Wednesday, May 10, 2023

'गोदान': एक संक्षिप्त पड़ताल-डॉ मनोज कुमार सिंह

 

 आलेख-

'गोदान' :एक संक्षिप्त पड़ताल

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                   ●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह

गोदान, प्रेमचंद जी के उपन्यासों का तीसरा  खंड है, अकेले अपने में पूर्ण यह उनकी कला की अंतिम पूर्णिमा है। उनके अबतक के कृतित्व का सारांश है। केवल इसे देख लेने में हम अबतक के प्रेमचंद को पा जाते हैं। इसमें प्रेमचंद जी ने हमारी अब तक की गार्हस्थिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रगति का निरीक्षण किया है। जिसका निष्कर्ष निकलता है- एक निःसहाय सूनी त्रासदी। अब तक जो कुछ देखा सुना है उसे और न देखने सुनने के लिए होरी की आँखें मूंद जाती हैं। गोदान में होरी स्वयं प्रेमचंद ही तो हैं ।
'प्रेमचंद जी अपने अन्य उपन्यास में कोई न कोई कार्यक्रम लेकर उपस्थित हुए हैं ,किन्तु गोदान में उन्होंने कोई कार्यक्रम नही दिया और न उन्होंने मार्ग प्रदर्शन ही किया है। अबतक का समग्र जीवन, क्या गार्हस्थिक, क्या सामाजिक, क्या राजनीतिक, क्या नागरिक क्या ग्रामीण- जैसे हैं उसे उन्होंने इसमें जस का तस उपस्थित कर दिया है। हाँ, चरित्र-चित्रण का रूख बदल गया किन्तु भाषा और शैली वहीं टकसाली है जिसे हम प्रेमचंद जी के अन्य उपन्यास में परिचित होते आए हैं।
इस उपन्यास के धरातल पर एक ही राष्ट्र के भीतर सबके जीवन के प्रवाह अगल-अलग स्रोतों में बह रहे हैं, उनमें कोई सामंजस्य नहीं है वे एक दूसरे विश्रृंखल है, एक दूसरे से खंडित है।पश्चिम में जैसे सबके कदम एक गति में सधे हुए हैं, वैसे हमारे नहीं| इस विविध चित्रखंड में देहात- एक शब्द में होरी- ही वह केन्द्रबिन्दु है जहाँ से हम अपने चारोंओर के अन्य वातावरण को परख सकते हैं।
क्लब ,पार्टी ,पिकनिक, नाटक, कौंसिल ऑफिस, कॉलेज, मिल, ये सब नागरिक वातावरण की सरसराहट मात्र हैं। केन्द्रविन्दु पर खड़े होकर हम देखते है पीठ पीछे समय, सभ्यता, समाज, अपनी अविरल तीव्रगति से निकले जा रहे हैं। यदि सचमुच कोई हमारा समाज और राष्ट्र है तो वह केवल 'गोदान' के  केन्द्रबिन्दु में है। उसी पर वैभव और नागरिक जीवन का दारोमदार है। नागरिक जीवन का भार देहात उसी तरह ढो रहा है, जिस तरह मिर्जा के शिकार को वह गरीब ।स्वयं ग्रामवासी  होने के कारण प्रेमचंद जी ने ग्रामीण जीवन को बड़ी बारीकी से देखा दिखाया है।उन्होंने दिखलाया है कि  ग्रामीण भी निरे संत नहीं हैं। उनका श्रमिक जीवन सरल अवश्य है, किन्तु उनकी व्यवहारिकता भी अपने अभावों की राजनीति (जो शोषण का अनिवार्य परिणाम है) लेकर वक्र हो गयी है । वे उनका कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्ष लेकर चले हैं। कही तो वे कृष्ण पक्ष में घिर गये हैं. कही शुक्ल पक्ष में खिल गये हैं। उसमें बड़े ही सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक अंतर्द्वंद्व दिख पड़ते हैं । इतने स्पष्ट रूप से ग्रामीण जीवन को उन्होने किसी अन्य उपन्यास में नही उपस्थित किया है गोदान में पहली बार मनुष्य को प्रेम चंदजी ने उसके हाड़-मांस में उपस्थित किया है। शरतचन्द्र की भाँति उसके उस दुर्बलताओं मे ही दिव्य व्यक्तित्व दे दिया है। यह व्यक्तित्व देहात के भीतर होरी दंपति के रूप मे है । प्रेमचंद ने नगरों मे भी कुछ अच्छे व्यक्तित्व देखे हैं, यथा- मिर्जा खुरशेदअली,डॉ मेहता,मालती, गोविन्दी, किन्तु ये समाज के वे. सबजेक्टिव (आत्मनिष्ठ) चरित्र हैं जिन्होंने जीवन की डाली से कुछ संकेत लेकर अंत में अपने जीवन को संतोष दे दिया है।वे अपनी इकाई में अब तक की लोक प्रगति की ऐतिहासिक सूचना नहीं हैं।
होरी दम्पत्ति ही वह ऐतिहासिक सूचना है, जिसमें अब तक की अपना खोखला पन दिखला गई है। यह दंपति इतिहास का करुण उच्छवास है।

