वन्दे भारतमातरम!एक मुक्तक आप सभी मित्रों के लिए-
दिल में नफरत पालना अच्छा नहीं होता।
कूड़े में खुश्बू डालना,अच्छा नहीं होता।
फूल तो फूल है,महकने दो ' मनोज'
पत्थर में उसे ढालना,अच्छा नहीं होता।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्दे भारतमातरम!एक मुक्तक आप सभी मित्रों के लिए-
दिल में नफरत पालना अच्छा नहीं होता।
कूड़े में खुश्बू डालना,अच्छा नहीं होता।
फूल तो फूल है,महकने दो ' मनोज'
पत्थर में उसे ढालना,अच्छा नहीं होता।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्दे भारतमातरम!आज अपने घर जा रहा हूँ। सफ़र में हूँ । आत्मावलोकन के लिए आपको चार पंक्तियाँ समर्पित हैं-
तंज़ खुद पे कसा कीजिए।
जोर से फिर हँसा कीजिए।
जिंदगी खुशनुमा बन सके
अपना दिल आईना कीजिए।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्दे भारतमातरम्! मित्रो,आज फिर एक मुक्तक आप सभी को समर्पित करता हूँ। आपका स्नेह सादर अपेक्षित है..........
सदा जो राष्ट्रभक्ति का यहाँ उपहास करता है,
उसकी बुद्धिजीवी आचरण पर आज भी शक है।
शहीदों की शहादत भी जिसे प्रेरित नहीं करती,
ऐसे शख्स को इस देश में,जीने का क्या हक है?
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्दे भारतमातरम !मित्रो,आज एक मुक्तक आप सभी के सम्मान में समर्पित कर रहा हूँ, सदैव की भाँति आप सबका प्यार सादर अपेक्षित है...
चरागे-रहगुज़र बनकर उजाला दीजिए।
मुहब्बत से भरा सबको पियाला दीजिए।
बहुत खुशियाँ मिलेंगी देखना जी आपको,
किसी भूखे को जीवन में निवाला दीजिए।
(चरागे-रहगुज़र-राह का दीपक)
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्दे भारतमातरम! मित्रो!आज एक समसामयिक दोहा आप सभी को समर्पित है। आपका स्नेह अपेक्षित है.........
प्रजातंत्र जबसे हुआ,मनमोहक बाजार।
पैसा,पावर,पोल्टिक्स,नेता का आधार।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्दे भारतमातरम!मित्रो!आज एक कविता आपको समर्पित कर रहा हूँ ,जिसका शीर्षक है-"कविता बन जाती है माँ".....आपको अगर अच्छी लगे तो अपना स्नेह जरुर दीजियेगा......
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
कविता बन जाती है माँ
..........................................................
अगर कविता में कदम रखना
कब्रिस्तान जाना है
तो मैं जा रहा हूँ
खोद रहा हूँ स्वयं अपनी कब्र
मेरे इस कृत्य पर
रिश्तों के बंधु-बांधव
नाखुश हैं
क्योंकि मैं उन्हें
कविता के अलावा
कुछ नहीं दे पाता
और ये कविता है
कि उन्हें पचती नहीं।
नीम की पत्तियों जैसे मेरे शब्द
जब फँस जाते है
उनके काले-पीले दाँतों में
तो वो जुगाली भी
नहीं कर पाते।
वैसे मैं अपनी खाल में
रच-पच जाना चाहता हूँ
मिटाना चाहता हूँ
अपनी पहचान के स्तूप
नहीं चाहता
कोई खँडहर अवशेष
मैं उगलना चाहता हूँ
बहुत सारे
छटपटाते हुए शब्द
जिनकी बेचैनी से
मैं बेवजह परेशान
रहता हूँ।
वैसे प्रसव के बाद
पीड़ा की मुस्कान का अर्थ
माँ हीं जानती है
वहीं पहचानती है
शब्दों के रूप
वहीं गढ़ती है
नए-नए भाव
वहीं देती है
कलेवर नए
तेवर नए
स्नेह की गुनगुनी धूप में
जब भी लडखडाते हैं शब्द
संभाल लेती है माँ
चलकर उसके संग-संग
कविता बन जाती है माँ।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्देमातरम मित्रो!आज पुनः एक मुक्तक आप सभी को समर्पित करता हूँ ।आपका स्नेह सादर अपेक्षित है-
हर समय ,हर हाल में ,सम्मान उसको चाहिए।
हाथ जोड़े ,सिर झुका ,इंसान उसको चाहिए।
गिड़गिड़ाते शब्द सुनने का ,रहा कायल सदा,
भरभराते स्वर सजे,जुबान ,उसको चाहिए।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्देमातरम मित्रो! मेरी चार पंक्तियाँ देश के नाम-
आपका स्नेह अपेक्षित है-........
हम पाँव अंगदी,नहीं कभी हिलने वाले।
हम दीप वहीं ,तूफानों में जलने वाले।
हे भारत माँ!हम रीति वहीँ रघुकुल की हैं,
हम गीत वहीं,प्रण-प्राणों में पलने वाले।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्दे भारतमातरम!मित्रो,एक मुक्तक आपको समर्पित करता हूँ........आपका स्नेह सादर अपेक्षित है.........
जुगनुओं की रौशनी में,कौन पढ़ता है भला।
औ पढ़े बिन जिन्दगी में ,कौन बढ़ता है भला।
बस झुकाना चाहते हो,खुद कभी झुकते नहीं,
पर्वतों पर बिन झुके यूँ,कौन चढ़ता है भला।।
डॉ मनोज कुमार सिंह