गीतिका मनोज की....(भाग-4)
1-
∆गीतिका∆
जीने की राहों पर आखिर चलना पड़ता है।
उम्मीदों का दीपक बन खुद जलना पड़ता है।
घर का चूल्हा जले हमेशा,क्षुधित न बच्चे सो जाएँ,
रोटी के चक्कर में रोज निकलना पड़ता है।
कुंदन जैसी चमक चाहिए तो हमको सोने जैसा,
ताप कुंड में तपकर सदा पिघलना पड़ता है।
परिवर्तन का मूल मंत्र है,जीवन नहीं मरा करता,
उसको नव सूरज सा उगना,ढलना पड़ता है।
इकरसता में फँसी चेतना,जिंदा रहने की खातिर,
आखिर उसको अपना स्वाद बदलना पड़ता है।
जीवन की राहों में आते,कठिनाई के जब पत्थर,
संकल्पों से उनको वहीं कुचलना पड़ता है।
अच्छा है या बुरा आदमी,समझ लिया जब करते हैं,
यथा उचित उनसे व्यवहार बदलना पड़ता है।
2-
∆ गीतिका ∆
खुद को तलाशो तो अंदर मिलेगा।
कतरे के भीतर समंदर मिलेगा।।
रही सोच अच्छी अगर जिंदगी में,
मिला जो है उससे भी बेहतर मिलेगा।
जो बैठे हैं ऐंठे विलासी भवन में,
है निश्चित वहाँ पर आडंबर मिलेगा।
जो अपना है अपना रहेगा हमेशा,
किसी हाल में तुमसे बढ़कर मिलेगा।
यही दोस्ती का अधिकतर फसाना,
मुखौटे में मतलब का खंजर मिलेगा।
अगर सच बताने की कोशिश करी तो,
चेहरे पे बदले में पत्थर मिलेगा।
कभी कुछ गरीबों को खाना खिला दो,
उसी में छिपा कोई ईश्वर मिलेगा।
3-
∆गीतिका∆
सच जरा क्या कह दिया,दुश्मन जमाना हो गया।
मुझसे उनका पेश आना,वहशियाना हो गया।
था निभाना जिंदगी भर,जिसको यूँ हर हाल में
आजकल रिश्तों को केवल,आजमाना हो गया।
चहचहाहट थी चमन में,सुगंधित रिश्ते रहे,
आये जब से साँप,गुलशन बारूदाना हो गया।
जिसने टोटी और चारा,जर,जमीने हड़प लीं,
आजकल वो देश का,नामी घराना हो गया।
सियासत में मर गई,संवेदना इंसान की,
प्यार जैसे कब्र की जानिब,रवाना हो गया।
4-
गीतिका
शौक से मजबूर होता कौन है।
बेवजह मजदूर होता कौन है।
आप ही कहिए जरूरत के बिना,
घर से अपने दूर होता कौन है।
ऑफिसों में बिन दिए कुछ पेशगी,
बिल भला मंजूर होता कौन है।
बिना विज्ञापन,विवादित बोल के,
आजकल मशहूर होता कौन है।
भूख की ज्वाला न हो गर पेट में
सुलगता तंदूर होता कौन है।
जिंदगी जीने की राहों में कभी,
दक्ष यूँ भरपूर होता कौन है।
5-
∆ गीतिका∆
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वक्त से आगे,निकल कर देखिए।
दम अगर है,सच निगल कर देखिए।
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बर्फ जैसे जम गए इस दौर में,
आग के शोलों में ढल कर देखिए।
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आदमी को आदमी रहने न दें,
भेड़ियों के बीच पल कर देखिए।
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बदल जाएगी ये दुनिया मानिए,
एक दिन खुद को बदल कर देखिए।
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गिराना, गिरना बहुत आसान पर,
फिसलकर फिर खुद संभल कर देखिए।
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6-
