकार का जीवन था, वह किसी लीक पर  चलने वाले साहित्यकार नहीं थे। फिर भी ऐसी लीक छोड़ गए जो आज के साहित्यकारों की दिशा निर्देशक बनी हुई है। उनके व्यक्तित्व के निरालेपन का उल्लेख करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-" निराला का अध्ययन बहुत विशाल है, परंतु कभी भी उन्होंने पुराने और आधुनिक साहित्यकारों का अनुकरण नहीं किया ।वह नख से शिख तक मौलिक हैं ।वह किसी से हुबहू नहीं मिलते। उनका निराला उपनाम बिल्कुल सार्थक है...... क्या काव्य, क्या कहानी,क्या निबंध; निराला जी का व्यक्तित्व सर्वत्र ही अत्यंत मुखर होता है।............. इतना अद्भुत व्यक्तित्व हिंदी कवियों की वर्तमान दुनिया में ही नहीं।"(2)

साहित्य के क्षेत्र में 'निराला' के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए पंत लिखते हैं -"निराला का विकास प्रसाद की तरह मंद गजगामी गति से नहीं हुआ। उन्होंने कविता कानन में अपने समस्त प्रवेश के साथ सिंह की तरह प्रवेश किया और पहली ही रचना जूही की कली ने नई अभिव्यंजना तथा शिल्प कौशल के कारण आलोचकों की दृष्टि में हिंदी जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया।"(3) इसमें संदेह नहीं कि निराला की प्रथम रचना ने ही हिंदी साहित्य में तहलका मचा दिया और आलोचक प्रायः इन्हें शंका  की दृष्टि से देखने लगे, जिससे इनके साहित्य का समुचित मूल्यांकन नहीं हो पाया इनकी विधायक कल्पना में वह अपूर्व शक्ति थी जिसने बरबस ही आलोचकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया शास्त्रीय परंपराओं की लकीर पीटना निराला के स्वभाव  के सर्वथा प्रतिकूल था। वह उस शार्दूल की भाँति थे जो झुंड में रहना नहीं पसंद करता, बल्कि गहन वन को चीरता हुआ अपने मार्ग का स्वयं निर्माण करके स्वच्छंद विचरण करता है। निराला के प्रगतिशील जीवन संघर्ष की कहानी युगांतर महाकाव्य की उदात्तता,सार्वभौम जीवन व्यापकता, स्मरणीय जीवन युद्ध की अद्भुतता के कारण जितनी रमणीयता है उतनी ही नवजीवन प्रदायिनी भी है। युग के अनेक मनीषियों,प्रतिभा संपन्न सुकवियों ने निराला से प्रेरणा ली है। निराला के जीवन में संकल्प की दृढ़ता एवं प्रगतिशील चेतना का दर्शन सरोज के विवाह में किया जा सकता है। इस समय निराला की आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी।एक और तो साधनहीन होने के कारण वे अत्यंत विवश थे, दूसरी ओर उनका विद्रोह पूर्ण संकल्प भी अटूट था। उनकी इस द्वंद्वात्मक मनोवृति का लेखा-जोखा आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के शब्दों में इस प्रकार है-" एक और वे अपनी विपन्नता से बाधित और विवश हो रहे थे, दूसरी ओर दृढ़ निश्चय से अडिग भी बने हुए थे  उन्होंने विवाह की सारी व्यवस्था जिस स्फूर्ति और समारंभ से की थी और व्यक्तिगत रूप से सारे विवाह कार्य को जिस तरह संपन्न किया था,वह उनके व्यक्तित्व के महान और निष्कम्प निश्चय का ही परिचायक है।"(4) सरोज स्मृति में समाज की अनेक रूढ़ियों पर भी कवि ने प्रहार किया है। सरोज के विवाह प्रसंग में निराला कान्यकुब्ज ऊपर अत्यंत व्यंग्य करते हैं। उनकी विशेषता बतलाते हैं-

" वे कान्यकुब्ज कुल-कुलंगार, 
खाकर पत्तल में करे छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय बेलि में विष ही फल
यह दग्ध मरुस्थल -नहीं सुजल।"(5)
कान्यकुब्जों के पैरों का वर्णन व्यंग्य मिश्रित हास्य को सफलतापूर्वक संमूर्तित करता है। विवाह में ससुर द्वारा दामाद का पाद प्रक्षालन एक आवश्यक प्रक्रिया है उसका स्मरण कर कान्यकुब्जों की उन्होंने अच्छी खबर ली है---

" वे जो जमुना के से कछार,
पद फटे बिवाई के उधार,
खाए थे मुख ज्यों पिये तेल,
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते, घोर गंध
उन चरणों को मैं यथा अंध,
कल घ्राण प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूँ,ऐसी नहीं शक्ति।
ऐसे शिव से गिरजा विवाह
करने को मुझको नहीं चाह।"(6)

सामाजिक रूढ़ियों एवं गलत परंपराओं का विरोध करते हुए निराला सरोज के विवाह में बहुत से सामाजिक विधानों को तोड़ने का आह्वान करते हुए कहते हैं--

" तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम,
लग्न के, पढ़ूंगा स्वयं मंत्र,
यदि पंडित जी होंगे स्वतंत्र।"(7)

सवाल पैदा होता है कि निराला के लिए यह बाध्यता स्वयं उनके द्वारा ओढ़ी हुई थी अथवा यह समाज की विधि निषेध पूर्ण संघटना के भीतर से उत्पन्न हुई थी। कहना ना होगा,यह आंशिक रूप से निराला की विद्रोह प्रकृति के कारण उत्पन्न हुई थी और आंशिक रूप से समाज में प्रचलित घिनौनी रूढ़ियों के कारण। निराला प्राचीन की व्यर्थता को जला देने को कहते हैं--

जला दे जीर्ण-शीर्ण प्राचीन क्या करूंगा तन जीवन हीन।"(8)

निराला ज्ञान के साधक और समर्थक थे।वे उसी बात को मान्यता देते थे जो ज्ञान से पोषित और मानवता की प्रगति में सहायक हो--

तान सरिता वह स्त्रस्त्र अरोर,
बह रही ज्ञानोदधि की ओर,
कटी रूढ़ियों के प्राण की डोर
देखता हूँ अहरह मैं जाग।"(9)

'उद्बोधन' निराला की क्रांतिकारी रचना है, जिसमें समस्त रूढ़ियों को हटाकर ज्ञान की प्रतिष्ठा की गई है---
मन्द्र उठा तू बन्द पर जलने वाली तान,
विश्व की नश्वरता कर नष्ट,
जीर्ण-शीर्ण जो,दीर्ण धरा में प्राप्त करें अवसान,
रहे अवशिष्ट सत्य जो स्पष्ट।"(10)

".......... निराला जैसे क्रांतिकारी और द्रष्टा के लिए स्वाभाविक है कि उनमें पौरुष की प्रधानता हो, रूढ़ियों को झकझोर देने की शक्ति हो और बुद्धि की तेजस्विता हो।"(11)

भारतवर्ष गुलामी की जंजीरों में शताब्दियों तक जकड़ा रहा जिसमें नारियों का शोषण किया गया एक ओर तो वे सामंती और पूंजीवादी आर्थिक परिस्थितियों के कारण शोषित वर्गों के पुरुष के साथ ही शोषण का शिकार बनी और दूसरी ओर अपने परिवार के पुरुषों पिता भाई और पति के द्वारा भी अतिरिक्त रूप से शोषित या पद दलित होती रही। कवि निराला ने नारियों को नारी संबंधी सारी ग्रंथों से मुक्त कर उसे सुंदरी और स्नेह उत्तेजक का स्थान दिया कामोत्तेजक का नहीं भोग्या का नहीं---
नहीं लाज भय,अनृत,अनय दु:ख,
लहराता उर मधुर प्रणय-सुख,
अनायास ही ज्योतिर्मय  मुख
स्नेह-पास-कसना।"(12)


