शीर्षक-"कैसे गाएँ गीत मल्हार"
∆विरह-गीत∆
कैसे गाएँ गीत मल्हार।
चिढ़ाते दर्पण में शृंगार।।
लगता सूना-सूना आँगन।
यादों में तड़पे ये तन -मन।
पिया गए परदेश सखी रे,
दुश्मन-सा लागे ये सावन।
प्रणय-राग अब नहीं छेड़ते,
पायल के झनकार।
कैसे गाएँ गीत मल्हार।।
कजरी जैसे मुँह चिढ़ाती।
विरह -आग में मुझे जलाती।
नींद भई ज्यों बैरन मेरी,
रात-रात भर पास न आती,
जिस झूले पर था झूलता मन,
टूट गए सब तार।
कैसे गाएँ गीत मल्हार।।
बिंदी चूड़ी,मेंहदी, कंगन।
सावन को करते मनभावन।
जिसका पी परदेस बसा रे,
सोचो उसका कैसा जीवन?
ऊपर से नित ताना मारे,
सखियाँ नित्य हजार।
कैसे गाएँ गीत मल्हार।।
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