प्रेमचंद जी ने अपने अभीष्ट पात्र 'होरी' में अर्थ और धर्म का द्वंद्व  दिखलाया है। होरी का धर्म पराजित नहीं होता, किन्तु अर्थ दारिद्र्य बनकर उसे ग्रस लेता है। धर्म के प्रतीक से प्रेमचंद जी ने प्राचीन आदर्शों को श्रेयस्कर बने रहने दिया है और आर्थिक समस्या को युग का मुख्य प्रश्न बनाकर आगे दिया है। आज के अर्थग्रस्त जीवन में आत्मा के उत्थान के साधन - शिक्षा - संस्कृति भगवत भक्ति, दानपुण्य, स्नेह सहयोग ये सब रूढ़ि मात्र रह गए हैं,एक  बधे हुए इतिहास की तरह। एक भाग आर्थिक प्रश्न साँप बनकर छाती पर बैठा हुआ है क्या नागरिक जीवन क्या ग्रामीण जीवन,क्या राष्ट्रीय जीवन  क्या अंतरराष्ट्रीय । उसी एक विषधर की विषधर से जर्जरित है। वह विष कही वैभव की मंदिर मूर्छना बन गया है तो कहीं दारिद्रय की दारुण यंत्रणा।

होरी आज के पूँजीवादी विषमता में एक नि:सहाय पुकार है। उसकी त्रासदी में सारा उपन्यास आर्थिक प्रश्न की ओर एकोन्मुख हो गया है।। कल तक प्रेमचंद्र उस प्रश्न को कांग्रेस के राष्ट्रीय कार्यक्रम के माध्यम से हल करते रहे, किन्तु गोदाम में प्रेमचंद
जी ने उसका कोई हल नहीं दिया। उन्होंने तो सिर्फ दिखला दिया है कि आज भी हमारे जीवन की गतिविधि क्या है। जब तक पुरानी राजनीतिक समाज व्यवस्था बनी हुई है, तबतक यह प्रश्न हल होने का नहीं। गाँवों में उसी तरह होरी और धनिया पिसते रहेंगे; नगरों में राय साहब, मिस्टर खन्ना ,मि.तन्खा उसी तरह शराफत के चोंगे में अपनी छुपी पशुता को सम्मान्य बनाए रखेंगे।। किन्तु इस युग का अर्थचक्र कुछ ऐसा सर्वग्रासी है कि उससे न दानवता के उपासक ही सुखी हैं न मानवता के उपासक।
 आर्थिक आवश्यकताओं के घेरे में हमारा समग्र जीवन एक विडम्बना बन गया है। पूँजी का विषम वर्गीकरण एक-दूसरे को मनुष्यता के धरातल पर मिलने का अवसर ही नहीं देता है परस्पर मिलते हैं तो अपने-अपने स्वार्थों के ट्रिक लेकर।
प्रेमचंद ही सब दिखलाकर विदा हो जाते हैं। जीवन के स्वस्थ
विकास के लिए जिस व्यक्तित्व को समुचित सामाजिक वातावरण की आवश्यकता है उसे होरी दम्पत्ति के रूप में छोड़ जाते हैं। उसे ही लेकर हमे युग की समस्याओं पर विचारना है उसे हम आत्मा और शरीर (जीवन और जीवन के साधन) के प्रश्न के रूप में अंगीकार कर सकते हैं। गोदान प्रेमचंद जी के जीवन की सबसे बड़ी हाय है। अबतक उन्होने  चरित्र के व्यक्तिगत साधना के रूप में देखा था, मिर्जा, मेहता, मालती, गोविन्दी अब भी रूप में इस उपन्यास में सम्मिलित है, प्रेमचन्द्र की पुरानी चित्रकला के नमूने होकर। हाँ, पहले उनका दृष्टिकोण केवल नैतिक, किन्तु अब गोदान में आर्थिक हो गया है। गोदान शब्द तो अब तक की नैतिकता धार्मिकता, दार्शनिकता का एक प्रतीक मात्र रह गया है। इस उपन्यास का आर्थिक पक्ष संकेत करता है कि आज धर्म के लिए पथ कहाँ रह गया है धनिया यंत्र की भाँति उठी, आज जो सुतली बेची थी, उसके बीस आने पैसे लायी और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादिन से बोली -महाराज घर में न गाय है न बछिया,न पैसा ।यही पैसे है, यही उनका गोदान है। इस प्रकार आज की आर्थिक ट्रेजडी में धन जीवन का मोक्ष बन गया है। प्राणी नगण्य हो गया है।
