Tuesday, November 10, 2020

डॉ मनोज कुमार सिंह की कविताएँ


1-

फूल सी औरत
......................

जब घेर लेते हैं 
एक औरत को
बहुत सारे बूढ़े,जवान पुरुष
जैसे एक हिरन को
बहुत से भूखे शेर
जंगल में ?.......नहीं,
राह में?...........नहीं,
मेले में?...........नहीं,
चौराहे पर?.......नहीं,
अकेले में?..नहीं रे बाबा!
फिर कहाँ?
सार्वजनिक जुगाली की दीवार
फेसबुक पर।
जब कोई औरत चेंपती है
गाहे-बगाहे
बाँकपन अदाओं के साथ
अपनी तस्वीर
तो भौरे मन को 
मिल जाती है एक खुराक।
परिचय,अपरिचय की 
कोई बाउन्डरी नहीं।
बिना सोचे 
ठोकते हैं लाईक
फिर उंगुलियों से
स्पर्श करते हैं धीरे से 
औरत की तस्वीर। 
फिर उसे थोड़ा बड़ा करते हैं
जो आँखों में सही-सही
समा जाये। 
फिर छूने लगते हैं
रेशा रेशा अस्मिता के ।
फिर लिखते हैं
ड्यूड,लोल्ल,वाउ।
न जाने कितने नए शब्द 
गढ़े हमनें।
हे शब्दकोष!
कब दोगे इन शब्दों को
इनका अधिकार
अपने में समेटकर।
चल भ्रमर मन !
भिनभिनाएं फिर
अपनी दीवार फांदकर 
वहाँ जाएँ फिर
जहाँ उग आती है
एक फूल-सी औरत
अपनी खुश्बू से तर
व्यक्तित्व के साथ
फेसबुक पर।


2-
#सुनो पार्टनर! #
.....................
सुनो पार्टनर!
तुम्हारी पालिटिक्स मैं जानता हूँ।
मेरे अहिंसक साहित्य को
किस प्रकार तुमने बनाया
हिंसक।
तुम चलती आ रही परंपरा 
सत्यम शिवम् सुन्दरम की अवधारणा में से
शिव और सुन्दर को छोड़कर 
तुमने
नग्न सत्य को स्वीकारा।
सत्य में हिंसा की संभावना होती है
कभी कभी आदमी असत्य को
सत्य समझकर हिंसक हो जाता है।
तुमने आधुनिकता और प्रगतिशीलता के चक्कर में
कमल कोरकों से पराग लेने की जगह
कमल की सारी पंखुरियां ही नोच डाली।
फूल के स्थान पर पत्थरों को
बिठा दिया।
बहुत ही चालाकी और काइयांपन दिखाते हुए
गद्य और कथा के बहाने
साहित्य को मिटटी और मैदान की ओर
मोड़ दिया।
फूलों का निषेध कर
प्रगतिशीलता की हँसिया से
सम्पूर्ण सौन्दर्य वन को
काटा और हथौड़े से 
कुचल डाला। 
पहली बार
साहित्य को शस्त्र से उपमित किया गया
और संघर्ष को अनिवार्य किया गया
पहली बार हिंसा को साहित्य में
दिया गया स्थान।
तुमने पहली बार
पश्चिम से वर्ग संघर्ष का बीज
लाकर रोप दिया
भारतीय साहित्य और संस्कृति की
भाव भूमि में
उपेक्षित कर दिया
भारत की परंपरा और आत्म तत्त्व को।
तुमने भक्तों में भी भेद कर दिया
सगुण को गौण और
निर्गुण को श्रेष्ठ बताकर
स्वार्थ की सिद्धि की।
सगुण के एकता के तत्त्वों की
उपेक्षा करके
पश्चिम का अलगाव,द्वंद्व और
जाति संघर्ष की खोज कर डाली।
तुमने संतो के साथ भी अन्याय कर
उनकी गौण रचनाओं को अपनी 
आधारशिला बना ली।
तुमने अपने को प्रगतिशील कहा
और अपने विचारों के गर्भनाल में
हिंसा का पुंसवन करने लगे।
तुमने जनवाद के कीड़े के पेट में
क्रोध और घृणा भर दिया
और आम आदमी के पास जाने की
कोशिश की
जिसमें सफल नहीं हुए।
तुमने हृदय पक्ष को ठुकराकर
बुद्धि को अपनाया
तुम तथाकथित आलोचक बन गए
अगर नहीं बने तो बस कवि
क्योंकि बुद्धि से काव्य संभव नहीं।
तुमने मार्क्सवादी चमड़ी ओढ़कर
प्रगतिशीलता की डकार ली
जिसमें केवल और केवल
राजनीति की बदबू थी
साहित्यिकता और सहृदयता की
सोंधी सुगंध सिरे से गायब थी 
जैसे गधे के सिर से सिंग।
तुमने अर्थ और भूख का सहारा लेकर
साहित्य का स्तर गिराया
सजाया तुमने अपने विचारों को
नग्नता,अश्लीलता और नंगेपन के
अलंकारों से।
तुमने ऋषि द्रष्टा रचनाकार को
कलम का सिपाही और मजदूर संज्ञा से
पुकारा 
जिसे साहित्य से लेना देना नहीं
एक मजदूर और सिपाही से
अहिंसा की कल्पना नहीं की जा सकती।
अहिंसा एक असामान्य व्यवहार है
इसकी अनुपस्थिति और 
वर्ग संघर्ष हिंसा की प्रवृति ने
साहित्य को सतही बना दिया।
सुनो पार्टनर!
ये सही है कि तुम्हारी हिंसक प्रवृति,
स्वार्थ,घृणा,द्वेष ने 
श्रेष्ठ साहित्य को पनपने में
बहुत कठिनाई में डाला है
पर विश्वास करो
शिव और सौन्दर्य 
कभी नष्ट नहीं होते
ये हवाओं में जाफरान की 
सुगंध की तरह फैले होते हैं
और चेतना के खेत में
उगाते रहते है
अहिंसा के बीज
जिसके बारे में 
तुम उतने ही अपरिचित हो
जितना कृष्ण के जन्म के बारे में
कंस था।
तुम वस्तु उत्पादक बुद्धिजीवी हो,
हम मानवीय संवेदना के चितेरे हैं।
तुम प्रगतिवाद के चौखटे और खूंटे में बंधे
पशु हो। 
तुम युगबोध से बाहर नहीं ।
हम युगातीत, कालातीत परिंदे हैं।
हम ब्रह्मा,विष्णु,शिव की संतानें हैं
हमारे पूर्वज थे
साहित्याकाश के 
प्रखर सूर्य और सरस शशि
बाल्मीकि,व्यास,कालिदास,तुलसी ,सूर
जिनपर हमें है सचमुच गरूर।
जिनका साहित्य ही असली साहित्य है
बाकी सब पानी के बुलबुले।।


3-
मेरी हंसी और तुम्हारी हंसी में 
.......................................

मैं हँसता हूँ 
सिर्फ तुम्हारे लिए मेरे बच्चे                                    क्योंकि तुम हँसते हो 
तुम्हारी हंसी                  
ईश्वर की नियामत है                  
जिसके बदौलत                 
आज भी दुनिया सलामत है                  
 मैं डरता हूँ 
कि तुम कभी भी                          
मेरी तरह मत हंसना                           
तुम अपनी हंसी हँसना                           
 मेरे हृदय  के टुकड़े                           
 मैं भी तुम्हारी तरह ही 
 हँसता था 
अचानक अपनी तरह से 
हंसने लगा 
बिल्कुल आज कि हंसी भांति 
कि हँसना मज़बूरी है
मेरी हंसी और तुम्हारी हंसी में
कितनी दूरी है 
कि मुझे हंसने में 
दाँत दिखाना बहुत -बहुत 
जरुरी है ।       

4-             
चौपाया 
...................
भूख ,भूख ,भूख 
भूख 
जब पेट के धरातल पर 
बेचैनी के ताल  पर 
नंगी होकर नाचती है 
तो 
धैर्य का भी धैर्य 
साथ छोड़ देता है 
मन के देह पर 
विकृतियों के कैक्टस 
उग आते हैं 
ईमान 
घुटने टेकने लगता है 
तब आदमी 
धीरे- धीरे 
चौपाया होने लगता है।


5-

धरती की लय में 
......................
चाहता हूँ मैं 
चिड़ियों की चहक 
अक्स नन्हीं हंसी का 
सपनो का एक झरना 
स्पर्श -वत्सलता की चांदनी 
गुनगुने शब्दों  की तरलता 
 लोरियों  में छुपी सपनो की गुदगुदाहट 
वीचि -विचारों की छलक 
ताकि सुन सकूँ 
आत्मीय सरगम 
देख सकूँ 
हरिआया भविष्य 
उड़ सकूँ 
आकाश के कंगूरों तक 
घोल सकूँ 
अपनी नम आँखों में  
विस्मृत रंगों और सपनो को 
उग सकूँ 
भूख के पेट में अन्न बनकर 
बन  सकूँ 
कांपती  दिशाओं का लिहाफ 
रच- पाच जाऊं 
गंध बनूँ मिट्टी की 
छंद बनूँ कविता की 
धरती की लय में ।

6-

रंग आदमियत का  
............................

वह ग्यारह साल का रघुआ 
उम्र जिसकी अभी हंसने खेलने खाने की 
जरुरत है जिसके हाथों को 
प्रेम के पवित्र अहसास की 
उड़ते परिंदों - सा सतरंगे 
खुले आकाश की 
पता नहीं 
किसने चुरा लिया उसके 
होठों का दुधिया मुस्कान 
और
लाद दिया है निर्दोष आँखों में 
अकथ थकान 
उदास पड़ा  सड़क के किनारे 
भीड़ के शहर में 
धूप की छांव में 
 सुबह से शाम सुनता रहता 
आते-जाते जूतों की आहट
जिसे चमकाने में 
ओढ़ लिया है दुनिया भर की मलिनता 
समय के इंतजार से 
भली- भांति परिचित 
 उम्र की यह छोटी-सी किताब 
 पढ़ सको तो पढ़ 
जिसका अक्षर-अक्षर 
दर्द का तडपता इतिहास है 
अरमानों के खून से लथपथ 
असुरक्षित दस्तावेज है 
जो कभी भी 
समय के हासिये से 
तार-तार हो बिखर सकता है 
विरासत में प्राप्त 
उपेक्षा और झिडकियों का 
वहंगी ढोता यह श्रमरत 
वर्तमान श्रवण 
मानो एकमात्र पुत्र प्रमाणिक 
वह तोडती पत्थर का 
जब देखता है 
श्रम की थाली में अर्थ की व्यर्थ ठनक 
जैसे गर्म तवे पर दो बूंद जल की फद्फदाहत 
कम है साहब- टोकता है बच्चा 
पलटते पांव को जैसे रोकता है बच्चा 
कि प्रतिप्रश्न कि- 
तू बहुत बोलता है 
जुबान अधिक खोलता है 
कुछ डर जाता है बच्चा 
भीतर ही  भीतर मर जाता है बच्चा 
और मूक नज़रों से देखने लगता है 
अठन्नी-चवन्नी में 
 बीमार माँ की दवा
तीन- तीन जवान बहनों की शादी 
अपंग पिता की वैसाखी 
अक्स अपनी बेवसी का 
सुबह का स्वप्न
रात की रोटी 
श्रम का वर्तमान 
रंग आदमियत का 
नीयत ईश्वर का 
जूते अपने हाथ का 
जिसे कभी भी फेंक सकता है 
आकाश के चेहरे पर 
बेहिचक।


7-

घर में बैठा मैं कविता लिखता हूँ 
....................................

