Friday, November 30, 2018

दोहे मनोज के...

दोहे मनोज के...

तहस नहस करते सदा,व्यक्तित्व की धार।
बेईमानी जुगुप्सा,नकारात्मक विचार।।

जो निखारता स्वयं को,कमियों को कर दूर।
सुखानन्द को भोगता,जीवन में भरपूर।।

जीवन के इस सूत्र से,पूरी होती चाह।
धीरे धीरे ही बढ़ो,मगर सही रख राह।।

डॉ मनोज कुमार सिंह




गीत

वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीत समर्पित है।

याचना के मूल में,रहती हृदय की वेदना।
बिन समर्पण भाव के,होती नहीं है प्रार्थना।

अश्रु की समिधा चढ़ाओ,भाव की ज्वाला जला।
रख हृदय में इष्ट को बस,पूजने का सिलसिला।
दर्द में भी माँग लो,संयम की सुरभित चेतना।।
बिन समर्पण भाव के,होती नहीं है प्रार्थना।

तन समर्पित,मन समर्पित,समर्पित जीवन करो।
तुम अकिंचन भाव से,परिपूर्ण अपना मन करो।
अज्ञ बन,सर्वज्ञ पर,उत्सर्ग कर संवेदना।
बिन समर्पण भाव के,होती नहीं है प्रार्थना।

आत्मलय के ताल पर,गर झूम सको तो झूम लो।
अलौकिक उस चेतना के,लोक में कुछ घूम लो।
मुक्ति की तप साधना में,कर पिता से सामना।।
बिन समर्पण भाव के होती नहीं है प्रार्थना।

कामनाओं से निकल,प्रज्ञान को अनुभूत कर।
नेति नेति स्वरूप से,जीवन की धारा पूत कर।
बह सके करुणा हृदय में,कर ले सागर सर्जना।।
बिन समर्पण भाव के,होती नहीं है प्रार्थना।

धूप हो, नैवेद्य हो या दीप सारे व्यर्थ हैं।
बिन समर्पण भाव,सारी साधना असमर्थ हैं।
ज्यों धुँए के बादलों में,है छिपी जल वंचना।।
बिन समर्पण भाव के,होती नहीं है प्रार्थना।

डॉ मनोज कुमार सिंह

भोजपुरी मुक्तक

राम राम सगरी मित्र लोगन के!एगो मुक्तक आप सभके समर्पित करत बानी।

उ का समझी कबो गैर के आह के।
जेकरा आँखिन में फूला पड़ल डाह के।
अइसन लोगन से अच्छा बा फरके रहीं,
पास जाईं त थोड़ा सम्हर थाह के।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

शेर मनोज के..(चुनिंदा शेर)

शेर मनोज के..(चुनिंदा शेर)
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'रगो में अनवरत् धड़कन में,इक संवाद चलता है।
मिरी साँसों में मेरी माँ का,आशीर्वाद चलता है।।'
...
क्या जरूरत है ये चारो धाम करने की,
गुरू,माँ,बाप के चरणों में जब सब तीर्थ बैठे हैं।
....
हदस ज्यों दिल के पत्ते को,हरा होने नहीं देती।
बौनी हर सोच,इंसां को बड़ा होने नहीं देती।।
(हदस-जलन)
....
या तो बेहया हैं ,या कहो अंधे अक़ल से,
दिल से चाहने वालों को भी जो ठुकराते।
....
हम तो आश्वस्त हैं,भारत हमारा है,रहेगा,
जिसे डर है, कहीं जा मुल्क बना ले अपना।
....
लचीलेपन की कोई हद तो होगी गर्दनों की,
उससे ज्यादा झुकीं तो टूटना निश्चित समझ लो।।
......
सूखे तालाब को भरने की कवायद क्या हुई।
नदी की मछलियाँ नाराज़ चल रही है यहाँ।
........
प्यार किसको दिखाऊँ,फाड़कर छाती ये अपना,
कलेजा भूनकर,खा जाते हैं कुछ लोग यहाँ।
..........
उनका इंसानियत से क्या रिश्ता,
जो पैसे को महज़ पहचानते हैं।
...........
उनका इंसानियत से क्या रिश्ता,
जो पैसे को महज़ पहचानते हैं।
..........
दुनिया के आगे चश्मा पहना लिहाज का,
आँखें हैं कितनी बेअदब ,मुझको भी पता है।
........
जिसमें प्रेम,श्रद्धा की कोई मूर्ति नहीं होती,
तुम्हीं बोलो कि दिल को किस तरह मस्ज़िद बना दूँ।
.........
समझा था जिसे कुत्ता,वो बावफ़ा रहा,
वफ़ादार जिसे समझा,कुत्ता निकल गया।
.......
ज़ाहिद कहूँगा कैसे,जो अपनी ही कौम को,
ज़ाहिल बना के रख दिया,मज़हब के नाम पर।।
......
लड़ेगा आदमी कैसे वो,दुनिया में हरीफों से,
जिसकी पीठ पर खंजर,तने हों घर के अंदर ही।
.........
जो परिवार से ऊपर कभी भी उठ न पाए,
उन्हें अब मुल्क पूरा किस तरह सौंपा जाए।
.......
सोचा था तीन तलाक़ पर कैराना चलेगा,
लेकिन वो हलाला पर मुहर लगा दिया।
...........
इस देश में विरोध का, है ट्रेंड गजब का,
हाफ़िज़ को कुछ कहो तो,मोदी गालियाँ सुनते।
............
जिनके हाथों को किताबों की जरूरत है अभी,
या ख़ुदा मुल्क ने बाज़ार में बिठाया क्यों है?
........
हमें मुद्दा नहीं बस रोटियाँ दे दो साहब,
तुम्हारी तख्तियाँ लेकर चलेंगे सड़कों पर!
.............
ग़ज़ल में ढूढ़ते क्यों बह्र की बारीकियाँ केवल,
कभी दिल की जुबाँ के मौन को भी पढ़ लिया तो कर।
........
नमस्ते बोलता हूँ दिल से तुमको हे साहिब!
इसका मतलब नहीं तलवे भी चाटूँगा तुम्हारे।
..........
हजारों लोग हैं,कहने को पराये लेकिन।
ज़ख्म पाए हैं जितने,अपनों से पाए लेकिन।।
.......
इसमें अंधों की कोई खता ही नहीं।
खुद वे अंधे हैं,उनको पता ही नहीं।
.....
बचपन में लड़ते थे भाई,मेरी माँ,मेरी माँ है,
बड़े हुए तो बूढ़ी माँ अब तेरी माँ,तेरी माँ है।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

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'गीतिका' मनोज की....


गीतिका मनोज की....