भारतीय समाज का विजातियों द्वारा वैभव का उपभोग तो किया ही गया, साथ ही साथ भारतीय नारियों का अपमान भी किया गया। उनके अत्याचार की एक लंबी कहानी है ।इसी अत्याचार ने नारी स्वाधीनता को छीन लिया था। नारी चारदीवारी की सीड़न भरी कोठरी में बंद हो गई थी, फलतः उनके स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ा, जिसके कारण कन्या हत्या,बाल विवाह,सती प्रथा और विधवा विवाह वर्ज की कुत्सित विचारों का बाजार गर्म हो गया, जो नैतिकता स्वच्छंदता और रचनात्मकता को रसातल में पहुँचा दिया। निराला इस ऐतिहासिक सत्य से पूर्णरूपेण परिचित थे। वाचिक रूप से विधवा बने रहने में सम्मान की बात समझी जाती थी, किंतु यथार्थ में उसकी जो दुर्गति हुई,उससे भारतीय समाज का सिर नीचा हो जाता है। विधवा की इसी दीन-हीन दशा का स्मरण कर निराला करुणार्द्र होकर उसका एक चित्र हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं---

वह इष्ट देव के मंदिर की पूजा-सी,
वह दीप-शिखा-सी शांत भाव में लीन,
वह क्रूर काल-तांडव की स्मृति-रेखा सी,
वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन-
  दलित भारत की ही विधवा है।"(13)

यह ऐसी विधवा है जो विवाह के बाद एक ही बार अपने पति से मिल पाई है। आज उसका पति उसके जीवन से दूर हो गया है, इसलिए उसके आर्द्र नेत्र करुणा प्लुत रहते हैं। उसके मुख से निकला हुआ प्रत्येक स्वर हाहाकार में परिवर्तित हो जाता है
वह एकांतवासिनी हो गई है,उसके वस्त्र फटे हुए हैं, वह अस्फुट स्वर में रोती सिसकती है, कि कहीं उसका रुदन कोई सुन न ले। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय समाज में विधवाओं की दयनीय स्थिति जातिवाद और रूढ़िग्रस्तता, आडंबर प्रधान नवीन सभ्यता, नवयुवकों की कुरुचि, निम्न वर्ग के प्रति उच्च वर्ग की अभिचार वृत्ति आदि पतनशीलता को निराला ने दर्शाया है। निराला ने हिंदू धर्म के कुसंस्कारों को तद्वत कभी स्वीकार नहीं किया। जन्म से मृत्यु तक शास्त्रकारों  ने सोलह संस्कारों का विधान मुख्य रूप से किया है। इसमें अधिसंख्य अपनी अर्थवत्ता को खो चुके हैं, किंतु हिंदू समाज इन्हें बंदरिया के मृत बच्चों की भांति सीने से चिपकाए हुए हैं।निराला पुराण-ग्रंथ और रूढ़ि के विरोधी हैं। वह विधवा तथा अंतरजातीय विवाह के समर्थक हैं।विधवा की करुण दशा के प्रति उनका मन आर्द्र हो जाता है। क्या विधवा जैसी दुखी विधाता की दूसरी भी सृष्टि होगी, जो सखियों में भी खुले प्राणों से बातचीत नहीं कर सकती।भोग सुख वाले संस्कारों के बीच रहकर भी भोग- सुख से जिसे विरत रहना पड़ता है आँख के रहते भी जिसे चिरकाल तक दृष्टिहीन होकर रहना पड़ता है।"(14) निराला ने 'बिल्लेसुर बकरिहा' में विधवा विवाह कराया है। इस तरह की उनकी प्रगतिशील तथा उनके काव्य में भी झलकती है।

" स्नेह स्वप्न मग्न अमल कोमल तनु तरुणी, जूही की कली" के चित्रांकन के साथ निराला काव्य क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और परिवेश के प्रति कवि की उन्मुक्त दृष्टि उन्हें इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ने वाली युवा मजदूरनी नके ऊपर कुछ सोचने को मजबूर कर देती है।'तोड़ती पत्थर' एक प्रगतिशील रचना है।इस कविता में निराला ने श्रमिक वर्ग की नारी का हृदय विदारक चित्र अंकित किया है। स्मरणीय है कि मजदूरनी के इस जनवादी चित्र में गलदश्रु भावुकता नहीं है। यह चित्र निश्चय ही हमारी न्याय बुद्धि को झकझोरता है और यथास्थितिवाद के विरुद्ध एक सजग दृष्टि की मांग करता है। मजदूरनी इलाहाबाद के पथ पर खुले आकाश के नीचे बैठकर पत्थर तोड़ रही है। श्याम तन, नमित नयन युवती अपने कर्म में लीन है, हाथ में बड़ा हथौड़ा है, जिससे पत्थर पर वह निरंतर प्रहार कर रही है। सामने शायद पंडित मोतीलाल नेहरू का तरु मालिका से घिरा हुआ आनंद भवन है। ग्रीष्म का मौसम । कार्य करते करते दोपहर होने को आई है। झुलसाती हुई लू चल पड़ी।धूलिकण चिंगारी की भांति उड़ने लगे, किंतु तब भी वह पत्थर तोड़ती रही। कवि से उसका साक्षात्कार हुआ। युवती ने अट्टालिका की ओर देखा,कवि की ओर देखा और अंत में देखा कि संसार में उसका कोई नहीं। कवि  का मन उसकी दारुण दशा पर भर आता है---

"सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक क्षण के बाद वह कांपी सुधर
ढलक माथे से गिरे सीकर
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा
मैं तोड़ती पत्थर।"(15)

इस कथन के द्वारा उसने अपनी परवशता को व्यक्त किया है कि मुझे समाज व्यवस्था ने केवल पत्थर तोड़ने के लिए ही बनाया है। मुझे प्रेम करने का अधिकार नहीं है  पूरी कविता में समाज की असमान व्यवस्था के प्रति चोट की गई है ,पर सारी चोट लाक्षणिक प्रयोगों द्वारा है।जब कवि कहता है--

"गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार;
सामने तरु मालिका,अट्टालिका प्राकार।"(16)

तो इस तरुणी के गुरु हथौड़े से केवल पत्थर पर प्रहार नहीं होता,बल्कि उस पीड़ित समाज व्यवस्था पर उसका प्रहार पहुँचता है,जिसमें ऐसी विषम स्थितियाँ विद्यमान है।इतनी छोटी-सी गिने-चुने साधारण और सपाट शब्दों के उच्चारण द्वारा आज की पूंजीवादी व्यवस्था पर करारा व्यंग्य किया है ।

निराला ने मानवता के प्रति सर्वथा एक नवीन दृष्टि का विकास किया है, किन्तु यथास्थिति को उखाड़ फेंकने का आइवान मानवतावादी सारी कविताओं में प्राप्त नहीं है। नारी सम्बन्धी प्रगतिशील भावना की सही अनुगंज .. अनामिका की मुक्ति कविता में प्राप्त है जहाँ भाषा के अभिजात्य के साथ उन्होंने समस्त नारी वर्ग को दासता कारा को तोड़ने का आह्वान किया है ।

तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा

पत्थर की निकली फिर गंगा जलधारा ।17.