गीतिका
झूठ मलामत भेज रहा है।
अपनी फितरत भेज रहा है।
सच से आहत है वो जबसे,
केवल नफरत भेज रहा है।
शुक्र खुदा का दुख में साँसें
सही सलामत भेज रहा है।
अपराधों को देखा फिर भी
नहीं मज़म्मत भेज रहा है।
आत्मप्रशंसा का भूखा खुद
अपनी अजमत भेज रहा है।
प्रेम पत्र में घृणा-जहर भर
कुंठा लानत भेज रहा है।
7-
गीतिका
दिन हैं अच्छे,..ये एहसास कराया जाए।
हरेक मुफलिस को,सीने से लगाया जाए।।
ग़मों की आँच पे,सद्भाव का मरहम रख के,
दर्द के पाँव का,हरा जख्म मिटाया जाए।
बीज इंसानियत का,इस धरा पे कायम हो,
प्रेम का आचरण,बच्चों को पढ़ाया जाए।
जो भी भटके हैं,उसे प्यार की थपकियों से,
भले धीरे ही सही,...राह पे लाया जाए।
दबे-कुचले व वंचित शोषितों की धरती पे ,
गिरे इस मुल्क को,बच्चे- सा उठाया जाए।
जाति-मजहब की दिवारों को तोड़कर,आओ,
प्रेम की नींव पर,एक मुल्क बसाया जाए।
8-
गीतिका
हृदय काव्य का मदिरालय है।
जिसमें मलयानिल-सा लय है।
भावों की उठती झंझा में,
बनता मन में शब्द वलय है।
पहले तुम मुस्काकर देखो,
गैरों का मुस्काना तय है।
मिली पराजय में,अपनो से,
छिपी तुम्हारी असली जय है।
काव्यभाव का बोध उसी को,
जिसके भीतर सरस हृदय है।।
9-
गीतिका
शब्द जब भी आपसी संवाद, करते हैं।
मौन रहकर भाव अनहद नाद, करते हैं।
जब भरोसा दो दिलों को,पास लाता है,
जिंदगी में प्यार उसके,बाद करते हैं।
अनकहे कैसे कहें ,जब समझ आता नहीं,
फिर नयन से नयन का,अनुवाद करते हैं।
दिल के सोए तार पे,उंगली फिरा कर देखिए,
ये भी वीणा की तरह, अनुनाद करते हैं।
दर्द की घाटी में उगते,आँसुओं को पढ़ जरा,
मुफलिसी में किस तरह,फरियाद करते हैं।
10-
गीतिका
जैसे वो अपना प्रश्न उठाकर चला गया।
हर आदमी को आइना दिखाकर चला गया।
आया था छिपके मिलने मुझसे न जाने क्यों,
चुपचाप मेरे दिल को चुराकर चला गया।
मेले में वो आया था,खिलौनों को बेचने,
बच्चों के मचलने पर लुटाकर चला गया।
गुंडा था कोई,मुझको इंसान समझकर,
दो चार उल्टी सीधी सुनाकर चला गया।
आया था अँधेरों को जो चराग दिखाने,
चुपके से पूरी बस्ती जलाकर चला गया।
रहता अगर मैं ख्वाब में,जिंदा नहीं बचता,
कहिए कि कोई सोए से उठाकर चला गया।
11-
∆ गीतिका ∆
★
चलती नहीं है जिंदगी, बस वाह-वाह से।
जिंदा रही इंसानियत, दिल की कराह से।
★
होना है बड़ा आदमी, तो मंत्र जान लें,
न देखिए किसी को, यूँ नीची निगाह से।
★
कठिनाइयों से भागना,फितरत सही नहीं,
संभव हुई सफलता,इंसां की चाह से।
★
जो आइना बनेगा,सच को दिखायेगा,
उसको गुजरना होगा,पथरीली राह से।।
★
कुछ की नज़र में प्यार भी,करना गुनाह है,
बचिए नहीं कभी भी,ऐसे गुनाह से।।
12-
गीतिका
दूर दूर तक खामोशी है,ख्वाबों में तन्हाई है।
कैद पड़ी जीवन की हसरत,कैसी ये रुत आई है।
हृदय खोलकर प्रेम लुटाया,जिस दुनिया के आँगन में,
पत्थर-सी नफरत बदले में,उपहारों में पाई है।