घर में बैठा 
मैं कविता लिखता हूँ 
पत्नी 
 जूठे बर्तनों को माँज- माँजकर
 चमकाने में लगी रहती है
बच्चों की धमाचौकड़ी 
और 
 काम का भारी बोझ 
 के बीच 
 पत्नी पकाती है 
  गोल - गोल रोटियाँ
 साथ -साथ पकता है 
उसका उकताया मन 
 मक्के की भात की तरह 
डुभुर -डुभुर 
 चूल्हे में लकड़ी कम जलाती है  
 फिक्र अधिक 
धुआँती आँखों से  
करती है याद 
अपने जीवन  के पाठ जैसे 
 - भुनभुनाती है कभी 
 - झुझलाती है कभी 
स्कूल भेजने से पहले 
बच्चों के कुर्ते के 
टुटे हुए बटन टांकती 
 झांकती -
कभी पतीलियों में 
देखती है
सींझते समय को 
सब्जी के साथ 
भरती है
अलग- अलग टिफिन में 
अलग- अलग रुचियाँ 
समय के हासिए पर 
 दौड़ते हुए 
भेजती है बच्चों को स्कूल 
और कुछ  समय के लिए
जैसे आश्वस्त हो जाती है 
घर का सारा बोझ लिए हुए भी 
फचीटती है कपडे, सुखाती है जीवन 
उनके आने तक की 
प्रतीक्षा के साथ 
घर में बैठा मैं कविता लिखता हूँ ।


8-
शर्त ये है कि-----
...................         
मैं अग्नि -परीक्षा से 
गुजरना चाहता हूँ 
मगर शर्त ये है कि 
अग्नि परीक्षक मेरे साथ 
 आग में खड़ा रहे 
 यह स-तर्क विचार नहीं 
अपितु सतर्क चेतना है 
आरोप के खिलाफ 
एक कटु आलोचना है 
सदियों का षड्यंत्रकारी इतिहास 
आभिजात्य मद में चूर है
वर्तमान अगर उसे तोड़ता है 
तो मेरा क्या कसूर है |


9-
सोचता हूँ लिखूं एक कविता 
...................................

सोचता हूँ  
लिखूं एक कविता 
 एक ऐसी कविता 
 जिसे लिख सकूं 
और दिख सकूं मैं 
खुद उसमे 
सुना है आसान नहीं है 
कविता लिखना 
सचमुच 
कविता लिखना 
कविता होना है 
जैसे आग जलाने के लिए 
ताप का होना 
जब भी बैठता हूँ 
कविता लिखने 
लिख नहीं पाता
एक भी शब्द 
तब भाड़ने लगता हूँ 
कागज कोरा 
पारने लगता हूँ
टेढ़ी -मेढ़ी लकीर यूँ ही 
 जिसमे देखता हूँ
अनायास 
एक पेड़ 
पेड़ में उड़ने को आतुर 
 एक खुबसूरत चिड़िया 
 चिड़िया में एक लड़की 
 लड़की में इन्द्रधनुषी आकाश 
आकाश में खिलखिलाता चाँद 
 चाँद में सपने 
 सपनों में रंगों की बारिश 
बारिश में भीगते पेड़ 
पेड़ के नीचे 
भीगती लड़की 
लड़की में भीगता मैं सर्वांग 
सोचता हूँ 
लिखूं एक कविता |


10-
माँ की नसीहत  

बचपन से यौवन तक, 
सपनों के गोद पली 
पिता और भाई के ,
हाथों की झुनझुना 
बाबा के कन्धों  की ,
चंचल गौरैया थी 
गाँव के बगीचे के 
आम के दरख्तों पर 
झुला डाल डालों पर 
सावन झुलाई मैं 
कोयल की कूंज बनी 
कजरी गा इतराई 
पंछी बन उड़ गयी 
पेड़ की फुनगियों तक 
सींग चूमे बैलों के 
भाई के मस्तक- सी 
घर की कमाई के 
दो मज़बूत हाथ थे 
बेटी की शादी थी 
जिनके बदौलत ही 
पिता की पगड़ी थी 
पर्दा दरवाजे की 
 दीवारों के घर में 
चमकते रोशनदान थे
 बचपन से सुनती थी 
माँ की नसीहत मैं 
बेटी पराई है बेटी पराई है
हुई थी पराई मैं 
पर आँगन आई मैं 
महका कोना- कोना घर का 
अंगड़ाई लेती खुशियों ने 
दौड़ लगाई भर आँगन 
 छाया  सुरमई उमंग  
आँखों के हर गाँव में 
 नई सुबह उग आई 
नई गूंज लहराई
 मौसम की रंगीनी 
घर के कंगूरों तक 
धीरे-धीरे बढ़ आई 
हरिआई,
शरमाई ,
गहराई 
हंसी और ठिठोली का 
पुरकश आकाश रहा 
समय परवान चढ़ा 
सोहर की पंक्तियों -सी 
वत्सलता छलक पड़ी 
नन्ही- सी किलकारी 
जीवन के आँगन में 
घुटनों के बल दौड़ी 
द्वैतराग  जाग उठा 
अनहद की गूंज मिली 
फ़ैल गयी तुलसी की 
अपरिमित तृप्त गंध 
नींद गीत बन बैठी 
मंगल के जंगल में 
ढोलक  ने थाप दिया 
नाच उठा मन- मयूर 
आसमान सर पे ले 
पल्लव की कोमलता 
 धीरे- धीरे पत्र बने  
पत्रों में पुष्प खिले 
 डालों पर छा गए 
अपने- अपने मौसम के 
राग अपने- अपने हैं 
हमराही छोड़ गया 
सुनी सड़क मांग हुई 
आज अपने घर में ही 
नोनछूही मिट्टी हूँ 
धीरे- धीरे सरक गयी 
उम्र की कमीज़ भी 
समय धंसा आँखों में 
आँख भी पिचक गयी
सोंच नहीं पाई थी  
अपना वजूद कभी 
जीवन की सरहद पर
पर्वत -सा अडिग अब भी 
माँ की नसीहते है 
बेटी पराई है बेटी पराई है ||



11-
बोझ और भूख 
....................
पीठ और पेट की 
संस्कृति के बीच
बोझ और भूख 
ऐसे चरित्र हैं
जिनके कई अक्स हैं
जो खुरदुरे रूप में
जिंदगी के बरक्स हैं |
आत्मा की भूख की
ह्त्या न कर दी जाये
उसकी साजिश से तंग आकर
आदमी
कभी-कभी
ऐसे राह पर चला जाता है
जहाँ अनजाने में
मिलती है उसे
एक नई रोशनी ,
एक नई दिशा ,
एक नई परिभाषा
एक नया निकष |
लगता है कि
हर नई दिशा और परिभाषा के लिए
भूखा होना ,
निहायत जरुरी सच है
जिसका बोझ
जो पीठ सह लेता है
वहीं कविता में कुछ कह लेता है
और इस क्षणिक दुनिया में भी
सदियों तक रह लेता है
जैसे कबीर ,निराला ,नागार्जुन,मुक्तिबोध .....

12-
हृदय की सेज पर विराजमान मेरी माँ ! 
...............................................................

माँ!
जब से तू आई हो 
कविता के मंदिर में ,
कविता के शब्द
स्नेहसिक्त हैं |
अनुभूतियाँ -
कोमल हो गई हैं ,
बचपन के स्नेहिल मैदान पर-
उग आये हैं मुस्कान के दूब ,
फ़ैल रही है लालिमा -
ठंडे परिवेश के नीले क्षितिज पर ,
डूब रहे हैं हम आकंठ ,
ममता की पवित्र नदी में ,
ढह रहे हैं दिवार ,विचार भ्रम के ,
हृदय की सेज पर विराजमान मेरी माँ !
मेरे अंतरतम में
आशीर्वाद का कुछ बूँद ऐसा टपका
कि मुझमें ताजिंदगी
आदमी बने रहने की तमीज़ बनी रहे |

13-

मौन -संवाद करता क्षण 
................................
हे अनाम ! 
यह कुछ क्षण स्मित-आँखों से 
मौन -संवाद करते अनायास
जो बीता यहाँ 
उससे उठी है
अपरिचय के गर्भ में
एक गुमनाम रिश्ते की टीस
तुमने जाते वक्त 
बार-बार पलटकर
लौटती आँखों से
कुछ कहा मुझसे
ऐसे -
जैसे यह क्षण अपना है
केवल अपना
इसे सुरक्षित रखना
तब मुझे लगा
कि छोड़ रहा हूँ मैं अभी
चुपके से एक प्रेम-पत्र यूँ हीं
एक अज्ञात दिशा के नाम
जो खो जाएगा जीवन के बीहड़ में
रह जाएगी केवल
उसकी स्मृति
जीवन -विस्मृति के बीच
मेरा पाथेय बन
समय के हासिये पर चस्पां
यह मौन -संवाद करता क्षण।

14-
याद आते हैं वे दिन 
............................

