Wednesday, June 9, 2021

कुंडलिया मनोज की--

कुंडलिया मनोज की--
********************
-डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

सजने लगी ऋतंभरा,ले वासंती रंग।
मदनोत्सव में मग्न ज्यों,भौंरे पीकर भंग।।
भौंरे पीकर भंग,विचरते नित उपवन में।
हँसते सुरभित पुष्प,मधुरता भर जीवन में।
चपल हवा अति लोल,लगी पायल-सी बजने।
ले वसंत से रंग,लगी ऋतंभरा सजने।।


कुंडलिया

रंग-बिरंगी अधखिली,कलियों का मृदु रूप।
मंजरियों को चूमती,नित वसंत की धूप।।
नित वसंत की धूप,दिखे बेहद शर्मीली।
देख आज ऋतुराज, हो गई मन से गीली।
स्वाद,गंध औ' रंग,मधुरिमा सहचर,संगी।
नव वसंत में भूमि, हो गई रंग-बिरंगी।

कुंडलिया

खेतों में खिलने लगे,पीले सरसो फूल।
तरुण आम की डाल पर,रही मंजरी झूल।
रही मंजरी झूल,करे ज्यों लास्य गुजरिया।
मन के आँगन आज,पधारे जब साँवरिया।
जब वसंत ऋतुराज,धरा से आया मिलने।
पीले सरसो फूल ,लगे खेतों में खिलने।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

कुंठित जन का देखता,बीमारू प्रतिशोध।
अच्छे भी हर कार्य का, करते सदा विरोध।।
करते सदा विरोध,स्वार्थ में अंधे बनकर।
कुत्सित कर खुद कर्म,सदा रहते वे तनकर।
छोड़ सभी सद्कार्य ,हृदय कर लेते दूषित।
दुराचरण में डूब,लोग बनते हैं कुंठित।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


कुंडलिया

ऐसे नेता जी रहे,दिव्य पराक्रम-आग।
राष्ट्रभक्ति जिनकी रही,सदा पूर्ण बेदाग।।
सदा पूर्ण बेदाग,राष्ट्र के गौरवगाथा।
मातृभूमि के पूत,किए ऊँचा हर माथा।
नेता जी का सत्य,छिपाकर रखा जैसे।
दुश्मन ही व्यवहार,यहाँ कर सकते ऐसे।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

चलो लगाएँ आँवला,बरगद और अशोक।
महिमा इनकी जानते,जग में तीनों लोक।
जग में तीनों लोक,पूजते तुलसी पीपल।
स्वच्छ हृदय से नित्य,चढ़ाते पावन-मधु-जल।
ऋतम्भरा को दिव्य,साज से खूब सजाएँ।
नवल मिले परिवेश,वनस्पति चलो लगाएँ।

-/डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

होता संस्कृति,धर्म से,देश भले पुरजोर।
मगर संगठन शक्ति बिन,रहता है कमजोर।।
रहता है कमजोर,न देती दुनिया आदर।
जग में वह ही श्रेष्ठ,चला जो कदम मिलाकर।
राष्ट्रघात का बीज,देश जो खुद में बोता।
होकर भी बलवान,स्वयं में दुर्बल होता।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया
----–------

पैसे की खातिर महज,सजती यहाँ दुकान।
कोचिंग वाले बेचते,ट्रिक आधारित ज्ञान।।
ट्रिक आधारित ज्ञान,लगे ज्यों अधजल गगरी।
आत्मज्ञान से शून्य,दिखे नित दिल की नगरी।
मूल्यों का अपकर्ष,देखिए करते कैसे।
केवल इनका लक्ष्य,रहा बस ऐंठे पैसे।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

'मैला आँचल' के सृजक,जीवन-स्वर के वेणु।
'कितने चौराहे' रचे,'दीर्घतपा' के रेणु।।
'दीर्घतपा' के रेणु,'रात्रि की महक' सुहाए।
'वन तुलसी की गंध',हृदय मन को सरसाए।
रचे संस्मरण श्रेष्ठ,फणीश्वर 'ऋणजल','धनजल'।
उपन्यास में लोक,उचारे 'मैला आँचल'।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

∆कुंडलिया∆

सत्य सनातन धर्म है,अद्भुत,दिव्य,महान।
प्रेम,समर्पण,सहजता,है इसकी पहचान।।
है इसकी पहचान,प्रकृति से संचालित है।
धैर्य,क्षमा,कल्याण,दया से आप्लावित है।
पूर्ण धरा परिवार,भाव लेकर मनभावन।
सतत् प्रवाहित दिव्य,धर्म है सत्य सनातन।।