• यही नहीं, कवि की आकांक्षा है कि नारियां पार्वती की भांति होकर सत्य, शिव, सुन्दर को बल देती हुई नेतृत्व ग्रहण करें और दिग्भ्रांत लोगों को सन्मार्ग का अनुसरण करायें -

" गृह गृह की पार्वती ।
पुनः सत्य सुन्दर शिव को संवारती
उर उर की बनी आरती ।
प्रांतों की निश्चल ध्रुवतारा | 18

" नारी को संतों और भक्तों ने वासना की पुतली और मायाविक के रूप में देखा था। रीतिकाल में नायिका केवल काम क्रीड़ा की कन्दुक बन कर रह गई थी। छायावादी कवियों ने नारी के मन की गहराइयों की थाह ली। निराला ने नारी शक्ति की उपासना की । नारी उनकी दृष्टि में अबला न रहकर सबला कर समादृत हुई । नारी की दीनता, निराशा और असहायता का चित्रण करते हुए भी निराला ने उसे प्रेरणा और श्रोत के रूम में देखा। वह वासना का विष न होकर साधना का अमृत है । 19

आश्चर्य की बात है कि छायावादी कवियों में  निराला ही एकमात्र ऐसे कवि है, जिन्होंने धन्नासेठों दुवारा किये जा रहे शोषण और भूपतियों द्वारा शोषित किसानों की दयनीय दशा को गहराई से न केवल जान लिया था, बल्कि शोषको को मिटाने और 64

शोषितों को सुखी बनाने की विप्लवी ललकार भी मारी थी । निराला पौरुष के कवि है अतएव उनके रौद्र रूप को उनकी अनेक रचनाओं में देखा जा सकता है । ' तुलसीदास' और 'राम की शक्ति पूजा' के प्रतीकों में राष्ट्रीयता के सन्दर्भ में " महाराज शिवाजी  का पत्र" में यही प्रगतिशील और क्रान्तिकारी उष्मा है । 'परिमल'  के 'आह्वान'  कविता के माध्यम से कवि को वर्तमान व्यवस्था से असन्तोष दिखायी पड़ता है । इसलिये वह विनाश की प्रतीक श्यामा से प्रार्थना करता है कि अव्यवस्था को मिटाने के लिये तुम्हारा ही ताण्डव नर्तन होता है । इस समय अव्यवस्था भी है और ताण्डव के लिये पर्याप्त सामग्री भी-

"एक बार बस और नाच तू श्यामा |
सामान सभी तैयार,
कितने ही है असुर, चाहिए तुमको कितने हार |
कर - मेखला मुण्ड - मालाओं से बन मन अभिरामा -
एक बार बस और नाच तू श्यामा |" 20

महलों में बैठकर शोषण की योजना बनाने वालों का कवि ध्वंस चाहता है जो विद्रोह का नाम सुनकर ही कांप उठते है । निराला के  'बादल राग'  में शोषकों के प्रति यह दृष्टि-

''अट्टालिका नहीं है रे आतंक-भवन
X X X X X X X X X
रुद्ध कोष है, क्षुब्ध तोष, अंगना, अंग से लिपटे भी
आतंक - अंक पर काँप रहे है, धनी वज्र गर्जन से बादल । त्रस्त नयन मुख टॉप रहे है।'' 21

बादल की सर्वाधिक आवश्यकता दीन किसानों को होती है ; उसी के कारण उसकी कृषि फलवती होती है । यहाँ कवि की प्रगतिशील एवं रचनात्मक दृष्टि का उन्मेश हुआ है---

"जीर्ण बाहु, शीर्ण शरीर, तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर | चूस लिया है उसका सार,
हाड़ माँस ही है आधार, से जीवन के पारावार ।
हिल-हिल खिल-खिल,हाथ हिलाते तुझे बुलाते;
विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।।"22

फिर कवि बादल से याचना करता है, कि तुम अपनी गर्जना चालू रखो। जिससे जीर्ण-शीर्ण समाप्त हो जाय तथा अन्याय के पक्षधर भूधर कॉप उठे और समस्त संसार में जीवन  लहरा उठे । ध्वंसात्मकता तथा रचनात्मकता व प्रगतिशीलता का बहुत सुन्दर संगम निराला ने अपनी संश्लेषण प्रधान मेधा से कराया है -

"घन गर्जन से भर दो वन, तपादप पादप तन ।
जब तक गुंजन गुंजन पर नाची कलियों, कवि निर्भर
भौंरो ने मधु पी पीकर माना स्थिर मधु ऋतु कानन।
गरजी है मन्द्र वज्र स्वर थर्राए भूधर भूधर 
झर-झर-झरझर धरा झर पल्लव-पल्लव पर जीवन ॥" 23

".............निराला की यह जनमुक्ति की चिन्ता उस समय से उनकी कविताओं का जैगरी है, जब हिन्दुस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना भी नहीं हुई थी।"24

निराला के राष्ट्रीय गीतों में सांस्कृतिक चेतना की भास्वरता का स्वर विद्यमान है। मानवतावाद पर विचार करते हुए हमने देखा है, कि 'निराला' का राष्ट्रप्रेम उनकी मानवतावादी भावना को कहीं भी खंडित नहीं करता। इन गीतों के वर्ण्य-विषय-रुप में केवल जीवनोत्कर्ष की भावना को ही नहीं लिया गया है, बल्कि समाज की दयनीय स्थिति और उसकी विषमता पर दृष्टिपात करता हुआ कवि गौरवमय अतीत का अंतराल भी टटोलता है....

"क्या यह वही देश है
भीमार्जुन का आदि का कीर्ति क्षेत्र
चिर कुमार भीम की पताका ब्रह्मचर्यदीप्त
उड़ती है आज भी जहाँ के वायुमंडल में
उज्ज्वल, अधीर और चिर नवीन ?
श्रीमुख से कृष्ण के सुना था जहाँ भारत ने
गीता - गीत सिंहनाद
मर्म वाणी संग्राम की
सार्थक समन्वय ज्ञान- कर्म भक्ति-योग का । " 25

निराला ने सामाजिक चेतना से अनुप्राणित अनेक गीतों में जनमानस के सांस्कृतिक जागरण और प्रगतिशील भावनाओं को जगाने के लिये अपना विद्रोही स्वर दिया । सामाजिक वैषम्य के चलते दीन-हीन दु:खी वर्ग के प्रति इनके मन में अथाह दया और ममता है । समाज की विषमता सम्बन्धी एक उदाहरण देख सकते हैं-

" चाल ऐसी मत चलो
सृष्टि से ही गिर रहा जो
दृष्टि से फिर मत छलो ।
बनो बासंती मृदुल
पत्तिका तरु की अतल
फिर सुरस संचारिका
सुख सारिका उसकी मृदुल
फिर मधुर मधुदान से नव
प्राण देकर फलो || " 26

इस प्रकार के प्रगतिशील गीतों में निराला की मानवतावादी दृष्टि अधिक उभड़ी है । निराला ने देश प्रेम का स्वर 'गीतिका' के प्रथम गीत में ही वीणावादिनी से देश के मंगल की प्रार्थना करता हुआ कहता है-

"वर दे वीणा वादिनी वर दे |
प्रिय स्वतन्त्र-रव अमृत- मन्त्र -नव
भारत में भर दे ।
काट अन्ध उर के बन्धन-स्तर
वहा जननि, ज्योतिर्मय निर्भर;
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर,
जगमग जग कर दे।" 27

"जागो जीवन धनिके" में कवि माँ भारती से देश को आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बनाने की प्रार्थना करता है। 'नर जीवन के स्वार्थ सकल' में कवि देश कल्याण के लिये माँ से प्रार्थना करता है । 'भारति जय विजय करे' में भारत-गौरव वर्णित है।

'अणिमा' में निराला अपनी प्रगतिशीलता दिखाते हैं, जब सन्त कवि रैदास के प्रति जो एक चर्मकार हैं, अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहते हैं-

"हुआ पारस भी नहीं तुमने, रहे
कर्म के अभ्यास में, अविरत बहे
ज्ञान गंगा में, समुज्ज्वल चर्मकार
चरण छूकर कर रहा मैं नमस्कार।" 28

'बेला' की कतिपय कविताओं में उनकी प्रगतिशीलता स्पष्ट है। निराला स्वयं क्रान्तिकारी कवि हैं,जिन्होंने 'जल्द- जल्द पैर बढ़ाजी कविता में क्रांति के लिये प्रोत्साहित किया है - .

