Thursday, February 16, 2023

आस्था और विज्ञान में विवेकसम्मत समन्वय जरूरी (आलेख)



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आस्था और विज्ञान में विवेकसम्मत समन्वय जरूरी 

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मेरी समझ से आस्था और विज्ञान इन दोनों से बड़ा विवेक सम्मत ज्ञान होता है।यह निरंतर बदलाव में संचरित होकर नित नूतन तेवर और कलेवर के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहता है यानी ज्ञान एक प्रगतिशील प्रक्रिया है।ज्ञान जब विनम्रता से जुड़ता है,तो भाव के तंतु कोमल हो जाते हैं,लेकिन ज्ञान जब विज्ञान से जुड़ता है तो वह जड़ ठोस और शुष्कता को प्राप्त कर लेता है।आस्था अंधभक्ति नहीं होती,इसमें आत्मीयता का मूलाधार होता है।माँ को कोई भी जानने से ज्यादा मानने में विश्वास करता है।माँ जिसे पिता बताती है,बच्चा उसे अपना बाप मान लेता है,लेकिन जब  किसी माँ को अपने बच्चे के लिए पिता की जरूरत होती है और कोई पिता होने से इनकार करता है, तो विज्ञान उसका डीएनए टेस्ट द्वारा दूध का दूध पानी का पानी कर देता है।बच्चे को उसका हक़ मिल जाता है।
मनुष्य के लिए कोमलता और कठोरता दोनों आवश्यक है।बस आस्था में भय का स्थान नहीं होना चाहिए,इसमें  प्रेम और विश्वास को प्रमुखता से जोड़ा जाना चाहिए।विज्ञान भय मुक्त करता है,लेकिन मनुष्यद्रोही आचरण इसे भयानक रूप में प्रयोग कर रहा है।जिसके कारण दुनिया विध्वंस के कगार पर खड़ी है यानी ज्ञान को संस्कारित न किया जाए तो विध्वंसक रूप ले लेता है।इसका ताज़ा उदाहरण रूस और यूक्रेन युद्ध है।
आस्था और तर्क मनुष्यों के लिए ही है।विवेक सम्मत ज्ञान ही विश्व कल्याण कर सकता है।विनम्रता से प्राप्त ज्ञान कल्याणकारी होता है।आस्था से अंतर्मन विशुद्ध होता है,वही विज्ञान से भौतिक उत्थान।इसीलिए मनुष्य को आस्थावान वैज्ञानिक होना चाहिए,जिससे उसका सम्पूर्ण विकास हो।आस्था धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , स्वच्छता , इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ( अक्रोध )  के धर्म तन्तुओं से निर्मित भाव है जो मनुष्य के उदात्त रूप को परिलक्षित करता है।विज्ञान मनुष्य को मंगलग्रह और चाँद पर तो पहुँचा दिया,लेकिन वह मनुष्य को मनुष्य के दिल तक पहुँचाने में सफल नहीं हो सका है,लेकिन ये दोनों ही मनुष्य की अपार शक्ति के स्रोत हैं। विज्ञान जहाँ मनुष्य को समस्त भौतिक सुखों की प्राप्ति कराता है, वहीं धर्म तन्तुओं पर आधारित आस्था से मनुष्य में आध्यात्मिक शक्ति आती है।विवेक सम्मत ज्ञान इन दोनों को नियंत्रित करता है।आस्था और विज्ञान के बारे में यहीं सही मार्ग है कि मनुष्य मनुष्यता के लिए कोमल भाव रखे, मगर दानवी प्रवृत्तियों के लिए कठोर व्यवहार रखे।
जीवन का यही असली आध्यात्मिक विज्ञान है। 

जहाँ एक ओर विज्ञान ने पूर्वाग्रहरहित सत्यान्वेषण की वैज्ञानिक पद्धति देकर दुनिया की सेवा की है, वही वह अपनी सीमाओं का भी अतिक्रमण कर बैठा है। इससे उपजे प्रत्यक्षवाद ने शुरुआत में ही जोर-शोर से यह कहना शुरू कर दिया था कि जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है, जो प्रत्यक्ष नहीं उसका कोई अस्तित्व नहीं। चूँकि चेतना का (आत्मा का) प्रत्यक्ष प्रमाण उसे अपनी प्रयोगशाला में नहीं मिला, अतः इसके अस्तित्व को ही नकार दिया गया। इस तरह मनुष्य एक चलता-फिरता पेड़-पौधा भर बनकर रह गया। यह प्रकारान्तर से भोगवाद एवं संकीर्ण स्वार्थ वृत्ति ही का प्रतिपादन हुआ। साथ ही इससे प्रेम, त्याग, सेवा, संयम, परोपकार, नीति, मर्यादा जैसी मानवीय गरिमा की पोषक धार्मिक मान्यताएँ सर्वथा खंडित होती चली गई। 

इसके अलावा इस विज्ञान से उपजे भोगवादी दर्शन ने साधनों के सदुपयोग करने की जगह दुरुपयोग ही सिखलाया। संकीर्ण स्वार्थों की अंधी दौड़ में प्रकृति का दोहन इस कदर हुआ कि प्रकृति भी भूकंप, बाढ़, दुर्भिक्ष, अकाल आदि के रूप में अपना विनाश-तांडव करने के लिए मजबूर हो गई। यही वजह है कि आज प्राकृतिक संतुलन पूर्णतः डगमगा गया है। वायुमंडल में कार्बन डाइ ऑक्साइड का बढ़ना, तापमान के बढ़ने से हिमखंडों का पिघलना, प्रदूषण, तेजाबी वर्षा, परमाणु विकिरण जैसे सर्वनाशी संकट मानवीय अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा हुए है। 