जब देखते हैं तुम्हें 
याद आते हैं वे दिन
जब पत्थरों पर दूब बन उग आना 
राग के आग में बिना हिचक कूद जाना
पैरों में संपूर्ण आकाश लेकर घूमना
उफनती ईच्छाओं की लावण्यमयी बिस्तरे पर
मधुर अठखेलियाँ करना
घूरती नज़रों से बिलकुल नहीं डरना
दुनिया की नज़रों में यह अपराध था
हमारी नज़रों में महज़ खेल
खेल-खेल में जीतकर
तुमसे हार जाना
समय की कठोर पीठ पर भी
सपनों की खेती करना
स्मृतियों की ये मांसल मादक अनुभूतियाँ
करती हैं मुझे परेशान
जब देखते हैं तुम्हें
याद आते हैं वे दिन |


15-

तेरे शब्द ,मेरे शब्द 
..........................
मैं
इस नाज़ुक परिवेश में
ऐसा कोई चामत्कारिक शब्द 
नहीं रखना चाहता 
जिसको सुनकर,देखकर
आप विस्मय से भर जायें
उछल जायें
तालियाँ बजाएं 
और कह उठें वाह-वाह 
तथा
इधर शब्द की सहजता
फंसी चढ़ जाये 
मैं दूंगा शब्द 
सहज शब्द 
प्रामाणिक शब्द 
शब्दों के साथ पूरा वाक्य दूंगा
जो आपके चूल्हे से 
चौराहे तक
सिरहाने से सपने तक
फैले -
व्यवस्था की भयानक खूनी पंजों
और दहाड़ते आतंक के डर से
छुपे
दुबके
गुमनाम शब्दों को
तुम्हारे अंतड़ियों के
सलवटों में से बहार निकल कर
देंगे उन्हें आत्मबल
एक विश्वास 
निर्भय होने का आचरण 
युयुत्सावादी मिजाज़
एक जलता हुआ अलाव
जिसमें पकने के बाद
मेरा दावा है -
व्यवस्था की
हत्यारी साजिश के खिलाफ 
एक दिन आँखों में आँखें डाल 
दे सकते हैं उनको
दो हाथ कर लेने की सहज सूचना 
एक नए तेवर और नए कलेवर के साथ
तेरे शब्द ,मेरे शब्द |

16-

श्यामला हिल्स भोपाल में |

शाहज़हां ने बनवाया था 
आगरे का ताजमहल 
याद में मुमताज़ की 
मुन्ना सरकार अन्डावाला भी 
बनाया है एक प्याऊ 
अपनी बेगम शाहजहाँ की याद में 
अशोका लेकब्यू होटल के सामने 
श्यामला हिल्स भोपाल में 
ताजमहल -
एक सुखद आश्चर्य है दुनिया का 
प्याऊ -
बस धड़कन है ,टीस है
मुन्ना सरकार के अधूरे अतीत और वर्तमान का \
चूँकि दोनों हैं प्रेम के प्रतीक
पर फर्क इतना है 
कि शाहजहाँ ने बनवाया था ताजमहल 
मजदूरों से
और काट लिया था उनका हाथ 
जबकि मुन्ना सरकार 
स्वयं शिल्पी है शीतल प्याऊ का 
जिसने जोड़ा है स्मृतियों को 
अहसास के हाथों से ,
जिसके जल के कतरे-कतरे में 
बेगम की मधुरिम लय 
प्रवाहमान है 
जिसे देखा जा सकता है 
आज भी मुन्ना सरकार की बूढ़ी आँखों में 
अशोका लेक व्यू होटल के सामने 
श्यामला हिल्स भोपाल में ||


17-
शेर तो अब ढेर हैं*

*********************

जब चूहे को चूहा कहा 
तो मेरे कपड़े कुतर डाले, 
बिल्ली को कहा बिल्ली 
तो गुस्से में रास्ता काट गयी, 
कुत्ते को कुत्ता कहा 
दिनभर भौंकता रहा मुझपर ,
शेर को कहना चाहा शेर 
तो वह घबराया ,
अपने पास मुझे बुलाया, 
बोला -शेर मत कहो मुझे भाई ,
अब मैं सर्कस में जोकर हूँ ,
कभी राजा था जंगल का ,
अब मालिक का अदना-सा नौकर हूँ ,
आजकल कुर्सी का खेल है ,
जिसमे हमारे जैसे प्राणी फेल हैं 
भ्रष्टों को गद्दी मिलती है ,
अजीब ये मेल है ।
चूहे भी अब शेर हैं ।
शेर तो अब ढेर हैं ।

18-
जीवन जीने के लिए 
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

कविता 

जीवन जीने के लिए
एक मुट्ठी आकाश
आशा की
और कुछ गज जमीन
भावनाओं की चाहिए
जिस पर चलते हुए
कर सकें प्राप्त
एक सम्यक ,सुरुचि संपन्न
सोच की सीढ़ी
जिसके सहारे चढ़ सके
अनुभूतियों के लत्तर
मन के देह पर
और देख सके
आत्मा का सही स्वरुप
पा सके
अपनी खोयी हुई
अस्मिता की चाँदनी
भ्रम के गुहांधकार से
और भोग सकें
सदेह ईश्वर के संसार को |


19-
आत्मा की लय पर 
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
मैं बिकती हुई
दुनिया के बारे में
सोचकर
दुखी हो
भरे बाज़ार में भी 
रो सकता हूँ 
मैं सड़कों पर
पागलों की तरह दौड़ते हुए
दे सकता हूँ एक सार्थक बयान
इस दुनिया की तबाही पर
और दे सकता हूँ
चिल्ला-चिल्ला कर
समाज को भद्दी -भद्दी गालियाँ
कि क्यों नहीं दिखती तुझे
वो सभी चीजें
जो तुम्हें देखने के लिए
आँख के साथ
विवेक का चश्मा भी
उधार में दिया है ईश्वर ने
मैं अनायास ईश्वर को
गाली नहीं दे सकता
क्योंकि मैं नहीं जानता उसे
जिसे मैं जानता हूँ
वह तुम हो या कि मैं
या कि ये सब जो ठहरे हुए
सुसभ्य झीलों की तरह
सभी शहरों और दिशाओं को
जकड़े जा रहे हैं
जहाँ पाँव रखना भी
जोखिम का काम है
सूखते हुए फूलों को देख
उनके दर्द सुन
रो सकता हूँ मैं अभी
[रो रहा हूँ ]
कि भीड़ के शहर में
उद्दाम वेगवती गाड़ियों की
चपेट में आये
उस चिड़िया के बच्चे को
लगाकर छाती से
भरपूर विलाप कर सकता हूँ
वाल्मीकि की अनुष्टुप छंद की तरह
कि इन्तजार के घोसले में बैठी माँ
सदियों से ढूढ़ती है
बच्चे का पता
कि जिसमें लौटने की आहट
एक भरोसा
अभी भी मौजूद है
नहीं आने तक की प्रतीक्षा के साथ
यह बहुत बड़ी दुर्घटना
कि अपनी हीं चारपाई पर
सुरक्षित नींद की तलाश में
सदियों भटकता रहा है आदमी
जिसे पता नहीं
उसकी नींद चुरा ली किसने ?
जिसको पाने के लिए
सदियों सोया नहीं
तब मैं क्यों नहीं रो सकता
सबके सामने चिक्का फाड़
कि किस पर करें विश्वास
कि आदमी मर रहा सरेआम
गंजी सभ्यता का
भारी लबादा ओढ़कर
धीरे,धीर,धीरे
अपनी जमीन पर हीं
अपनों के हीं बीच
कि मैं क्यों नहीं रो सकता
सबके सम्मुख
क्योंकि रोना नाटक नहीं है
या सार्वजनिक रूप से
पढ़ी जाने वाली मरसिया
जिसमें छाती पीट-पीटकर
रूहानी रिश्तों को
अखबारी इश्तेहार बना दिया जाए
या किसी पडोसी की
भागी हुई लड़की की
संवेदना प्रकटती चर्चे की तरह
जिस पर चौक चौराहे की दुकानें
सुबह से शाम चटखारे लेतीं
बीच बहस में
दिनभर की थकान उतारती
जुबान लड़ाते नहीं थकतीं
या दुःख पर लिखी
कवि की कविता की तरह
जो छपती है
बिकती है
दिखती भी है
पर उसमें दुःख
नहीं होता कहीं भी
जैसे मैंगो फ्रूटी में आम
कि रोते समय एक कंधे की
जरुरत होती है
जिस पर निढाल हो आंसू
रोते हुए बहुत रोते हैं
जब तक भींग नहीं जाती
कंधे की आत्मा की जमीन
मैं ढूढ़ रहा हूँ वह जमीन
जो सुन सके सन्नाटे की चीख
दे सके ढाढस
जैसे किसी बोझ ढोते पीठ पर
मालिक द्वारा लिखे समरगाथा को
पढ़ते हुए
भाषा की आँख
उबलकर
निकलकर
लटक जाती है
क्षितिज की छाती पर
बेजुबान हतभाग्य-सा
और तब कोई शब्द
थपकियाँ देता
सुनता रहता है
बेजुबान की धड़कन की सुबकन
आत्मा की लय पर |


20-
युग के सवाल 
.......................

सवाल से सवाल निकलना 
सहज सवाल नहीं 
क्योंकि ,सहजता
स्वयं में एक व्यापक सवाल है
जिसे ढूढ़ते हुए हम
शुरू से अंत तक
अंत से अनंत तक
भटकते रहते हैं
वैसे सवाल के कई अक्स हैं
जो जीवन के बरक्स हैं
कुछ सीना तानकर खड़े होते हैं
कुछ भरोसा देने पर
किसी तरह अड़े होते हैं
कुछ अधर में पड़े होते हैं
कुछ डरे होते हैं
कुछ जीते जी मरे होते हैं
जिन पर कोई सवाल नहीं उठता
वैसे सवाल जिसके सिर पर
सवार रहता है
चाट जाता है उसे
इसलिए सवाल के बारे में
प्रश्नवाचक दृष्टि है व्यवस्था की
,जो मानती है कि
सवाल खडा करना
महज जुबान लड़ाना है
और दाँतों के बीच जुबान का बढ़ना
एक भयंकर रोग है
यह रोग मेरे पिता को भी था
जो धीरे-धीरे मुझे संक्रमित कर
व्यवस्था की दृष्टि में अपराधी बना दिया
चूँकि मैं अपराधी हूँ
फलतः व्यवस्था के प्रति
बहुत सारे अपराध
अब ले रहे हैं जन्म
मेरे सीने में
पल रहे हैं
बढ़ रहे हैं
सच का सच बन
ढल रहे हैं
जिन्हें दे रहा हूँ
मुखरता
प्रखरता
उदग्रता
निर्भयता
उर्जा अकूत संवेदनशीलता
आत्मीयता
सहजता
सम्प्रेषणीयता
चेतना की स्वतन्त्रता
आग का राग
जैसे कबीर
निराला
नागार्जुन
मुक्तिबोध
युग के सवाल
व्यवस्था की निरंकुश –नंगी
तस्वीर के खिलाफ
गवाह बेपनाह ||