-/डॉ मनोज कुमार सिंह


कुंडलिया

संशोधन में है नहीं,जिसका कुछ विश्वास।
वह अड़ियल टट्टू लगे,जिद्दी,जाहिल खास।।
जिद्दी,जाहिल खास,दंड का अधिकारी है।
उल्टी है करतूत,स्वार्थ ने मति मारी है।
राष्ट्रविरोधी बात,कर रहा उद्बोधन में।
जिसका कुछ विश्वास, नहीं है संशोधन में।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

जिसके दिल में है नहीं ,प्रेम, धैर्य,विश्वास।
नहीं फटकने दीजिए, उसको अपने पास।।
उसको अपने पास,बुलाकर पछताओगे।
करके तुम विश्वास,महज धोखा खाओगे।
मत जाना तुम यार,कभी उसकी महफ़िल में।
प्रेम, धैर्य,विश्वास,नहीं है जिसके दिल में।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया
°°°°°°°°°
देखा आज विरोध में,केवल व्यर्थ विलाप।
'मोदी मर जा' का यहाँ,चलता घटिया जाप।।
चलता घटिया जाप, साजिशों के साये में।
बदल रहा है आज,आदमी चौपाये में।
लाँघ रहे हैं दुष्ट,नित्य अब लक्ष्मण-रेखा।
कहता है कवि सत्य,आँख से जो भी देखा।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


कुंडलिया

उलटी जिनकी सोच है,गंदी है करतूत।
नहीं मानते बात से,लातों वाले भूत।।
लातों वाले भूत,भागते बस डंडों से।
बाज न आते दुष्ट,कभी भी हथकंडों से।
देख हवा की चाल,मारते हैं नित पलटी।
गंदी है करतूत,सोच है जिनकी उलटी।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

कड़वी यादें बीस की,चाहूँ जाऊँ भूल।
और वर्ष इक्कीस ये,आए बनकर फूल।
आए बनकर फूल,सुगंधित जग को कर दे।
नया वर्ष आगाज़,हृदय में खुशियाँ भर दे।
हे ईश्वर कुछ आप,मधुर अहसास पिला दें।
भूल सकूँ मैं आज,बीस की कड़वी यादें।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

है ईश्वर से प्रार्थना,करो सर्व कल्यान।
दो हजार इक्कीस में,स्वस्थ रहे इंसान।
स्वस्थ रहे इंसान,खुशी हो हर आँगन में।
खिलें प्रेम के फूल,हृदय के नित मधुबन में।
मुक्त रहे इंसान,मृत्यु के पल-पल डर से।
दो ऐसा वरदान,प्रार्थना है ईश्वर से।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

मायावी रावण रहा,मायापति थे राम।
एक अधर्मी था असुर,एक धर्म के धाम।।
एक धर्म के धाम,अलौकिक महिमा सागर।
धैर्य,शील,सद्भाव,दिखाया जो जीवनभर।
अहंकार का दास,बना था कुटिल कुभावी।
बहुत बड़ा दुर्दांत, रहा रावण मायावी।


कुंडलिया

जता दिया है खोलकर, पूरा आज बिहार।
अच्छा जंगलराज से,रहना बेरोजगार।
रहना बेरोजगार, अराजकता से अच्छा।
नाचे जिसमें लोग,खोलकर अपना कच्छा।
नहीं चलेंगे दुष्ट,वोट ने बता दिया है।
पूरा आज बिहार,खोलकर जता दिया है।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

खेतों में मशगूल हैं,असली जहाँ किसान।
दिल्ली को घेरे हुए,स्वार्थपगे शैतान।।
स्वार्थपगे शैतान,महज व्यापारी लगते।
लेकर सस्ते माल,किसानों को हैं ठगते।
ये दलाल हर ख्वाब, बदल देते रेतों में।
यद्यपि श्रमिक किसान,खट रहे हैं खेतों में।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

व्यंग्यकार को पढ़ रहे, व्यंग्यकार बस आज।
कवि को केवल कवि पढ़े,सबका अलग समाज।
सबका अलग समाज,कौन किसको है पढ़ता।
कोई लिखता लेख,कहानी कोई गढ़ता।
सहना अति दुश्वार,सत्य के तीव्र धार को।
सोच रहा ये बात,बता दूँ व्यंग्यकार को।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