"जल्द-जल्द पैर बढाओ,आओ ,आओ
यहाँ जहाँ सेठ जी बैठते थे,
बनिये की आँख दिखाते हुए
उनके ऐंठाये ऐसे थे
धोखे पर धोखा खाते हुए
बैंक किसानों का खुलवाओ ।" 29

अगर हम 'कुकुरमुत्ता' को देखें तो हमें उसमें सामाजिक चेतना, यथार्थ दृष्टि, प्रगतिशील विचारधारा और व्यंग्य- वृत्ति मिलता है, जिसमें जीवन के विविध पार्श्वों पर कवि ने व्यंग्य कसा है। इतना तो कहा ही जा सकता है कि कुकुरमुत्ता के पीछे कोई साधारण काव्यात्मा कार्य नहीं करती।जितना तीव्र और मर्मभेदी  उसका व्यंग्य है, उतनी की व्यापक उसकी दृष्टि है। उसके व्यंग्य का लक्ष्य एक नहीं, अनेकोन्मुख है । कुकुरमुत्ता का पहला व्यंग्य तो उस समाज पर है जहाँ उच्च वर्गों का अधिपत्य होता है और निम्नवर्ग उपेक्षित रहता है। कुकुरमुत्ता उस गरीब मजदूर किसान का प्रतीक है ,जो सहज ही अपनी गरीबी और गंदगी भरे परिवार में जन्म लेता है और राम भरोसे जीता रहता है । वह शोषण की प्रवृत्ति के प्रतीक गुलाब से कहता है-

"अबे ओ गुलाब,
कहाँ से पाई तूने रंग ओ आब ।
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इठला रहा है कैपिटलिस्ट।" 30

इतना ही नहीं समाज का शत्रु कैपीटलिस्ट सर्वहारा को ही नहीं मध्यवर्ग को भी भटका देता है-

"ख्वाब में डुबा चमकता हो सितारा,
पेट में डंड पेले हो चूहे, जुबां पर लफ्ज प्यारा | " 31

'कुकुरमुत्ता' में निराला ने तत्कालीन हिन्दी कविता में तथाकथित प्रगतिवादी और प्रयोगवादी धराओं की अवस्था और अराजकता के प्रति भी व्यंग्य किया है । तत्कालीन प्रगतिवादी लेखकों में जो अनावश्यक जोश और एक दूसरे के प्रति कुत्सा का भाव आया था, जो अनर्गल जोश में ऊँचे कुलावे बांधते थे - उनके प्रति भी यह व्यंग्य है।

"जैसे प्रोग्रेसीव का लेखनी लेते
नहीं रोका रुकता जोश का पारा
यही से यह सब हुआ
जैसे अम्मा से बुआ ||" 32

इसी' प्रोग्रेसीव' जोश में यह सब हुआ जो कुकुरमुत्ता की अनर्गल बातें कही गयी है और टी० एस० इलिस्ट- वादियों पर व्यंग्य किया गया--

"कहीं का रोड़ा, कहीं का लिया पत्थर
टी० एस० इलियट ने जैसे दे मारा
पढ़ने वालों ने जिगर पर हाथ रखकर
कहा, कैसा लिख दिया संसार सारा।" 33

इस प्रकार हम देखते हैं कि कुकुरमुत्ता मैं व्यंग्य सीमित या एकोन्मुख नहीं है-अनेकोन्मुख है और उसकी चपेट में सभी अव्यवस्थित तथा असम्बद्ध आ जाते है । उनका व्यंग्य भी युग पर है और इस कथन में कुछ न कुछ सत्य अवश्य है कि "निराला ने इस कविता में सारे विश्व को बांधने और उसके विकास का पथ खोजने की चेष्टा की है।" 34

निराला के काव्य में नये पत्ते का निश्चित ही महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें उनकी प्रगतिशीलता और सामाजिक यथार्थवादी दृष्टि अभिव्यक्ति अधिक प्रकाश में आयी है । जहाँ 'महगूं महंगा रहा'- सा राष्ट्रीय चेतना से, सामाजिक पीड़ा से उद्बुद्ध कविताएं है, वहां तीव्रतम व्यंग्य प्रधान रचनायें भी । 'देवी सरस्वती' का सा ग्राम काव्य और नहीं देखा गया । रानी और कानी, खजोहरा, गर्म पकौड़ी, डिप्टी साहब आदि का व्यंग्य प्रखर है और संयत भी, लेकिन कुछ समीक्षकों को इनमें यथार्थ का नग्न रूप मिलता है" 35   एवं प्रतिक्रियावादी और कुत्सित अश्लीलता भी । लेकिन मेरा विश्वास है कि व्यंग्य की तीखी चोट हमेशा अनावृत होती है, आवृत रहे तो वह सतेज न होगी । जब तक उनके आक्षेप सीधे नहीं होंगे तब तक वे कुठित ही रहेंगे । सफल व्यंग्य में सीधी चोट तिलमिला देने वाला प्रहार, भर्त्सना और हल्का तिरस्कार तो होगा ही । यदि यह आक्षेप्य है तो व्यंग्य का दूसरा रूप भी नहीं है । नये पत्ते की पूरी रचनाओं का परिशीलन हमें निराला को प्रतिक्रियावादी नहीं कहने देता... हम उन्हें प्रगतिशील ही कह सकते है । 'रानी और कानी' शीर्षक व्यंग्य रचना से ही इसका आरंभ हुआ है इसमें कवि का दृष्टिकोण यथार्थवादी है । कवि ने कुरूपता तथा निर्धनता को जीवन का अभिशाप बताया है । रानी गृह कार्यो में दक्ष है, चतुर है, पर उसका विवाह इस कारण से नहीं हो पाता कि वह निर्धन और कुरूप है । रानी और उसके माँ के हृदयोद्गरों का जो चित्र कवि ने खींचा है, वह बड़ा करुण और मर्मस्पर्शी है--

"मां कहती है उसको रानी
चेचक के दाग, काली नक-चिप्टी
गंजा सर एक आँख कानी ।"36

लोगों का व्यंग्य सुनकर तथा माँ को दुखी देखकर जब वह रोती है, तो कानी आंख से आंसू भी नहीं गिरते हैं -

"लेकिन वह बायीं आंख कानी
ज्यों की त्यों रह गयी रखती निगरानी।"37

इस कविता में समाज के उस दृष्टिकोण की भर्त्सना भी है जो गुणों की उपेक्षा कर सौन्दर्य का ही उपासक बना हुआ है। 'गर्म पकौड़ी' में सामाजिक व्यंग्य दिखता  है। इसमें कंजूस पर व्यंग्य तो किया ही गया है परन्तु यदि गर्म पकौड़ी को तथाकथित नये विचार और नई अवस्था के आभासित बड़े-बड़े  शब्द मान लिया जाय तो रचनाव्यंग्य अधिक निखरता है। ये नये विचार उसी तरह आकर्षित करते हैं, जिस तरह गर्म पकौड़ी पहले दिल लेकर आकर्षित करती है । तथाकथित नये विचारों में दिल (भावनाओं) को प्रभावित करने की ही शक्ति होती है और बौद्धिकता ( यह पूर्व ज्ञान की  गर्म पकौड़ी को तत्काल ग्रहण करने से जीभ भी जल सकती है ) का अभाव । एक भावनात्मक जोश ही उनमें होता है और प्रभावित व्यक्ति उसे ग्रहण भी कर लेता है, लेकिन स्थिति वही होती है जो 'गर्म पकौड़ी' को दांत तले दबाने से होती है, फिर ऐसे व्यक्ति उनसे  चिपटे भी रहते हैं । कंजूस ( बौद्धिक विपन्न ) की तरह कौड़ी छोड़ते नहीं । इसके लिये शाश्वत एवं स्थायी मूल्यों को भी त्याग दिया जाता है अर्थात् कंजूस अभिजात्य की ह्रासोन्मुखी मानवता को भी तिरस्कृत कर देता है ।

'प्रेमसंगीत' में उन मनचले नवयुवकों पर व्यंग्य तो है जिसमें  'बाम्हन' का लड़का घर की पनिहारिन जात की कहारिन और कुरूप स्त्री से प्रेम करता है यह आज की सामाजिक स्थिति है। इसमें प्रेम का भदेस रूप ही आया है और प्रेम के परंपरित सुन्दर उपादान का विरोध है। फिर भी ऐसा करना समाज में अन्तर्जातीय विवाह को बल देता है, जिसे बुरा नहीं कहा जा सकता है क्योंकि ब्राह्मण का लड़का होकर एक उपेक्षिता से प्यार कर उसे अपने स्तर पर लाना चाहता है तो इसमें बुराई क्या है। उसकी इस उक्ति में प्रगतिशीलता में दृष्टिगत होती है जब कहता है -