21-
सपने का सच
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

जिसने भी कहा –
सपने का सच
सच नहीं होता
शायद देखा नहीं कभी
उसकी आँखों ने
सपने का सच
या
सच के सपने
क्योंकि सपने बुनना या देखना
डूबना है समुद्र में
और समुद्र में डूबना
आत्मगत करना है
समुद्र का खारापन
जो स्वाद के वर्णमाला से
बाहर का हिज्जे है
जिसे कंठगत करने में
भाषा की जीभ ऐंठ जाती है
फिर भी मैं
सुनता हूँ सपना
डूबा हुआ हूँ आकंठ
समुद्र में
पी चुका हूँ
उसका बहुत सारा खारापन
चाहते हो अगर
उसे देखना
तो देखो मेरी आँखों में
एक समुन्दर ठाठें मारता
खारे जल से
भरा है लबालब
जो किसी व्यक्ति के
डूबने के लिए काफी है
मगर शर्त ये है
कि डूबने से पूर्व
करना पडेगा आत्मगत
उसका खारापन
यह खारापन हीं
बचाए है इस धरती को
जिसके कारण आज भी
वह हरी-भरी सी दिखती
तैरती हुई समुद्र में
सुरक्षित है
यह खारापन हीं
बचाएगा तुम्हें भी
गीत बन गुनगुनाएगा
देगा तुम्हें
एक अहसास की गीली जमीन
जिस पर उग सकेंगे
सपनों के बीज
जीवन के रेत में
क्या अच्छा होता
कि एक समुद्र मिलता गला
दूसरे समुद्र के
आँखों का होता रास्ता
जिसमें देखते वे
सपने का सच
जो सच हीं होता है
कभी झूठ नहीं होता
जिसे देख नहीं पातीं
ये दिग्भ्रमित आँखें
और कहती फिरती हैं
सपने का सच
सच नहीं होता
हाँ ,यह भी सच है
कि जब से आ गए
समुद्र में घड़ियाल
तब से
सपने का सच
सच नहीं है |

22-

अंतिम तिल्ली
..................
मैं
खाली हो गई
दियासलाई की 
अंतिम तिल्ली हूँ
तब्दील मत करो मुझे
सिगरेटी धुओं में
या
कायर आत्मदाह में
चाहते हो
जलाना हीं अगर
तो
फेंक दो जलाकर
उन हत्यारी अट्टालिकाओं के चेहरों पर
जो झोपड़ियों के कब्र पर
खड़ी होकर
भयानक अट्टहास कर रही हैं
या
उस टोपी पर
जिसकी नकली
समाजवादी सदरी के दरवाजे पर
कहीं गांधीवादी
तो कहीं
लोहियावादी दूकान
तथा कुर्ते की खोली में
घोटाले व चकला घर
चलते हैं
या
जला दो उस चूल्हे को
जिसने लगातार कई दिनों से
आग का मुँह नहीं देखा
जिसके नहीं जलने से
उसका पूरा परिवार भूखा है |



23-
जई-रोटी और बकरे की संस्कृति 
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

उसने बार-बार पूछा था

मेरा नाम
और मैं हिचकिचा रहा था
बार-बार
कि कैसे बताऊँ
अपना नाम
कि पकड़ लिया जाऊँगा
भेज दिया जाऊँगा फिर से वहीँ
जहाँ से भाग निकला था एक दिन
विज्ञापित रिश्तों को छोड़कर
चाहता था गुमनाम होकर जीना
पर
उसने बार-बार पूछा था
मेरा नाम
और मैं हिचकिचा रहा था
बार -बार
बड़े प्यार से रोका था उसने मुझे
और दिया था
बहुत सारे इन्द्रधनुषी सपने
उपहार स्वरुप
उसने अपने खुरदुरे हाथों में लगे
कोमल दस्तानों से
मेरी आत्मा की पीठ को सहलाया भी
प्रदर्शित विश्वास की मुहर भी ठोकी
मेरे चेहरे पर
चूँकि
वह मानवीय संवेदनाओं की
कमजोरियों से पूर्णतः वाकिफ था
मनोवैज्ञानिक था ,
विद्वान् था
तर्क का पुरोधा था
एक महान अभिनेता था
मगर मेरे बारे में
जो उसका लेखा-जोखा था
कि रह सकूँगा उसके साथ हीं
फिर खेल सकेगा
मेरी भावनाओं से
मार सकेगा फिर से
मेरी आत्मा की भूख को
कैद कर सकेगा
अपने विचारों के बीहड़ में
जो उसकी भूल थी
महज धोखा था
फिर भी वह दृश्य
बहुत भयानक और अनोखा था
जिसे मैंने
जई-रोटी और बकरे की संस्कृति में
कभी देखा था |


24-

'सौंदर्य की खोज'
..........................
मैं  आज तक
भाग हीं रहा हूँ 
सत्यम शिवम् सुन्दरम की तलाश में। 
जबकि ऐसी हरकत पर 
सामने पड़ा एक नन्हा सा
दुधमुंहा बच्चा 
मुझे देख कर  
मुस्कुरा देता है। 
पालथी मारे सुबह 
अपनी गोद में उगे 
फूलों पर पड़े ओसकण से 
इन्द्रधनुषी संवाद में जब 
मशगूल रहता है 
तो मुझे फुरसत हीं नहीं होती है 
कि इनसे पूछूँ 
कि सौन्दर्य कहाँ है।
जबकि कालिदास को 
पढ़ते हुए भी नहीं जान पाया 
कि फूल हो या पेड़,वह अपने आप में समाप्त नहीं हैं। 
वह अन्य वस्तु को दिखाने के लिए 
उठी हुई उंगुली का इशारा है। 
मैं अभी भी 
कजरारे बादलों के पीछे पीछे 
भाग हीं रहा हूँ। 
पता नहीं नागार्जुन ने 
हिमालय के 
अपरूप जादुई आभा को देखकर 
क्यों अपलक हो गए थे। 
मुझे तो इतना भी नहीं पता 
कि शमशेर बहादुर ने 
भोर के नभ को 
राख से लिपा हुआ 
चौका(अभी गीला पडा है) क्यों कहा?
कवि माघ ने भी
शिशुपाल वध में 
' क्षणे क्षणे यन्न्वतामुपैति तदैव रूपं रमणीयताया ' से 
सौन्दर्य की एक परिभाषा रच देने की
क्यों  कोशिश की।
किसी ने धीरे से
मेरे कान में फुसफुसाते हुए कहा 
जो हृदय को आर्द्र कर दे
वहीँ सौन्दर्य है। 
अभी मैं अमावस की 
काली चादर पर 
छितराए तारों से बात कर रहा हूँ। 
धीमी रफ़्तार  और
दबे पाँव से 
पता नहीं 
कहाँ से आ गई बारिश 
और मेरे भीतर प्रलय मचा रही है।
कोई रोको इसे।
इसे पता नही
कि मैं सौन्दर्य की खोज में 
वन,उपवन,गिरि,सानु,कुंज में 
दर दर भाग  रहा हूँ 
आज तक।

25-
माँ मोम है
...............

माँ मोम है
पिता उसमें पिरोया
जलता हुआ धागा है
जिसके ताप से
पिघलती रहती है माँ
और
जिसकी रोशनी में 
बच्चे पढ़ते रहते हैं
पिघलने और जलने का
स्निग्ध व्याकरण पल-पल।
साथ ही
तय करते रहते हैं 
अपनी जिंदगी की दिशा ।

26-
सब्र के बाँध
..............
गम का गुबार या बढ़ती हुई नदी
आखिर तोड़ ही देते हैं
सब्र के बाँध।
बह जाते हैं
बड़े-बड़े दरख़्त
वक्त के सैलाब में। 
पिघल जाते है पत्थर
हूक की ज्वालामुखी में।
दुख तो मोम है
वह तो पिघलेगा ही।.....

27-
कविता बन जाती है माँ
..........................................................
अगर कविता में कदम रखना
कब्रिस्तान जाना है
तो मैं जा रहा हूँ 
खोद रहा हूँ स्वयं अपनी कब्र
मेरे इस कृत्य पर 
रिश्तों के बंधु-बांधव
नाखुश हैं
क्योंकि मैं उन्हें 
कविता के अलावा
कुछ नहीं दे पाता
और ये कविता है
कि उन्हें पचती नहीं।
नीम की पत्तियों जैसे मेरे शब्द
जब फँस जाते है
उनके काले-पीले दाँतों में
तो वो जुगाली भी 
नहीं कर पाते।
वैसे मैं अपनी खाल में 
रच-पच जाना चाहता हूँ
मिटाना चाहता हूँ 
अपनी पहचान के स्तूप
नहीं चाहता 
कोई खँडहर अवशेष
मैं उगलना चाहता हूँ
बहुत सारे 
छटपटाते हुए शब्द
जिनकी बेचैनी से
मैं बेवजह परेशान
रहता हूँ।
वैसे प्रसव के बाद
पीड़ा की मुस्कान का अर्थ
माँ हीं जानती है
वहीं पहचानती है
शब्दों के रूप
वहीं गढ़ती है
नए-नए भाव 
वहीं देती है
कलेवर नए
तेवर नए
स्नेह की गुनगुनी धूप में
जब भी लडखडाते हैं शब्द
संभाल लेती है माँ
चलकर उसके संग-संग
कविता बन जाती है माँ।
क्षणिका
जिसने
बैंक के पिछवाड़े से,
कमीशन पर 
नए नोट हैक किया।
आयकर ने 
उसे भी पकड़
कुछ ही समय में 
गुलाबी से ब्लैक किया।

28-
क्षणिका
.........
वे बेटे 
अधिकतर 
गुंडे मवाली हो गए,
जिनके बाप 
नेताओं की
बंदूकें ढोते रहे।
चढ़े कुछ 
सियासत की 
हत्यारी बलिवेदी पर,
बचे परिवार में जो,
जिंदगी भर 
रोते रहे।।


29-
वात्सल्य के क्षितिज पर
...................................
माँ और पिता हैं
इक जिल्द 
जिंदगी की किताब की/
इन दोनों के बीच 
सुरक्षित हैं बच्चे
पृष्ठों की तरह
सदियों से/
लिखते हैं माता-पिता
हृदय पृष्ठों पर 
संस्कारों के हिज्जे 
अनवरत/
उगते हैं 
सूरज
चाँद
सितारे
वात्सल्य के क्षितिज पर।
मगर कभी कभी
पनप जाते हैं
तमस के खूँखार
भेड़िये
गेहूँ के मामा की तरह
जिन्हें नहीं पहचानने के कारण
गेहूँ का खाद पानी लेकर
विश्वास के खेत मे 
सूखा रोप देते हैं।
कितना भी पानी दो
रवानी नहीं मिलती,
खोई हुई ताक़त
और जवानी नहीं मिलती।


30-
गंगा जल
............
जो गंगा 
हमारी शपथ की पवित्रता थी,
जो गंगा 
हमारे जीवन के 
हर समस्या का समाधान थी,
आज प्रश्न बनकर 
खड़ी हो गई है 
भगीरथ के संकल्प के द्वार पर,
कब होगा विचार,
उसके उद्धार पर।
गंगा  कहाँ प्रवाहित है?
जो प्रवाहित है 
वह है शहरों का कचरा जल,
जिसे गंगा जल समझ 
हम आँखे मूंद अंधभक्ति दर्शा रहे हैं 
और गंगा चीत्कार कर रही है,
डकार रही है गौ माता की तरह।
वो माँग रही है अपना हक़
अपनी पवित्रता का हक़
जिसे हम अपने अपने स्वार्थ में 
डकार चुके हैं 
और
धीरे धीरे 
नाली के कीड़े बनते जा रहे हैं।

31-

कविता 
अगर फूल है 
तो महकना जरूरी है,
अगर काँटा है 
तो चुभना जरूरी है।
अगर खोई हुई दौलत है
तो ढूढ़ना जरूरी है।
कविता गुबार है अगर
आँखों से बहना जरूरी है।
चहक है अगर चिड़िया की
तो फुदकना जरूरी है।
नदी है अगर कविता
तो बहना जरूरी है।
पेड़ है कविता अगर
तो छाया देना जरूरी है।
वैसे कविता की समझ 
कष्ट का पराभव है।
जैसे नीम की पत्तियों में
मधु निमज्जित पका आसव है।

32-
युग के मुहावरे
...................

