वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीत समर्पित है।
याचना के मूल में,रहती हृदय की वेदना।
बिन समर्पण भाव के,होती नहीं है प्रार्थना।
अश्रु की समिधा चढ़ाओ,भाव की ज्वाला जला।
रख हृदय में इष्ट को बस,पूजने का सिलसिला।
दर्द में भी माँग लो,संयम की सुरभित चेतना।।
बिन समर्पण भाव के,होती नहीं है प्रार्थना।
तन समर्पित,मन समर्पित,समर्पित जीवन करो।
तुम अकिंचन भाव से,परिपूर्ण अपना मन करो।
अज्ञ बन,सर्वज्ञ पर,उत्सर्ग कर संवेदना।
बिन समर्पण भाव के,होती नहीं है प्रार्थना।
आत्मलय के ताल पर,गर झूम सको तो झूम लो।
अलौकिक उस चेतना के,लोक में कुछ घूम लो।
मुक्ति की तप साधना में,कर पिता से सामना।।
बिन समर्पण भाव के होती नहीं है प्रार्थना।
कामनाओं से निकल,प्रज्ञान को अनुभूत कर।
नेति नेति स्वरूप से,जीवन की धारा पूत कर।
बह सके करुणा हृदय में,कर ले सागर सर्जना।।
बिन समर्पण भाव के,होती नहीं है प्रार्थना।
धूप हो, नैवेद्य हो या दीप सारे व्यर्थ हैं।
बिन समर्पण भाव,सारी साधना असमर्थ हैं।
ज्यों धुँए के बादलों में,है छिपी जल वंचना।।
बिन समर्पण भाव के,होती नहीं है प्रार्थना।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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