" बाम्हन का लड़का मैं उससे प्यार करता हूँ
जात की कहारिन वह मेरे घर की पनिहारिन वह,
आती है होते तड़का, उसके पीछे मैं मरता हूँ।"38

"छलांग मारता चला गया, 'कुत्ता भौंकने लगा' आदि कविताओं में जमींदारी प्रथा पर व्यंग्य है। छलांग मारता हुआ मेढक तथा भौंकता हुआ कुत्ता में कृषकों की दयनीय एवं जीर्ण स्थिति का व्यंग्यात्मक चित्रण है।" राजे ने अपनी रखवाली की " में सामंतवादी व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है। जनता इन्हीं राजाओं की चापलूसी करती है | कवियों ने प्रशस्ति एवं बहादुरी के गीत गाये, तो लेखकों ने उन पर लेख लिखे, इतिहासकारों ने इतिहास लिखे, नाटककारों ने उन पर रूपक लिखकर रंगमंच पर अभिनीत किये, पर वे राजा उन्हें भ्रम में रखकर ठगते रहे ।

"झींगुर डटकर बोला' और 'महंगू महंगा रहा' में क्रूर तथा अत्याचारी जमीदारों के साथ- साथ राजनीतिक नेताओं पर व्यंग्य है। झींगुर और महंगू को निराला ने कृषक वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में चित्रित किया है जो इन अत्याचारियों का विरोध करने के लिये कटिबद्ध होते हैं ।

'थोड़ों के पेट में बहुतों को आना पड़ा' कविता में निराला ने परिवर्तन का आदर किया है, किन्तु सारी प्रगति के बावजूद भी देखने में यह आया कि इस पूंजीवादी शोषण ने 'लक्ष्मी' का हरण कर उसे कारागार में डाल दिया, इससे समाज मारा गया और एक का आतंक व्याप गया। परिवर्तन पर परिवर्तन आता रहा, दल पर दल बनते रहे, किन्तु सभी के भीतर 'छल और स्वार्थ का बास रहा । इसलिये थोड़े लोगों का शिकार बहुतों को बनना पड़ा---

"लहलही धरती पर रेगिस्तान जैसा तपा।
जोत में जल छिपा,धोखा छिपा, छल छिपा।
बदले दिमाग बढ़े, गोल बाँधे घेरे डाले,
अपना मतलब गांठा,फिर आँखें फेर ली।
जाल भी ऐसा चला
कि थोड़ों के पेट में बहुतों को जाना पड़ा।" 39

'मास्को डायलॉग्स' एक ऐसी रचना है जिसमें दिखाया गया है कि प्रचलित और विश्वसनीय सिद्धान्त या व्यक्ति का नाम लेकर लोग कैसे समाज को मूर्ख बनाते और धोखा देते है और समाज में अपना प्रभाव डालने के लिये साहित्य के कार्य में पूर्ण रूप  से अक्षम होते हुए भी साहित्य क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं।कवि ने इस कविता में समाजवादी नेताओं पर व्यंग्य किया है।'गिडवानी जी' इन्हीं समाजवादी नेताओं के प्रतिनिधि के रूप में चित्रित हैं---

"बहुत बड़े सोशलिस्ट
"मास्को डायलाग्स' लेकर जाये है मिलन ×××××××××××××××××××××××
एक से है एक मूर्ख, उनको फंसना है,
ऐसे कोई साला एक धेला नहीं देने का,
उपन्यास लिखा है, जरा देख लिजिए ।
अगर कहीं छप जाय
तो प्रभाव पड़ जाय उल्लू के पट्ठों पर
मनमाना रुपया ले इन लोगों से ।"40

'पांचक' में जनता और सरकार के बीच खड़े मध्यवर्तियों को कवि ने अच्छी खबर ली है। सीधा सम्बन्ध न होने के कारण ही जनता की क्रय शक्ति समाप्त हुई और वह विपन्नावस्था में आ गयी-

" माल हाट में है और भाव नहीं,
जैसे लड़ने को बड़े दांव नहीं । " 41

निराला ने इस काल की अपनी रचनाओं में तीबी व्यंग्य शैली का सहारा लिया है । संसार का सारा माहौल और संस्कृति निर्माण 'दाने' पर ही निर्भर है, किन्तु दाना उत्पन्न करने वाला आज भी असभ्य ही रह गया

"चूँकि यहाँ दाना है इसलिये दीन है, दीवाना है ।।" 42

वह सेठ जो रात दिन धन के मद में चूर रहता है और दूसरों पर अपने धन का रोब गालिब करता है, धन ही उसकी आशा- निराशा तथा उत्थान-पतन एवं जन्म- मरण है। उसके सुख- दुख का एक मात्र धन ही आधार है। लेकिन इन विजयी कहे जाने वाले महोदय का तब भेद खुल जाता है जब पता चलता है कि उनका सारा ताम-झाम दूसरों के रक्त शोषण पर आधारित है--

"किनारा वह हमसे किये जा रहे हैं ।
दिखाने को दर्शन दिये जा रहे हैं ।
X   X    X    x    x    X
खुला भेद, विजयी कहाए हुए जो,
लहू दूसरे का पिये जा रहे हैं ।"43

धनपतियों की लबरेज महफिलों के राज को कवि जानता है। नये समाज में इस रहस्य का पता चलना कठिन नहीं होगा-

"होंगे हृदय के खुलकर सभी गाने नये,
हाथ में आ जायेगा, वह राज जो महफिल में है।"44

कवि पूंजीपतियों को चेतावनी देते हुए उन्हें होश में आने को कहता है क्योंकि जनाक्रोश की लहर आने ही वाली है, जिसका भयंकर परिणाम हो सकता है -

"पेड़ टुटेंगे, मिलेंगे, जोर की आँधी चली,
हाथ मत डालो, हटाओ पैर, बिच्छू बिल में है।"45

पूँजीपतियों द्वारा शोषितों - पीड़ितों को कवि उत्साहित करता है ---

"राह पर बैठे, उन्हें आबाद तू जब तक न कर |
चैन मत ले गैर को बरबाद तू जब तक न कर 1" 46

इन बातों को देखकर हम निराला को विध्वंसक नहीं कह सकते, क्योंकि उनमें रचनात्मक और विद्रोहात्मक प्रतिभाओं का विचित्र संयोग है । वे ऐसे आदर्श समाज की स्थापना करना चाहते हैं, जो स्वावलम्बी हो--

"अंतस्थल से यदि की पुकार,
सब सहते साहस से बढ़कर जायेंगे, लेंगे भी उबार ।
X x X X X X ×××××××××××××××××××××X
"सुलझेंगी मन-मन की माखै, ज्योतिर्जग का होगा सुधार । । सादा भोजन, ऊंचा जीवन होगा चेतन का आश्वासन ।
हिंसा को जीतेंगे सज्जन, सीधी कपिला होगी दुधार ।
×××××××x××××××××× होंगी आँखें अंत: शीला
होगा न किसी का मुँह पीला, मिट जायेगा लेना उधार ।।" 47

पुरातन और जड़ संस्कारों का निराला ने सर्वदा विरोध किया है, इसलिये वे रुद्रताल से भैरव नर्तन कर उन्हें मिटाने और नये संदर्भों को उत्पन्न करने का आह्वान करते हैं---

"नाचो हे, रुद्रताल, आंचो जाग ऋतु- अराल ।
झरें जीवन जीर्ण शीर्ण, उद्भव ही नव प्रकीर्ण ।
करने को पुनः तीर्ण हो गहरे अन्तराल |
फिर नेतन तन लहरे, मुकुल ग्रंथ का छहरे,
उर तरु तरु का हहरे, नव मन सायं - सकाल।"48

