Sunday, July 19, 2020
दोहे मनोज के.....भाग-3
दोहे मनोज के....
गुरु महिमा पर लिख गए,अनगिन संत,फ़कीर।
जिनके अमरित वचन से,मिटती मन की पीर।।
क्या दूँ मैं गुरुदक्षिणा,कैसे दूँ सम्मान।
हे गुरु! सब तेरा दिया,मेरी क्या पहचान?
गुरुओं ने जब जब दिये,जीवन-ज्ञान-प्रकाश।
सत्यान्वेषण के लिए,बढ़ी हृदय में प्यास।।
कथावाचकों से खुला,नया ज्ञान अध्याय।
अब तो अर्वाचीन में,गुरु बनना व्यवसाय।।
व्यभिचारी कुछ हैं यहाँ, मन से निरा कुरूप।
गुरु चोला में बाँटते, छद्म ज्ञान की धूप।।
कभी शिष्य थे ढूढ़ते,गुरु समर्थ की छाँव।
अब तो गुरु ही खोजते,धनी शिष्य की ठाँव।।
जल,थल,ग्रह,नक्षत्र,गगन,अंतरिक्ष का भान।
गुरु महिमा सम्मुख लगे,ज्यों इक बूंद समान।।
गुरु अनुभव का पुंज है,ज्योतिर् अक्षय कोष।
चरणों में जिसके बसा,तमस मुक्ति,मन तोष।।
जैसे खोया धन मिले,मिटे युगों के कष्ट।
गुरु दर्शन से मोह,तम,होते मन से नष्ट।।
आत्मदान जब गुरु किया,आत्म समर्पण शिष्य।
मोह,तमस मिटने लगा,ज्योतित हुआ भविष्य।।
भावों की बरसात से,भारी मन के पाँव।
सृजन-प्रसव की चाह में,ढूढ़े सुन्दर छाँव।।1।।
सावन में नित झूलतीं,बिरहिन झूला डार।
नयन पपीहा टेरता,आ जाओ भर्तार।।2।।
जब बारिश रचने लगी,मन में केवल प्यास।
बिरहिन को दाहक लगे,हर क्षण सावन-मास।।3।।
प्रेम-विरह में हो गए,सावन जैसे नैन।
उमड़ घुमड़ वे बरसने,को दिखते बेचैन।।4।।
बरसत सावन मास की,एक अनोखी रीति।
अंतर्मन,तन,हृदय में,भर देती है प्रीति।।5।।
बारिश बूँदों ने छुए,जब फूलों के गाल।
सावन में मन मोर बन,नाचे मादक चाल।।6।।
कजरी गाती गोरियाँ, पंछी मेघ मल्हार।
सावन में जब तक झरे,नभ से बूंद-फुहार।।7।।
पायल-सी छन-छन करे,रिमझिम बारिश बूँद।
चातक-मन हो नभ मुखी, सुनता आँखें मूँद।।8।।
जहाँ महल पाता रहा,बारिश से सुख खास।
वहीं झोपड़ी भोगती,सावन में संत्रास।।9।।
ढही झोपड़ी,ढह गए,कच्चे सभी मकान।
देखा इस बरसात ने,ले ली अनगिन जान।।10।।
मेघों से झरने लगे,प्रणय सिक्त रसधार।
गोरी निकली भींगने,सावन गया जुठार।।11।।
........