वह अर्थ और धर्म दोनों ही द्वारा शोषित है। असल में गोदान से प्रेमचंद युग की वास्तविक की ओर आ गये थे। नैतिक जीवन की आस्था अब भी उनके शेष थी, किन्तु  उनकी संकटग्रस्तता को भी उन्होंने देख लिया था। प्रेमचंद जी की नैतिक श्रद्रा को संतोष गाँधीवाद से मिलता रहा है, किन्तु आर्थिक विषमता को विकट समस्या के रूप प्रगतिशील युग के द्वार पर छोड़ गए हैं। यदि वे जीवित होते तो गांधीवाद और समाजवाद के बीच कदाचित एक संधि  श्रृंखला बन जाते । गोदान प्रेमचंद का अंतिम गोदान है-- उनके अपने व्यक्तित्व का अभिलाषाओं और विचारों का आदर्श है। गोदान का होरी गरीब स्थिति का किसान का प्रतीक है।उसका व्यक्तित्व उस वर्ग का व्यक्तित्व है। वह परिश्रमी है, कुटुंब वत्सल है और धर्म भीरु भी है।लाठी लेकर बाघ का सामना कर सकता है पर लाल पगड़ी देखते ही उसका सारा पुरुषत्व हवा हो जाता है। वह धर्मभीरु है सामाजिक दृष्टि से पर नर  को नारायण बनाने वाला धर्म उसमें नहीं। अपने सगे भाई के हिस्से के दो-चार रूपये कि दबा जाने लिए वह तीसरे को अधिक लाभ दे सकता है और उसी भाई के घर की तलाशी पुलिस ले, यह बात उसे असह्य हो जाती है। क्योंकि इसमें कुल का अपमान है। इस अपमान से, इस कलंक से कुल को बचाने के लिए वह स्वयं महाजन से कर्ज ले सकता है। वही भाई जब गाय की हत्या करके भाग जाता  है, तो वह अपनी खेती की की उपेक्षा करके उसकी खेती कर देता है ,जिसमे लोग यह ना कहे कि अनाथा भावल की सहायता उसने न की।आजकल समाज का कैसा यथार्थ चित्र है। यह चित्र ही होरी है। होरी वर्ग है, व्यक्ति नहीं । आज भारतीय समाज मे झूठ बोला, फरेब करना, ठगना, बुरा नही समझा जाता। होरी भी नहीं समझता। भाई-भाई में भयंकर झगड़ा हो, कोई चिंता नही, भाई का खून भी भाई कर सकता है। उसकी सम्पत्ति भी हजम कर सकता है, पर जब तक वह बालक है तब तक उसका पालन करना ही होगा, नहीं तो समाज निन्दा करेगा। समाजिक व्यवहार धूमधाम से होना ही चाहिए। इसी में कुल की मर्यादा है।व्यक्तिगत आचरण कैसा भी घृणित क्यों न हो बुरा या पाप नहीं समझा जाता। पैतृक परिवार की कल्पना अभी काम कर रही है, व्यक्तिगत सद्गुणों का लोप हो गया है सामाजिक सदाचार विकृत रूप में जीवित है,व्यक्तिगत सदाचार बिल्कुल लोप हो गया है। होरी में इसका चित्र  खींचा गया है। शायद प्रेमचंद का यह उद्देश्य न हो,पर वह तो वर्ग को ही देखते थे तथा समझते थे। होरी एक ऐसा ही पात्र है। उसमें और भी विशेषताएँ हैं पर वे भी उसके व्यक्तित्व में प्रस्फुटित नहीं होती। होरी व्यक्ति हमारे सामने उपस्थित नहीं होता वह  उपस्थित होता है  होरी का लड़का गोबरा शुरू शुरू मे एक व्यक्ति सा मालूम होता है सही, पर अंत में वह भी  वर्ग में लुप्त  हो जाता है। पाठक उसके गरीब-अजान, शोषित और अभिमानि वर्ग को देखते हैं और उसके लिए संवेदना का अनुभव भी करते हैं।
मातादीन ब्राह्मण पुत्र है ,उसको प्रेम एक चमारिन से हो गया है। यह बात सारा गाँव जानता है। पर मातादीन के पास पैसा है, वह सुबह स्नान और संध्या पूजा करता है चमारिन को  वह घर मे नहीं, अलग रखता है। उसके हाथ का खाता भी नहीं । अतः वह समाज एक प्रतिष्ठित व्यक्ति है, उसका कोई कुछ नही बिगाड़ सकता है । प्रेमचंद के शब्दों मे -"धर्म है हमारा भोजन,भोजन पवित्र रहे, फिर हमारे धर्म पर कोई आँच नहीं आ नहीं सकती। रोटियों हमारी ढाल बनकर अधर्म से हमारा रक्षा करती है। ऐसे धर्म के मूल में कुठाराघात करके सदाचार मूलक  धर्म की पुनः स्थापना करना प्रेमचंद का लक्ष्य है । प्रेमचंद सुधारक अवश्य हैं और उसके साथ-साथ भारतीय संस्कृति के पूर्ण भक्त भी हैं। उनके सुधार का अर्थ पश्चिम का अन्धानुकरण नहीं है। गोदान उनकी अंतिम कृति है यह उपन्यास लिखते समय प्रेमचंदजी पाश्चात्य साम्यवाद का भी अध्ययन कर चुके हैं, जिसकी झलक इस ग्रंथ में सर्वत्र दिखलाई पड़ती है। फिर भी वे  उनका अनुकरण नही कर रहे हैं। कहीं अपने पात्रों के मुख से उसका टीका भी करवाते हैं। यही बात स्त्री - शिक्षा और पारिवारिक -वैवाहिक जीवन के संबंध में भी है। सर्वत्र उनका आदर्श भारतीया संस्कृति है। पश्चिम का अनुकरण नहीं ।स्त्रियों के पुरुषों के समान अधिकार पाने के दावे का उत्तर प्रेमचंद ने डॉ मेहता के मुँह से दिलवाया है ।