लाख लाख है शुक्र रोशनी का,जिसने आगाह किया,
खंजर लेकर पीठ के पीछे,खड़ी कोई परछाई है।
स्वार्थपूर्ति ने जाति,लिंग में बाँट दिया इंसानों को,
मन के कोटर में कुंठा ने जबसे ली अंगड़ाई है।
सत्य अहिंसा लहुलुहान हैं,सेवक पर पत्थर बरसे,
लगता जैसे पुनः लौटकर क्रूर सभ्यता आई है।
13-
लक्ष्य दिखे तो चलते जाओ।
बाधाओं को दलते जाओ।
भौतिकता की दौड़ है अंधी,
सोचो और संभलते जाओ।
अंधियारा भागेगा निश्चित
दीपक-सा नित जलते जाओ।
पतझड़ सत्य नहीं है केवल,
फिर-फिर खिलते-फलते जाओ।
परिवर्तन ही सत्य जगत का,
समय-खाँच में ढलते जाओ।
अच्छी बात अगर हो मन में,
पल-पल उसे उगलते जाओ।
जीवन का क्षण-क्षण सुंदर हो,
खुद को नित्य बदलते जाओ।
दौड़ जरूरी नहीं लक्ष्य हित,
सच तक सहज टहलते जाओ।
अक्षर बनकर प्रेम मोम-सा,
जलकर स्वयं पिघलते जाओ।
डॉ मनोज कुमार सिंह
14-
गीतिका
रिश्तों की बस्ती को हम,बाजार नहीं करते।
चेहरे पर चेहरों का,कारोबार नहीं करते।
जो करना है, प्रेम,अदावत,खुलकर हम करते,
छिपे भेड़ियों-सा पीछे से,वार नहीं करते।
नहीं ठिकाना,उसका कि कब कहाँ मुकर जाए,
चलती साँसों पर हम,यूँ एतबार नहीं करते।
जो मन से सुंदर हैं,जिनका हृदय सदा सुरभित उपवन,
चेहरे का वे कभी असत् ,शृंगार नहीं करते।
नवरत्नों में शामिल अब तक, नहीं रहे क्योंकि,
दरबारों में रहकर भी,दरबार नहीं करते।
15
गीतिका
वो आएगा मगर कोई फ़साना ले के आएगा।
वक्त पर क्यों नहीं आया बहाना ले के आएगा।
नई बातें, नए वादे,बहुत कुछ और भी होगा,
पुलिंदा ख़्वाब का अद्भुत खज़ाना ले के आएगा।
ये अगहन की सुबह होकर रुवांसी धुंध से पूछे,
क्या सूरज धूप का टुकड़ा सुहाना ले के आएगा?
सुबह मजदूर खाली पाँव धंधे के लिए निकला,
ये निश्चित है नहीं कि शाम दाना ले के आएगा।
बहुत-सी मुश्किलें जब जिंदगी की राह रोकेंगी,
सभी का हल ये इकदिन खुद जमाना ले के आएगा।
लाख पाबंदियाँ अभिव्यक्ति पर कुर्सी लगाएगी,
सच की तहरीर ये कविता दीवाना ले के आएगा।
16-
गीतिका
हँस सकता हूँ,रो सकता हूँ।
खुद पर गुस्सा,हो सकता हूँ।
लाखों गम दिल मे,रखकर भी,
स्वप्न गुलाबी,बो सकता हूँ।
कृष्ण नयन का,हूँ करुणा जल,
पाँव मित्र का,धो सकता हूँ।
गैरों की चिंता में खुद का,
अपराधी मैं,हो सकता हूँ।
लिप्सा की अंधी गलियों में,
संभव है मैं,खो सकता हूँ।
बच्चों की मुस्कान देखकर,
भूखे भी रह,सो सकता हूँ।
डॉ मनोज कुमार सिंह
17-
∆गीतिका∆
सुबह तुम्हारे हिस्से में, क्यों शाम हमारे हिस्से में।
नाम तुम्हारे हर ईनाम है, काम हमारे हिस्से में।
ये कैसी तरकीब तुम्हारी, समझ न पाया अब तक मैं,
तेरे अपराधों का, हर इल्जाम हमारे हिस्से में।
खेती मेरी अन्न तुम्हारा, विडंबना की क्या कहिए,
छत की छाँव तुझे है हासिल, घाम हमारे हिस्से में।
जैसी करनी वैसी भरनी, बात बहुत झूठी लगती,
नहीं सुकर्मों का आया, परिणाम हमारे हिस्से में।