वन्दे भारतमातरम्! आज एक असहिष्णु रचना मित्रों को समर्पित।

लोकतंत्र कैसे जिन्दा है बात ,हमें मालूम है।
भौंक रहे हर कुत्ते की औकात ,हमें मालूम है।

भरत,राम की संतानें हम,त्याग सदा करते आये,
मातृभूमि को क्या देनी सौगात ,हमें मालूम है।

बैसाखी पर चलने वाले,इतना मत इतराओ तुम,
कुंठाओं से ग्रस्त तेरे जज्बात,हमें मालूम है।

शेरों को बिकते देखा क्या?,बिकते हैं बकरे,पड़वे,
बिकने वाली हर नस्लों की जात,हमें मालूम है।

आस्तीन के सांपों से ,उम्मीद नहीं रखते अब हम,
मीरजाफर,जयचंदों की हर घात ,हमें मालूम है।

(सन्दर्भ-भरत जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा।)

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।

दिखा सके न जो,...हकीक़त क्या है।
ऐसे आईनों की,.....जरूरत क्या है।

खुद खड़ी हो अदालत,..जब कटघरे में,
अब किससे कहें,..मेरी शिकायत क्या है।

कैसे कैसे बैठे हैं,.....इन कुर्सियों पर,
जिन्हें मालूम नहीं,..सही-गलत क्या है।

जिसके दिल मे महज,...नफरत ही बैठी,
कौन बताए उसे ......कि मुहब्बत क्या है।

वतन जो बाँटने को,.........तैयार बैठे हैं,
उन्हें पता ही नहीं,..मायने शहादत क्या है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!मित्रो!पेंशन विहीन नवोदयकर्मियों की व्यथा-कथा मेरी इस गीतिका में प्रस्तुत है।

पेंशन की टेंशन में कितने चले गए।
खून-पसीना देकर भी हम छले गए।

इस जीवन की विथा-कथा अब कौन सुने,
निशदिन दंड कड़ाही में हम तले गए।

संडे,होली,दिवाली सब भूल गए,
वक्त के हाथों कान हमारे मले गए।

जिसने आँख उठाई कुर्सी के आगे,
एक एक कर सभी सिपाही दले गए।

कुछ तो हैं जो लूट-छूट के हक़ पाए,
शिशुपालन के हिस्से जिनके गले गए।

हम कोल्हू के बैल सरीखे नधे पड़े,
ढलकर देखा, ढलते,ढलते ढले गए।

आँख हमारी,नींद व्यवस्था के हाथों,
जहाँ बुलाए, डगमग पग से चले गए।

क्या होगा भवितव्य,बिना पेन्शन यारों
भय की ओखल में,निशदिन हम खले गए।

भूल गए घर बार,व्यवस्था में डुबकर,
जो अपने थे,छोड़ हमें वो चले गए।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!मित्रो!एक युगबोध 'गीतिका' के रूप में सादर समर्पित है।

कमा गया कोई।
खा गया कोई।

गलती किसी की,
पा गया कोई।

चाहा किसी को,
भा गया कोई।

बुलाया किसी को,
आ गया कोई।

दुश्मन थी आग,
जला गया कोई।

दर्द भरा गीत मिरा,
गा गया कोई।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वन्देमातरम मित्रो!आज एक गीतिका हाजिर है .....आपका स्नेह अपेक्षित है ------

जबसे तुम मशहूर हो गए ।
अहंकार में चूर हो गए।

दिल में रहकर भी अब मेरे ,
मुझसे कितनी दूर हो गए ।

रंग बदलते मौसम हो तुम,
या गिरगिट भरपूर हो गए ।

बाजारों के दौर में रिश्ते ,
जाने कितने क्रूर हो गए।

जनमत की अंधी आँधी में ,
सारे चोर हुजूर हो गए ।

सच कहना मुश्किल है यारो,
फिर भी हम मजबूर हो गए।

आज अंधेरों की महफ़िल में,
शब्द हमारे नूर हो गए।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!मित्रो!मेरी इस 'गीतिका' पर आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है-

वामपंथी पिशाचिनी।
पाप की अनुगामिनी।

पूर्ण पातुर सदा आतुर,
काम की बस कामिनी।

आधुनिका ताड़काएं,
देह रस की स्वामिनी।

सद्चरित पर दाग काली,
असुरता की यामिनी।

परकीया पति घातिनी ये,
रोग में ज्यों वामिनी।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्! मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।

जहाँ सब कुछ उसी का,अपना दावा कुछ नहीं होता।
मुहब्बत में,समर्पण के अलावा कुछ नहीं होता।

भले दुनिया के आगे,आवरण कुछ ओढ़ ले इंसां,
जो अपने हैं ,तो अपनों से,छिपावा कुछ नहीं होता।

जो जितना है सहज,अपनत्व के पाँवों से चलता है,
दिलों तक खुद पहुँचता है,बुलावा कुछ नहीं होता।

फ़कीरी इश्क़ में,सब कुछ लुटा बेफिक्र रहती है,
यहाँ खोने का पछतावा या दावा कुछ नहीं होता।

ये बस्ती दिल की बस्ती है, जहाँ पर चाहकर के भी,
किसी भी हाल में,झूठा दिखावा कुछ नहीं होता।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।

चलो, चलते हैं,जहाँ खामुशी है।
खुशी गम से,परे भी जिंदगी है।

अपनी प्रशस्ति की ,दुनिया दीवानी,
ये कैसी ,आत्मघाती बेबसी है।

वहाँ भगवान है निश्चित, जहाँ पर,
मुफ़लिसी में भी,अधरों पर हँसी है।

जो भी आया है,उसको जाना है,
श्वास तो ,जिंदगी की हाजिरी है।

बता,गंगा बहे उस दिल में कैसे,
जिसमें नफ़रत की, बस ज्वालामुखी है।

मैं तो बस दर्द की, कहता कहानी,
तुम्हें लगता है,ये भी शायरी है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!

अर्बन नक्सल शील कथाएँ भेजूँ क्या?
जाति-धर्म की अग्नि हवाएँ भेजूं क्या?

राम राष्ट्र को भ्रष्ट कराने की खातिर,
राजनीति की सुर्पनखाएँ भेजूँ क्या?

सत्ता से बोलो ,कब तक मैं दूर रहूँ,
दिल की अपनी विरह-व्यथाएँ भेजूँ क्या?

सत्तर वर्षी लाईलाज है मर्ज जहाँ,
समझ न आता उन्हें दवाएँ भेजूँ क्या?

दो हजार उन्नीस के तुम सरताज बनो,
मज़हब वाली 'पाक'दुआएँ भेजूँ क्या?

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका प्रस्तुत है।आपकी बहुमूल्य टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

जिनसे न व्यवहार मिलेंगे।
कैसे दिल के तार मिलेंगे।

थोड़ा अहं मिटाकर देखो,
सब तेरे अनुसार मिलेंगे।

सुख के साथी पड़े हजारों,
दुख में बस दो-चार मिलेंगे।

प्रेम धार के आगे जग में,
कुंद सभी हथियार मिलेंगे।

दूध पिला दो चाहें जितना,
साँपों से फुफकार मिलेंगे।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।

इस तरह हम क्या बताएँ और क्या है।
जिंदगी ये ग़म खुशी की लघुकथा है।

प्यार के शृंगार से निशदिन संवर ले,
वगरना ये जिंदगी बिल्कुल वृथा है।

ऐसे ही जिंदा नहीं सदियों से इंसां,
बल पे अपने आग से लड़कर खड़ा है।

छाँव हो या फल शज़र देता नहीं जो,
बड़ा होकर भी कहो कितना बड़ा है।

बूंद-जल नदियों से बहकर जा मिला जब,
प्यार का स्पर्श पा सागर हुआ है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम् !मित्रो!एक गीतिका प्रस्तुत है-

सच पाने की खातिर सच ही बोना होता है।
कूड़े में रहकर भी सोना,सोना होता है।

जंग लगे न जीवन के पावनतम लौह उसूलों पर,
वक़्त वक़्त पर सदाचरण से धोना होता है।

जो जागृति का गीत रचेगा,वो कैसे सो पायेगा,
कुछ पाने की इच्छा में कुछ खोना होता है।