" निराला की राष्ट्रीयता भारत की इस मिट्टी में उगती पनपती है, परन्तु इसमें प्रफुल्लित एवं पल्लवित होती हुई बहुत दूर जा कर वह समस्त मानवता में अपने को समेट लेती है। इसलिये उनकी राष्ट्रीय कविता का धरातल बड़ा विस्तृत और बहुरंगी है।"49
हम राष्ट्रीयता के अभाव में शताब्दियों तक पराधीन रहे जिससे हमारी राष्ट्रीयता की उद्भावना और उसका परिज्ञान समाप्तप्राय हो गयी थी । नव जागरण के कारण पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान और साहित्य से हमारा सम्पर्क हुआ तब हमें धीरे- धीरे राष्ट्रीयता के स्वरूप का बोध हुआ, तब हमने देश की राष्ट्रीयता को हीनावस्था में पाया । हम दूसरे के अधीन हैं, का व्यावहारिक बोध हुआ । इसके वास्तविक स्थिति का परिज्ञान निराला के 'तुलसीदास' के प्रथम छन्द में ही प्राप्त होता है । उसमें इतिहास के परिप्रेक्ष्य में मुसलमान शासकों के शासन का वर्णन किया गया है । यहाँ यदि 'मुसलमान' के जगह पर अंग्रेज रख दिया जाय तो भारत की तत्कालीन परिस्थिति का स्पष्ट चित्र सामने आ जायेगा । विदेशियों ने हमें ठगों की तरह खूब लूटा जैसे, एक ऋतु के बाद दूसरी ऋतु आकर  पृथ्वी के जल को सूखा जाती है, वैसे ही उदर पूर्ति करने वाले पराये लोग हमारे देश में आकर सुखी नहीं करते, बल्कि अपना-अपना पेट भर दुःखी बना जाते हैं। इसलिये लोक मानत व्याकुल हो जाता है ।शरीर से शक्तिहीन होकर हाहाकार करने लगते हैं-

"उठा आज कोलाल, गया लूट सकल संवल,
शक्तिहीन तन निश्चल, रहित रक्त से रंग-रंग।" 50

लेकिन ऐसे अंधकारपूर्ण वातावरण में निराला की अप्रतिहत प्रतिभा का चमत्कार देखने योग्य है। वे वास्तविकता को केवल अपने ही नहीं समझते, बल्कि पूरे देशवासियों को उस वास्तविकता से परिचय कराकर, लम्बे डग मारकर आगे बढ़ जाने की प्रेरणा भी देते हैं-

" मिला ज्ञान से जो धन, नहीं हुआ निश्चेतन,
बाधो उससे जीवन, साधो पग-पग पर यह डग | "51

तुलसीदास के रूप में निराला ने आधुनिक कवि के स्वाधीनता सम्बन्धी भावों के उदय और विकास का चित्रण किया है । छायावादी कवि की तरह निराला के तुलसीदास को भी देश की पराधीनता का बोध प्रकृति की पाठशाला में ही होता है; किन्तु छायावादी कवि की तरह वे भी कुछ दिनों के लिये नारी मोह में पड़कर उस भाव को भूल जाते हैं । अन्त में जो ज्ञान प्रकृति की पाठशाला में मिला था, उसका दीक्षान्त भाषण उसी नारी के विश्वविद्यालय में सुनने को मिलता है और भविष्यवाणी होती है कि---

"देश काल के शर से विधकर
यह जागा कवि अशेष छविधर
इसके स्वर में भारती मुखर होयेंगी।"52

'सेवा- प्रारंभ' में भारतीय मेहनतकश जनता भूखमरी- अकाल और महामारी का शिकार बनती दिखायी गयी है। जनता की चेतना-शक्ति कुण्ठित हो गयी है । वह नाना प्रकार की रूढ़ियों को झेलती- बुनती अपनी दीन अवस्था को ही स्वीकृत कर भाग्यवाद का वाहक बन गयी है। अपना रक्त शोषण वह स्वयं कर रही है। जैसे-जैसे विपत्ति में पड़कर वह भगवान का स्मरण करती है, वैसे ही कभी-कभी सरकार का भी स्मरण कर लेती है। इससे अधिक अपने दुःखी होने का उत्तरदायित्व किसी और पर वह नहीं डालना चाहती । लेकिन निराला भारतीय मानस के पतन के निम्नस्तरों को स्पर्श कर अनुभूति और अभिव्यक्ति का संगम
अपनी नवोन्मुखशालिनी प्रतिभा से उपस्थित करने में समर्थ है। यहाँ जलदश्रु भावुकता नहीं है, किन्तु यह न भूलना चाहिए कि ऊपर - ऊपर  वे हिमकठोर और तटस्थ दिखायी देते है, किन्तु नीचे आर्द्रजल का अतल स्रोत अपने में सब कुछ मिला लेने के लिये आकुल- व्याकुल है-

" बुढ़िया मर रही थी गन्दे में फ़र्श पर पड़ी
आँखों में ही कहा जैसे उस पर बीता था।"53

यही नहीं स्वाधीनता के इस बढ़ते हुए संघर्ष में निराला ने गरीबों पर बराबर ध्यान रखा और उनका पक्ष लिया। 'तुलसीदास' में भारत की दीन-दशा पर प्रकाश डालते हुए वे लिखते है-

"रण के अश्वों से शस्य सकल,
दलमल जाते ज्यो दल के दल
शुद्रगण क्षुद्र जीवन सम्बलपुर-पुर में
××××××××××××××
××××××××××××××××
वे चरण चरण बस, वर्णाश्रम रक्षण के।"54

परिमल की देश-प्रेम सम्बन्धी रचनाओं में 'जागो फिर एक बार', छत्रपति शिवाजी का पत्र' तथा 'यमुना के प्रति' विशेष उल्लेखनीय है । इन कविताओं के माध्यम से निराला ने गौरवमय अतीत का स्मरण दिलाते हुए जागरण का मन्त्र फूँका है। 'जागो फिर एक बार' में निराला ने बताया कि सिंह की मांद में स्यार का बलात् घुस जाना हास्यास्पद है, किन्तु सिंह जब अपनी प्रकृति को भूल जाय, तब गधे से अधिक उसका महत्व नहीं । सियार तो फिर भी मांस खा लेता है और दाँत नाखून भी चला लेता है । निराला को भारतीय शौर्य का बोध है , इसीलिये भारतीयों को उनकी प्रवृत्ति का स्मरण कराकर अंग्रेजों के विरुद्ध उत्तेजित करते हुए कहते हैं- --

शेरों की मांद में आया है आज स्यार-
जागो फिर एक बार ।" 55


निराला के गीत अपने समस्त अंगों से भैरव नर्तन करते हैं, तंत्रियों को झकझोर देते है, और अपनी अतल भेदी ध्वन्यात्मकता से सारा कलुष धो डालते हैं।अंग्रेजों को उन्होंने केवल एक ही बार सीधे निशाना बनाया है, इससे उनके सूक्ष्म मनोभावों को पकड़ने में सहायता मिलती है और उनकी क्रान्तिकारी विचारधारा से अवगत होया जा सकता है -

"चूम चरण मत चोरों के तू
गले लिपट मत गोरों के तू ।।" 56

'गीतिका' में निराला की भारत मुक्ति की कामना प्रबल एवं उत्कर्ष पर स्थित हो जाती है, वे अकुण्ठित भाव से माँ भारती के चरणों में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते है--

"नर जीवन के स्वार्थ सकल बलि होते तेरे चरणों पर माँ करके श्रम संचित सब फल।जीवन के रथ पर चढ़कर,
सदा मृत्यु पथ पर बढ़कर, महाकाल के खरतर शर सह
सकूँ, मुझे तू कर दृढ़तर, जागे मेरे उर में तेरी
मूर्ति अश्रुजल-धौत विमल दृग-जल से या बल,बलि कर दूँ |"57