आज विज्ञान का आधुनिक चेहरा जिन लोगों के बगैर पहचाना नहीं जा सकता, उनमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण नाम मैक्स प्लांक का है। वैसे तो आधुनिक भौतिकी को बहुत कुछ दिया, पर उनकी सबसे महत्वपूर्ण देन है क्वांटम सिद्धांत। परमाणु और उप-परमाणु जगत के प्रति हमारी समझ के विकास में इस सिद्धांत का क्रांतिकारी योगदान है। साथ ही, ईश्वर की सत्ता के प्रति भी प्लांक उतने ही आस्थावान और उदारचेता थे। 

जर्मन वैज्ञानिक प्लांक ने वर्ष 1937 में एक व्याख्यान दिया था। धर्म और प्राकृतिक शक्तियां विषय पर दिए गए इस व्याख्यान में उन्होंने वैज्ञानिक तर्कों से यह साबित करने की कोशिश की थी कि ईश्वर हर जगह उपस्थित है। सर्वव्याप्त होने के बावजूद हमारे हर तरह के बोध से परे मौजूद उस सत्ता की पवित्रता का आभास प्रतीकों की पवित्रता के माध्यम से ही किया जा सकता है। प्लांक अपने धर्म के समर्पित साधक होने के बावजूद दूसरे धर्मो की मान्यताओं के प्रति भी उदारचेता थे। वे 1920 में चर्च के वार्डन बने और 1947 तक यहां सेवा करते रहे। उनके मुताबिक धर्म और विज्ञान दोनों ही संशयवाद, हठधर्मिता, अनास्था और अंधविश्वास के विरुद्ध अंतहीन युद्ध में लगे हुए हैं और यही वह मार्ग है जो परमात्मा की ओर जाता है। 

इतना ही नहीं लार्ड केल्विन 19 वीं सदी के महान वैज्ञानिकों में गिने जाते हैं। वे एक धर्मनिष्ठ ईसाई थे, जिन्होंने अपने धर्म और विज्ञान में सामंजस्य बिठाने का तरीका ढूंढा लेकिन इसके लिए उन्हें डार्विन सहित अपने ज़माने के वैज्ञानिकों से संघर्ष करना पड़ा। 

उस वक़्त के इस संघर्ष की गूंज मौजूदा दौर में विज्ञान और धर्म की बहस में भी सुनाई देती हैं।
केल्विन पैमाने के अलावा यांत्रिक यानी मैकनिकल ऊर्जा और गणित के क्षेत्र में उनका शोध यूरोप और अमरीका को जोड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाली ट्रांस अटलांटिक केबल को बिछाने में अहम साबित हुआ है। वे ब्रिटेन के पहले वैज्ञानिक थे जिन्हें हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में जगह मिली. उनका हमेशा ये विश्वास रहा कि उनकी आस्था से उन्हें बल मिला है और उनके वैज्ञानिक शोध को प्रेरणा मिली है। 

अमरीका के टेक्सास की राइस यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर एलीन एक्लंड ने साल 2005 में अमरीका के आला विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों में सर्वे किया, उन्होंने पाया कि 48% लोगों की धार्मिक आस्था थी और 75% लोग मानते थे कि धर्म से महत्त्वपूर्ण सच का पता चलता है।
वो कहती हैं, "ये कहना ग़लत होगा कि आज उन वैज्ञानिकों की संख्या ज़्यादा है जो ईसाई हैं। लेकिन निश्चित रूप से ऐसे वैज्ञानिक हैं, जो अपने वैज्ञानिक काम को अपनी आस्था से जुड़ा हुआ मानते हैं।" 

ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर जॉन लेनक्स ने साल 2010 में लिखे एक लेख में हॉकिंग के तर्कों का विरोध किया। लेनक्स ने कहा, "हॉकिंग के तर्कों के पीछे जो वजह है वो इस विचार में है कि विज्ञान और धर्म में एक संघर्ष है लेकिन मैं इस अनबन को नहीं मानता।"! 

कुछ साल पहले वैज्ञानिक जोसेफ़ नीडहैम ने चीन में तकनीकी विकास को लेकर अध्ययन किया। वो ये जानना चाहते थे कि आखिर क्यों शुरुआती खोजों के बावजूद चीन विज्ञान की प्रगति में यूरोप से पिछड़ गया।
वो अनिच्छापूर्वक इस नतीजे पर पहुंचे कि "यूरोप में विज्ञान एक तार्किक रचनात्मक ताकत, जिसे भगवान कहते हैं, मैं भरोसे की वजह से आगे बढ़ा, जिससे सभी वैज्ञानिक नियम समझने लायक बन गए." 

बहाई धर्म सिखाता है कि विज्ञान और धर्म के बीच एक सामंजस्य या एकता है ,और यह भी कि सच्चा विज्ञान और सच्चा धर्म कभी संघर्ष नहीं कर सकता। यह सिद्धांत बहाई धर्मग्रंथों के विभिन्न कथनों में निहित है । 

अंततः कहा जा सकता है कि आस्था और विज्ञान इन दोनों का उद्देश्य जब मानव कल्याण ही है,तो कुछ विसंगतियों को दरकिनार कर विवेकसम्मत ज्ञान से दोनों के समन्वय से कल्याणकारी गतिविधियों को संचालित करते रहने में लाभ ही लाभ है। 

                                         ●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह

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