जहरीले आतंक के,तोड़ जहर के दाँत।
आतंकी को मारकर,फाड़ो उनकी आँत।
फाड़ो उनकी आँत,मिटा श्वानों की सत्ता।
जला दिया कर लाश,जुटाकर कूड़ा-पत्ता।
भारत माँ के लाल!करो उनके नस ढीले।
पनप न पाएँ नाग,दुबारा ये जहरीले।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

सत्तर वर्षों में मिला,हमको यही विकास।
शासन करना चाहता,यहाँ आठवीं पास।।
यहाँ आठवीं पास,चलाना चाहे सत्ता।
लोकतंत्र का दोष,यही लगता अलबत्ता।
कहें इसे उत्कर्ष,या गिने अपकर्षों में।
हमको मिला विकास,यही सत्तर वर्षों में।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

बरगद के नीचे कभी, उगती है क्या घास?
और ओस को चाटकर,बुझी किसी की प्यास?
बुझी किसी की प्यास,अगर तो हमें बताओ।
बिन पेंदी की बात,न ऐसे कभी सुनाओ।
करे न सपने पूर्ण,तख्त नेता का मक़सद।
जैसे नीचे घास,न उगने देता बरगद।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

कुंठित,कुत्सित भाव का,लिए हृदय में रोग।
नफरत आँखों में भरे,मिलते हैं कुछ लोग।
मिलते हैं कुछ लोग,जाति के प्रखर प्रवक्ता।
नैतिकता से दूर ,चाहते केवल सत्ता।
तुच्छ स्वार्थ में चूर,साजिशों से कुछ लुंठित।
पाकर भी पद,मान, हृदय से रहते कुंठित।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुण्डलिया

उन्मादक तस्वीर पर,लाइक,शब्द हजार।
पर रचना पर टिप्पणी,केवल दो या चार।
केवल दो या चार,समय कितना बदला है।
गर्हित हुए विचार,भला ये कौन बला है।
सुन मनोज कविराय,बने रह कविता साधक।
ऐसा कर कुछ काम,मिटे चिंतन उन्मादक।।

(उन्मादक शब्द का प्रयोग अश्लीलता के अर्थ में किया गया है।)

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

रावण हैं जो आज के,हुए सभी बेपर्द।
वामी-कामी-नक्सली,सारे दहशतगर्द।।
सारे दहशतगर्द,स्वांग रचते रहते हैं।
ओसामा को बाप,सदा अपना कहते हैं।
जिनसे आहत आज,भारती माँ का कण -कण।
वे ही दहशतगर्द,नक्सली हैं अब रावण ।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

जीवन में अवसाद, भय,, क्षोभ, अनिश्चय आज।
धीरे - धीरे घिर रहा, इसमें नित्य समाज।
इसमें नित्य समाज, अजनबीपन का मारा।
विघटन का परिवेश, वक्त लगता हत्यारा।
कुंठाओ का दौर , नहीं दिखता अपनापन।
मूल्यहीन सिद्धांत, ओढ़कर बैठा जीवन।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

जब बदलेंगी नारियाँ, बदलेगा संसार।
बचपन में संतान को,दें यदि सद् आचार।
दें यदि सद् आचार,प्रेम की नदी बहेगी।
दुष्कर्मों से दूर,सदा संतान रहेगी।
यदि चरित्र का ज्ञान,स्वयं वे घर में देंगी।
बदलेगा संसार,नारियाँ जब बदलेंगी।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

नारी करुणा,त्याग की ,सहज मूर्ति साकार।
फिर भी क्यों होती रही,बेबस औ' लाचार।
बेबस औ' लाचार,बनाया किसने इनको।
सर्वशक्ति आधार,मानती दुनिया जिनको।
करे पुनः हुंकार,रूप धरकर अवतारी।
होगी तब ही मुक्त,जगत में बेबस नारी।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

नारी तेरे कष्ट का,उत्तरदायी कौन?
खुद हो अथवा अन्य है,बोलो!रहो न मौन।।
बोलो!रहो न मौन,अगर हो दुर्गा काली।
दुख में रहकर आप,करे जन की रखवाली।
तेरे रूप अनेक,बहन,माता हितकारी।
झेल रही क्यों दर्द,आजतक जग में नारी।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

