गीतिका मनोज की....
वन्दे भारतमातरम्! आज एक असहिष्णु रचना मित्रों को समर्पित।
लोकतंत्र कैसे जिन्दा है बात ,हमें मालूम है।
भौंक रहे हर कुत्ते की औकात ,हमें मालूम है।
भरत,राम की संतानें हम,त्याग सदा करते आये,
मातृभूमि को क्या देनी सौगात ,हमें मालूम है।
बैसाखी पर चलने वाले,इतना मत इतराओ तुम,
कुंठाओं से ग्रस्त तेरे जज्बात,हमें मालूम है।
शेरों को बिकते देखा क्या?,बिकते हैं बकरे,पड़वे,
बिकने वाली हर नस्लों की जात,हमें मालूम है।
आस्तीन के सांपों से ,उम्मीद नहीं रखते अब हम,
मीरजाफर,जयचंदों की हर घात ,हमें मालूम है।
(सन्दर्भ-भरत जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा।)
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।
दिखा सके न जो,...हकीक़त क्या है।
ऐसे आईनों की,.....जरूरत क्या है।
खुद खड़ी हो अदालत,..जब कटघरे में,
अब किससे कहें,..मेरी शिकायत क्या है।
कैसे कैसे बैठे हैं,.....इन कुर्सियों पर,
जिन्हें मालूम नहीं,..सही-गलत क्या है।
जिसके दिल मे महज,...नफरत ही बैठी,
कौन बताए उसे ......कि मुहब्बत क्या है।
वतन जो बाँटने को,.........तैयार बैठे हैं,
उन्हें पता ही नहीं,..मायने शहादत क्या है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!पेंशन विहीन नवोदयकर्मियों की व्यथा-कथा मेरी इस गीतिका में प्रस्तुत है।
पेंशन की टेंशन में कितने चले गए।
खून-पसीना देकर भी हम छले गए।
इस जीवन की विथा-कथा अब कौन सुने,
निशदिन दंड कड़ाही में हम तले गए।
संडे,होली,दिवाली सब भूल गए,
वक्त के हाथों कान हमारे मले गए।
जिसने आँख उठाई कुर्सी के आगे,
एक एक कर सभी सिपाही दले गए।
कुछ तो हैं जो लूट-छूट के हक़ पाए,
शिशुपालन के हिस्से जिनके गले गए।
हम कोल्हू के बैल सरीखे नधे पड़े,
ढलकर देखा, ढलते,ढलते ढले गए।
आँख हमारी,नींद व्यवस्था के हाथों,
जहाँ बुलाए, डगमग पग से चले गए।
क्या होगा भवितव्य,बिना पेन्शन यारों
भय की ओखल में,निशदिन हम खले गए।
भूल गए घर बार,व्यवस्था में डुबकर,
जो अपने थे,छोड़ हमें वो चले गए।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक युगबोध 'गीतिका' के रूप में सादर समर्पित है।
कमा गया कोई।
खा गया कोई।
गलती किसी की,
पा गया कोई।
चाहा किसी को,
भा गया कोई।
बुलाया किसी को,
आ गया कोई।
दुश्मन थी आग,
जला गया कोई।
दर्द भरा गीत मिरा,
गा गया कोई।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्देमातरम मित्रो!आज एक गीतिका हाजिर है .....आपका स्नेह अपेक्षित है ------
जबसे तुम मशहूर हो गए ।
अहंकार में चूर हो गए।
दिल में रहकर भी अब मेरे ,
मुझसे कितनी दूर हो गए ।
रंग बदलते मौसम हो तुम,
या गिरगिट भरपूर हो गए ।
बाजारों के दौर में रिश्ते ,
जाने कितने क्रूर हो गए।
जनमत की अंधी आँधी में ,
सारे चोर हुजूर हो गए ।
सच कहना मुश्किल है यारो,
फिर भी हम मजबूर हो गए।
आज अंधेरों की महफ़िल में,
शब्द हमारे नूर हो गए।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!मेरी इस 'गीतिका' पर आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है-
वामपंथी पिशाचिनी।
पाप की अनुगामिनी।
पूर्ण पातुर सदा आतुर,
काम की बस कामिनी।
आधुनिका ताड़काएं,
देह रस की स्वामिनी।
सद्चरित पर दाग काली,
असुरता की यामिनी।
परकीया पति घातिनी ये,