सुविधाओं के चाँद सितारे, सुख के पर्वत सब तेरे,
क्यों दुख के ज्वालामुखी, कोहराम हमारे हिस्से में।
किसकी साजिश है बतलाओ, नहीं अभी इंसाफ मिला,
श्रम के बदले कब होगा, आराम हमारे हिस्से में।
डॉ मनोज कुमार सिंह
18-
नमन आगमन मंच!👏
#आगमन साप्ताहिक प्रतियोगिता -90
आयोजन तिथि-04-06-2020
विषय-'जीत जायेंगे हम'
विधा - ∆ग़ज़ल∆
हक से जीना है, इस जिंदगी के लिए।
क्यूँ हों लाचार हम, खुदकुशी के लिए।
हारकर भी सदा, जीत जायेंगे हम,
गर जियें गैर की, हर खुशी के लिए।
दिल में रखकर, मुहब्बत जरा देखना,
रोशनी है ये, हर तीरगी के लिए।
झूठ क्यों मैं उजागर, करूँ बोलिए,
एक सच ही बहुत, दुश्मनी के लिए।
जबसे आवारा बादल, खड़े राह में,
कितनी मुश्किल घड़ी, चाँदनी के लिए।
मुस्कुराकर जिएँ, दर्द के गाँव में,
इक दवा है ये, हर आदमी के लिए।
डॉ मनोज कुमार सिंह
19-
∆गीतिका∆
जीवन को बाजार बनाकर।
बेच रहे अखबार बनाकर।
दवा बता कुछ, मर्ज बेचते,
लोगों को बीमार बनाकर।
बच्चों से नित करे वसूली,
भिखमंगे, लाचार बनाकर।
हम गुलाब थे, मगर खिज़ा ने,
रखा है अब खार बनाकर।
दहशत अब परचम फहराता,
मानव बम हथियार बनाकर।
स्वार्थ सधे तो दुनिया रखती
दिल में मुक्ता हार बनाकर।
डॉ मनोज कुमार सिंह
20-
आगमन प्रतियोगिता- 91
प्रेषण तिथि-
विषय - चाँद / चंद्रमा
विधा - पद्य
∆ ग़ज़ल ∆
चाँद को ख़ुशनुमा चाँदनी चाहिए।
यामिनी को छुअन की नमी चाहिए।
हर किसी को मुहब्बत की खुशबू भरी,
बेतकल्लुफ़ हसीं जिंदगी चाहिए।
कह सके प्यार की, दर्द की हर व्यथा,
दिल से नम बाअदब शायरी चाहिए।
जिंदगी इक अदालत है,.. चलती तभी,
हर घड़ी .. श्वास की हाजिरी चाहिए।
ख्वाब का चाँद पाना अगर चाहते,
दिल मे चाहत भरी तश्नगी चाहिए।
चाँद जिसमें दिखे औ' हँसे खिलखिला,
आईनों - सी उसे इक नदी चाहिए।
नीम की पत्तियों से ज्यों झाँके क़मर,
मन झरोखों को वो रोशनी चाहिए।
क़मर - (चाँद)
डॉ मनोज कुमार सिंह
21-
∆गीतिका∆
चाहते सच के लिए,दिल से बगावत करना।
छोड़िए मत कभी भी झूठ से नफरत करना।
वही करता है सबके,दिल पे हकूमत यारों,
जिसने सीखा है,हर शख्स की इज्जत करना।
फूल झूमेंगे कैसे,वृन्त पे अपने कहिए,
हवाएँ छोड़ दें गर,उनसे शरारत करना।
अँधेरा भाग जाएगा,यकीन कर तू जरा
रोशनी के लिए,जी जान से मेहनत करना।
मुहब्बत का न कोई, बाल बाँका कर सकेगा,
अगर तुम चाहते हो,दिल से हिफाजत करना।
बुरे इंसान से,सवाल सही जो भी किया,
उसे भारी पड़ा है, ऐसी हिमाकत करना।
डॉ मनोज कुमार सिंह
22-
∆गीतिका∆
है यकीं कि पटरियों पे लौट आएगा वतन।
चहचहायेगा फ़िजा में फिर से ये मुर्गे-चमन।
कड़कती इस धूप का तेवर सहेगा कब तलक,
आसमां पहनेगा निश्चित बादलों का पैरहन।
नहीं आते नफरतों के नाग मन के द्वार तक,
जब किया करता हृदय ये प्रेम से नित आचमन।
बैठ मत मायूस होकर,रोक मत बढ़ते कदम,
हौसलों के पंख से चूमो सफलता के गगन।
