वन्दे भारतमातरम!मित्रो!आज एक कविता आपको समर्पित कर रहा हूँ ,जिसका शीर्षक है-"कविता बन जाती है माँ".....आपको अगर अच्छी लगे तो अपना स्नेह जरुर दीजियेगा......
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कविता बन जाती है माँ
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अगर कविता में कदम रखना
कब्रिस्तान जाना है
तो मैं जा रहा हूँ
खोद रहा हूँ स्वयं अपनी कब्र
मेरे इस कृत्य पर
रिश्तों के बंधु-बांधव
नाखुश हैं
क्योंकि मैं उन्हें
कविता के अलावा
कुछ नहीं दे पाता
और ये कविता है
कि उन्हें पचती नहीं।
नीम की पत्तियों जैसे मेरे शब्द
जब फँस जाते है
उनके काले-पीले दाँतों में
तो वो जुगाली भी
नहीं कर पाते।
वैसे मैं अपनी खाल में
रच-पच जाना चाहता हूँ
मिटाना चाहता हूँ
अपनी पहचान के स्तूप
नहीं चाहता
कोई खँडहर अवशेष
मैं उगलना चाहता हूँ
बहुत सारे
छटपटाते हुए शब्द
जिनकी बेचैनी से
मैं बेवजह परेशान
रहता हूँ।
वैसे प्रसव के बाद
पीड़ा की मुस्कान का अर्थ
माँ हीं जानती है
वहीं पहचानती है
शब्दों के रूप
वहीं गढ़ती है
नए-नए भाव
वहीं देती है
कलेवर नए
तेवर नए
स्नेह की गुनगुनी धूप में
जब भी लडखडाते हैं शब्द
संभाल लेती है माँ
चलकर उसके संग-संग
कविता बन जाती है माँ।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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