रोग में ज्यों वामिनी।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्! मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।
जहाँ सब कुछ उसी का,अपना दावा कुछ नहीं होता।
मुहब्बत में,समर्पण के अलावा कुछ नहीं होता।
भले दुनिया के आगे,आवरण कुछ ओढ़ ले इंसां,
जो अपने हैं ,तो अपनों से,छिपावा कुछ नहीं होता।
जो जितना है सहज,अपनत्व के पाँवों से चलता है,
दिलों तक खुद पहुँचता है,बुलावा कुछ नहीं होता।
फ़कीरी इश्क़ में,सब कुछ लुटा बेफिक्र रहती है,
यहाँ खोने का पछतावा या दावा कुछ नहीं होता।
ये बस्ती दिल की बस्ती है, जहाँ पर चाहकर के भी,
किसी भी हाल में,झूठा दिखावा कुछ नहीं होता।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।
चलो, चलते हैं,जहाँ खामुशी है।
खुशी गम से,परे भी जिंदगी है।
अपनी प्रशस्ति की ,दुनिया दीवानी,
ये कैसी ,आत्मघाती बेबसी है।
वहाँ भगवान है निश्चित, जहाँ पर,
मुफ़लिसी में भी,अधरों पर हँसी है।
जो भी आया है,उसको जाना है,
श्वास तो ,जिंदगी की हाजिरी है।
बता,गंगा बहे उस दिल में कैसे,
जिसमें नफ़रत की, बस ज्वालामुखी है।
मैं तो बस दर्द की, कहता कहानी,
तुम्हें लगता है,ये भी शायरी है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!
अर्बन नक्सल शील कथाएँ भेजूँ क्या?
जाति-धर्म की अग्नि हवाएँ भेजूं क्या?
राम राष्ट्र को भ्रष्ट कराने की खातिर,
राजनीति की सुर्पनखाएँ भेजूँ क्या?
सत्ता से बोलो ,कब तक मैं दूर रहूँ,
दिल की अपनी विरह-व्यथाएँ भेजूँ क्या?
सत्तर वर्षी लाईलाज है मर्ज जहाँ,
समझ न आता उन्हें दवाएँ भेजूँ क्या?
दो हजार उन्नीस के तुम सरताज बनो,
मज़हब वाली 'पाक'दुआएँ भेजूँ क्या?
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका प्रस्तुत है।आपकी बहुमूल्य टिप्पणी सादर अपेक्षित है।
जिनसे न व्यवहार मिलेंगे।
कैसे दिल के तार मिलेंगे।
थोड़ा अहं मिटाकर देखो,
सब तेरे अनुसार मिलेंगे।
सुख के साथी पड़े हजारों,
दुख में बस दो-चार मिलेंगे।
प्रेम धार के आगे जग में,
कुंद सभी हथियार मिलेंगे।
दूध पिला दो चाहें जितना,
साँपों से फुफकार मिलेंगे।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।
इस तरह हम क्या बताएँ और क्या है।
जिंदगी ये ग़म खुशी की लघुकथा है।
प्यार के शृंगार से निशदिन संवर ले,
वगरना ये जिंदगी बिल्कुल वृथा है।
ऐसे ही जिंदा नहीं सदियों से इंसां,
बल पे अपने आग से लड़कर खड़ा है।
छाँव हो या फल शज़र देता नहीं जो,
बड़ा होकर भी कहो कितना बड़ा है।
बूंद-जल नदियों से बहकर जा मिला जब,
प्यार का स्पर्श पा सागर हुआ है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम् !मित्रो!एक गीतिका प्रस्तुत है-
सच पाने की खातिर सच ही बोना होता है।
कूड़े में रहकर भी सोना,सोना होता है।
जंग लगे न जीवन के पावनतम लौह उसूलों पर,
वक़्त वक़्त पर सदाचरण से धोना होता है।
जो जागृति का गीत रचेगा,वो कैसे सो पायेगा,
कुछ पाने की इच्छा में कुछ खोना होता है।
चख कर देख लिया करना तू दिल के कोटर में रखा,
स्वाद प्यार का कुछ मधुरिम कुछ लोना होता है।
घर वो घर तब ही होता जब,बड़े बुजुर्गों के संग संग,
बच्चों की खातिर भी घर में कोना होता है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।
दिलों के दरमियां इक पुल बनाकर देखो।
जुबां का काम निगाहों से निभाकर देखो।