चख कर देख लिया करना तू दिल के कोटर में रखा,
स्वाद प्यार का कुछ मधुरिम कुछ लोना होता है।

घर वो घर तब ही होता जब,बड़े बुजुर्गों के संग संग,
बच्चों की खातिर भी घर में कोना होता है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।

दिलों के दरमियां इक पुल बनाकर देखो।
जुबां का काम निगाहों से निभाकर देखो।

दर्द कितना भी बड़ा होगा यूँ मिट जाएगा,
रोते रोते तू जरा,खुद को हँसाकर देखो।

गुलों की हैसियत बढ़ जाएगी गुलिस्तां में,
हवा के हाथ में खुशबू को थमाकर देखो।

सतह पर तैरकर मत नापिये समंदर को,
उसकी गहराइयों में खुद को डुबाकर देखो।

तेरा झुकना किसी की जिंदगी बदल देगा,
गिरे इंसान को झुककर तो उठाकर देखो।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका हाज़िर है।

जाति मजहब की सियासी इस सदी में।
आदमी अब बंट गया है फीसदी में।

सूख चुकीं उज्ज्वल धवल सब पुण्य सलिला,
जबसे ये तब्दील नाले हैं नदी में।

कौन घाटा अब सहे इन नेकियों का,
कामना जब पूर्ण हो जाती बदी में।

देखिए कैसी कॉमेडी जिंदगी की,
हँस रही है दर्द सह कर त्रासदी में।

मुल्क ये बदहाल केवल इसलिए है,
फंस गया है सियासत की बेख़ुदी में।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।

जाल बुनतीं जब भी शक की मकड़ियाँ।
बंद कर देती हैं दिल की खिड़कियाँ।

चाट जातीं अक्ल की घासें हरी,
स्वार्थ की अंधी निकम्मी बकरियाँ।

आग की बारिश कराकर,..साजिशें
दे रहीं कागज की सबको छतरियाँ।

सत्य इंगित अंगुलियाँ खतरे में हैं,
हर दिशा से मिल रही हैं धमकियाँ।

है भरा तालाब घड़ियालों से जब,
कैसे बच पाएंगी तिरती मछलियाँ।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।

हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई।
सस्ती तुकबंदी है भाई।

सत्ता के औजार महज हम,
खतरे में है आखर ढाई।

अलग अलग बकरों से मंडी,
सजा रहा है आज कसाई।

मांड़ भात की चिंता में थक,
जनता लड़ती नित्य लड़ाई।

जाति धर्म में बाँट देश को,
नेता चाँपें रोज मलाई।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।

घुटन की जिंदगी अच्छी नहीं होती।
उधारी रोशनी अच्छी नहीं होती।

जो भी बारूद की फसलें उगाती,
ऐसी मिट्टी अच्छी नहीं होती।

दिल के विश्वास पर खंजर चलाती,
विषैली खोपड़ी अच्छी नहीं होती।

जुर्म को देखकर चुपचाप रहना,
ऐसी ख़ामुशी अच्छी नहीं होती।

किसी को दर्द देकर मुस्कुराना,
ये पथरीली खुशी अच्छी नहीं होती।

सामने लूट ले कोई लुभाकर,
इतनी सादगी अच्छी नहीं होती।

कुचल दे आत्मा की सदाशयता,
कभी वो चाकरी अच्छी नहीं होती।

आँख की रोशनी अच्छी भले हो,
दिलों की तीरगी अच्छी नही होती।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वन्दे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।

जो भी दरबार का हिस्सा नहीं होता।
कभी सरकार का हिस्सा नहीं होता।

जो भी सच बोलता है कुर्सियों से,
वो ऐतबार का हिस्सा नहीं होता।

सत्य खुले गगन सा मुक्त रहता,
बँधे विचार का हिस्सा नहीं होता।

कौन कहता है शख्स को ठगना,
आज बाजार का हिस्सा नहीं होता।

कोई कर्तव्य पालन के बिना यूँ,
किसी अधिकार का हिस्सा नहीं होता।

सियासत में बढ़ेगा किस तरह वो,
जो कुछ परिवार का हिस्सा नहीं होता।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।

इस तरह भागता है क्या कोई।
मुझको लगता है,सिरफिरा कोई।

आसमाँ कब तलक रखे किसी को,
उड़ानों से अभी गिरा कोई।।

क्यों यूँ पिकनिक मनाने आ जाते,
दिल है ये दिल या जजीरा कोई।

उसकी आँखों की बेचैनी से लगे,
थका प्यासा है परिंदा कोई।

गहरे तकलीफ़ के बियावां में,
कहाँ दिखता है यूँ अपना कोई।

दर्द में भी जिएगा आदमी गर,
दे दे इक ख्वाब सुनहरा कोई।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वन्दे मातरम्! एक गीतिका प्रस्तुत है।

मुझपे लाठी हो या पत्थर असर नहीं करते।
मैं हूँ पानी का शज़र डर असर नहीं करते।

पहले सुनते थे बुरी बात तो सहमते थे,
अब तो अखबार के खबर असर नहीं करते।

आत्मा मर चुकी इंसान की हक़ीकत में,
दर्द के देह मे नश्तर असर नहीं करते।

लोग इतने विषैले हो चुके खुद दुनिया में,
उनपे अब साँप के जहर असर नहीं करते।

खुशी को खा गया इंसान खुद तनावों में,
अब किसी पर्व के अवसर असर नहीं करते।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!

गीतिका

कील सच की किसी को,सुहाती नहीं।
अपनी आदत है ऐसी कि जाती नहीं।

नेक हों गर इरादे किसी शख्स के,
मुश्किलें पास आकर भी आती नहीं।

है अहं तो मिटाओ,मिले अहमियत,
गाँठ में रह कली मुस्कुराती नहीं।

खोजता फिर रहा दिल ये देकर सदा,
क्यों मुहब्बत निगाहों में आती नहीं।

जबसे साँपों का डेरा शज़र पर हुआ,
डर से चिड़िया कोई चहचहाती नहीं।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!मित्रो!एक 'गीतिका' सादर समर्पित कर रहा हूँ।

किसी की जिंदगी की,सब्ज दुनिया छीन लेता हैं।
घिनौना आदमी,गैरों की खुशियाँ छीन लेता हैं।

बहे कैसे यूँ कोई रेत पर,ले ख्वाब की धड़कन,
उसके हिस्से का कोई,बहता दरिया छीन लेता हैं।

यहाँ इंसान को यूँ मारना मुश्किल नहीं होता,
महज़ वो प्यार से,जीने का जरिया छीन लेता है।

ये फितरत है बाजारों की, जिसे देखा हकीकत में,
कि जैसे मुस्कुराकर,पैसा बनिया छीन लेता है।

जो सोचेगा नहीं,कैसे कदम रखना है जीवन में,
उससे ये वक्त भी,उसकी नजरिया छीन लेता है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका सादर समर्पित है।आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित है।