क से कत्लेआम
ख से खलास
ग से गबन
घ से घोटाला
च से चमचागिरी
ये सब इस युग के 
प्रासंगिक मुहावरे हैं
जो इस समय की पीढ़ी के लिए
शिक्षा की बुनियादी सीख है।
बच्चे इस ककहरा को पढ़कर
बन रहे हैं डॉक्टर,इंजीनियर,वैज्ञानिक,
और नेता।
ये अलग बात है 
कि कोई भी बच्चा इंसान बनने की
कोशिश नहीं करता।
जो अ से अपहरण और
आ से आगजनी का पाठ      
आचरण में ढाल लेता है
वह उतनी तेजी से
विधायक,सांसद या
मुख्यमंत्री की कुर्सी 
सम्हाल लेता है।
भ्रष्टाचार उनके लिए
गीता का पहला श्लोक है
जिसमें धर्म के स्थान पर
धृष्टता और 
कुरु के स्थान पर क्रूरता
युगबोध का अनुदित पाठ है।
उत्तर आधुनिक युग का व्याकरण
और भी अजीब है 
संज्ञा की जगह संगीन
और सर्वनाम की जगह
सर्वनाश 
यानी 
वर्तमान पीढ़ी 
सम्पूर्ण विनाश के करीब है।।

33-
लिंग से लड़की हूँ
.....................
न मैं किसी धर्म की हूँ
न किसी जाति की,
मैं हर धर्म और जाति में 
पायी जाती हूँ।
फिर भी लादे गए हैं
हमारे सिर 
धर्म और जाति के पहाड़।
हाँ लिंग से लड़की हूँ 
यानी बेटी हूँ किसी की।
तमाम समस्याओं से 
जूझती हुई मैं
इस कर्कश दुनिया में 
मधुर आवाज हूँ।
मैं कुछ कहना चाहती हूँ 
इस दुनिया के रक्तचरित्र के बारे में।
माता-पिता के रिश्ते 
तो बस नाम भर के रह गये हैं।
फार्म में डालने के 
काम भर के रह गए हैं।
हर युवा मोबाईल में 
फेसबुक चलाता है
पोस्ट पर कितना कॉमेंट आये 
बार बार नजर दौड़ाता है।
बीमार माँ बाप की 
उतनी चिंता नहीं करते 
जितना चिंता मोबाईल में रिप्लाई का।
उस पर भी 
वे दुलारे होते हैं
माँ बाप की आँखों के 
तारे होते हैं।
हम बेटियाँ माँ बाप के 
रिश्तों को बहुत निभाते हैं
फिर भी बेटों की तरह 
नहीं दुलारे जाते हैं।
एक तो ज्योंही हम 
माँ के पेट में आते हैं
घरवाले अल्ट्रासाउंड कराते है।
देखते हैं 
कि लड़की है कोख में
पूरा परिवार वाले 
हो जाते हैं शोक में।
जल्दी से जल्दी वे 
ऐसा जुगाड़ अपनाते हैं
हमे भ्रूण में ही मार गिराते हैं
और आश्वस्त हो जाते है 
जैसे जीत लिए हों 
दुनिया की बहुत बड़ी लड़ाई।
हमे 
कोंख हो या फेसबुक 
दोनों जगह बनाया जाता है मोहरा।
यह समाज का 
असली आचरण है।
खतरे में आज पर्यावरण है 
बेटी की तरह।
किसी तरह जब हम
धरती पर आते हैं
फूल की तरह 
सड़ी दुनिया को महकाते हैं।
आज चारो तरफ 
झूठे भाषण और नारे हैं
अधिकतर हम 
बेटियों के हत्यारे हैं।
ये दुनिया दिखाती है
झूठी हमदर्दियाँ।
यहाँ तक कि हमारे खून से 
सनी पड़ी हैं वर्दियाँ।
जब कभी कोई लड़की 
किसी हादसे की शिकार होती है
हमारे ऊपर समाज के 
न्याय की दुहरी मार होती है।
पहले तो हम पर 
बलात्कार होता है
फिर बचे तो पत्रकार और न्यायधीश का 
असंवेनशील प्रश्नों काबौछार होता है।
दुनिया चटखारे ले 
मजा लेती है
हमारे अस्मिता और अस्तित्व को 
अंत तक सजा देती है।
दुनिया से मैं कहना चाहती हूँ
कि हम बेटियाँ पीपल है 
तुलसी की पौध हैं
सदा जिंदगी को ऑक्सीजन देना 
हमारा आचरण है।
हम हीं प्रकृति हैं 
असली पर्यावरण हैं।
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ 
बस नारा न रहे।
हम बेटियों का 
कोई हत्यारा न रहे।
हमें उगाओ,हमे बचाओ
तुम्हारी दुनिया सजेगी,
हमे सजाओ।
हम ईश्वर की अनमोल 
खजाना हैं।
हमे भी दुनिया को कुछ 
नया करके दिखाना है।










34-

आज़ाद भारत की गुलाम युवा पीढ़ी
.................................

मानव जाति की 
गति और शक्ति रही है 
युवा पीढ़ी, 
परंतु जब भी 
किसी युग में हुई है ये पथभ्रष्ट, 
तब निश्चित ही 
समय ने 
नपुंसकता का कलंक 
उस पीढ़ी के चेहरे पर 
पोता है।
पब और रेव पार्टियों के 
स्मैकिया दौर में 
आज की पीढ़ी 
जिस तरह मस्ती में 
झूम रही है 
और देश के प्रति उपेक्षा भाव लिए
स्वतंत्रता का अनुचित लाभ उठा रही है,
बताने की जरूरत नहीं
कि दिशाहीनता की किस अंधेरे गुफा की ओर 
अग्रसर हो चुकी है।
युवा पीढ़ी संघर्षशील होने के बजाय
मुफ्तखोर,सुविधापरस्त होती जा रही है।
ऐसी युवा पीढ़ी से 
राष्ट्रीय स्वाभिमान,सदाचरण,त्याग,बलिदान की 
बातें करना या अपेक्षा रखना
बेईमानी है।
ये आत्मस्वार्थ में 
इतने डूब चुके हैं 
कि राष्ट्रभाव को मूर्खता समझते हैं।
कर्तव्यबोध से दूर 
अधिकार भाव से युक्त
ये युवा पीढ़ी 
राष्ट्रभाल पर बोझ बनती जा रही है।

डॉ मनोज कुमार सिंह

35-

सच तो मैं लिखता हूँ।

सच तो मैं लिखता हूँ
ये अलग बात है कि
मैं बहुत बड़ा झूठा हूँ।
चलिये,दुआ करिये 
कि सच जिन्दा रहे,
झूठ को कौन पूछता है,
क्या अस्तित्व है उसका।
पर ये लोग 
सच का सामना करने के बजाय
झूठ पर ही टूट पड़ते हैं।
गजब के अंधे है लोग,
बिना देखे, जाने ,समझे,
भौंकने लगते है
वातासी कुत्ते की भाँति
कि भौंकना जरूरी है
झूठ को सच साबित करने कि
पता नहीं उनकी 
कौन सी मजबूरी है?

डॉ मनोज कुमार सिंह

36

जबसे मैं
सुरभित पुष्प हूँ चमन का
आते हैं भौंरे 
आती हैं रंग बिरंगी तितलियाँ
हवा भी आती है चुपके से
छोटे बच्चे आते है किलकारियाँ करते
धीरे से मेरे पास
कोई चूमता है
कोई चूसता है मेरे पराग कण
तो कोई मेरे रंग में खुद को रंगता है
कोई ले जाता मेरी खुशबू अपने साथ
ये कुछ क्षण का मेरा जीवन
क्षण क्षण देता है अहसास
कि क्यों रहूँ उदास 
क्यों मनाऊँ शोक पतझर का
जब क्षणिक जीवन में
मेरे पास 
आते हैं भौंरे
रंग बिरंगी तितलियाँ,
इठलाती हवाएँ,
किलकारते बच्चे

37-

जन से दूर .....
फिर भी जनवादी?
लिखने की है जो आजादी।

गाँव देखे नहीं
शहर और बड़ी राजधानियों में जन्मे 
अधिकतर नामी गिरामी वामी 
पाँच सितारा होटलों में बैठकर
दारू पीते हुए
खेतों की मेड़ों की,
छायादार पेड़ों की,
फटी बिवाई की,
मौसम की अँगड़ाई की,
जाने कहाँ से उड़ाकर
लिखते हैं 
थोक के थोक
पार्कर पेन से 
गाँव की श्रम गाथा।

एक्चुअली ये 
लिखने के नाम पर
बेचते हैं
संवेदना की
झूठी और जूठी तकरीरें,
आम के नाम पर
जैसे मैंगो फ्रूटी!

हम पहचानते हैं
अपने दर्द की तस्वीर को
जिसे खींची थी
और लिखी थी
जेठ की दुपहरी में तपते हुए
स्वेद कणों से लथपथ
मेड़ों पर बैठकर
किसानी करते हए
मेरे पूर्वजों ने।

चल हट
जन से दूर.. 
तथाकथित जनवादी (?)
तू बस राजधनियों में 
मेला लगा 
दुकानें सजा

बेच अपना माल
कमा अपना पैसा
चाँप मालपुआ।
बेचता रह
जो बेचना है
हमारे नाम पर।
बस सियासत न कर
हमारे काम पर!