नारी की बेचारगी,का होगा कब अंत।
सदियों से ये झेलती,हैं ये दुःख अनंत।
हैं ये दुःख अनंत,मिटाए कौन बताओ।
त्याग, प्रेम की मूर्ति,रूप को शीघ्र बचाओ।
करो भर्त्सना आज,सोच जो है हत्यारी।
झेल रही अपमान,रात-दिन जिससे नारी।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

जिनके बल पर धर्म की, महिमा रही अनंत |
वही आज इस देश में, मारे जाते संत ||
मारे जाते संत, जलाकर, पीट - पीटकर।
बर्बर देकर चोट, मारते हैं घसीटकर।
खतरे में है धर्म,..ध्यान दो इनके हल पर।
संत धरोहर आज, धर्म है जिनके बल पर।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


कुंडलिया

लाश सड़क पर डालकर, नित्य भुनाते माल।
आज बिछाते लोग कुछ, षड्यंत्रों का जाल।।
षड्यंत्रों का जाल, लक्ष्य पैसा है जिनका।
रिश्तों को जो तुच्छ, समझते जैसे तिनका।
है मुआवजा खेल, दिखाते रोष भड़क कर।
नित्य भुनाते माल, डालकर लाश सड़क पर।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


कुंडलिया

सत्यकथा कल और थी,आज कथा कुछ और।
बार-बार बदलाव से,असमंजस का दौर।।
असमंजस का दौर,ब्लैक मेलिंग का दिखता।
गाली खाता नित्य,यहाँ जो सच-सच लिखता।
खड़ी सियासत आज,साथ में ले कल,बल,छल।
बदल दिया सब रूप,जहाँ थी सत्यकथा कल।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

जातिवाद में बाँट मत,..मन के अंधे कूप !
परशुराम औ' राम हैं,एक तत्त्व दो रूप।।
एक तत्त्व दो रूप,धर्मरक्षक बन आए।
असुर अधर्मी राज,धरा से पूर्ण मिटाए।
तोड़ रहे हैं देश,विधर्मी नित जिहाद में।
और बचे तुम लोग,फँसें हो जातिवाद में।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

चमचा,मंत्री से अधिक,होता सबल सशक्त।
सत्ता से पा बल सदा,चूसे जन का रक्त।।
चूसे जन का रक्त,स्वार्थ में जोंक सरीखे।
लूटपाट का खेल,निरंतर निशदिन सीखे।
सावधान रह यार,सदा तुम षड्यंत्री से।
होता अधिक सशक्त,सबल चमचा मंत्री से।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


∆कुंडलिया∆

जिनमें है कुंठा जनित,जाति मानसिक रोग।
क्षुधा तृप्ति के बाद भी,रोते ऐसे लोग।।
रोते ऐसे लोग,भले ज्ञानी होते हैं।
पाकर भी पद,मान,स्वार्थ में खुद खोते हैं।
महज अँधेरा घोर,उन्हें दिखता है दिन में।
जाति मानसिक रोग और कुंठा है जिनमें।

डॉ मनोज कुमार सिंह


∆कुंडलिया∆

जाति-धर्म के नाम पर,जबसे हुए चुनाव।
लोकतंत्र के देश में,चोटिल है सद्भाव।।
चोटिल है सद्भाव,हथौड़ा स्वार्थ चलाए।
नेता निशिदिन बाँट,देश को नित्य लड़ाए।
नहीं रह गए आज,विषय ये हया,शर्म के।
जबसे हुए चुनाव,नाम पर जाति-धर्म के।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


∆ कुंडलिया∆

जीवन में जब लक्ष्य का, करिए आप चुनाव।
धैर्य और संकल्प का, रखिए मन में भाव।
रखिये मन में भाव, चुनेंगे अच्छाई को।
मिले सफलता ताज, समर्पित तरुणाई को।
करना सही चुनाव, भाव जब होता मन में।
मिलता जीवन लक्ष्य, सहजता से जीवन में।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


∆कुंडलिया∆

दुनिया में कुछ लोग हैं, अति दयनीय, अनाथ।
जिनकी खातिर घर बने, सड़क और फुटपाथ।।
सड़क और फुटपाथ, खोमचे वालों का घर।
भिखमंगों की रात, जहाँ कटती है अक्सर।
देखा निशिदिन हाथ, कटोरा ले अलमुनिया।
फुटपाथों पर लोग, बसाए घर औ' दुनिया।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