सफर बेहतर बनाना चाहता हूँ।
दिल को सहचर बनाना चाहता हूँ।

मुहब्बत से तराशे पत्थरों से,
इक अदद घर बनाना चाहता हूँ।

नींव रिश्तों की हो सके पक्की,
खुद को पत्थर बनाना चाहता हूँ।

जिंदगी चल सके हवा लेकर,
फटे पंचर बनाना चाहता हूँ।

आदमी हूँ कमी तो होगी ही,
खुद को बेहतर बनाना चाहता हूँ।

एक मूरत कि जिसमें तू ही तू हो,
जिंदगी भर बनाना चाहता हूँ।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका सादर समर्पित है।

स्वार्थ के गाँठ में बाँधा,....ज्यों रिश्ता टूट जाता है।
घड़ा हर झूठ का भी,..इक न इकदिन फूट जाता है।

अजब है न्याय लेने का,...तरीका कातिलों का अब,
कि कैसे कत्ल करके भी,...बाइज्जत छूट जाता है।

यही अनुभव रहा,.....जितना हमें दुश्मन नहीं लूटा,
उससे ज्यादा कहीं,....अपना ही कोई लूट जाता है।

भले इस्पात-सा हो दिल,...निरंतर चोट से इकदिन,
धीरे धीरे वो चुपके से,......मुक़म्मल टूट जाता है।

लगा विश्वास की परतें, ......मुहब्बत आईना बनता,
अधिक खुरचोगे दर्पण तो,....मुलम्मा छूट जाता है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।

बिना कश्ती ही हम,तैरकर साहिल तक गए।
इस तरह ले के मुहब्बत,उनके दिल तक गए।

जिसको समझा था, डूबने से बचाएगा हमें,
क्या पता था कि हम,अपने खुद क़ातिल तक गए।

जिसको पाने की ख्वाहिश,रख चले थे राहों में,
समझ पाए नहीं ये पाँव,किस मंजिल तक गए।

बुलावा दे के हमें, देखा अजनबी की तरह,
आज भी याद है मंजर,जिनकी महफ़िल तक गए।

उसी ने मार डाला,मेरे भरोसे को शायद,
सजाने में सदा हम,जिसके मुस्तक़बिल तक गए।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदेमातरम्!

इंसानियत को बेरहम,इंसान खा गए।
बेईमान जैसे नोच कर,ईमान खा गए।

जो कुछ बचा था देश में ,कमजोरियाँ पकड़,
नेता,दलाल,बाबू,दीवान खा गए।

सौंपी थी जिनको कुर्सी,संसद में पहुँच वे,
आधे से ज्यादा मुल्क,हिन्दुस्तान खा गए।

कानून क्या करेगा,उस मुल्क का जहाँ
घूसखोर न्यायाधीश,संविधान खा गए।

पता है पुरु ,राणा,शिवा के शौर्य को,
कुछ क्रूर आतताई,महान खा गए।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गीतिका

आजकल दिल भी बाजारू हो गया।
प्यार जैसे पब का दारू हो गया।

जिस्म,पैसा,वासना की सड़क पर,
प्यार बस कपड़ा उतारू हो गया।

जब तलक है जेब में पैसा भरा,
मित्र का मतलब दुधारू हो गया।

जेब जब खाली हुई, उतरा नशा
प्यार ज्यों कुत्ता बीमारू हो गया।

सर उठाता था नहीं जो सामने,
एकबएक देखा जुझारू हो गया।

बाप जब तहजीब की बातें कही,
नंगा करने पर उतारू हो गया।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।स्नेह सादर अपेक्षित है।

देश को कुछ खा पचा के चल दिए।
असलियत अपनी छिपा के चल दिये।

जिनको भी मौका मिला,देखा यही,
देश को उल्लू बना के चल दिए।

जाति, मजहब हो गए शौचालयों-से,
जब लगी लोटा उठा के चल दिए।

रोशनी देने जो आए थे यहाँ,
बस्तियाँ पूरी जला के चल दिए।

दे भरोसा खूबसूरत जिंदगी का,
ख़्वाब पर गोली चला के चल दिए।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका सादर समर्पित है।

पास रह कर भी दूरी चाहता है।
वो केवल जी हुजूरी चाहता है।

अहं की तुष्टि में दरबार अपने,
मेरा झुकना जरूरी चाहता है।

एक मजदूर की गलती है इतनी,
वो मालिक से मजूरी चाहता है।

जिसने लूटा है अपना देश अबतक,
फिर से सत्ता वो पूरी चाहता है।

किसी के मुँह का छीन कर निवाला,
खुद के हिस्से अंगूरी चाहता है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका सादर समर्पित है।

सच कभी बेघर नहीं होता।
आईनागर अगर नहीं होता।

बिना झुके निजाम के आगे,
आसान सफर नहीं होता।

असर ज़हन तक गर नहीं पहुँचे,
जहर भी जहर नहीं होता।

चलना होता है मंजिलों के लिए,
ख़्वाब देखना भर नहीं होता।

भीड़ चलती है जिंदगी में मगर,
हर शख्स हमसफर नहीं होता।

डॉ मनोज कुमार सिंह

वंदेमातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है।

ढोंगी,धूर्त,धतूरे नेता।
रखते दिल में छूरे नेता।

जाति,धर्म में बाँट देश को,
मजा ले रहे पूरे नेता।

राजनीति अब उगा रही है,
सड़े अधिकतर घूरे नेता।

संसद में,मानक सौ में से,
नब्बे दिखे,अधूरे नेता।

लोकतंत्र के मंदिर को ठग,
बन बैठे कंगूरे नेता।

डॉ मनोज कुमार सिंह

दोहे मनोज के ...