दर्द कितना भी बड़ा होगा यूँ मिट जाएगा,
रोते रोते तू जरा,खुद को हँसाकर देखो।
गुलों की हैसियत बढ़ जाएगी गुलिस्तां में,
हवा के हाथ में खुशबू को थमाकर देखो।
सतह पर तैरकर मत नापिये समंदर को,
उसकी गहराइयों में खुद को डुबाकर देखो।
तेरा झुकना किसी की जिंदगी बदल देगा,
गिरे इंसान को झुककर तो उठाकर देखो।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका हाज़िर है।
जाति मजहब की सियासी इस सदी में।
आदमी अब बंट गया है फीसदी में।
सूख चुकीं उज्ज्वल धवल सब पुण्य सलिला,
जबसे ये तब्दील नाले हैं नदी में।
कौन घाटा अब सहे इन नेकियों का,
कामना जब पूर्ण हो जाती बदी में।
देखिए कैसी कॉमेडी जिंदगी की,
हँस रही है दर्द सह कर त्रासदी में।
मुल्क ये बदहाल केवल इसलिए है,
फंस गया है सियासत की बेख़ुदी में।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।
जाल बुनतीं जब भी शक की मकड़ियाँ।
बंद कर देती हैं दिल की खिड़कियाँ।
चाट जातीं अक्ल की घासें हरी,
स्वार्थ की अंधी निकम्मी बकरियाँ।
आग की बारिश कराकर,..साजिशें
दे रहीं कागज की सबको छतरियाँ।
सत्य इंगित अंगुलियाँ खतरे में हैं,
हर दिशा से मिल रही हैं धमकियाँ।
है भरा तालाब घड़ियालों से जब,
कैसे बच पाएंगी तिरती मछलियाँ।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई।
सस्ती तुकबंदी है भाई।
सत्ता के औजार महज हम,
खतरे में है आखर ढाई।
अलग अलग बकरों से मंडी,
सजा रहा है आज कसाई।
मांड़ भात की चिंता में थक,
जनता लड़ती नित्य लड़ाई।
जाति धर्म में बाँट देश को,
नेता चाँपें रोज मलाई।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।
घुटन की जिंदगी अच्छी नहीं होती।
उधारी रोशनी अच्छी नहीं होती।
जो भी बारूद की फसलें उगाती,
ऐसी मिट्टी अच्छी नहीं होती।
दिल के विश्वास पर खंजर चलाती,
विषैली खोपड़ी अच्छी नहीं होती।
जुर्म को देखकर चुपचाप रहना,
ऐसी ख़ामुशी अच्छी नहीं होती।
किसी को दर्द देकर मुस्कुराना,
ये पथरीली खुशी अच्छी नहीं होती।
सामने लूट ले कोई लुभाकर,
इतनी सादगी अच्छी नहीं होती।
कुचल दे आत्मा की सदाशयता,
कभी वो चाकरी अच्छी नहीं होती।
आँख की रोशनी अच्छी भले हो,
दिलों की तीरगी अच्छी नही होती।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्दे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।
जो भी दरबार का हिस्सा नहीं होता।
कभी सरकार का हिस्सा नहीं होता।
जो भी सच बोलता है कुर्सियों से,
वो ऐतबार का हिस्सा नहीं होता।
सत्य खुले गगन सा मुक्त रहता,
बँधे विचार का हिस्सा नहीं होता।
कौन कहता है शख्स को ठगना,
आज बाजार का हिस्सा नहीं होता।
कोई कर्तव्य पालन के बिना यूँ,
किसी अधिकार का हिस्सा नहीं होता।
सियासत में बढ़ेगा किस तरह वो,
जो कुछ परिवार का हिस्सा नहीं होता।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।
इस तरह भागता है क्या कोई।
मुझको लगता है,सिरफिरा कोई।
आसमाँ कब तलक रखे किसी को,
उड़ानों से अभी गिरा कोई।।
क्यों यूँ पिकनिक मनाने आ जाते,
दिल है ये दिल या जजीरा कोई।
उसकी आँखों की बेचैनी से लगे,
थका प्यासा है परिंदा कोई।
गहरे तकलीफ़ के बियावां में,
कहाँ दिखता है यूँ अपना कोई।
दर्द में भी जिएगा आदमी गर,
दे दे इक ख्वाब सुनहरा कोई।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्दे मातरम्! एक गीतिका प्रस्तुत है।
