Tuesday, November 9, 2021
गीत हवा के झोंके की (कविता)
गीत हवा के झोंके की
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-/डॉ मनोज कुमार सिंह
जरा सोचो -
उसने तुम्हारे लिए लगा दी थी
अंधे कुँए में छलांग
मार ली थी अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी
चुनी थी काँटों भरी राह सिर्फ तुम्हारे लिए
कुछ भी नहीं सोचा तुम्हारे सिवा
खुद रौंद दिए अपने सारे ख़्वाब तुम्हारे लिए
तुम्हारे चलने के लिए हर पल
बिछ गया सड़क बनकर,
खुद को तुम्हारा खिलौना बना दिया
तुम खेलती रही अपने मन मुताबिक
उसे तोड़ती रही, मरोड़ती रही
खुरचती रही उसे अपने नाखूनों से
लेकिन,
चुकी वह बेहद लचीला रबर का पुतला था
इसलिए आ जाता था धीरे धीरे
फिर से अपने मूल स्वरूप में
उसने सारे दर्द सहे, लेकिन कभी भी नहीं कहा उफ
कभी नहीं सोचा उसने कि तुम्हे दुख हो
तुम्हारे लिए हर उस से पंगा ले लिया उसने
जो उसके आत्मीय थे,
जिनकी पहचान से ही उसकी पहचान थी
मिटा दी उसने वह भी अपनी पहचान
बुरे से बुरे समय मे भी
वह चला तुमसे कदम से कदम मिलाकर
नहीं परवाह की तुम्हारे सिवा किसीकी
उसने कभी भी नहीं चाहा तुम्हारा बुरा
दोष तुम्हारा भी नहीं है
वह मानता है खुद को दोषी
मगर समझा लेगा खुद को वह यह मानकर
कि तुम हवा की एक झोंका थी
जिसमें वह खुद बह गया था
फिर रेत पर लिखता रहा जिंदगी का ख्वाब
जिसको वक्त ने धीरे धीरे मिटा दिया
अब लिख रहा है नए शिरे से
पत्थरों पर अपने जज़्बात
पत्थर कृतघ्न नहीं होते जैसे होती है रेत
नहीं मिटाते कभी भी किसी के जज़्बात
होते नहीं वे अहसानफरामोश
हवाओं की तरह
जो अचानक आती हैं
और उड़ा ले जाती है जिंदगी का वजूद
फिर छोड़ देती है जमीन और आसमान के
उस छोर पर
जहाँ त्रिशंकु की तरह
फड़फड़ाने के सिवा चारा नहीं होता
जहाँ न कोई हँसता है न रोता है
बस टिमटिमाता हुआ
आसमानी सात फेरों के चक्कर में
गाता रहता है गीत
हवा के झोंके की
आसमान के कंगूरे पर झूलते हुए।
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