दोहे मनोज के

जब जब आपस में भिड़े,स्वार्थ भरे दो यार।
दुश्मन पीछे से किए, तब तब सख्त प्रहार।

धर्म न पूजा पाठ है,धर्म न कोई कैद।
धर्म मुक्ति का मार्ग है,बाकी बात लबेद।

मर्म न जाने धर्म का,भ्रम पाले कुछ लोग।
पेट,देह तक हैं सीमित,करें स्वार्थ उद्योग।

दस लक्षण हैं धर्म के,सुंदर जीवन वेद।
नास्तिकता समझे नहीं,जीवन का यह भेद।

मजहब वाली बात को,कहिए कभी न धर्म।
इसका मतलब ये हुआ,समझ न पाए मर्म।

महज सियासत तक रही,जिसकी अपनी दृष्टि।
समझ न पायेगा कभी,धर्म,न्याय की सृष्टि।

मिले धर्म से देश को,तुलसी,सूर,कबीर।
मज़हब में जन्नत मिले, संग बहत्तर हूर।।😊

कुछ लोगों की नजर पर,चढ़ा स्वार्थ का फैट।
इवियम भी संघी लगे,हिन्दू वीवीपैट।।

नींद खराब करने के,तीन मुख्य किरदार।
मच्छर,मोबाइल तथा मोदी जिम्मेदार।।😊😊

खुशी प्राप्ति का सूत्र है, औ' जीवन आधार।
आवश्यकता पूर्ण कर,इच्छाओं को मार।।

भारत की संस्कृति के,करम गए ज्यों फूट।
छूट न देकर टैक्स पर,दिया सेक्स पर छूट।।

सुप्रिमकोर्ट ने दे दिया, ऐसा आज दलील।
छिनरा,छिनरी शब्द अब,रहे नहीं अश्लील।

छिनरों को अब मिल गया,लड्डू दोनों हाथ।
छिनरी भी स्वच्छन्द हैं,रहना किसके साथ।।

व्यभिचारी किसको कहें,किसको कहें अधर्म।
समलैंगिक,एडलटरी,न्यायिक नैतिक कर्म।।

मकड़ी से कारीगरी,बगुले से तरकीब।
चींटी से सीख परिश्रम,होगे नहीं गरीब।।

क्षण में जो संशय करे,क्षण में ही विश्वास।
ऐसा व्यक्ति बना नहीं,कभी किसी का खास।।

दिल में तेरे रोम क्यों,मन में पाकिस्तान।
रोम रोम में बसा ले,अब तो हिन्दुस्तान।।

मन-माखन-मिसरी करो,तन को गोकुल धाम।
बिन बुलाए आएँगे,हृदय-गेह में श्याम।।

देकर या तो छोड़कर,जाता है इंसान।
ले जाने का जगत से,होता नहीं विधान।।

भक्त खड़ा है इक तरफ,दूजे तरफ गुलाम।
इक भारत भारत जपे,इक इटली का नाम।।

रचना मेरी हो सके,अर्थवान साकार।
लाइक के संग दीजिए,अपना शुभ्र विचार।।

सर्वोत्तम उपहार में,प्रोत्साहन है खास।
जीवन में जिसको मिले,बढ़े आत्मविश्वास।।

मोह तमस मिटता रहा,ज्योतित हुआ भविष्य।।
आत्मदान जब गुरु किया,आत्म समर्पण शिष्य।।

बूढ़े करुणानिधि मरे,मिलने गए हजार।
सैनिक सीमा पर मरे, किसने किया पुछार?

तन के हित आसन तथा,प्राणायाम निदान।
करो परम हित समर्पण,आत्म-प्रेम हित ध्यान।।

नए बिंब,प्रतीक नए,उगा पंख उपमान।
छंदों के नित व्योम में,भरते रहो उड़ान।।

अब भी दुनिया के वही,देश बने सरदार।
जिसके हिस्से में बड़े,संहारक हथियार।।

दादा जी की सल्तनत,क्यों नाना के नाम?
तुम फिरोज के खून हो,नेहरू का क्या काम?

जिनके भ्रष्टाचार ने,किया मुल्क बदहाल।।
ये नेता,साहब दिखे,मगर यहाँ खुशहाल।।

जनवाद के कवियों का,देखा भोग विलास।
पाँच सितारा होटलों,में जिनका नित वास।।

कवि जनवादी कर रहे,जन-मन का उपहास।
खुद महलों में रह रचे,झूठे दुख-संत्रास।।

जन कवियों का आचरण,देख हुआ आश्चर्य।
दुख-पीड़ा को बेचकर,भोग रहे ऐश्वर्य।।

जिस दिल में बस घृणा के,फैले पेड़ बबूल।
वहाँ उगेंगे किस तरह,सहज स्नेह के फूल।।

बन जाएंगे काम सब,सूत्र बड़े अनमोल।
साहब की बीवी पटा, नित्य नमस्ते बोल।।

संयम और लिहाज को,कमजोरी नहि मान।
कर सकता है पलटकर, दूजा भी अपमान।।

अलमारी नहि कब्र में,नहीं कफ़न में जेब।
कहाँ रखोगे संपदा,जीवन एक फरेब।।

श्रमजीवी होता नहीं, पिछड़ा,दलित अनाथ।
महज़ सियासी सोच है,कुर्सी आये हाथ।।

दलित,पिछड़ा बनने का,अपना ही आनंद।
बिना कर्म जब फल मिले,क्यों करें दंद फंद।।

जाते थे जो कब्र पर,रोजा रखकर रोज।
मंदिर मंदिर घूमकर,वोट रहे अब खोज।।

अंकित,चंदन और मधु या डॉक्टर नारंग।
हुआ नहीं क्या मॉब का,लिंचिंग इनके संग।

औषधि-सी होती सदा,दोहे की तासीर।
शब्द,अर्थ अरु भाव से,मिटती मन की पीर।।

सच्चर खच्चर-सा लिखा,कुंठा में फरमान।
सिर्फ धर्म के नाम पर,बाँटा हिंदुस्तान।।

बेईमान से न करें,आप कभी उम्मीद।
कर देते विश्वास की,मिट्टी सदा पलीद।।

कालनेमि कुछ हैं यहाँ,विविध रुप धरि लेऊ।
दिल में तो जिन्ना रखे,कंधे पर जनेऊ।।

कानों के कच्चे दिखे,मुझको लोग तमाम।
सत्य बिना जाँचे करें,अंधों जैसे काम।।

उसे चाहिए मुफ्त में,जीवन में उत्कर्ष।
पर अच्छे दिन कब मिले,बिना किये संघर्ष।।

चाँद सितारे छू लिए,छुए न माँ के पैर।
उसका तो भगवान भी,नहीं करेगा खैर।।

मंगल ग्रह तक पहुँचकर,करता रहा गुमान।
पहुँच न पाया हृदय तक,मगर अभी इंसान।।

उसकी खातिर हो गए,रिश्ते सब अनजान।
पैसा जिसका लक्ष्य है,पैसा ही भगवान।।

जिसकी ओछी सोच है,मेढक जैसी कूद।
निश्चित ऐसे शख्स का,होता तुच्छ वजूद।।

इंसानों के रूप में,घूमते मिले करैत।
मजबूरी में फिर हमें,बनना पड़ा लठैत।।

सिखा रहे इंसान को,वे हीं आज शऊर।
जिसमें नहीं तमीज़ खुद,पद मद में बस चूर।।

गर तेरे जिस मित्र से,मिलते नहीं विचार।
फिर भी मत करिए कभी,उससे दुर्व्यवहार।।

भिक्षा में भी गर मिले, शिक्षा का उपहार।
आत्मज्ञान हित कीजिए,मन से उसे स्वीकार।।

समता के रिश्ते बनें,ऐसे सहज प्रगाढ़।
सूखती नदियाँ न सुखें,भरीं में न हो बाढ़।।

मन क्रोधी,दिल संयमी,सदा भिन्न व्यवहार।
मगर प्रेम के योग से,रहते एकाकार।।

मिठबोलवा बस मुँह से,भरल छहँत्तर देह।
रिश्तन के भी नित ठगे,देके झूठ सनेह।।

राष्ट्र बने मजबूत अरु,दुश्मन बनें अनाथ।
दुष्टदलन में दीजिए,सेना का अब साथ।।

पहले दुनिया-बैंक में,जमा करो सहयोग।
ब्याज सहित पाओ पुनः,प्यार भरा रसभोग।।

रक्षक बन रक्षा करे,रखता सदा पवित्र।
शिक्षा से भी है बड़ा,मानव सहज चरित्र।

कठिन,कष्टकारक रही,लक्ष्य प्राप्ति की प्यास।
मगर नहीं निष्फल रहा,सच का सतत् प्रयास।।