∆कुंडलिया∆


जिसमें माता औ' पिता, पति - पत्नी - संतान।
रहते हैं निर्द्वन्द्व हो, घर कहते श्रीमान।।
घर कहते श्रीमान, टिका जो प्रेम - धरा पर।
रहे समर्पण भाव, परस्पर जहाँ नहीं डर।
विश्वासों का बैंक, जहाँ रिश्तों का खाता।
घर है वह श्रीमान, सुखी हो जिसमें माता।।

डॉ मनोज कुमार सिंह



कुंडलिया

अटल बिहारी नाम था,भारत माँ के पूत।
सत्ता पाकर भी रहे,जीवन में अवधूत।।
जीवन में अवधूत,बने थे राष्ट्र पुजारी।
एक श्रेष्ठ इंसान,हृदय से जन-हितकारी।
राष्ट्रधर्म मर्मज्ञ,सत्य-पथ के संचारी।
मातृभूमि के पूत,नाम था अटल बिहारी।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


कुंडलिया

मन जब रहे तनाव में,नींद न आए रात।
तब अपनों के सामने,कह दो मन की बात।।
कह दो मन की बात,जरा-सा हल्के होलो।
जीवन के हर दाग,सहज होकर तुम धोलो।
सुन मनोज कविराय,सदा बन अपना दरपन।
देख लिया कर नित्य,उसी में तू अपना मन।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


कुंडलिया

दोहा-रोला से बना,कुंडलिया का रूप।
अलग-अलग हैं छंद पर,देते अर्थ अनूप।
देते अर्थ अनूप,नियम से लय में विरचित।
आदि-अंत-सम-शब्द,छंद में मिलते निश्चित।
यति,लघु,दीर्घ विधान,समझ शब्दों को तोला।
तब कुंडलिया छंद,बन गए दोहा-रोला।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुंडलिया

छंदों के दुश्मन बने, मन में पाले रोग।
प्रगतिवाद के पक्षधर, बिना रीढ़ के लोग।।
बिना रीढ़ के लोग, सोच में रखते नफरत।
कुंठाओं से ग्रस्त, झूठ ही जीना फितरत।
सुन मनोज अब झूठ, दिखाओ इन बंदों के।
जो करके छलछंद, बने दुश्मन छंदों के।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


∆कुंडलिया∆

सत्ता, कुरसी हो भले,कभी किसी के नाम।
लेकिन होना चाहिए रामराज-सा काम।।
रामराज-सा काम,कभी अन्याय न करता।
निर्भय जीते लोग,अजा सँग व्याघ्र विचरता।
हो सकता नित काम,देश में यह अलबत्ता।
भाई-चारा प्रेम,चाहती है यदि सत्ता।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

कुण्डलिया

होते दोहे श्रेष्ठ वे, जिनके भाव अनूप।
कम शब्दों में दे सकें, विविध अर्थ-छवि रूप।।
विविध अर्थ-छवि रूप, बोध की व्यापकता है।
सहज भाव संकेत, शब्द की रोचकता है।
समझ - बूझ का बीज, अगर हम मन में बोते।
बनता एक अनेक, भाव जब व्यापक होते।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


∆कुंडलिया∆

कुर्सी पाने के लिए,करे घात-प्रतिघात।
आज सियासत-कर्म में,जायज़ जूता,लात।।
जायज़ जूता लात,फेक कर कुर्सी मारे।
संसद बीचों-बीच,नीति को नित संहारे।
नेता जब मर जाय,करें मत मातमपुर्सी।
जिसका जीवन लक्ष्य,रहा हो केवल कुर्सी।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


∆ कुंडलिया∆

सदा उड़ाते देश का, जो भी सिर्फ मखौल।
उनके मरने पर करें, जश्न भरा माहौल।।
जश्न भरा माहौल, देश को ऊर्जा देगा।
देश विरोधी शख्स, सबक निश्चित ही लेगा।
ऐसे नमक हराम, देश की रोटी खाते।
मौका देख मखौल, देश का सदा उड़ाते।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


∆कुंडलिया∆

स्वारथ,ईर्ष्या से मिले ,स्वाद सदा ही तिक्त।
और निराशा,वेदना,जीवन में अतिरिक्त।।
जीवन में अतिरिक्त,मधुरता मन में लाओ।
गैरों को दे ख़ुशी, सदा खुद खुशियाँ पाओ।
जीवन का हो लक्ष्य,अगर करना परमारथ।
मिट जाते हैं स्वयं,हृदय से कटुता,स्वारथ।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