38-
मेरा इस्लाम और मुसलमान
इस्लाम का जो अर्थ मैंने बचपन से समझा
कि मेरे गफार चाचा 
मेरा और मेरे पिताजी के
कपड़े सिलते थे।
नियामत मियाँ तुरपाई करते हुए
मेरे कमलेश चाचा के लँगोटिया 
रहे हैं दोस्त।
हमीद मियाँ बो चाची और
घोड़िया चाची के चूड़ियों से 
सजती रही हमेशा 
माँ,दीदी, दादी की कलाइयाँ। 
दोनों कद से ही ऊँची नहीं थीं
विचार से भी बड़ी थीं।
शब्बीर चाचा बड़े भद्र इंसान,
रोजी रोटी के लिए चले गए 
परदेश।
गनी मियाँ गरीबी में भी 
गाँव के लिए दानी हरिश्चंद्र थे,
किसी भी व्यक्ति के बेटे बेटियों
के लिए लगा देते थे शामियाने 
चाँदनी,बारातों में।
उनके रहते जा नहीं सकती थी
किसी की इज्जत।
तभी तो लोगों ने पचहत्तर वोट वाले 
इस मुसलमान को हजारों वोट देकर
सरपंच बनाया और 
उनके बाद उनके बेटे कादिर मियाँ को
वीडीसी।
कादिर मेरा लँगोटिया यार है
गुरु जी को अंडा देकर वह फर्स्ट करता था
क्लास सी और बी में 
जैसे आज का एलकेजी, यूकेजी
और मैं पढ़कर भी सेकेंड।
पकड़े जाने पर मैं फर्स्ट और कादिर फेल।
फिर धीरे धीरे वक्त बदला,
कादिर नेता बनने की कोशिश में 
फेल हो गया और फिर पिता की
विरासत टेंट हाउस चला रहा है।
फिर भी काली पूजा में बड़ा सहयोग रहता है
कादिर मियाँ का।
हमारे
अली चाचा बेहद सीधे इंसान थे 
काटते थे मेरे पूरे खानदान के बाल,नाखून,
और हमारे शुभ कर्म में 
स्वस्तिक बनाते बनाते
मृत्यु कर्म में भी सहभागी रहे
अली चाचा ने बुढ़ापे में की दूसरी शादी ,
नहीं रहे चाचा और चाची भी,
जीवन के अंतिम दिनों में
दिमागी तौर पर गरीबी और भूख ने 
उनको विक्षिप्त कर दिया था
फिर भी गाँव में घूँघट काढ़ कर ही 
निकलती थीं
उनसे जो बच्चे हुए वे आज दुबई 
ख़लीज देशों में हैं।
चाचा के पहली बीबी के बेटा 
यजीद मियाँ अभी भी काटते हैं
हमारे बाल और उनकी बीबी
हर शुभ अशुभ कर्म में 
करती है सहभागिता
ये देयाद बन चुके हैं
यजीदी के माँ पिता 
यानी चाचा चाची
दोनों गरीबी में ही मर गए,
बहुत मानते थे मुझे।

वही मुर्गिया टोला के बंगाली मियाँ
और राजा मियाँ बजाते थे 
पिसटीन और उनके बेटे तासा
सज जाती थीं बारातें और
बूढों की मृत्यु यात्रा भी।
एक मस्जिद गाँव के बीचो बीच
आज भी है
उठती है रोज अजान की ध्वनि।
पता नहीं कितनी बार
ताजिए में गदका भांजे।
मेरा पूरा खानदान 
भाँजता था गदका
और जाते थे करबला तक।
भखौती में बाँधते थे घर वाले
कमर में घुंघरू और घंटियाँ
फेंका जाता था गली गली में 
ताजिए पर जल और लावा या तिलवा
लगता था मेला 
करबला के मैदान में
बिकते थे लकठे, गरम गरम जलेबियाँ
आलूदम,
खाते थे वही बैठकर
लगता था कि एक पर्व 
आज खत्म हुआ है।
आज दुनिया में बहुत बदलाव हुआ है
मेरा गाँव भी बदला है
लोग भी बदले हैं 
हो रहे है धीरे धीरे सम्पन्न
फिर भी नहीं बदली हैं कुछ चीजें
नहीं बदले हैं मुसलमान
आज भी है हमारे सुख दुख में साथ
हम है उनके साथ।
नहीं बदले हैं हम 
आज भी रूहानी रिश्तों के स्तर पर।
गाँव फैल रहा है
लोग फैल रहे हैं
चुनौतियां हैं कुछ
लेकिन आज भी हमारे गाँव का 
मुसलमान नाई
हमारे सिर और दाढ़ी पर अपना
उस्तरा रखता है 
और हम आँख बंद कर 
बनवाते हैं अपनी दाढ़ी
मुझे विश्वास है कि ये 
मेरे गाँव के मुसलमान
कभी नहीं हो सकते,
देशद्रोही, गद्दार या आतंकी
क्योंकि हमारे संस्कारों ने 
जो उन्हें प्यार और विश्वास दिया है 
उसे देश के सियासत 
कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
ये एक लंबी परंपरा का
परिणाम है।
गाँव में हर परिवार गरीब था
और गरीबी के दिनों की दोस्ती
बेवफा नहीं होती।
इसलिए इस्लाम का ये रूप 
मेरे लिए प्रणम्य रहा ,है और रहेगा।
आपकी सियासत जाए भाड़ में
हमें जब भी कोई दाऊद, मसूद,हाफ़िज़
मिला तो उसकी खैर नहीं
उनके अंडे भी कहीं मिले तो
उन्हें नष्ट कर देंगे।
मेरे गाँव का इस्लाम ही 
असली इस्लाम है
जिसमें प्रेम,विश्वास,भाईचारा के बीज
सदियों से पल्लवित है।
आपका इस्लाम और मुसलमान क्या है
आप जानें।
मेरे लिए तो
मेरा गाँव ही पहले है,
और मेरे गाँव के मेरे अपने 
रिश्तों में गुम्फित मुसलमान!
जय जय हिन्दुस्तान,
ग्राम-पोस्ट आदमपुर
जिला सिवान।।




39-

लाल सलाम का सौंदर्यशास्त्र
...............................

जिसकी जुबान पर
मार्क्स,लेनिन,माओ न हो,
जिनके हाथ खून से लाल न हों,
वह कम्युनिस्ट नहीं हो सकता।
जो मारने के हथियार में
बन्दूक नहीं, तोप नहीं
बल्कि हँसिया से, दराती से 
रेत डाले गर्दन और कुचल डाले
हथौड़े से 
सिर आदमी का।
फिर लगाए नारे-
लाल सलाम!!लाल सलाम!!
जो विध्वंसों के लाल कलम से 
लाल लाल कर दे धरती
कर दे लाल लाल आसमान
भर दे लाल रंग
नदियों में
कुँओं में
झरनों के झरती लहरों में।
जला दे घोंसले चिड़ियों के।
रच दे रक्तपात के नित नए आयाम।
फूलों पर फेंक दे इतना तेजाब 
कि उग सके नक्सल क्रांति की लाल लाल आग।
गिरा दे सारे प्रेम के दरख़्त!
सूखा दे सौहार्द के सभी स्रोत!
काट डाले समरसता की जड़!
उड़ा दे मानवता के गढ़!
हटा दे अपने रास्ते से सभी नैतिकताओं को!
वही रक्त पिपासु 
कामलाल (कामरेड) है,
असली कम्युनिस्ट है।
भारत के कम्युनिस्टों में 
कुछ स्वप्नदोष के शुक्राणु तो
कुछ जारज संताने हैं 
मार्क्स के, 
लेनिन के
माओत्से तुंग के,
जो रूस में या 
चीन में बारिश हो तो
ओढ़ लेते हैं यहाँ पर छाता।
फैले हैं आज ये विषबेल की तरह
जंगलों में,शहरों में,
सियासत में, सत्ता में
संसद में,विधानसभाओं में
अकादमियों में,पीठों में,
ब्यूरोक्रेसी में,न्यायालयों में
विश्वविद्यालयों में,मीडिया में
जो कभी भी भारत में निष्ठा नहीं रखते।
इनकी पहचान है कि 
ये घुस चुके हैं आज
छद्म सेकुलरता के राग में
हाथ सेकते दंगे की आग में
कभी सड़क छेकते शाहीन बाग में
कभी समता के नाम पर 
जातिवादी भाषणों के जहरीले झाग में।
ये रक्तपिपासु चाहते है
केवल और केवल रक्त
लाल लाल रक्त
ताजा ताजा रक्त
जिन्हें चाट कर बढ़ाते हैं अपनी उम्र।
उनकी नादिरशाही क्रूर सोच में
सत्य का गला रेतना ही 
इनका मार्क्सवादी, माओवादी
सौंदर्यशास्त्र है!!

डॉ मनोज कुमार सिंह

40-

प्रगतिशील भेड़िये की भूख
********************
हत्यारे दोषी नहीं थे
क्योंकि प्रगतिशील जनवादी भेड़िए
भूख से तड़प रहे थे
जबकि शासन को
उन्हें खिलाना पिलाना चाहिए था
गरम गरम गोश्त और लाल लाल रक्त,
लेकिन इसी में लॉकडाउन का भीषण प्रहार
कहाँ से मिले आहार
अचानक भेजे गए हम दो तीन अहिंसक साधू
भोजनार्थ
बेहद लज़ीज, स्वादिष्ट व्यंजन की भाँति।
हत्यारे का क्या दोष
वे तो भूखे थे
भूख कितनी घातक और असहनीय होती है
किसी के लिए भी।
वैसे हमें मालूम होना चाहिए
कि भेड़िए अगर भूखे हैं तो उन्हें खुराक देना हमारा इंसानी और लोकतांत्रिक नैतिक कर्त्तव्य भी है
शुक्र कहो उस गुरु की ,जो
सिधार गए स्वर्ग और
बन गए आमंत्रक
वे भी बड़े दोषी निकले
भला मरने का यही वक्त मिला था उन्हें
तुम खुद दोषी थे गुरुवर!
चलिए कोई बात नहीं
हम तो वे हैं कि किसी को भूखा
नहीं देख सकते।
वैसे हे गुरुदेव!हमारा मर जाना ही अच्छा था
वैसे भी मरे लोगों के बीच रहकर भी
हमारे जीवन की क्या उपयोगिता थी?
आज प्रगतिशील जनवादी भूखे भेड़ियों की भूख मिटाकर थोड़ी सकून मिल रहा है।
हमारा गोश्त बहुत मुलायम
और लजीज होता है
हम कोमल हृदय जो होते हैं!
पूरी जिंदगी हम दूसरों के लिए ही तो जीते हैं
भला क्या फर्क पड़ेगा हमारे न रहने से
कौन है हमारा जो हमारे लिए दुखी होकर
आर्तनाद करेगा?
हाँ अंतिम याचना है कि पालघर
जहाँ हम भूख मिटाए हैं भेड़ियों के।
बनवा देना एक बूचड़खाना
होता रहे हमारा वध
जहाँ समय-समय पर भेड़ियों के लिए
मिलता रहे ग्रास।
गरम गरम मानुष का गोश्त
लाल लाल रक्त।
हमारा यहीं संदेश है
तुम भी गुजरो कभी पालघर से
इससे पहले अपने को बदल लेना
एक लजीज गरम गरम गोश्त में
और विशुद्ध लाल लाल रक्त में।
पालघर के भेड़िये
भूखे हैं
उनकी भूख मिटाने से पहले
बस ये मंत्र बोलना-
इदं न मम,इदं भेड़ियाय।
सत्य,अहिंसा,प्रेम का गोश्त
केवल भेड़ियों के
कल्याणार्थ ही ईश्वर ने भेजा है।
ये भेड़िये प्रगतिशील हैं
कब तक चलाते अपना काम
स्मैक या मारिजुआना से।
व्हिस्की के साथ चाहिए
कच्चा या तला हुआ
गरम गरम गोश्त
चिखना के रूप में।
मत उठाओ उनके खिलाफ कोई आवाज
मत करो कोई पॉलिटिक्स
कि उनका अधिकार है
मानव गोश्त और रक्त पर।
मत विश्वास करो किसी भक्त पर
ये ऐसे ही चिल्ल पो करते रहते हैं
थिरा जाएँगे कुछ समय बाद।।