बहुत पुरानी रीति है,नहीं चली ये आज।
सच बोलो तो बोलता,पागल हमें समाज।।

सुख-दुख चिंता से उपर,उठता जब इंसान।
आसमान भी झूककर,देता है सम्मान।।

मूल्यहीन सिद्धांत को,बना कभी मत मित्र।
बिना सफलता ही जियो,लेकर शुद्ध चरित्र।।

शिक्षा से शिक्षित बना,और बना विद्वान।
लेकिन बिना चरित्र के,मानव नहीं महान।।

प्रतिभा से भी उच्च जो,पावन और पवित्र।
जीवन पर शासन करे,कहते जिसे चरित्र।

पद प्रभुता-मद प्लेग सा,अंत समय दे कष्ट।
जिसको छू देता उसे,कर देता है भ्रष्ट।।

लोकतंत्र का हो गया,उसी समय प्राणांत।
राजनीति के जब हुए,मूल्यहीन सिद्धांत।

पाकिस्तान के झंडे,लहराएँ गर दुष्ट।
दौड़ाकर ठोको उन्हें,बंदूकों से पुष्ट।।

😊हम लेते मट्ठा सदा,तुम बीयर का पैग।
फिर भी हम दोनों रहे ,इक दूजे से टैग।।😊

ज्ञान,बुद्धि, साहस तथा,ईश्वर में विश्वास।
असमय के ये मित्र हैं,रखिए दिल के पास।।

पढ़ा रहे हैं आज वे,हमें कर्म के पाठ।
जिसने जीवन भर पढ़ा,सोलह दूनी आठ।।

लिखने भी आता नहीं, सही सही दो शब्द।
वही लिखने बैठे हैं,आज मेरा प्रारब्ध।।

ऊँचे चढ़ कर सीख लो,कुछ तो करना प्यार।
वरना नीचे उतरना,पड़ता इकदिन यार।।

सृजन कभी रखता नहीं,विध्वंसों को याद।
यही सृष्टि का सत्य है,फल ही बनता खाद।।

खिलकर झड़ने का कभी,रखता नहीं हिसाब।
सतत् पौध रचता नवल,सुरभित एक गुलाब।।

राजनीति व्यापार की,हुई आज पर्याय।
सत्ता पाकर चाहती,पूर्ण सुरक्षित आय।।

आग सरीखा जेठ जब, जग झुलसाता खूब |
तब भी पत्थर फोड़कर, उग आती है दूब।

मेरे अपने न करें,गर पीछे से वार।
मेरे मरने के लिए,बना नहीं हथियार।।

मैं अपनों के सामने,हार गया हर बार।
यही एक विश्वास रख,देंगे एकदिन प्यार।।

आज सियासी दौड़ ने,दिया यहीं संदेश।
भक्त बन गई भाजपा,अंधभक्त कांग्रेस।।

लोभ,घृणा इंसान को,कर देते कमजोर।
पर संयम एक मंत्र है,रखता सदा बटोर।।

कपड़े कटते है महज़,करके देख विचार।
देह कभी कटते नहीं,कपड़ों के अनुसार।।

मूल्यवान हर चीज का,होता बड़ा महत्त्व।
इसीलिए विश्वास से,रखते सब अपनत्व।।

अंगरेजों के बाद जब,आये ये कंगरेज।
सत्ता को समझे सदा,केवल माल दहेज।।

ऐसा कुछ अभियान कर,उड़े पाक की नींद।
नहीं हमें मंजूर अब, होना नित्य शहीद।।

पत्थरबाजी से करें, बंदूकें ही बात।
तभी मिटेगी दहशती,काली वाली रात।।

बिल्कुल अच्छा है नहीं,उनका ये अंदाज़।
जाने क्यों अपने लगे,उनको पत्थरबाज।।

तोड़ फोड़ गठजोड़ की,दिखती ऐसी होड़।
राजनीति में पुत्र ने,दिया पिता को छोड़।।

नहीं किसी के बाप का,नौकर रहा किसान।
दाता बन देता रहा,सबको जीवन दान।।

कुर्सी हित जारी सतत् ,कोशिश यहाँ तमाम।
कुछ दंगे करवा रहे,ले किसान का नाम।।

सदा किसानों ने किया,धरती का शृंगार।
दाता बन सबको दिया,जीवन का उपहार।।

रहे श्रेष्ठ भारत सदा,करें मंत्र ये सिद्ध।
हर सत्ता का लक्ष्य हो,बने किसान समृद्ध।।

श्रमजीवी इस देश के,देते सबको सीख।
भूखे पेट सो जाते,नहीं माँगते भीख।।

स्वाभिमान की मूर्ति हैं,दाता आज किसान।
उनको भिखमंगा यहाँ,दिखा रहे शैतान।।

जिसको भारत ने कहा,धरती का भगवान।
उस किसान का कर रही,राजनीति नुकसान।।

रहे श्रेष्ठ भारत सदा,करें मंत्र ये सिद्ध।
हर सत्ता का लक्ष्य हो,बने किसान समृद्ध।।

मातृभूमि लगने लगी,जिनको अब अपमान।
मरने जाना चाहते,वे अब पाकिस्तान।।

दुष्टमना करते यहाँ,सदा घोर नुकसान।
मगर बिना विचलित हुए,करो लक्ष्य संधान।।

वक्त देखकर चुप रहो,धैर्य धरो दिनरात।
आशा रख कि आएगा,निश्चित नवल प्रभात।।

काँटो को दूँगा कभी,निश्चित सही जवाब।
पहले दिल में रोप लूँ,सुरभित एक गुलाब।।

तमल थिलेगा बोलते,तुतलाते हर बात।
फिर खाते में माँगते, पहले पंदलह लात।।😊😊😊

कटु,कटुता में भेद है,रखिये मत संदेह।
कटुता में ईर्ष्या भरी,कटु में सत्य सनेह।।

राष्ट्र भक्त को गालियाँ,चमचों का सम्मान।
बता ज़रा कैसे सहे,अब ये हिंदुस्तान।।

बाजारों के दौर में,रहे असत् फल फूल।
स्वार्थ साधना ही रहा,जिनका मूल उसूल।।

विपदा में धन बुद्धि है,धर्म है धन परलोक।
सद्चरित्र धन सदा का,हर लेता है शोक।।

जातिवाद,परिवार के,रक्षक सभी दलाल।
भ्रष्टाचार के पक्ष में,ठोक रहे अब ताल।।

फिर से सत्ता चाहते,भ्रष्ट विषैले नाग।।
चारा,टूजी, चिटफंड,का जिनके सिर दाग।

जिनके भ्रष्टाचार से,देश रहा बदहाल।
नोटबंदी ने छिल दी,उनकी मोटी खाल।।

बिन लाठी संभव नहीं,बंद श्वान की भौंक।
विनय न मानत दुष्टमना, मिले जहाँ भी ठोक।😊😊

अवसरवादी योग का,कुर्सी वाला मंत्र।
राजनीति के मायने,सांठगांठ, षड़यंत्र।।

लोकतंत्र चुनता नहीं,जब सीधे परधान।
मनमर्जी करते सदा,आपस में शैतान।।

संविधान में हो यहाँ,निश्चित एक विधान।
जनता सीधे चुन सके,अपना राष्ट्र प्रधान।।

राजनीति में हैं घुसे,जब तक खल,शैतान।
तब तक पूरा व्यर्थ है,लोकशक्ति मतदान।।

अपराधी नेता यहाँ,करते देश अनाथ।
बलात्कार करते सदा,लोकतंत्र के साथ।।

राजनीति के खेल में,चलता सदा लबेद।
नंगा बोले दूजै से,पाजामे में छेद।।

रहती थीं निश्चित कभी,गाय,भैंस हर द्वार।
वहाँ अधिकतर अब दिखे,खड़ी चमकती कार।।

एक तरफ तो चाहिए,सस्ते चावल दाल।
फिर झूठे क्यों रो रहे,हैं किसान बदहाल?