काव्य-वृक्ष पर जब फलें,छंद, बिम्ब,लय,ताल।
अमरित रस घोलें सहज,हृदय मध्य तत्काल।।1।।
कड़ी धूप के सामने,रख अंगद-सा पाँव।
वृक्ष पुराना गाँव का,देता अब भी छाँव।।2।।
वृक्ष धरा पर हैं खड़े,बनकर जीवन ढाल।
ग्रीष्मकाल को भी करें,शीतल नैनीताल।।3।।
वृक्षों की इस भूमि पर,महिमा अपरंपार।
इनके औषधि गुण करें,रोगो के उपचार।।4।।
वृक्ष धरा अनुदान हैं,जल के अद्भुत स्रोत।
प्राणवायु देते हमें, चलता जीवन-पोत।।5।।
वृक्ष हमें जब दे रहे,प्रेम-छाँव आशीष।
क्यों निर्मम हो काटता,मानव उनके शीश? 6।।
वृक्षारोपण कीजिए,रहना अगर निरोग।
वरना घुट घुटकर यहाँ, मर जाएँगे लोग।।7।।
सुख सुविधा की चाह में,जाने कैसी होड़।
कटते अंधाधुंध हैं,निशदिन वृक्ष करोड़।।8।।
उफन उफन नाले बहें, पड़े समंदर मौन।
झंखाड़ों के सामने,झुके वृक्ष सागौन।।9।।
मोहक जिनके चित्र हैं,पावन संत चरित्र।
स्वार्थहीन ये वृक्ष ही,असल मनुज के मित्र।।10।।
ऑक्सीजन देते सदा,निशदिन वृक्ष महान।
मगर उन्हीं पर कुल्हाड़ी,नित मारे इंसान।।11।।
वृक्ष धरा के प्राण हैं,देते जीवन दान।
फिर क्यों कुल्हाड़ी मारे,नित उनपर इंसान।।12।।
.....
हँसी दवा हर मर्ज की,रखिये अपने पास।
ये धन जिसके पास है,होता नहीं उदास।।
हँसी मधुर मदिरा सरिस, जीवन का आनंद।
रचती है नित हृदय में,मस्ती के नव छंद।।
हँसी, चाँदनी सी लगे,कभी सुबह की धूप।
मन-मधुबन में घोलती,खुशियों के मृदु रूप।।
जिसने केवल झूठ का,लिया सहारा मात्र।
जीवन में वह आदमी,बना हँसी का पात्र।।
......
कदम कदम मिलते यहाँ,ऐसे मूर्ख तमाम।
ढूढ़े नित्य बबूल पर ,मीठे मीठे आम।।
साठ किलो की देह में,पाँच ग्राम का ज्ञान।
फिर भी मानव में भरा,टन भर का अभिमान।।
स्वार्थ और अभिमान की, एक यहीं पहचान |
अपना घर बस चमन हो, बाकी सब शमशान ||
सदा दंभ से भिन्न है,स्वाभिमान का रूप।
एक घृणा की उत्स है,एक प्रेम की धूप।।
दो कौड़ी का आदमी ,होता जब मशहूर |
दंभ और मद में सदा ,रहता निश्चित चूर ||
कर्तव्यों के सिर चढ़े ,जब-जब ये अधिकार |
धर घमंड का रूप ये,बने स्वार्थ के यार।।
शपथ ले चुकी लेखनी,सत्य लिखेगी बात।
मानव दुख की रात को,देगी नवल प्रभात!!
घुटन,त्रासदी,भय तथा मानव का संत्रास।
संकट के इस दौर में,रचिये कुछ विश्वास।।
आज़ादी के बाद से,यहीं दिखा परिवेश।
संग गधों के दौड़कर,घोड़ा हारे रेस।।
आग सरीखा जेठ जब ,जग झुलसाता खूब।
तब भी पत्थर फोड़कर,उग आती है दूब।।
हे कविते!तुम हो कहाँ, आओ मन के द्वार।
भावों के अँकवार में ,भर लूँ मैं इक बार।।
कौन हृदय से नेक है,कौन कुटिल कमज़र्फ।
पढ़ लेता हूँ झाँककर,आँखों के हर हर्फ़।।
रिश्ते जर्जर हो गए,स्वार्थ बना जब शाप।
घर में बोझिल से लगें,अपने हीं माँ -बाप।।
बल,पराक्रम,जोश ही,हैं ऊर्जा के अंग।