गोदान मे प्रेमचंद के विचार परिपक्व हुए दिखाई देते हैं। सामाजिक जीवन के प्रत्येक अंग पर इस ग्रंथ में  इन्होंने अपने दृष्टिकोण से प्रकाश डाला है। वह कोण प्रेम का नही, सेवा और त्याग का है। महात्मा गाँधी- का प्रभाव स्पष्ट दिखाई दे रहा है। साम्यवाद का औचित्य स्वीकार करते हुए भी प्रेमचंद सर्वत्र सेवा और त्याग पर जोर देते दिखाई दे रहे हैं। प्राच्य त्याग, या पाश्चात्य भोग, प्रारंभ संयम और पाश्चात्य अनियम ईश्वर पर अंधविश्वास और मानवत्व मे ईशरत्व को प्राप्त करने की लालसा त्यागमय पारिवारिक जीवन और बाप-दादों के ऋण को अस्वीकार करने की कामना,इन विचारों का सम्मिश्रण गोदान मे जगह-जगह दिखाई देता है।
प्राच्य-पाश्चात्य संघर्ष से जीवन का एक शास्त्र गोदान में क्रमश: विकसित हो रहा है, पर दुर्भाग्यवश पूर्ण विकास नही होने पाता और प्रेमचंद जी हमे मजधार में छोड़कर सहसा अंतर्ध्यान हो जाते हैं।
प्रेमचंद जी का कथा साहित्य इतना विस्तृत है कि उसमें भारतीय जीवन का कोई भी अंश नहीं छूटता। नगर और देहात के मनुष्यों के चित्रण और सभी स्थितियों के वर्णन उसमें हैं और उनके समस्त चित्रों और वर्णनों में कथा  रस का ऐसा विकास हुआ है कि पाठक तन्मय हो जाता है।
प्रेमचंद का प्रेम मानव और मानवी का स्वस्थ, निर्मल और उत्तरदायित्व पूर्ण प्रेम है ।प्रेमकी विलासाश्रयी पल-पल परिवर्तनपूर्ण लीला नहीं, उनका प्रेम आदर्श है, अपनी स्थिति में ही काव्यात्मकता प्रेमचंद में पहली साहित्यिक विशेषता है। आध्यात्मवाद को प्रेमचंद सदा संदेहवादी दृष्टि से ही देखते है और प्रेमचंद का संदेहवाद गोदान मे आकर व्यापक हो गया है और यहाँ प्रेमचंद एक साथ ही ईश्वर, धर्म, अध्यात्म, गांधीवाद तथा सभी प्रकार के सिद्धांतों पर से अपना  विश्वास उठा लेते हैं। गोदान मे आज के मानव के हृदय और मस्तिष्क की उथल-पुथल और युग की सैद्धांतिक अव्यवस्था मानो साकार हो गयी हो।डॉ मेहता प्रेमचंद के कुछ पुराने और नये सिद्धांतों को घोषित करते हैं, किन्तु ऐसा लगता है कि मानों प्रेमचंद का विश्वास उन सिद्धांतों पर भी नहीं है और कोई नए जीवन-दर्शन की खोज की छटपटाहट में हैं।
धनिकों के वैभव-विलास, मध्यम वर्ग की अल्प वेतन में सफेदपोशी की समस्या और आत्मप्रदर्शन की प्रकृति, निम्न वर्ग और अस्पृश्यों की दरिद्रता और बेकारी की समस्या और उनकी समाज में आदरणीय स्थान प्राप्त करने की चेष्टा का वर्णन प्रेमचंद जी ने जिस विस्तृत रूप से किया है वैसा बहुत कम लेखकों ने किया है।  प्रेमचंद  की सफलता का सबसे बड़ा कारण है, अपने विषय के साथ पूर्ण तादात्म्य | वे अपने विषय के तलातल मे बैठकर रत्न या घोंघे निकालने में  सफल हुए हैं या नही, किन्तु वे जब अपने विषय में एकबार बैठ जाते हैं तो वे तब तक उससे निकलने की इच्छा नहीं रखते जबतक उसके पूरे फैलाव से परिचित नही हो जाते और देखने वाला उनका कौशल शक्ति और धैर्य से मस्त नहीं हो जाता है।  उनके उपन्यासों के कथानक विधान में कुछ  ऐसी रमणीयता रहती है कि उनके वर्णन में ऐसी स्वाभाविकता और प्राणपूरक प्रवीणता रहती है कि पाठक साँस बंद करके उनके किसी भी उपन्यास को तब तक पढ़ता जाता है जब तक कि उपन्यास समाप्त नहीं हो जाता| प्रेमचंद का  का साधारणीकरण का यह असाधारण गुण मोहक है।