छाया,फल लेकर करे,सदा पेड़ से घात।
छेद तना खोखर करे,कठफोड़े की जात।।

जाति स्वभाव मिटे नहीं, हो चाहे विद्वान।
करवा देता आचरण,से अपनी पहचान।।

कैसा बनता जा रहा,अपना हिंदुस्तान।
देश भक्त को गालियाँ, जिन्ना का गुणगान।।

वाणी है अभिव्यक्ति का ,इक शाश्वत सृंगार।
शब्द-कमल करते जिसे,सुरभित अरु साकार।।

कुचिन्तन पर कीजिए,निशदिन सहज प्रहार।
शब्द परिष्कृत बोलिए,ले मन मे मनुहार।।

शस्त्र मुक्ति का बन सदा,करते व्याधि विनष्ट।
शब्द परिष्कृत मंत्र हैं,हर लेते हर कष्ट।।

अविवेकपूर्ण शब्द का,पड़ता गलत प्रभाव।
दुविधा,दुश्चिंता बढ़े,बढ़ते सदा तनाव।।

शब्द चयन में कीजिये,सही गलत का ध्यान।
परिणामों को सोचकर,हो वाणी संधान।।

अगर सुमंगल भाव से,रहें सुचिंतित बोल।
उपदेशों के रूप में,बन जाते अनमोल।।

दिखता नहीं विपक्ष में, नीती,नीयत,नेतृत्व।।
खत्म न हो जाये कहीं,काँगरेस का अस्तित्व।।

आत्म स्वार्थ संकीर्णता,कुंठा जिनमें आज।
कमरों से बाहर नहीं,उनका देश ,समाज।।

फटना तो तय है हृदय,चाहे जितना जोड़।
रिश्तों के जब दूध में,नींबू रहे निचोड़।।

नित विष की खेती करे,खुद ही जब इंसान।
अमृत फल की क्यों भला,सुने बात भगवान।।

2018 में-
💐प्यार और सहकार में,लेकर मन में हर्ष।💐
💐इक दूजे को दे दिए,अब तक चौंतिस वर्ष।।💐

दानवता के पक्ष में,जबसे बढ़े कुकृत्य।
मानवता लगने लगी,अकिंचित्कर इक भृत्य।।

मैं जीवन के जंग की,लिखता हूँ ललकार।
रखता नहीं स्वभाव में,नकली जय जयकार।।

बिना सतत् संघर्ष के,जीवन बनता रोग।
फिर भी कुछ को चाहिए,बिना कर्म सुख भोग।।

छिछोरेपन का जिसको,लगा हुआ है रोग।
सही बुरा समझे नहीं,कितना कर उतजोग।।

मिडिया की टट्टूगिरी,देखा हिंदुस्तान।
अपराधी के पक्ष में,बेच दिया ईमान।।

कभी उसे मत दीजिए,सद् शिक्षा का दान।
जिसके घुटनों में बसा,समझ-बूझ औ ज्ञान।।

जो विचार से शून्य है,होता वृषभ समान।
नहीं ठिकाना कब कहाँ,कर देगा अपमान।।

नैतिकता,आदर्श की,रही नहीं वो बात।
राजनीति के मायने,कल,बल,छल अरु घात।।

धीरे से ज्यों आ गए,देखा आज नरेश!
तुम भी आ जाओ भई, माया अरु अखिलेश।।

क्यों कुर्सी के खेल में,हो जाते बलिदान?
राजनीति का मोहरा,बनकर सदा किसान।।

तू ही कह मक्खन,दही,कैसे कोई पाय।
रंग देख बस दूध सा,चूना मथता जाय।।

लोकतंत्र की शक्ति ने,किया वाम को पस्त।
लाल किला अब हो गया,पूर्वोत्तर में ध्वस्त।।

लेफ्ट से राईट हुआ,त्रिपुरा का अंदाज।
लाल हटा कर दे दिया,केसरिया को ताज।।

जला होलिका घृणा की,खिला प्रेम का रंग।
गीत मिलन का मिल गले,आओ गाएँ संग।।

पूँछ हिलाना धर्म है,पैर चाटना पर्व।
कुत्तागीरी पर सदा,करते हैं कुछ गर्व।।

कर्म चिकीर्ण व्यक्तित्व जब,करता है सत्संग।
गोतीत हो तब गोचर का,रचता सत्य प्रसंग।।

जाति नाम पर कुछ लड़ें,निश्चित कुछ धर्मार्थ।
लेकिन पति पत्नी लड़ें, बिना वजह निस्वार्थ।।😊😊😊

बिना सतत् संघर्ष के,दूजा नहीं उपाय।
सूकर बनना है सुकर,दुष्कर बनना गाय।।

सख्त कदम से ही बने,बिगड़े सारे काज।
कैंसर का कीमो बिना,होता नहीं इलाज।।

नहीं बचेंगे भेड़िए,चूषक,शोषक जंतु।
नित उनके अब खुल रहे,घोटालों के तंतु।।

............................................................
मातृभाषा दिवस पर सगरी भासा भासी लोगन के अउलाह बधाई!हमार कुछ दोहा फेर से हमरा मातृभाषा में।

सुन्नर,मधुरी बोल आ, लेके सहज सनेस।
भोजपुरी के बेल इ,फइलल देस बिदेस।

बीस करोड़न लोग के,जीवन के रस धार।
भोजपुरी माँगत बिया,अब आपन अधिकार।।

भोजपुरियन के देखि लीं,मन के मधुर सुभाव।
रहल कबो ना आजु ले,हिन्दी से टकराव।।

भोजपुरियन से बा भरल,यूपी अउर बिहार।
उहे बनावेला सदा,दिल्ली के सरकार।।

अक्खड़पन भरपूर आ,दिल से सहज पवित्र।
स्वाभिमान भोजपुरिया,होला शुद्ध चरित्र।।

माई भासा ही असल,मनई के पहचान।
दोसर भासा ले सकी, ना ओकर स्थान।।

संस्कृति के पहचान के,सबसे सुन्नर नेग।
भासा जब साहित्य के,ओर बढ़ावे डेग।।

अपना भासा के अलग,होला कुछ जज्बात।
बड़ी आसानी से कहे,दिल के सगरी बात।।

भोजपुरी पहुँचल कबो,ना राजा दरबार।
सदा उपेक्षा ही मिलल,राजतंत्र के द्वार।।

भोजपुरी के नाम पर,झंडा आज तमाम।
खुद के जिंदाबाद बा,औरन के बदनाम।।

भोजपुर में भोजपुरी,नया कवन बा बात।
अब त एहके बोलताs,कलकत्ता-गुजरात।।

भजन भजेलें उ भले,भोजपुरी के रोज।
लउके भासा से अधिक,उनकर आपन पोज।।

भोजपुरी फुहड़ता पर,करिके कड़क प्रहार।
सुघर सही हर बात के,निसदिन करीं प्रचार।।

डॉ मनोज कुमार सिंह
.......…...........................................