उम्मीदों के पाँव में,भरते नित नव रंग।
उम्मीदों पर है टिका,जीवन का संसार।
जैसे पतझर बाद ही,आती सदा बहार।।
बेईमान से न करें,आप कभी उम्मीद।
कर देते विश्वास की,मिट्टी सदा पलीद।।
वक्त देखकर चुप रहो,धैर्य धरो दिन-रात।
आशा रख कि आएगा,निश्चित नवल प्रभात।।
मानव-जीवन अभय हो,कभी न हो भयभीत।
इसीलिए रचते सदा,उम्मीदों के गीत।।
जबसे घर में खत्म हैं,आटा,चावल,साग।
बैठे हुए उदास मन,चूल्हा,लकड़ी,आग।।
कभी जेठ-सी जिंदगी और कभी आषाढ़।
लगता किस्मत में लिखा,केवल सूखा बाढ़।।
नानी के किस्से किए,घर घर से प्रस्थान।
बच्चे लेने लग गए,जबसे गूगल ज्ञान।।
यह समाज होता गया,जबसे अर्थप्रधान।
रिश्तों के ढहने लगे,स्नेहिल सभी मकान।।
लगा मुखौटा वासना,जाकर दिल के द्वार।
ताल ठोक कहने लगी,मैं ही सच्चा प्यार।।
जब साजिश ने झूठ का,पलड़ा किया सशक्त।
लगा काटने सत्य का,जिंदा नित्य दरख़्त।।
खिलकर झड़ने का कभी,रखता नहीं हिसाब।
सतत् पौध रचता नवल,सुरभित एक गुलाब।।
ज्ञान,बुद्धि, साहस तथा,ईश्वर में विश्वास।
असमय के ये मित्र हैं,रखिए दिल के पास।
लिखने भी आता नहीं, सही सही दो शब्द।
वही लिखने बैठे हैं,आज मेरा प्रारब्ध।।
ऊँचे चढ़ कर सीख लो,कुछ तो करना प्यार।
वरना नीचे उतरना,पड़ता इकदिन यार।।
हम लेते मट्ठा सदा,तुम बीयर का पैग।
फिर भी हम दोनों रहे ,इक दूजे से टैग।।
सृजन कभी रखता नहीं,विध्वंसों को याद।
यही सृष्टि का सत्य है,फल ही बनता खाद।।
मत कुपात्र को दीजिये,शिक्षा,भिक्षा,दान।
पाकर भी करता सदा,दाता का अपमान।।
कहने को सागर बड़ा,बुझा न पाता प्यास।
मधु जल में भी घोलता,कड़वाहट,संत्रास।।
हाथ जोड़कर राम ने,विनय किया तीन दिन।
बजा दिया था बैंड फिर,ताक धिना धिन धिन।।
दिल से हैं अति काइयाँ, मन से जो खुदगर्ज।
वे ही फर्जी लोग अब,हमें सिखाते फर्ज।।
नगर नागरिक से बसे,उनका ये कर्तव्य।
रखे स्वच्छता नगर में,जीवन हो अति भव्य।।
शब्द,भाव की सर्जना,बनती काव्य विभूति।
गीत,ग़ज़ल, दोहा रचे,लेकर नव अनुभूति।।
यति,गति,तुक, लय,ताल में,रचा काव्य मकरंद।
सुरभित कर देता हृदय,कहते जिसको छंद।।
सोलह,पन्द्रह वर्ण से,विरचित हुआ कवित्त।
स्वर देकर सरसाइये,हरषे सबका चित्त।।
प्रेस्टीच्यूटों ने किया,लोकतंत्र कमजोर।
टीआरपी के वास्ते, सदा मचाते शोर।।
ब्रिटिश से मिलकर तोड़ा ,अपनों का ही नीड़।
कितनी बड़ी गुलाम थी,जयचंदों की भीड़।।
गद्दारों का आजतक,छिपा रहा इतिहास।
बीच सड़क पर हो गया,जिनका पर्दाफाश।।
वामी कामी लिख गए,उलट पुलट इतिहास।
आज देश ये भोगता,नित्य दर्द संत्रास।।
नहीं आज जो मानते, खुद को मनु-संतान।
वहीं बताएँ कौन हैं,पूछे हिंदुस्तान।।
नहीं बदलते आचरण,कर लो यत्न हजार।
मक्कारी,छल-छंद ही,दुष्टों का हथियार।।
डुबते को पूछे नहीं,यही जगत का काम।