यह भावना का कमल कीचड़ में  ही खिलता है, जीवन-संग्राम मे ही मानव के सद् विचारों और श्रेष्ठतम वृतियों का विकास  होता है, प्रेमचंद जी के साहित्य मे जगह-जगह बिखरी हुई मिलती है। गोदान में अपकृति और कलंक गोबर के अन्तरस्थल को मथकर उसे निकाल लिया जो अब तक छिपा पड़ा था।" " उस समय वह विलास की आग में जल  रही थी। आज भक्ति की शीतल छाया ने उसे प्रश्रय दिया था।संकट में पड़‌कर उसकी सदिच्छा जाग्रत हो गई थी तथा "कलयुग में परमात्मा इसी दुःख-सागर में  निवास करता है। गोदान का होरी स्वार्थसिद्धि के लिए छल-कपट करने से नही चूकता। घर में  दो चार रुपये पड़े रहने पर ही वह महाजन के सामने झूठ  बोलता है और कसमें खाता है कि उनके पास एक पाई नहीं है।
सन का वजन बढ़ाने के लिए उसे गीला करना या रुई में बिनौले भर देना उसके बायें हाथ का खेल था।पर उसकी यह स्वार्थसिद्धि प्रेमचंद जी की नजरों में कुत्सित नहीं है।"

होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना उसने सीखा ही नही था संकट की चीज लेना  पाप है यह बात जन्म जन्मांतर से उसकी आत्मा का अंग बन गयी थी। गोबर को शहर में पहुंचकर वहाँ की हवा लग गयी है, प्रेमचंद जी उसकी गर्मी उतारने  के लिए एक विशेष घटना की रचना कर उसे लाठियों से पिटवाते हैं और वह अधमरा  हो जाता है।