मुझपे लाठी हो या पत्थर असर नहीं करते।
मैं हूँ पानी का शज़र डर असर नहीं करते।
पहले सुनते थे बुरी बात तो सहमते थे,
अब तो अखबार के खबर असर नहीं करते।
आत्मा मर चुकी इंसान की हक़ीकत में,
दर्द के देह मे नश्तर असर नहीं करते।
लोग इतने विषैले हो चुके खुद दुनिया में,
उनपे अब साँप के जहर असर नहीं करते।
खुशी को खा गया इंसान खुद तनावों में,
अब किसी पर्व के अवसर असर नहीं करते।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!
गीतिका
कील सच की किसी को,सुहाती नहीं।
अपनी आदत है ऐसी कि जाती नहीं।
नेक हों गर इरादे किसी शख्स के,
मुश्किलें पास आकर भी आती नहीं।
है अहं तो मिटाओ,मिले अहमियत,
गाँठ में रह कली मुस्कुराती नहीं।
खोजता फिर रहा दिल ये देकर सदा,
क्यों मुहब्बत निगाहों में आती नहीं।
जबसे साँपों का डेरा शज़र पर हुआ,
डर से चिड़िया कोई चहचहाती नहीं।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक 'गीतिका' सादर समर्पित कर रहा हूँ।
किसी की जिंदगी की,सब्ज दुनिया छीन लेता हैं।
घिनौना आदमी,गैरों की खुशियाँ छीन लेता हैं।
बहे कैसे यूँ कोई रेत पर,ले ख्वाब की धड़कन,
उसके हिस्से का कोई,बहता दरिया छीन लेता हैं।
यहाँ इंसान को यूँ मारना मुश्किल नहीं होता,
महज़ वो प्यार से,जीने का जरिया छीन लेता है।
ये फितरत है बाजारों की, जिसे देखा हकीकत में,
कि जैसे मुस्कुराकर,पैसा बनिया छीन लेता है।
जो सोचेगा नहीं,कैसे कदम रखना है जीवन में,
उससे ये वक्त भी,उसकी नजरिया छीन लेता है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका सादर समर्पित है।आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है।
सफर बेहतर बनाना चाहता हूँ।
दिल को सहचर बनाना चाहता हूँ।
मुहब्बत से तराशे पत्थरों से,
इक अदद घर बनाना चाहता हूँ।
नींव रिश्तों की हो सके पक्की,
खुद को पत्थर बनाना चाहता हूँ।
जिंदगी चल सके हवा लेकर,
फटे पंचर बनाना चाहता हूँ।
आदमी हूँ कमी तो होगी ही,
खुद को बेहतर बनाना चाहता हूँ।
एक मूरत कि जिसमें तू ही तू हो,
जिंदगी भर बनाना चाहता हूँ।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका सादर समर्पित है।
स्वार्थ के गाँठ में बाँधा,....ज्यों रिश्ता टूट जाता है।
घड़ा हर झूठ का भी,..इक न इकदिन फूट जाता है।
अजब है न्याय लेने का,...तरीका कातिलों का अब,
कि कैसे कत्ल करके भी,...बाइज्जत छूट जाता है।
यही अनुभव रहा,.....जितना हमें दुश्मन नहीं लूटा,
उससे ज्यादा कहीं,....अपना ही कोई लूट जाता है।
भले इस्पात-सा हो दिल,...निरंतर चोट से इकदिन,
धीरे धीरे वो चुपके से,......मुक़म्मल टूट जाता है।
लगा विश्वास की परतें, ......मुहब्बत आईना बनता,
अधिक खुरचोगे दर्पण तो,....मुलम्मा छूट जाता है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।
बिना कश्ती ही हम,तैरकर साहिल तक गए।
इस तरह ले के मुहब्बत,उनके दिल तक गए।
जिसको समझा था, डूबने से बचाएगा हमें,
क्या पता था कि हम,अपने खुद क़ातिल तक गए।
जिसको पाने की ख्वाहिश,रख चले थे राहों में,
समझ पाए नहीं ये पाँव,किस मंजिल तक गए।
बुलावा दे के हमें, देखा अजनबी की तरह,
आज भी याद है मंजर,जिनकी महफ़िल तक गए।
उसी ने मार डाला,मेरे भरोसे को शायद,
सजाने में सदा हम,जिसके मुस्तक़बिल तक गए।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम्!