विदेशियों के निर्मम पदाघात से भारत की धरती आहत हो गयी क्योंकि वे इस भारत भूमि को अर्थ-शून्य कर चले गए । यहाँ न केवल इस विपन्नता पर पश्चाताप किया गया है, अपितु देशवासियों को निराला ने 'गीतिका' में अपना तेवर बदलते हुए कमर कस कर कर्मयोग पर अग्रसर होने की प्रेरणा दिया है -

"क्यों अकर्मण्य सोचता बैठ, गिनता समर्थ हो व्यर्थ लहर
आये कितने ले गये अर्थ, बढ़ विषम बड़वानल-जलतर।"58

निराला को आर्थिक विपन्नता से हृदय पर बहुत चोट लगी है।लेकिन उनका मानना है कि यदि भारतवासी सन्नद्ध होकर इसके उत्थान कार्य में जुट जाएं तो विश्व हाट में इसका स्थान निश्चित हो जायेगा, क्योंकि यह धरती रत्नगर्भा है।वैश्य- शक्ति का इसमें अभाव नहीं है। बस लोग ज्ञान के तिमिर में भटक रहे हैं। जिसके चलते उनकी स्थिति ठीक नहीं है। महाकवि ने वास्तविक भारत की तस्वीर का दर्शन मानवीय  सत्य के आर्थिक पक्ष उभाड़कर कराया है। उसकी दृष्टि में भारत यही है--


"देखा है दृश्य और ही बदले-
दुबले दुबले जितने लोग,
समा देश भर को ज्यों रोग,
दौड़ते हुए दिन में स्यार
बस्ती में- बैठे गीध भी महाकार
आती बदबू रह रह,
××××××
x×××××××
कठिन हुआ यह, जो था बहुत सरल।"59

आज आर्थिक सम्पन्नता पर ही मनुष्य की स्तरीयता का परिगणन होता है। सम्पन्न मनुष्य चाहे कितना ही व्यसनी, अयोग्य और लम्पट हो, अपने धन के बल पर वह संवादपत्रों, विद्याधरों और बड़ों- बड़ों से अपना सम्मान करा लेता है। निराला ने 'वन बेला' में उत्तम पुरुष की शैली में इस ढोंग पर करारा व्यंग्य किया है--

"फिर लगा सोचने यथासूत्र- मैं भी होता
यदि राजपुत्र - मैं क्यों न सदा कलंक ढोता
ये होते जितने विद्याधर -मेरे अनुचर
×××××××××××
जीवन चरित्र
लिख अग्रलेख अथवा छापते विशाल चित्र।"60

"पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के असंख्य दुर्गुण हैं। सच तो यह है कि भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति में पूँजीवादी व्यवस्था चल ही
नही सकती । हमने विज्ञान की सहायता से शोषण के पेचीदे स्वरूपों और परिस्थितियों को उत्पन्न कर दिया है- सामन्तवादी समाज के भग्नावशेषों से उत्पन्न आधुनिक बुर्जुआ-समाज वर्ग-विरोध से अलग नहीं हो पाया, अपितु इसने प्राचीन के स्थान पर नये वर्गों,शोषण की नवीन परिस्थितियों और नए संघर्ष के रूपों का निर्माण कर दिया।"61
इस परिस्थिति और नवीन व्यवस्था में श्रमकर्ता रात-दिन परिश्रम करके एड़ी - चोटी का पसीना एक कर देता है, फिर भी दो जून की रोटी उसे नसीब नहीं होती है, दूसरे तरफ देखे तो भ्रष्टाचार में लिप्त पूँजीपति रात-दिन रंगरेलियों में
मस्त रहते हैं । उनके लाडले विदेशों में पढ़ने का ढोंग करते है। वे स्वयं धन के बल पर राजनीतिक दांव पेंच के परम पंडित होते हैं। वे किसी न किसी तरह से धन पर एकाधिकार रखते है ।वे गिरगिट की तरह रंग बदलने में बहुत माहिर होते है । हवा के साथ अपना रुख बदलते रहते हैं। " स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व कांग्रेस का जो स्वरूप और स्वभाव था, और उसमें बूढ़े लोगों के जो निहित स्वार्थ थे, उनको तत्कालीन बहुसंख्यक जनता ने भले ही न समझा हो, लेकिन हिन्दी के साहित्यकारों ने खूब समझा था । प्रेमचन्द के उपन्यासों में भी ऐसे जन विरोधी पूँजीपतियों और भूमिपतियों से समझौता किये हुए , नेताओं के चित्र है । निराला ने भी ऐसे तथाकथित बगुला भगत नेताओं का चित्र खींचा है।"62 रचना के आधार पर धनिक निर्धन में कोई अन्तर नहीं है। धनी को अपार धन प्राप्त है, गरीब को दुर्बल शरीर। पर क्या इसी आधार धनी पवित्र और गरीब अपवित्र हो गया ? कवि निराला ने धनी को सावधान होकर मनुष्य बनने की सलाह दी है--

मिला तुम्हें सच है अपार धन,
पाया कुश उसने कैसा तन ।
क्या तुम निर्मल, वही अपावन
सोचो भी संभलो।"63

कवि मानवता की प्रगति के लिये त्याग को सर्वोच्च स्थान देता है। उसने एक उदाहरण प्रस्तुत किया कि बुद्ध राजकुमार थे। उनके पास धन सम्पत्ति की कमी नहीं थी।वे चाहते तो जीवन का सर्वोत्तम आर्थिक सुख भोग सकते थे, परन्तु संसार में दुख ही दुख अनुभूत कर उन्होंने अपना राजमहल का जीवन त्यागकर तपस्या की और दुख निरोधों का मार्ग खोज निकाला

" वहाँ बिना कुछ कहे सत्य-वाणी के मन्दिर
जैसे उतरे थे तुम उतर रहे हो फिर-फिर
मानव के मन में- जैसे जीवन में निश्चित
विमुख भोग से, राजकुंवर त्याग कर सर्वस्थित
एक मात्र सत्य के लिये, रूढ़ि से विमुख, रत
कठिन तपस्या में,पहुँचे लक्ष्य को तथागत।" 64

" निराला ने अपने शील एवं साहित्य दोनों में ही संकीर्णता का  विरोध करते हुए अपनी महाप्राणता का परिचय दिया है। इसके लिये उन्होंने करुणा और विद्रोह दोनों का सहारा लिया है । करुणा उपेक्षित, पीड़ित एवं प्रताड़ित जन-समूह के लिये और विद्रोह अन्यायी शोषक वर्ग के प्रति- यही निराला की प्रगतिशील जनवादिता को आधारशिला है । उन्होंने प्रारंभ ही क्रान्ति का अवलम्ब लेकर मानवतावादी मूल्यों का अनुमोदन किया है। उन्होंने व्यक्ति को केवल व्यक्ति के रूप में देखा है, जातिगत संकीर्णता के चौखटे में फिट करके कभी नहीं देखने की कोशिश की । इसीलिये उन्होंने शाश्वत मानवता का उदात्त स्वरूप उन निरीह पात्रों में में भी देखा जो प्रचलित वर्ण- व्यवस्था के अनुसार अछूत और अंत्यज होने के बावजूद अंत: करण से सात्विक एवं चरित्र के धवल थे।65 " वीणा की तंत्री जब पूरे ताव पर होती है, तब एक मन्द स्पर्श भी उससे स्वर का प्रसार करता है। ऐसा ही ताव है निराला के हृदय का जो स्वयं कितनी ही यातनायें सहन कर सकता है, पर मानवता को शोकमग्न देखकर विचलित हो जाता है।"66 इस सम्बन्ध में अपनी ओर से न कहकर मात्र यही कहना अभिप्रेत है कि " एक दुःखी भाई को देखकर उसकी ( कवि निराला की ) वेदना उमड़ आती है वह पीड़ित के आँसू पोंछ उसे गले लगाता है। यथार्थ मानव उत्पीड़न से विमुख कविजन परीक्ष सूक्ष्म काल्पनिक सौन्दर्य की साधना में लगे थे । यही उनका अधिवास था । यही निराला का काव्य-साधना-अधिवास था। मानव मंगल में उसका यह अधिवास भी छूट जाय, तो भय नहीं। मानव सेवा सहायता यदि माया में फँसना है, तो माया उस अध्यात्म या कला साधना से अधिक महिमाशाली है, जो साधक को समाज से परांगमुख करती है ।"67 अधिवास कविता में अनुरक्ति-विरक्ति का ऐसा अंतर्द्वंद्व है जो कभी स्वामी विवेकानन्द के भी स्वामी के जीवन में आया था। स्वामी जी सर्वदा विरक्त ही रहे, किन्तु पीड़ित मानवता के उद्धार के लिये उनका आदर्श अनुकरणीय रहेगा । इसी प्रकार निराला सर्वदा अनुरक्त रहकर पीड़ित मानव का न केवल पक्ष लेते रहे, बल्कि आजीवन एक पीड़ित जीवन भी जीते रहे। इसीलिये अनुरक्ति-विरक्ति द्वंद्व में वे अपने दुःखी भाई को गले लगाने के लिये दौड़ पड़े -