सब जन उगते सूर्य को,करते यहाँ प्रणाम।।
धन का,बल का,रूप का,रहता जिन्हें गरूर।
वक्त एक दिन मानिए,खंडित किया जरूर।।
साजिश ने इस मुल्क को, दे दी ऐसी पीर।
टीवी खोलो तो दिखे,हिंसा की तस्वीर।।
विदा-आगमन वर्ष के,संधि दिवस पर आज।
चलो करें संकल्प हम,निर्भय बने समाज।।
शांति,अमन बरसे सदा,ऐसा हो नववर्ष।
मानवता की छाँव में,देश करे उत्कर्ष।।
नवल वर्ष में कामना,पल-पल हो खुशहाल।
शोषित,वंचित को मिले,रोटी,चावल,दाल।।
नवलय ,नवगति छंद -सा ,हो यह नूतन वर्ष |
राग लिए नवगीत का ,बरसे घर-घर हर्ष ||
नवल वर्ष में प्राप्त हो ,खुशियाँ अपरंपार |
जीवन मानो यूँ लगे ,फूलों का त्यौहार ||
अच्छी सब ख़बरें मिलें,नवल वर्ष में मित्र।
सबके अधरों पर रहें,खुशियों के सब चित्र।।
नवल वर्ष में हर्ष का,ऐसा हो संयोग।
तन-मन-जीवन स्वच्छ हो,जन जन रहे निरोग।।
लाइक के संग टिप्पणी, कुछ तो करें हुजूर।
अर्थवान रचना बने,सन्नाटे हों दूर।।
जुड़े हजारों मित्र हैं,पर कुछ ही साकार।
देते हैं अनमोल वे,निशदिन ललित विचार।।
दोहा,मुक्तक औ' ग़ज़ल,का लेकर हथियार।
कविता मेरी नित करे,विडम्बना पर वार।।
देख सामने जुर्म भी ,रहते हैं हम मौन।
अपराधी हैं या बता,आखिर हैं हम कौन?
नवल वर्ष में मुल्क में,सबसे यहीं अपील।
मिलजुलकर आतंक पर,ठोंके अंतिम कील।।👍
देश तोड़ने में लगे,कुंठित धोखेबाज।
जातिवाद के जहर का,हो अब शीघ्र इलाज।।
चाहे पाकिस्तान हो,या हों स्लीपर सेल।
बरसाकर बम,गोलियाँ,खत्म करें सब खेल।।
मातु,पिता,गुरु,राष्ट्र के,निश्चित बनिए भक्त।
मानस के बल हैं यहीं,और शिरा के रक्त।।
इच्छा से ऊपर उठो,बनो सत्य के दूत।
हो जाओगे एकदिन,कालजयी अवधूत।।
कठिन प्रश्न के दे पाते,वे ही सही जवाब।
जिनका जितना है बड़ा,लक्ष्य प्राप्ति का ख्वाब।।
नेट,कॉल चलते नहीं,या तो रहते व्यस्त।
सेवा एयरटेल की,जैसे लकवाग्रस्त।।
पैसा एयरटेल में,भरवाना बेकार।
मन करता है छोड़ दें,अब इसका संचार।।
अध्यक्षर अध्यात्म का,अद्भुत और अनंत।
पढ़े अलौकिक सत्य को,अन्तरध्यानी संत।।
अध्यक्षर -अक्षर अक्षर
अध्यात्म-आत्मा से सम्बंधित
सबके अपने रंग है,सबके अपने खेल।
मेरे हाथ गुलाल था,उनके हाथ गुलेल।।
नव धनाढ्यता रोग है,मन में भरे गुमान।
ओढ़ आवरण झूठ का,जीता बस इंसान।।
धैर्य,त्याग,संकल्प से,तय कर अपनी राह।
जीवन को उत्सव बना,पाएगा उत्साह।।
लिखती मेरी लेखनी,खरी खरी-सी बात।
सज्जन को देती खुशी,दुष्टों को आघात।।
गाँव छोड़ कर जो गए ,श्रमिक शहर की ओर।
आज ठगे महसूसते,छिने गए जब ठौर।।
महल बनाते थक गए,जिनके दोनों हाथ।
उनको महलों ने दिया,सोने को फुटपाथ।।
गाँव हमारे आज तक,थे कोरोना मुक्त।
शहरों के कारण मगर,हो जायेंगे युक्त।।
आम आदमी की अभी,दिल्ली में सरकार।
आम आदमी सड़कों पर,दिखता क्यों लाचार?