डॉ मनोज कुमार सिंह

41-


"अगर गिरना जरूरी है तो ऐसे गिरो!"
-----------------------------------------------
- डॉ मनोज कुमार सिंह
-----------------------------

गिरना
एक प्राकृतिक सहज क्रिया है
जैसे पलकों का पल-पल उठना
फिर गिर जाना
लहरों का उठना फिर गिर जाना
यानी जो उठा नहीं वह गिरेगा कैसे
यानी गिरने के लिए पहले उठना जरूरी है
अगर गिरना जरूरी है तो
ऐसे ही गिरो जैसे-
पत्ते गिरते है डालियों से
ताकि नए कोंपलें आ सकें वृन्तों पर।
गिरा हुआ पेड़
कई चूल्हों का ईंधन बन
जीवन देता है।
नदियाँ जब गिरती हैं पहाड़ों से
तो समुद्र में मिलने से पहले
बन जाती है जीवन-स्पंदन किनारों का।
जलवाष्प इसलिए ऊपर उठते हैं
ताकि गिर सकें बूँद बनकर सूखे खेतों में
कर सके जीवन सरस।
गिरना भी एक दृष्टि है।
सुना है खुशी या ग़म में
आँसू जब गिरते हैं
तो हृदय को सकून मिलता है
गिरते हैं जब पसीने
तो उसकी सुगंधि से
हरिया जाती है धरती।
खिलाड़ी बार बार गिरते हैं मैदान में
कंदुक की तरह
ताकि कर सकें लक्ष्य भेद।
सूरज रोज उठता धीरे-धीरे
क्षण भर ठहरकर बनता है
प्रचंड मार्तण्ड
फिर निढाल हो गिर पड़ता है
क्षितिज की गोद में
गिरकर भी दे जाता है
चाँद सितारों से भरी दुनिया।
रोज गिरती है रोशनी आसमान से धरती पर
ताकि मुस्कुरा उठे धरती
आखिर दुनिया की अधिकतम नदियाँ
समुद्र में हीं क्यों गिरती हैं
शायद आत्म से परमात्म में
तद्रूप होने के लिए।
खेतों में फसलें पकने के बाद काट ली जाती हैं
लेकिन कटने से पहले
या कटते कटते गिर जाती हैं
दाने के रूप में खेतों में
चिड़िया या चूहों या अन्य जीवों के लिए।
यानी गिरने गिरने में फर्क है
अगर गिरना जरूरी है
तो ऐसे ही गिरो।
-----------------------------

डॉ मनोज कुमार सिंह



42-


क्या नहीं है कविता !

कविता-
किसी खाँचे में बँधी मात्र शब्दों की व्याख्या नहीं है
कविता -
अपने अगल-बगल बिखरी चीजों से
चैतन्य संवाद है
अनुभूति से अनुभव की ओर प्रस्थान करती
स्वानुभूति के साथ परानुभूति भी है।
कविता-
भाषा में शब्दों की तूलिका से बनी
जीवन जीने और समझने की
एक गुम्फित तस्वीर है,
आत्मीय अहसास है
चोट की
चीख की
दर्द की
टीस की
भूख की
प्यास की
आनंद की
खुमार की
मस्ती की।
तरंगित संवेदनाओं का
जीवंत अनुवाद है।
यानी कविता क्या नहीं है!
कविता-
एक खास तरह की दृष्टि भी है
जो जीवन के
क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर भाषा में ढलकर
जीवन के पर्यावरण को
रेखांकित और रूपांकित करती है।
कविता -
जीवन के इर्द-गिर्द फैले
अपरमित ब्रह्मांड को
या
उसके अनहदध्वनि को
देखने-सुनने की क्षमता है
सर्जना है!
कविता -
निहत्थे का हथियार है
फटे मन को जोड़ने वाली
सुई-धागा है।
कविता -
भाषा में संवेदनाओं की
जरखेज मिट्टी की
स्वादिष्ट और कड़वी उपज है।
कविता-
यथार्थ की
नये तेवर और कलेवर के साथ
नवीन कल्पनाओं के शिल्प में
ढली आत्माभिव्यक्ति है!
कविता-
करूणा की नींव से स्रावित
वेदना की पिघलती मोम है!
कविता-
सुख का सागर है तो
दुख का पहाड़ भी है!
क्या नहीं है कविता!!

डॉ मनोज कुमार सिंह

43-

क्या नहीं करता आदमी!
...................................

जो जीवन में भाग नहीं पाता,
वह छिपने की
कला सीख लेता है
जैसे बच्चों को नहीं पढ़ा पाने वाला
कक्षा में डाँटने की कला में
पारंगतता हासिल कर लेता है
वैसे ही अपनी कमियों को छिपाने के लिए
अपने अगल बगल
जाने कितनी व्यूह रच लेता है आदमी
और बना लेता है,
कुटिलता,स्वार्थ,मोह,लोभ,ईर्ष्या,अहंकार को
अपना रक्षक।
सिर्फ कमियों को छिपाने में
जो पैतरा रचता है आदमी
अंत में वही पैतरा
भस्मासुर बनकर
उसे मिटा देता है।
आदमी क्या नहीं करता
अपनी जरा-सी कमियों को छिपाने के लिए।
जबकि उसे करना ये चाहिए था
कि धीरे धीरे ही सही
अपनी कमियों को
मिटाने के लिए थोड़ा थोड़ा अभ्यास
और थोड़ी सी संयम की कठोरता
रख लेता अपने दैनिक जीवन में
बना लेता अपना मित्र
सहजता को ,सरलता को
वैसे ही
जैसे जब भी प्यास लगी तो
करपात्री बन पी लिया पानी
लगी भूख तो खा लिया साग सत्तू
हो गए शांतचित्त, मस्त मलंग
घूमते रहे फिर अपनी दुनिया में
बेफिक्र,निर्द्वन्द्व
जहाँ न भागना है और न ही छिपना
है महज स्वाभाविक उड़ान
अंत से अनंत की ओर।

डॉ मनोज कुमार सिंह

44-

●सेकुलरिज्म का पर्याय●
==================
/-डॉ मनोज कुमार सिंह
===================

जो कवि किसानों को ,मजदूरों को
बंदूक उठाने की सलाह देता हो,
वह लोकधर्मी कवि तो नहीं हो सकता।
अगर होता है तो मात्र
मजहब,जातिवाद,अलगाववाद की
दीवार खड़ी करने वाला 
असहिष्णु शैतान कवि!
ऐसे कवि का सृजन 
पनाले में बहते
बजबजाते कीचड़ की तरह
होता है,जिसमें
उसके बदबूदार विचारों का मैला
केवल सडांध देता है।
ऐसे कवियों का दिल
सूवरबाड़े में ही सांस लेता है
उनकी हर कविता में 
रोहा-रोहट का 
प्रतिशोधात्मक स्वर मिलता है।
वे किसानों को धरती में 
अन्न उगाने की जगह
बारूद बोने और
उगाने की बात करते हैं
प्रेम की जगह घृणा 
का पाठ करते हैं
हंसिया और कुदाल जैसे
पवित्र औजार को
मोड़ देते है हत्यारी अंधगुफाओ की तरफ
खुद मनुष्यता का कत्ल करके
मानवतावादी छद्म लबादा ओढ़
घूमने लगते हैं 
कविताओं के आँगन में।
ये आला दर्जे के लिब्रांडू हैं
मौसम के मुताबिक 
बदल लेते हैं अपना रंग
गिरगिट भी अब इनके आगे
बौने पड़ जाते हैं रंग बदलने में।
इनकी झोली में राष्ट्रघात की 
तमाम परियोजनाएं
पड़ी रहती हैं,जिसे ये गाहे-बगाहे
अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए 
प्रयोग करते रहते हैं।
आगजनी,दंगा इनके 
चरित्र के अटूट हिस्से हैं
जिसे सत्ता हासिल करने के लिए
बराबर इस्तेमाल करते रहते हैं।
ये हर आतताई,आक्रांता को 
अपना इष्ट मानते हैं
उन्हें महान बताते इनकी कलम नहीं थकती
इनके लिए राम कृष्ण
काल्पनिक किरदार हैं
मगर शम्बूक को अपना 
जायज पिता मानते हैं
इनकी नजर में नारी उत्पीड़न है-
करवाचौथ
मगर तीन तलाक 
धार्मिक आस्था!
इनके अनुसार
कर्ण छेदन असभ्य क्रूरता है, 
और ख़तना अलौकिक प्रक्रिया...!!
ये मनुष्य को मनुष्य नहीं
बल्कि अल्पसंख्यक, आदिवासी,
दलित,पिछड़े के रूप में देखते है
मनुष्य को टुकड़ों में बाँटकर
बनाते है अपनी सत्ता प्राप्ति का हथियार
इस आधार पर कहा जा सकता है कि
भारत का वामी सेकुलरिज्म
दोगलेपन का सटीक और
प्रासंगिक पर्याय है।

=========================

45-

●हिमालय बड़ा या हौसला●
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
/-डॉ मनोज कुमार सिंह
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°