सँवर जाएगी तुम्हारी जिंदगी की सूरतें,
इक दफा दिल से किसी का बन न बन अपना तो बन।।
(शब्दार्थ-मुर्गे-चमन- बाग के पक्षी, पैरहन-कपड़ा)
डॉ मनोज कुमार सिंह
23-
गीतिका
त्याग, समर्पण, प्यार है भगवा।
भारत का शृंगार है भगवा।
क्षिति,जल,पावक,गगन,वायु में,
इस प्रकृति का सार है भगवा।
तन,मन,जीवन चेतनता में,
धड़कन का आधार है भगवा।
वेद,शास्त्र जिनसे आलोकित,
ज्ञान-ज्योति का तार है भगवा।
रंग सभी अद्भुत हैं लेकिन,
रंगों का करतार है भगवा।
बिगड़ा जीवन सदा सुधारे,
ऐसा ये औजार है भगवा।
आत्मतत्त्व का स्वनिम मंत्र है,
अनहद की गुंजार है भगवा।
उज्ज्वल,धवल सदाशयता की,
सतत् गंग जलधार है भगवा।
इस निस्सार जगत-जीवन का,
सहज सत्य आगार है भगवा।
सेवा,सत्य अहिंसा का ये,
अद्भुत पारावार है भगवा।
तमस काल के विध्वंसों हित,
रश्मि-रथी अवतार है भगवा।
असुरों के हिंसक कर्मों का,
सदा किया उपचार है भगवा।।
विश्वगुरू बन जग में छाया,
भारत का विस्तार है भगवा।
सूर्य,अग्नि की चमक इसी से,
ऊर्जा का संचार है भगवा।
डॉ मनोज कुमार सिंह
24-
गीतिका
कदम कदम पे धोखा खाए बैठे हैं।
फिर भी हम विश्वास बनाए बैठे हैं।
चंदन वन पर कब्जा करके नाग यहाँ,
जहर उगलते फन फैलाये बैठे हैं।
आएँगे भौंरे मधुबन में निश्चित ही,
फूल सुबह से सजे-सजाए बैठे हैं।
घबराना क्या जीवन कठिन प्रसंगों से,
सुख-दुख सबके दाएँ बाएँ बैठे हैं।
हमने श्रम से अन्न उगाए खेतों में,
घर में बैठे आप अघाए बैठे हैं।
25-
गीतिका
जैसे कानों में कह रहा कोई।
मुल्क से कर रहा दगा कोई।
ये सन्नाटे बता रहे शायद,
आने वाला है जलजला कोई।
देश को बाँटने के नारों में,
ये 'आजादी' है मुहावरा कोई।
स्वार्थ सधने के सिवा क्या मतलब,
कर रहा काम है बड़ा कोई।
मिटाने के लिए सब काफिरों को,
मुल्क में बह रही हवा कोई।
मुफ्त बिरयानियां,पैसे मिलें तो,
कौन छोड़ेगा ये नफा कोई।
डॉ मनोज कुमार सिंह
26-
गीतिका
ऐसा है क्यों इंसान का ख़याल दोस्तो।
माँ-बाप घर में हो गए जंजाल दोस्तो।
इतना जमाया बर्फ क्यों दिल के पहाड़ पर,
आँखें ये हो गई हैं सूखे ताल दोस्तो।
सोचो जरा किसने दिया सौगात में तुम्हें,
हर सांस में घुटन का सड़ा माल दोस्तो।
अपनी कमी छिपाकर,इंसान स्वार्थ में,
खुद पालता है खुद में,इक बवाल दोस्तो।
अब भेड़िया भी दिखता इंसान की तरह,
इस दौर का सबसे बड़ा कमाल दोस्तो।
डॉ मनोज कुमार सिंह
27-
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गीतिका
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तुम हमारी धडकनों की,सांस हो माँ ।
प्रेम की इक संदली,एहसास हो माँ ।।
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चिलचिलाती धूप-सी, इस जिंदगी में ,
खिलखिलाती चांदनी, मधुमास हो माँ |
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रंग अद्भुत मुझ अधूरे चित्र की तुम !