आत्मोन्नति और सद्वृतियों को जागृत करने के जितने भी
उपाय हो सकते है-संभव-असम्भव,लौकिक -अलौकिक, नर्म और कठोर, भौंडे-सुंदर सभी का प्रेमचंद जी सहारा लेते हैं और यह विशेषता है कि उसे पूरी निर्ममता के साथ खराद  पर चढ़ाकर  देखते हैं। उदाहरण के लिए राय साहब उस वर्ग के प्रतिनिधि है जो अपनी समाजिक उपयोगिता खो चुका है। खुद उन्हीं के शब्दों में - " हम जौ जौ और अंगुल-अंगुल और पोर-पोर भस्म हो रहे हैं। इस हाहाकार से बचने के लिए हम पुलिस की, हुक्काम की, अदालत की, वकीलों की शरण लेते हैं।" लेकिन राय साहब की असज्जनता में दुर्जनता की चेरी बन जाती है।

वे एक ऐसे सिंह का रूप धारण कर लेते हैं, जो गरजने गुर्राने के  बजाय मीठी बोली बोलकर आपना शिकार करता है। होरी भी तिल-तिल करके गलना तो पसन्द  करता है ,लेकिन अपनी मरजाद को बचाना चाहता है। अपनी उन सद्वृतियों की रक्षा करना चाहता है  जिसे उन्होंने जन्म जन्मांतर से पाला है। लेकिन होता क्या है ये सद्वृतियाँ उनका तिल तिल के गलना नहीं रोकतीं, बल्कि उल्टे इसमें सहायक होती हैं जिनकी सद्वृतियों  को अपने जीवन का आधार बनाना चाहता है।वे ही उसे ले डूबती है।

प्रेमचंद के सभी-पात्र, बिना अपवाद के हारी हुई लड़ाई लड़ते है ।ऐसे आदर्शों की  रक्षा करने की लड़ाई लड़ते है जो उन्हें हार की ओर ले जाते है, निराशा के अंधकार को दूर करने मे बजाय उसे घना करते हैं। उनकी मन:स्थिति करीब -करीब वैसा ही रूप धारण  कर लेती है जैसे कि गोदान की  एक स्त्री-पात्र ने किया था-" वह उस समय उस मनुष्य के सदृश थी जो अपने झोपड़े मे आग लग जाने के कारण इसलिए प्रसन्न होती है कि कुछ देर के लिए वह अंधकार से मुक्त हो जाएगी। उस गहन निराशा के बारे में खुद प्रेमचंदजी भी अपने पात्र मेहता के कहलवाते है -"उनकी आत्मा जैसे चारो ओर से निराश होकर अब अपने ही अंदर  टाँगे तोड़कर बैठ गयी है। यह निराशा प्रेमचंद जी के पात्रों को सर्वथा निरीह और दीन-दुनिया से बेखबर  बना देती है। - " देश मे कुछ भी हो क्राँति ही क्यों न आ जाए उनसे कोई मतलब नहीं है।
कोई दल उनके सामने सबल रूप में आए, उनके सामने झुकाने को तैयार। उनकी निरीहता जड़ता के हद तक पहुँच गयी है जिसे कोई कठोर आघात ही कर्मण्य बना सकता है । स्वयं प्रेमचंद जी के शब्दों में -मानव चरित्र न बिल्कुल श्यामलहोता है बिल्कुल श्वेत।उनमें दोनों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। अनुकुल स्थितियों में जो मनुष्य ऋषितुल्य होता है प्रतिकूल स्थितियों मे नही नराधम का जाता है। - वह अपनी परिस्थितियों काखिलौना भाग है। प्रेमचंद जी का समूचा साहित्य अगर कुछ सिद्ध करता है तो तो यही कि सज्जनता या दुर्जनता का निवास व्यक्ति की किन्हीं जन्मजात विशेषताओं पर नहीं, परिस्थितियों पर निर्भर करता है। जो चीज वे नहीं दिखा पाते कि वह यह कि व्यक्ति परिस्थितियों को बदल भी सकता है परिणाम इसका हमारे सामने है। उनके सभी पात्र हारी हुई लड़ाई लड़ते हैं।
अंधकार को दूर करने के स्थान पर उसे और  गहरा बनाते हैं।