करुणा परदुख आग है,प्रेम सुखद अहसास।
एक नयन का नीर है,एक हृदय की प्यास।।

दया,अहिंसा,दान संग, सतत् अनाविल धैर्य।
आत्म विजय से ही मिले, करुणा का ऐश्वर्य।।

माना तन,मन के लिए,पीड़ा है इक दंड।
पर करुणा बिन है सदा,जीवन इक पाखंड।।

जीवन के संसार का,अद्भुत है यह नेम।
करुणा में पीड़ा पले,सुख को पाले प्रेम।।

करुणा काँटों की चुभन,प्रेम प्रफुल्लित फूल।
दोनों के अपने अलग,होते रूप, उसूल।।

स्वागत है तब वाल पर,सही कीजिए तर्क।
नहीं व्यक्तिगत कीजिए,कोई कभी कुतर्क।।

नित्य करूँगा स्वार्थ पर, चोट सदा भरपूर।
तुझको गर लगता बुरा,रहो यहाँ से दूर।।

जिसके पास न शब्द हैं,उचित न कोई तर्क।
कुंठाओं से ग्रस्त हो,करते सदा कुतर्क।।

भला बुरा जो भी लगे, है सौ की इक बात।
दोहे मेरे बोलते ,खरी खरी सी बात।।

नहीं समझता हूँ सुनो,कभी किसी को नीच।
और मित्र पर फेकता,नहीं कभी भी कीच।।

सुन 'मनोज' होता नहीं,इतना बड़ा नवाब।
गर अपने देते नहीं,सुरभित प्रेम गुलाब।।

नफ़रत पाले मर गया,भरी जवानी ख़्वाब।
इक बुड्ढा जीता रहा,पाकर प्रेम गुलाब।।

सीखा सदा गुलाब से,अद्भुत एक उसूल।
खुद रख लेता शूल है, दूजों को दे फूल।।

जीवन में विश्वास औ',स्थिर होने की शक्ति।
साथ शांति प्रस्थापना,का साधन है भक्ति।।

सरल नीति अपनाइए,नहीं कुटिल के साथ।
कर देगा असहज निरा,निर्बल और अनाथ।।

जाति एक यथार्थ है,जातिवाद है व्यर्थ।
दुनिया के इस सत्य को,समझे वहीं समर्थ।।

कुंठाओं की ठोक कर,दिल में अपने कील।
मानव करता आ रहा,खुद को सदा ज़लील।।

सैन्य दिवस पर है तुम्हें, नमन हिन्द के शेर!
बारह कुत्तों को किया,पल में तुमने ढेर।।

सुसिद्धिर्भवति कर्मजा,का करिए नित पाठ।
हट जाएंगे देखना,स्वयं राह के काठ।।

जब भी चाहे मार दे,विश्वासों को लात।
यहीं आज का सत्य है,स्वार्थपूर्ति औ घात।।

पैसे में दम बहुत है,फिर भी है बेकार।
आज जोड़ने की जगह,तोड़ रहा परिवार।।

अच्छा क्या है क्या बुरा,नहीं जिसे पहचान।
वहीं कुसंगति में फँसा, जीवन में इंसान।।

गर्वीले इतिहास पर,भले लग रही चोट।
भंसाली को चाहिए,पद्मावत से नोट।।

व्यापारिक हर सोच का,होता यही चरित्र।
पैसा ही माँ बाप है,पैसा ही है मित्र।।

धीरे धीरे हो गया,जीवन इक उपहास।
लालू जी को है मिला,फिर से कारावास।।

न्यायालय ने कर दिया,फिर से आज अनाथ।
जगन्नाथ भी जुड़ गए,लालू जी के साथ।।

बहुत दोगला मीडिया,दिखे आचरण हीन।
चंदन पर करता नहीं,अब काली स्क्रीन।।

संसद में जब तब दिखे,चैनल में नित यार।
कुत्तों-सी भौं भौं लिए,शब्दों की बौछार।।

टीवी एंकर में दिखे,कितना भरा गुबार।
समाचार पढ़ता सदा,चिल्लाकर हर बार।।

समाचार बनते सदा,लेकर षष्ठ ककार।
क्या,कब,कहाँ,कौन और,क्यों,कैसे आधार।।

समाचार है सूचना,बिन कोई लाग लपेट।
मिर्च मसाला डालकर,करते मटियामेट।।

नहीं रही निष्पक्षता,दिखे महज़ हथियार।
विचारधारा के बने,ये चैनल सरदार।।

लोकतंत्र में हम जिसे,समझे चौथा स्तंभ।
बाँट रहा वो देश में,जाति,मज़हबी दंभ।।

मार डालते सत्य का,रूप हमेशा शिष्ट।
समाचार में डालकर,संदेहों का ट्विस्ट।।

पत्रकारिता बन चुकी,बाजारु अब माल।
पैसे खातिर कर रही,निशदिन सत्य हलाल।।

जब नक्सली चरित्र पर,किया गया इक शोध।
पूँजीवादी बन चुके,कर पूँजी प्रतिरोध।।

सूचनाओं में सनसनी,धोखे का व्यापार।
बीच हमारे बाँटकर,करते अत्याचार।।

सत्य सूचना की जगह,विज्ञापन अश्लील।
जिसे देख दर्शक सदा,होते यहाँ जलील।।

चौथा खंभा हो चुका,सड़ियल आज अँचार।
जिसका नहीं समाज से,सरोकार या प्यार।।

सौ में नब्बे सूचना,राजनीति से आज।
देता है ये मीडिया,ले घटिया अंदाज।।

कुतर्कों से मत करो,रिश्ते कभी खराब।
नहीं जरूरी क्रोध में,दो तुम शीघ्र जवाब।।

गाँव,गरीब,किसान का,दिया बजट में ध्यान।
निश्चित हिन्दुस्तान का,होगा अब उत्थान।।

उनको भी मिलता कहाँ,जीवन में सम्मान।
पद-मद में जो मातहत,का करते अपमान।।

वक्त बनाया है मुझे,गूंगा,बहरा,मौन।
ताड़ रहा हूँ जिंदगी,आखिर हूँ मैं कौन।।

लोकसभा में देखिए,कुत्तों -सी भौंकाल।
एक अकेला शेर ही,छीले उनकी खाल।।

अस्सी प्लस एनपीए,बतलाए बस तीस।
इटलीवादी हैं किते,बड़े चार सौ बीस।।

सुर्पनखा हँसती दिखी,लेकर अट्टाहास।
राज्यसभा में देश का ,उड़ा,उड़ा उपहास।।

अनपढ़ अपने लोक का,करे अधिक सम्मान।
जिसके बल पर ही बचा,स्वभाषा का ज्ञान।।

सहज,सरल,स्वभाव का,लिए मधुर मकरंद।
लोक चेतना में घुमे,स्वभाषा स्वच्छंद।।

वेलेंटाइन बन चुका, बाजारू व्यापार।
जिसको बच्चे समझते,नासमझी में प्यार।।

केवल कुर्सी के लिए,गड़े सियासी टेंट।
जाति-धर्म पर मौत भी,इवेंट मैनेजमेंट।।

भोला व वेलेंटाइन, का अद्भुत संयोग।
एक हृदय की है दवा,एक बाजारु रोग।।

कौन आँख करती बता,बहुत अधिक बेचैन।
चंचल चितवन मद भरे,या दर्दीले नैन।।

'न'अकेला रहकर होता,निश्चित सदा नकार।
मन से मिलकर हो गया,मनन,नमन साकार।।

नोटबंदी का दिखता,चोरों पर तासीर।
बवासीर से कुछ दुखी,कुछ को है नकसीर।।

डॉ मनोज कुमार सिंह