वन्दे मातरम्!मित्रो!आज समसामयिक युगबोध से संपृक्त एक गजल आपको समर्पित कर रहा हूँ। अगर अच्छी लगे तो अपनी स्नेहिल प्रतिक्रिया जरुर दें। आपकी हौसला अफजाई ही मेरी ताकत है। सादर,
गजल
चढ़ाकर पेड़ की फुनगी पे,फिर नीचे गिराना।
तेरी फितरत है छिपकर,पीठ पर खंजर चलाना।
मुझे मालूम है कैसे,निपटना है अंधेरों से,
मुझे आता तूफानों में,चरागों को जलाना।
मेरे जज्बात को, यूँ छेड़ना मत,फट पड़ेंगे,
पलीते हैं ये बम के,आग देकर आजमाना।
ख़ुशी या गम के आँसू हों,लरजते हैं वो पलकों पे,
निकलने के लिए बस चाहिए उनको बहाना।
बहुत फुफकारते हैं नाग,मुझको देखते हीं,
फिर भी छोड़ा नहीं है,पेड़ चंदन का लगाना।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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