मूर्ति ममता की हृदय में, ख़ास हो माँ |
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लोरियों की स्वाद ,सपनों की मधुरता,
मखमली स्पर्श की बस,घास हो माँ |
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दया ,करुणा,त्याग सब पर्याय तेरे ,
सुरक्षा की दृढ़ कवच,विश्वास हो माँ |
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
तुम हीं गंगा और यमुना, तृप्ति मन की
औ' हृदय की चेतना की प्यास हो माँ |
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
प्रार्थना की पंक्ति हो, मेरे हृदय की ,
अनिर्वचनीय,अलौकिक,प्रकाश हो माँ |
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तुम निराशा के क्षणों में, नव किरण-सी
बूंद अमृत की नवल,उल्लास हो माँ |
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धर्म की अरु कर्म की,एक सत् चरित हो ,
तुम सहज कर्त्तव्य हो,अभ्यास हो माँ |
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कुछ न मुझको चाहिए, इस जिंदगी से ,
बहुत खुश हूँ तुम हमारे,पास हो माँ |
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28-
गीतिका
(मेरे साहित्य मनीषी पिताश्री अनिरुद्ध सिंह 'बकलोल' जी की पावन स्मृति में सादर समर्पित)-
विधा- ∆ गीतिका ∆
जीवन की राहों के अद्भुत प्यार पिताजी।
मेरे मन-मधुबन के हरसिंगार पिताजी।
कर्त्तव्यों की गोद, पीठ, कन्धों पर अपने ,
मुझे बिठा दिखलाते थे संसार पिताजी।
भूख ,गरीबी ,लाचारी की कड़ी धूप में ,
ज्यों बरगद की छाया थे छतनार पिताजी।
अहसासों की ऊँगली से गढ़ते थे जीवन ,
जीवन की मिट्टी के थे कुम्हार पिताजी।
इतने नाज़ुक मधुर ,सरस कि लगते जैसे ,
पुष्प दलों पे ओस बूँद सुकुमार पिताजी।
माँ तो गंगा - सी पावन होती है यारों ,
मगर हिमालय से ऊँचे पहाड़ पिताजी।
मुझे हवाओं में खुशबू बन मिल जाते हैं ,
जाफरान-से अद्भुत खुश्बूदार पिताजी।
स्नेह आपका रामचरित मानस-सा उज्ज्वल,
देहाती ,'बकलोल', सहज, गँवार पिताजी।
जीवन -सागर के तट पर बस इन्तजार में ,
बैठा हूँ इस पार,गए उस पार पिताजी।
स्मृतियों के दिव्य गगन के सूर्य शिरोमणि!
ऊर्जा बन, करते मन में संचार पिताजी।।
29-
∆गीतिका∆
तोप नहीं मैं,तीर नहीं मैं।
दुनिया की तकदीर नहीं मैं।
इक अदना इंसान भले हूँ,
पर दरबारी कीर नहीं मैं।
हर अक्षर जिनका अमृत है,
तुलसी,सूर,कबीर नहीं मैं।
इश्क़-हुश्न का नहीं तजर्बा,
खुसरो,ग़ालिब,मीर नहीं मैं।
दुनिया को उपदेश पिलाऊँ,
कोई संत फकीर नहीं मैं।
प्रेमी हूँ,पर सच बोलूँ तो,
पागल राँझा हीर नहीं मैं।
30-
गीतिका
माँ,पिताजी,घर पुराना गाँव में ।
खो रहा मेरा खजाना गाँव में ।
खा गया साँझा,पराती,कजरियां,
आजकल डीजे बजाना गाँव मे।
ओल्हा पाती और चिक्का अब कहाँ,
किरकटो का है जमाना गाँव में।
याद आते गाँव के मेले हमें,
पिपिहरी पों पों बजाना गाँव में।
स्कूलों का कर बहाना,बाग में,
याद है वो भाग जाना गाँव में।
याद है वो गर्ग जी के द्वार पर,
रात तक अड्डा जमाना गाँव में।
लोग वे अब है कहाँ जिनसे मिलें,
दिल से था मिलना मिलाना गाँव में।
मिट्टियों के गाँव,पत्थर हो गए,
पहनकर शहरों का बाना गाँव में।
भले आए शहर,रोटी के लिए,
फिर भी दिल का ताना-बाना गाँव में।।
31-
गीतिका
बड़े भुलक्कड़ डियर पप्पू।
झूठ ऑफ दी ईयर पप्पू ।
बेरोजगार हुए हैं जबसे,
बहा रहे नित टियर पप्पू।
जाति धर्म का आग लगाकर,
फैलाते हैं फियर पप्पू।
बिन तुक की बातें करते ज्यों,
बिना ब्रेक औ' गियर पप्पू।
जाड़े भर ह्विस्की लेते हैं,
औ' गर्मी भर बियर पप्पू।
देशद्रोहियों की जमात में,
होते रहे अपियर पप्पू।
डॉ मनोज कुमार सिंह
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