∆कुंडलिया∆

संविधान में आज भी,वर्ण व्यवस्था राज।
चपरासी ज्यों शूद्र है,साहब है सरताज।।
साहब है सरताज,व बाबू वैश्य आज के।
घूसखोर हैं बड़े,लुटेरे इस समाज के।
समता औ' सद्भाव,कहाँ भारत महान में।
ऊँच-नीच का भेद,आज भी संविधान में।।

-डॉ मनोज कुमार सिंह


∆कुण्डलिया∆

धर्म,जाति के नाम पर,माँगें जो भी वोट।
लोकतंत्र हथियार से,मारें उनको चोट।।
मारें उनको चोट,वोट से उन्हें हराएँ।
जिनमें सेवा भाव,उन्हीं को चुनकर लाएँ।
भाषा या समुदाय,यहाँ हैं भाँति भाँति के।
करें कभी मत वोट,पक्ष में धर्म,जाति के।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

∆कुण्डलिया∆

मुख पर झूठी वेदना,दिल मे बैठा चोर।
मरी हुई संवेदना,दिखती है चहुँओर।।
दिखती है चहुँओर,व्यथा मैं जिसको बोलूँ।
आज हृदय की टीस,बताओ कैसे खोलूँ।
सुन मनोज कविराय,सहोगे जितना तुम दुख।
बनकर असली दोस्त,निखारेगा तेरा मुख।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


कुण्डलिया

खोवत कहत, सुनत,करत,शब्दों से रह दूर।
कहे,सुने,खोए,करे,हो प्रयोग भरपूर।
हो प्रयोग भरपूर,आधुनिक यहीं तरीके।
वरना ढर्रा वही,करेंगे भाव को फीके।
छोड़ दीजिए कथन,शब्द ये जागत,सोवत।
करिए नहीं प्रयोग,आज से पावत,खोवत।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


∆कुण्डलिया∆

पूर्वज दोहाकार के,देख कथ्य,उपदेश।
शायद कुछ बचता नहीं,कहने को अब शेष।
कहने को अब शेष,नई कुछ बात सुनाओ!
नित नवीन युगबोध,काव्य में रचते जाओ!
सुन मनोज कर सृजन,आधुनिक सोचों से सज!
वरना सारी बात,कह गए अपने पूर्वज।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

∆कुंडलिया∆

साफ-सफाई के समय,आते हैं व्यवधान।
अस्त-व्यस्त होते अगर,घर के सब सामान।।
घर के सब सामान,सजाये जाते फिर से।
होता जीवन सुखद,उतरता बोझा सिर से।
कुछ तो रख लो धैर्य,..वर्ष कुछ, मेरे भाई!
सतत चल रही अभी,देश में साफ सफाई।।

डॉ मनोज कुमार सिंह।

∆कुंडलिया∆

कोरोना के दौर में,रखिए इतना सेंस।
दो लोगों के बीच हो,इक मीटर डिस्टेंस।।
इक मीटर डिस्टेंस, रेंज पालन करना है।
लकडाउन में नित्य,हमें घर में रहना है।
रहना होगा स्वच्छ,हाथ पल-पल है धोना।
तभी मरेगा क्रूर, दुष्ट,घातक कोरोना।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


∆कुंडलिया∆

बाबू का वेतन महज,होता बीस हजार।
मगर शहर में घर कई,और चमकती कार।।
और चमकती कार,पूछ मत कैसे आई।
उनका है अधिकार,चढ़ावे में ज्यों पाई।
सुन मनोज कविराय, रखो साहब पर काबू।
चमचा बनो महान,सफल तुम होगे बाबू।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

∆कुंडलिया∆

दुनिया के इस दौर में ,सुविधा के अनुसार।
रिश्तों में भी चल रहा,नाप तौलकर प्यार।।
नाप तौलकर प्यार,साथ में शर्तें लागू।
प्यार बड़ा अनमोल,घटे तो किससे माँगू।
सुन मनोज इंसान, हुआ है जबसे बनिया।
ऐसे ही निभ रही,आज रिश्तों की दुनिया।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


∆कुंडलिया∆

बरगद,पीपल,आँवला नीम, कदम्ब,अशोक।
वृक्ष धरा के प्राण हैं,जाने तीनों लोक।।
जाने तीनों लोक,हृदय से मनुज मित्र हैं।
प्राणवायु आधार,पावन संत चरित्र हैं।
सुन मनोज ये नित्य,कर रहे धरती शीतल।
नीम कदम्ब अशोक,आँवला बरगद पीपल।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