गोदान के अंत में गोबर  गाँव पहुंचता है तो न अपने पिता होरी को ही बल्कि समूचे गाँव समान विपदा मे फँसा देखता है। ऐसा मालूम होता है मानो उनके पापों की जगह वेदना बैठी हुई है। उन्हे कठपुतलियो की भाँति नचा रही है ।होरी का रोम रोम गांव की समूची वेदना को बटोरकर अंत में पुकार उठती है -भाइयों!मैं दया का पात्र हूँ लेकिन होरी के जीवन की यह घनीभूत वेदना दया का ,आँसुओं का संवेदनशीलता संचार नहीं करती।यह वेदना ऐसी है जो आँसुओं को सूखा देती है और हृदय में क्रोध का संचार करती है।गोबर के स्वर में स्वर मिलाकर उसकी आवाज को और भी बल प्रदान करते हुए कहने को जी चाहता है
  " होरी, औरों  की तरह अगर तुमने भी गला दबाया होता तो तुम भी भले आदमी होते । तुमने कभी नीति को नहीं छोड़ा। यह उसी का दंड है तुम्हारी जगह मैं होता तो या तो जेल मे होता या फाँसी पर चढ़ गया होता | लेकिन यह क्रोध भी जो आग बनकर फूट पड़ने को बेचैन हो उठता है, उतना  ही अंधा है जितना कि अंधा होरी का विश्वास- यह विश्वास कि वह नीति का पालन कर सकता है यह कि नीति का पालन करके भी वह जीवित रह सकता है। होरी का अंत उसके इसी विश्वास का अंत है। प्रेमचंद जी के शब्दों में-उसका  सारा विश्वास जो अगाध होकर स्थूल और अंधा हो गया था , मानो टूक टूक हो गया है। वह क्या चीज है जिसने होरी के इस विश्वास को खंडित किया? क्या पुलिस और हुक्काम ? जमीदार के जोर जुलुम?और कर्ज की शैतानी आल आल में इतनी शक्ति है कि वह किसी के विश्वास को चूर चूर कर दे ? दमन और मुसीबतें शरीर को चूर चूर कर सकती हैं,उनके चोटें खाकर प्राण पखेरू उड़ सकते हैं,लेकिन शरीर का चूर चूर होना प्राण पखेरू का उड़ जाना विश्वास का अंत नहीं है,जीवन का भी वह अंत नहीं है तब फिर वह क्या चीज है जो होरी के विश्वास को, सत्य और नीति के उसके बल को, मिट्टी में मिलाती है। प्रेमचंद जी का एक पात्र एक स्थान  पर कहता है- " डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूंगा हो जाता है। वही सिमेंट जो ईंट पर चढ़कर पक्का हो जाता है मिट्टी पर चढ़ा दिया जाय तो मिट्टी हो जाता है। गोदान मे सत्य के इस बल के अनेक रूप दिखाई पड़ते है होरी मे जो सत्य का बल है वह निश्चय ही सत्य के उस बल से कहीं  उज्ज्वल है जो रायसाहब में, मेहता में और दातादीन में- एक शब्द में यह कि जो पीड़क वर्ग के लोगों में  पाया जाता है।सिलिया और धर्म के रूप में पुरुखो की कमाई से वंचित हो जाने के बाद मातादीन भी होरी रूपी इसी वट वृक्ष के नीचे शरण पाते हैं। होरी के रूप मे प्रेमचंद जी का किसान के एक ऐसे जीवन से लगाव है"जिसे वह प्रकृति के साथ स्थायी सहयोग कहते हैं और  जिसमें उन्हीं के अनुसार कुत्सित स्वार्थ के लिए कोई स्थान नहीं होता।

सिलिया किसी ब्राम्हण की नही, बल्कि धर्म के एक ऐसे रूप के मेल मे प्यासी बनकर पड़ती है जो जजमानों को जमींदारी समझता है। पूरा बंक घर खुद दातादीन के शब्दों में -" जमीदारी मिट जाय, बँक घर टूट जाय, जजमानी तब तक बनी रहेगी, जब तक हिन्दू जाति रहेगी, तब तक ब्राह्मण की भी रहेंगे और यजमान भी। होरीके रूप में प्रेमचंद जी का लगाव एक ऐसी बिरादरी और समाज से हो जाता है कि जो समय की थपेड़ो की बात न लाकर छिन्न-भिन्न हो रही थी। उस विरादरी से अलग वह होरी की कल्पना नही कर पाते, शादी ब्याह, मुण्डन छेदन, जन्म-मरण सब विरादरी के हाथ में था। विरादरी उसके जीवन में वृक्ष की भाँति जड़ जमाए थी। उसकी नसें उसके रोम-रोम में बिधी हुई थी। भाग्य की अमिट लकीर की भाँति छिन्न-भिन्न हो रही विरादरी या समाज के साथ यह लगाव प्रेमचंद जी को गाँव के उन बड़े-बूढ़ के निकट ले जाता है, जिनके  लिए - अतीत के सुखों और वर्तमान के दुःखो तथा भविष्य के सर्वनाश से अधिक मनोरंजक विषय और कोई नहीं होता।