खुद के अगर प्रदेश में,काम करें मजदूर।
किसी हाल में रहेंगे,नहीं कभी मजबूर।।
सरकारों को चाहिए,करें गाँव मजबूत।
रोजगार के क्षेत्र में,दें अतिशीघ्र सबूत।।
हती गई हो सड़क पर,जैसे सीधी गाय।
ऐसे ही दिखते हमें,श्रमिक आज निरुपाय।।
श्रमिकों के दुख दर्द के,सब हैं जिम्मेदार।
मालिक हो उद्योग के, या कोई सरकार।।
कोरोना से दिख रहा,भले देश मजबूर।
जीतेंगे हम जंग को,मिलकर शीघ्र जरूर।।
क्यों इतना चिल्ला रहे, क्यों इतना आक्रोश।
किसने लूटा आपका,ज्ञान,हुनर का कोष?
उसे चाहिए मुफ्त में,जीवन में उत्कर्ष।
पर अच्छे दिन कब मिले,बिना किये संघर्ष।।
यशगाथा दरबार की,गाकर झूठ तमाम।
सदियों से तोते यहाँ,पाते रहे इनाम।।
जिसपे बरसाते रहे,हम शुभ सकल गुलाब।।
बदले में उसने दिए,नफरत के तेजाब।।
धर्म,ज्ञान सर्वोच्च हैं,कहता ये संसार।
पर जीवन-परिप्रेक्ष्य में,सर्वोत्तम है प्यार।।
मातृभूमि की वंदना,वंदे मातरम् गान।
गाकर फाँसी चढ़ गए,क्रांतिवीर संतान।
खुशियाँ जब से हो गईं,सत्ता की जागीर।
नहीं कभी भी पढ़ पाईं,आँसू की तहरीर।।
जब जब स्वारथ-आग ने,फैलाये हैं पाँव।
झुलस गए उस ताप से,रिश्तों के हर गाँव।
सच घायल हो नित यहाँ,करता है चीत्कार।
झूठ ख़ुशी में झूमता,मना रहा त्योहार।।
प्रेम और परमार्थ को,करके दिल से दूर।
स्वार्थ भाव ने जमा लिए,अपने पग भरपूर।।
लोमड़ियाँ भौचक दिखीं,परेशान सब स्यार।
छीना जब इंसान ने, उनका हर किरदार।।
आजीवन है झेलता समझ भाग्य दस्तूर।
पीड़ा हो या यंत्रणा,इंसां को मंजूर।।
आश्वासन देकर गए,नेता जी भरपूर।
ख्वाब दिया था आम का,बोकर गए बबूर।।
असुरों की जबसे बढ़ी,दिन प्रतिदिन औकात।
सत्य,अहिंसा, धर्म पर,करते हैं आघात।।
आप बताएँ किस तरह,उससे करें सलूक?