∆कुंडलिया∆

जब हो प्रत्युतपन्नमति,होनहार संतान।

उसे कराना चाहिए,सत्यमार्ग का ज्ञान।

सत्यमार्ग का ज्ञान,नीति की राह चले वो।

अँधियारों के बीच,दीप बन नित्य जले वो।

सदा कर्म अभ्यास,कराता जीवन उन्नति।

होनहार संतान,जब हो प्रत्युतपन्नमति।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


∆कुण्डलिया∆

जीकर बासी जिंदगी ,जीवन भर इंसान ।

रटे - रटाये ज्ञान पर ,करता है अभिमान ।

करता है अभिमान,क्रोध मन में उपजाता ।

खोकर धैर्य ,विवेक ,अंततः दुख ही पाता ।

सुन मनोज कवि सत्य,अहं है खुद की फाँसी ।

नहीं मिले आनंद, जिंदगी जीकर बासी ।।

.................................डॉ मनोज कुमार सिंह



∆कुण्डलिया∆

तुलसी,दादू नानका,दरिया और कबीर।
कवि मलूका,रहीम हैं,काव्य सिंधु के नीर।।
काव्य सिंधु के नीर,सत्य के अनुगामी थे।
थे ईश्वर के भक्त,सहजता के स्वामी थे।
दोहा,पद में भरे,जिन्होंने अद्भुत जादू।
दरिया और कबीर,नानका,तुलसी,दादू।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


कुंडलिया

लेना-लेना कामना,देना-देना प्यार।
लेने-देने को समझ,एक महज व्यापार।।
एक महज व्यापार,ख़ुशी से जीना सीखो।
देकर सबको प्यार,सदा गम पीना सीखो।
सत्य यहीं इंसान,काल का महज चबेना।
देना-देना सीख ,छोड़ अब लेना-लेना।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


∆कुण्डलिया∆

पाकर बल गद्दार का,भोगे थे सुख सेज।
सैनिक लाए थे नहीं,मुगल और अँगरेज।।
मुगल और अँगरेज,यहाँ से चले गए हैं।
मगर पड़े गद्दार, कि जिनसे छले गए हैं।
करते हैं अपकर्म,देश की रोटी खाकर।
छलते रहते दुष्ट,अभी भी मौका पाकर।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


विधा- ∆कुण्डलिया∆

राजा के दरबार में, वहीं लोग स्वीकार।
हाँ जी!..हाँ जी! बोलते, जी!.. हुजूर!..हरबार!
जी!.. हुजूर!..हरबार, करें बस चमचागीरी।
लिप्सा वाले लोग, न जानें त्याग, फ़कीरी।
पाते हैं नित भेंट, बजा दरबारी बाजा।
सुनकर चारण गीत, बहुत खुश होता राजा।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


विधा- कुंडलिया

ओपनहाइमर, टेस्ला, वेद किए मंजूर।
मगर बीज चर्वाक के, कोसों इससे दूर।।
कोसों इससे दूर, झूठ के सौदागर हैं।
जैसे विष से भरे, स्वर्ण के इक गागर हैं।
क्यों समझेंगे वेद , देश के रसल वाइपर।
जबकि समझ गए थे, जिसको ओपनहाइमर।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


कुंडलिया

ईश्वर संगीतकार का,अद्भुत है आलाप।

हृदय गेह में निरंतर,बजते जिसके थाप।।

बजते जिसके थाप,राग दुनिया के फीके।

जीने के न इससे,बेहतर अन्य तरीके।

आनंदित हो नित्य,अनहदी लय में बहकर।

तेरी रक्षा सदा,करेगा प्यारा ईश्वर।।

डॉ मनोज कुमार सिंह


'कुंडलिया'

मक्का,कोदो,बाजरा,मडुआ,सांवा,ज्वार।

चना,कूटकी,कंगनी,अपनाओ आहार।

अपनाओ आहार,स्वस्थ जीवन पाओगे।

मोटे सभी अनाज,प्यार से जब खाओगे।

सुन मनोज कविराय,रोग भागेगा पक्का।

खाओ करके मिक्स,बाजरा,मडुआ,मक्का।।

-डॉ मनोज कुमार सिंह

No comments:

Post a Comment