इंसानियत को बेरहम,इंसान खा गए।
बेईमान जैसे नोच कर,ईमान खा गए।
जो कुछ बचा था देश में ,कमजोरियाँ पकड़,
नेता,दलाल,बाबू,दीवान खा गए।
सौंपी थी जिनको कुर्सी,संसद में पहुँच वे,
आधे से ज्यादा मुल्क,हिन्दुस्तान खा गए।
कानून क्या करेगा,उस मुल्क का जहाँ
घूसखोर न्यायाधीश,संविधान खा गए।
पता है पुरु ,राणा,शिवा के शौर्य को,
कुछ क्रूर आतताई,महान खा गए।
डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
आजकल दिल भी बाजारू हो गया।
प्यार जैसे पब का दारू हो गया।
जिस्म,पैसा,वासना की सड़क पर,
प्यार बस कपड़ा उतारू हो गया।
जब तलक है जेब में पैसा भरा,
मित्र का मतलब दुधारू हो गया।
जेब जब खाली हुई, उतरा नशा
प्यार ज्यों कुत्ता बीमारू हो गया।
सर उठाता था नहीं जो सामने,
एकबएक देखा जुझारू हो गया।
बाप जब तहजीब की बातें कही,
नंगा करने पर उतारू हो गया।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।स्नेह सादर अपेक्षित है।
देश को कुछ खा पचा के चल दिए।
असलियत अपनी छिपा के चल दिये।
जिनको भी मौका मिला,देखा यही,
देश को उल्लू बना के चल दिए।
जाति, मजहब हो गए शौचालयों-से,
जब लगी लोटा उठा के चल दिए।
रोशनी देने जो आए थे यहाँ,
बस्तियाँ पूरी जला के चल दिए।
दे भरोसा खूबसूरत जिंदगी का,
ख़्वाब पर गोली चला के चल दिए।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका सादर समर्पित है।
पास रह कर भी दूरी चाहता है।
वो केवल जी हुजूरी चाहता है।
अहं की तुष्टि में दरबार अपने,
मेरा झुकना जरूरी चाहता है।
एक मजदूर की गलती है इतनी,
वो मालिक से मजूरी चाहता है।
जिसने लूटा है अपना देश अबतक,
फिर से सत्ता वो पूरी चाहता है।
किसी के मुँह का छीन कर निवाला,
खुद के हिस्से अंगूरी चाहता है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका सादर समर्पित है।
सच कभी बेघर नहीं होता।
आईनागर अगर नहीं होता।
बिना झुके निजाम के आगे,
आसान सफर नहीं होता।
असर ज़हन तक गर नहीं पहुँचे,
जहर भी जहर नहीं होता।
चलना होता है मंजिलों के लिए,
ख़्वाब देखना भर नहीं होता।
भीड़ चलती है जिंदगी में मगर,
हर शख्स हमसफर नहीं होता।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।
ढोंगी,धूर्त,धतूरे नेता।
रखते दिल में छूरे नेता।
जाति,धर्म में बाँट देश को,
मजा ले रहे पूरे नेता।
राजनीति अब उगा रही है,
सड़े अधिकतर घूरे नेता।
संसद में,मानक सौ में से,
नब्बे दिखे,अधूरे नेता।
लोकतंत्र के मंदिर को ठग,
बन बैठे कंगूरे नेता।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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