हिमालय एक दुर्गम पहाड़ है 
और दिखने में अलंघ्य,
मगर नाप देता है उसे 
एक हौसला
बना देता है उसे बौना
अपनी अपराजेय जज्बातों से।
हौसला आसमान है
हौसला उड़ान है
और है एक बड़ा समुद्र
जिसके गर्भ में पलते हैं
कई हिमालय शिशुवत।
हिमालय के पास 
मात्र एक ग्रह धरती है
हौसला के पास धरती के साथ-साथ
अपरमित आसमान है
अपना सूरज है,अपना चाँद है
मंगलग्रह पर बैठकर 
गाता है मंगलगान।
हौसला प्रागैतिहासिक जज़्बा है
जो बरमूडा ट्राइएंगल की तरह है
जिसमें तमाम कठिनाइयां
उसके जद में आकर 
विलुप्त होती रही हैं।
फिर भी कहूँगा कि हिमालय
इसलिए बड़ा है कि 
हिमालय बनना भी आसान नहीं है
वह
मानव जीवन के उत्थान-पतन का गवाह है
जब पूरी दुनिया जलमग्न थी
तब इसी हिमालय ने बचा के रखा
मानव का बीज तत्त्व
जिसके उतुंग शिखर पर बैठकर
मनु हौसला हारकर 
कंकड़ फेंककर
जल में कूदकर आत्महत्या करनेवाले थे
कि अचानक पीछे से किसी ने 
कंधे पर हाथ रख 
दिया था धीरज
पीछे मुड़कर देखा तो 
खड़ी थी एक औरत
जो बनकर आई थी जीवनोदक
हौसले की एक जीवंत तस्वीर
यानी श्रद्धा,
जो जीने का हौसला बनी
हिमालय की गोद में।
हिमालय की गोद में ही
लिखी गई मानव नाम की तहरीर
जिसे आज तक हम
अपना सांस्कृतिक पिता मानते हैं।
जो देता है हमेशा हौसला
ऊँचा उठने की
जीवन संघर्षों की कथा लिखने की
विपरीत परिस्थितियों में झंझावातों से लड़ने की।
इसलिए हौसले में हिमालय
और हिमालय में हौसला 
एक दूसरे के पर्याय होते हुए भी
हिमालय हौसले का प्रणम्य पिता है!!

46-

● हे मेरे ज्योतिर्मय जीवन! ●
°°°°°°°°°°°°°°°°°°
°°°°°°°°°°°°°°°°°°
-डॉ मनोज कुमार सिंह
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
हे मेरे ज्योतिर्मय जीवन!
क्यों आ गया है तुझमें अवसाद
किसने ओढ़ा दिया है तुम्हारे ऊपर
भय,कुंठा,तनाव ,एकाकीपन की चादर
तुम्हारे चतुर्दिक क्यों मडरा रहे 
आशंका,संशय,अनिश्चय,क्षोभ के
भयानक उल्लू
जो लगातार तुम्हारी चेतना से 
खिलवाड़ कर 
भर रहे हैं तुममें
आत्महत्या के भाव
अपने परिवेश के प्रति असंपृक्ति
अकेलेपन का दंश
तुम वैयक्तिकता के आग्रह में 
क्यों पढ़ रहे हो
उद्विग्नता और अशान्ति का मरसिया
किसने भर दिया तेरे भीतर 
आर्तनाद करता क्षोभकारी कंठ
क्यों उतर आए हो 
आक्रोशित होकर विडंबनाओं के
अजनबी शहर में
जहाँ तेरी आवाज को
सुनने वाला कोई नहीं है ।
कृपया उबरो भ्रम की
इन विसंगतियों के
चक्रव्यूह से
फाड़ो इनके जाल
लौट आओ अपनी मूल प्रकृति में
जहाँ सहजता की अकृत्रिम 
कोमलता की घास है
जहाँ स्नेहिल भावनाओं की
गीली जमीन है
जो रखती है तरोताजा
सुबह की ओस कणों से 
नहायी खूबसूरत कली को।
रोप लो अपने भीतर
संभावनाओं के आकाश को 
जहाँ उगते सूर्य को
अर्घ्य देती आशाओं की 
निर्बाध बहती सरिता है
डूबो उसमें आकंठ
तो मिलेंगे तुम्हें
नए-नए कल्पनालोक
जो देंगे तुम्हें 
अपरमित उड़ान के लिए 
अनन्तिम व्योम
जहाँ बसती है
नैसर्गिक शांति,
झूमती हैं जहाँ आनंद में 
इठलाती मोहक 
स्वर्गिक पावन ऋचाएँ।
लौट आओ जीवन!
तमस गुहा से
ज्योतिर्मय बन
मेरे आँगन!!

===================

47-

"व्याकरण के बाहर के हिज्जे"
------------------------------------
-डॉ मनोज कुमार सिंह
------------------------------------
मैं जानता हूँ
कि मेरी कविताएँ
नहीं छप पाएंगी उनकी खास
विचारधारा की पत्रिका या
अखबार में
उनके मिजाज से ये मेल जो नहीं खातीं।
उनको खूंटे से बँधी कविताएँ चाहिए
जो कर सके -
उसकी मानसिकता की जयजयकार।
उनकी प्यासी पत्रिकाओं के लिए
लाल लहू वाली कविताएँ चाहिए
और चाहिए
लाल नारा
लाल सलाम
लाल खेत
लाल हंसिया
कुदाल लाल लाल
लाल लाल रक्त से उमगते कुएँ।
चाहिए उनको रक्तिम कुल्हाड़ी
जो काट सके लोकतंत्र की दाहिनी भुजा
और कर सके अपनी राह आसान
जो पूँजीवाद का विरोध करते करते
खुद बन सकें फैक्ट्री के संचालक
कर सके
चीनी और रूसी
वामी रागालाप,
जबकि मेरी कविताएँ
हैं कुछ ऐसी कि
आदत से मजबूर दिखती हैं!
उन्हें वत्सला मातृभूमि की
वंदे मातरम और
जननी जन्मभूमिश्च के
मंत्रघोष से फुर्सत ही नहीं है।
ये भाव -
उन लाल लपोड़ों को रुचता नहीं
ऐसी आचरण वाली कविताएँ
उनकी पत्रिका के संदर्भ में
सिखों के मुहल्ले में
नाई की दुकान वाली बात सिद्ध करती हैं
कि वामियों के पत्र-पत्रिकाओं में
राष्ट्रवादी सोच की कविताएँ ?
क्या मजाक करते हैं जनाब!
आप बड़े भोले हैं
और आपकी कविताएँ आप से भी अधिक भोली।
वैसे मातृभूमि के लिए लिखी कविताएँ
खुद में माँ स्वरूपा होती हैं
माँ एक भोली भाली कविता होती है
जिसे किसी अखबार या पत्रिका
में छपने की जरूरत नहीं होती
वह भी वामी खूँटे से बँधी
बदबूदार
तबेले की सीलन वाली पत्रिका में-
जहाँ तड़प तड़प कर
घुटकर मर जाएँ
भाड़ में जाएँ ऐसी माओवादी पत्रिकाएं
और उनके मानसपुत्र!
हे माँ! तुम मेरे हृदय के पृष्ठ पर अंकित हो
मेरा रोम-रोम तुम्हें पढ़ता है नित्य
गढ़ता है 'परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्' का
भव्य मंदिर
जो प्रचार से कोसों दूर ,
निस्वार्थ भाव,
अंतकरण की प्रेरणा,
मानवीय और
ईश्वरीय कार्य के प्रति
श्रद्धा-समर्पण से परिपूर्ण
विशाल कल्पवृक्ष है
ये सब बातें
वामी कालनेमियों की
सीमित सोच के व्याकरण के
बाहर के
हिज्जे हैं।
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°

48-

'अपने-अपने रंग'
...........................
/-डॉ मनोज कुमार सिंह
----------------------------

कीचड़, कचरा नहीं होता
जल प्लावित कीचड़ में
उगते हैं सुरभित कमल
खेतों में उगते हैं
धान की पौध
धान चावल देता है
चावल भात बनकर
भरता है गरीबों का पेट

कचरे बदबू बाँटते हैं
और उगाते हैं
अपनी छाती और पीठ पर
जहरीले कीड़े
जो समाज के लिए
देश के लिए
घातक रोग बाँटते हैं
और साथ ही कुतर देते हैं
भीतर-भीतर मनुष्यता
और विश्वास की
खुशबूदार चादर
गेहूँ में घुन बनकर
घरों में दीमक बनकर।
ये
फैलाते हैं बीमारियों का जाल
बजबजाती नालियां
इनकी कुसंस्कारों की
जननी है
इनकी सफाई करो तो
कहते हैं
ये अन्याय है हमारे खिलाफ।
डेंगू और मलेरिया के वाहक
मच्छरों को लुभाती हैं
कचरों से भरी बजबजाती नालियाँ,
और दुर्गंध फैलाते घूरे।
तिलचट्टे, खटमल,जोंक,सूवर
इनकी जारज संताने हैं
जिनके पास नाक नहीं होती
जिसके चलते
ये कहीं भी मुँह
मार लेते हैं,
सड़ांध इनकी असली खुराक है
अपने महकमे में इनकी बड़ी धाक है।

जबकि
कीचड़ में उगे
धान हो या कमल
देते हैं मनुष्य को
आत्मिक शांति
कभी शरीर तो कभी मन की
भूख मिटाकर।

सदियों से
कीचड़ और कचरे के बीच
जंग है
दोनों के अपने-अपने
रंग हैं।


49-

वंदे मातरम्!मित्रो!एक रचना समर्पित है-

जहर की ख़ुराक
°°°°°°°°°°°°°°°

दिन-रात का 
ब्राह्मण!! ब्राह्मण !!ब्राह्मण!!
क्षत्रिय!! क्षत्रिय !!क्षत्रिय!!
पिछड़ा!!पिछड़ा!!पिछड़ा!!
दलित!! दलित!! दलित!!
ये क्या है भाई?
ये ब्राह्मण, क्षत्रिय,पिछड़ा, दलित का 
राग ही तो जातिवाद की आग है
जिसमें जल रहा है अपना पूरा समाज।
बचो इस मानसिकता से
वरना मलेच्छ मार डालेंगे 
एक-एक करके तुम सबको
चूँ तक नहीं कर पाओगे,
क्योंकि मलेच्छों की जनसंख्या 
बढ़ रही है निरन्तर
छा रहे हैं वे गली गली
कर रहे तुम्हारी कमजोरियों की रेकी।
वे बड़ी चालाकी से 
हमारे बीच घुसकर
भूख की कोंख में 
घृणा की आग बो रहे हैं।
हमें तोड़ने की साजिश में 
वे गाहे बगाहे 
दिखाते हैं भूखे लोगों को
भाईचारे का ख़्वाब 
जो देखने में
अच्छा तो लगे
लेकिन हकीकत में 
जहर की खुराक है
जिसमें अलगाव का 
जेहादी षड्यंत्र शामिल है।
हे तथाकथित ब्राह्मणों,क्षत्रियों,पिछड़ों दलितों!
इस अंधकूप में डूबने से बचो
रचो अपनी आत्मीयता की
नदी को
संगठन के समुद्र को
संबंधों की एकसूत्री छवि को।

             -/डॉ मनोज कुमार सिंह
★★★★★★★★★★★


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