जब कोई पीछे खड़ा,ताने हो बंदूक।।
प्रेम-रूप,रस-गंध से,लेकर रंग हजार।
आओ दुल्हन सा करें ,धरती का शृंगार।।
उससे कर प्रतियोगिता, जिसमें है कुछ खास।
उनसे क्या जिसको नहीं,खोने को कुछ पास।।
जिसको अपने ज्ञान पर,होता अधिक घमंड।
अज्ञानी वह शख्स है,बेहद मूर्ख प्रचंड।।
पूर्वज दोहाकार के,देख कथ्य ,उपदेश।
शायद कुछ बचता नहीं,कहने को अब शेष।
विडंबना औ' विसंगति,में डूबा यह दौर।
बदल दिया है आजकल,लिखने का भी तौर।
तेरह ग्यारह का भले,निश्चित हो निर्वाह।
रचिये दोहा आधुनिक,भरकर नवल प्रवाह।
शब्द समाहित कीजिये,भाव तुला पर तोल।
बोध,सोच हो आधुनिक,तब दोहे में बोल।।
घुटन,त्रासदी,भय तथा मानव का संत्रास।
संकट के इस दौर में,रचिये कुछ विश्वास।।
दोहा रचने के लिए,रखिए इतना ध्यान।
वर्तमान के नब्ज को,पकड़े शब्द विधान।।
नानी के किस्से किए,घर घर से प्रस्थान।
बच्चे लेने लग गए,जबसे गूगल ज्ञान।।
यह समाज होता गया,जबसे अर्थप्रधान।
रिश्तों के ढहने लगे,स्नेहिल सभी मकान।।
पत्थर,पानी,फूल या मानव,जीव अनेक।
भिन्न रूप में है निहित,हर कण में बस एक।।
रहना है गर स्वस्थ तो,चला पैर औ हाथ।
करो सूर्य आसन सुबह,ओम ध्वनी के साथ।।
योगासन हथियार से,करते हम जब वार।
मोटापा,प्रेशर,शुगर,मिटते सभी विकार।।
अनजाना सच योग का,यहीं योग का सार।
मृत में अमृत भर करे, ऊर्जा का संचार।।
छोड़ दौड़ना भागना,टहल सुबह औ शाम।
सहज सहज पाओ सदा,स्वस्थ,सुखद परिणाम।।
कपालभाती नित्य कर ,कर अनुलोम विलोम।
प्राणायाम अभ्यास से,मिटते सब सिन्ड्रोम।।
योगासन हरता सदा,मन के सभी तनाव।
तन को देता दिव्यता,औ मन को मृदुभाव।।
आत्म ध्वनी जिसकी छिपी,लिए हृदय में प्रीत।।
ईश्वर की वाणी सरिस,जीवन का संगीत।।
गायन वादन नृत्य मिल,रचते हैं संगीत।
जो रस की सृष्टि करता,मन में भरता प्रीत।।
लय, स्वर मधु अनुनाद सुन,गाये जाते गीत।
तालबद्ध अभिव्यक्ति है,मानवीय संगीत।।
सम्यक शुद्ध प्रकार से ,गाया जाए गीत।
शायद उसको ही यहाँ, कहा गया संगीत।
केवल मनोरंजन नहीं,यह पीड़ा उपचार।
इसीलिए संगीत से,दुनिया करती प्यार।।
जिसमें तन मन झूमता,गाकर दिल का गीत।
नृत्य,गीत औ'वाद्य का,समाहार संगीत।।
जो लिखते बिन ज्ञान के,दवा,छंद अभिधान।
निश्चित करते छंद औ,जीवन का नुकसान।।
औषधि-सी होती सदा,कविता की तासीर।
शब्द,अर्थ अरु भाव से,मिटती मन की पीर।।
रोगी कड़वी दवा को,कहता उल जुलूल।
जबकि रोगी के लिए,होती है अनुकूल।।
दवा न आए जब तलक,मिले सफलता हाथ।
होगा जीना सीखना,कोरोना के साथ।।
सात्विकता अरु स्वच्छता,खुद में इक वरदान।
बिना दवा-दारू लिए,स्वस्थ रहे इंसान।।
पत्थर,पानी,फूल या मानव,जीव अनेक।
भिन्न रूप में है निहित,हर कण में बस एक।
रिश्तों में ढाला गया,जीवन का संसार।
बिखरे तो पत्थर हुए,जुड़े तो इक परिवार।।
दोहा दर्पण की तरह,देता सत्य विचार।
अपने ही प्रतिबिंब पर,मत यूँ पत्थर मार।।
जनता के अरमान के,गर्दन दिए मरोड़।
पत्थर के हाथी बना,लूटे शतक करोड़।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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