" मैंने, 'मैं' शैली अपनायी देखा दुखी एक निज भाई
दुख की छाया पड़ी हृदय में मेरे,झट उमड़ वेदना आयी ।
उसके निकट गया मैं धाय, लगाया उसे गले से हाय।
फँसा माया में हूँ निरुपाय, कहो, फिर कैसे गति रुक जाय ? उसकी अश्रु भरी आँखों पर मेरे करुणांचल का स्पर्श
करता मेरी प्रगति अनन्त, किन्तु तो भी मैं नहीं विमर्ष,
छूटता है यद्यपि अधिवास, किन्तु फिर भी न मुझे कुछ त्रास।"68

निराला मानव को मानव ही समझते थे, उनका हृदय जाति-पांति और सम्प्रदाय की संकीर्णता में फँसने वाला नहीं था। वे व्यावहारिक जीवन में मुसलमानों के यहाँ भी खा लेते थे। निराला जी अपने सम्बन्ध में लिखते है " एक दफा लखनऊ में एक मुसलमान सज्जन के साथ में पुलाव, कबाब और रोगन जोश आदि खा रहा था। वह मन ही मन यह अक्ल ऐंठ रहे थे कि अब इसे मुसलमान बनाया । एक रोज वह मुसलमानों में बैठे पानी पी रहे थे - अमीनावाद पार्क में ।मैं गया और उनके साथी थे। पानी के लिये पुछते हुए संकुचित हो गये । उन्होंने पूछा, मुझे प्यास थी, मैंने पीया । तब खाने - पीने की बात चली ।वह मुझे एकान्त में बुला ले गए और कहा आप उस रोज की एक साथ खाने पीने वाली बात न कहियेगा। मैंने कहा, यह सबक हिंदू पढ़ें, मैं तो मुसलमान हूँ । उनको बड़ा हर्ष हुआ- 'आप मुसलमान हो गये' ? मैंने कहा- नहीं जी, मुसलिम ईमान।"
अब निराला के इन शब्दों के महत्व को परखिये-"मेरा कवि सदा निरपराध है। मैं क्या कहूँ, वह क्या क्या करता है ?" 69


सन्दर्भ
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1. नन्द दुलारे वाजपेयी कवि निराला, पृ0 4.

2• गंगाधर मिश्र - युगाराध्य निराला, पृ0 4-5 पर उद्धृत 3. श्री सुमित्रानन्दन पन्त छायावाद का पुनर्मूल्यांकन •

4. आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी - कवि निराला, पृ0 7-8 •

5. संपादक डा० राम विलास शर्मा - राग - विराग (निराला के कविताओं का संकलन से) पृ.88

6. यथोपरि •

7. यथोपरि, पृ0 89.

8. निराला - गीतिका, पृ० 39 •

9. यथोपरि, पृ0 85 •

10• निराला ( उद्बोधन), पृ0 68

।।• सं० डा० इन्द्रनाथ मदान ( डा० बच्चन सिंह) निराला, पृ0 7 •

12. निराला - गीतिका, पृ० 34 •

13. निराला, परिमल ( ), पृ० 119 .

14. निराला - बिल्लेसुर बकरिहा, पृ0 44 •

15. निराला - अनामिका, पृ० 82 •

16• यथोपरि •

17. निराला - अनामिका ( मुक्ति ) पृ० 141 •

18• यथोपरि, पृ० 131 ·

19. सं0 10 पद्मसिंह शर्मा : निराला, पृ० 50 पर श्री नरेन्द्र मानवत द्वारा लिखित निराला की राष्ट्रीयता ' लेख से ।

20. निराला परिमल ( आह्वान), पृ० 138 •

21. निराला : परिमल ( बादल राग), पृ0 167-168 •

22• यथोपरि, पृ० 168 •

23. निराला - गीतिका, पृ0 59.

24 श्री दूधनाथ सिंह : निराला : आत्महन्ता आस्था, पृ० 191.

25. चौथीराम यादव कायावादी काव्य एक दृष्टि में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला से पृ० 190 पर उद्धृत •

26• यथोपरि

27. निराला गीतिका, पृ० ३.

28. निराला अणिमा, सन्त रैदास के प्रति

29. निराला बेला, कविता संख्या 62.

30 निराला कुकुरमुत्ता, पृ० 32.

• यथोपरि •

32. निराला कुकुरमुत्ता, पृ० 10.

33. यथोपरि

34- गंगा प्रसाद पाण्डेय, महाप्राण निराला, पृ0 200 •

35. गिरिजाकुमार माथुर, आलोचना, 12.

36. निराला - नये पत्ते ( रानी और कानी) •

37. यथोपरि

38. निराला नये पत्ते ( प्रेम संगीत ) •

39. यथोपरि पृ० 30 •

40- यथोपरि (मास्क डायलाग्स) पृ0 25-26

41. यथोपरि ( पांचक ), पृ० 39.

42. निराला अणिमा, पृ० 86.

43. निराला-बेला-पृ. 68.

44 यथोपरि, पृ0 75

45 यथोपरि .

46• यथोपरि, पृ0 76 *

47. यथोपरि, पृ० 84

48. निराला आराधना, पृ० 55.

49 डॉ भगीरथ मिश्र- निराला काव्य का अध्ययन, पृ० 65.

50. निल गीतिका, पृ० 81

51. यथोपरि, पृ० 89

52 नामवर सिंह - छायावाद, पृ० 73 पर उद्धृत

53. निराला - अनामिका, पृ० 185

54. नामवर सिंह छायावाद, पृ० 82 पर उद्धृत

55 निराला - परिमल - जागो फिर एक बार (2), पृ० 188 • 56. श्री दूधनाथ सिंह निराला, आत्महन्ता आस्था, पृ० 172 पर उद्धृत

57. निराला, गौतिका, पृ0 22.

58. यथोपरि पृ० 57 •

59. निराला : अनामिका, पृ० 180

60. निराला, अनामिका (वन बेला), पृ0 87 •

61. मार्क्स एंजिल्स मैनीफेस्टो आफ दी कम्युनिस्ट पार्टी, पृ० 33.

62. सं0 डा0 पद्मसिंह शर्मा : निराला, पृ0 61-62 पर श्री श्याम सुन्दर घोष द्वारा लिखित 'निराला के काव्य में वर्ग चेतना और वर्ग संघर्ष' लेख से

63. निराला - गीतिका, पृ० 12 •

64. निराला अणिमा, पृ० 23-24 -

65. सं० डा० राममूर्ति शर्मा -युगकवि निराला, पृ० 112 पर प्रो० विपिन बिहारी ठाकुर के 'महाप्राण निराला की प्रगतिशीलता' लेख से ।

66• डा0 प्रेम नारायण टण्डन, निराला, व्यक्तित्व और कृतित्वः पृ0 154.

67. डॉ0 जयनाथ नलिन : काव्य पुरुष निराला, पृ0 231 68• निराला परिमल, पृ० 117 118

68. विनोद शंकर व्यास दिन रात, पृ० 109

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