        डा० मेहता के बनैले रूप का परिचय उस समय मिलता है, जब वह राय साहब की महफिल में अपनी प्रेमिका को सम्मोहित और उसकी रूप ज्वाला वाले उसके आशिकों को आतंकित करने के लिए सरहदी खानों के सरदार का रूप धर कर आते हैं और अपनी प्रेमिका को संबोधित कर कहते हैं-" तुम हमारे साथ चलेगा दिलदार"- प्रेमिका का नाम है मालती जो अपने लोचन कटाक्ष से सबको उल्लू बनाने की कला में दक्ष है। इसी महफिल में वह खुद भी शाकाहारी ओंकारनाथ को शराब पिलाने के बाद खुशी से उछलने लगती है - "तोड़ दिया नमक कानून तोड़ दिया, नेम का घड़ा फोड़ दिया, धर्म का किला तोड़ दिया। प्रेमचंद जी के उपन्यासों की तुलना अगर हम चाहें तो उन पुराने इमारतों से कर सकते हैं। इनके प्रवेश द्वार के उपर एक भूलभुलैया भी रहती है।
जिनमे तहखानों, बाग-बगीचे और स्नान करने तालाबों की ओर खुलने वाले चोर दरबाजों की राह होती है। प्रेमचंद, जी की कल्पना और उनकी रचनाशैली मानो पुराने इमारतों की इसी परंपरा की संतान है। वह आसपास की चीजों को
बटोरते और उनसे भला-बुरा नाता जोड़ते चलते हैं, राह में योगी मिलता है सभी से वे राम-राम करते है। घर-गृहस्थी, खेत-खलिहान की बातें पूछते हैं। प्रेमचंद जी की तरह एक लम्बी परंपरा  से सीधी जुड़ी हुई है। अंग्रेजी मदरसे के विद्यार्थी की भाँति उनकी जड़े उतनी नहीं हिलीं कि उनका होकर रह जाये। प्रेम चंद जी में भारतेंदु काल की उस परम्परा का भी बड़ा हुआ रूप दिखाई देता है, जिसके बारे में एक ठंडी साँस लेते हुए  आचार्य रामचन्द्र भुक्ल ने कहा था सबसे बड़ी बात स्मरण रखने की यह है कि उन पुराने लेखकों के हृदय का मार्मिक सम्बन्ध भारतीय जीवन के विविध रूप के साथ बना था। भिन्न भिन्न ऋतुओं में पड़ने वाले त्यौहार उनके मन में उमंग उठाते थे ।परंपरा से चले आते हुए आमोद प्रमोद के मेले उनमें कुतूहल जगाते और प्रफुल्लता रहते आजकल का जीवन सामान्य जीवन से भिन्न न था। विदेश ने उनकी आँखों में इतनी धूल नहीं झोंकी थी कि अपने देश का रंग -रूप उन्हें सुझाई न पड़ता।
प्रेमचंद जी की कल्पना का फैलाव, सच पूछा जाय तो भारतीय जीवन का औघड़‌पन है। उनकी कल्पना होरी और धनिया जैसी पात्रों की रचना करने के साथ-साथ बनारस से पाँच मील दूर लमही गाँव से लेकर तिब्बत की बर्फ आच्छादित चोटियों, खोहों और गुफाओं की सैर करती है।
राकेट विमान के सहारे चन्द्रलोक की यात्रा करने का काम करती है जादू की चौकी पर लेटकर पूर्व जन्म का हाल-चाल जानती है, योग और तंत्रों के सहारे उस जवानी को लौटा लाती है, जिसके बारे में प्रसिद्ध है कि एक बार जाकर वह कभी नहीं लौटती, उस बुढ़ापे को थका बताती है जो महाजन के कर्ज की भाँति एक बार सिर पर चढ़ने के बाद फिर कभी पिण्ड नही छोड़ता।
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