Monday, December 26, 2022

गीतिका मनोज की शेष (भाग-5)

ग़ज़ल

राजनीति    में    गाँधीगीरी     चकचक     है,
झोले   वाली   आम   फकीरी   चकचक   है।।

सुख  -  सुविधा  की  चाहत   है  तो  जीवन  में,
नेताओं     की      चमचागीरी    चकचक     है।

मजबूरी      में      हैं     राणा     की     संतानें,
मानसिंह    की   जारज    पीढ़ी    चकचक   है।

पेंशन    की    टेंशन    में    कितने   गुजर   गए,
मगर   आज   संसद  की   सीढ़ी   चकचक   है।

बोटी    के   संग    अब    भी    ग्राम   चुनावों  में
मुखिया   जी    की   दारू  -  बीड़ी   चकचक  है।

ऊँचे   महल -  अटारी    में   दिल   मत   ढूढ़ों
झोपड़ियों   की   प्रेम - अमीरी   चकचक  है।

                           ●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह

गीतिका

सरिता को सागर बनना है।
ईटों को इक घर बनना है।

मानव भी पशु ही होता है,
लक्ष्य मगर बेहतर बनना है।

पत्थर भी तब पूज्य बना है,
जब ठाना ईश्वर बनना है।

हम सब अमृत पुत्र सदा से,
नहीं कभी विषधर बनना है।

मन से अँधियारा भागेगा,
ज्योति पुंज आखर बनना है।

डॉ मनोज कुमार सिंह



वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है-
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तरसता है गाँव,कस्बा,शहर पानी के लिए,
और ऊपर से तपिश ये जिंदगानी के लिए।।

खो गई इंसानियत , ईमान औंधा है पड़ा,
कौन जिम्मेदार है,इस मेहरबानी के लिए।

मौन जब संवाद है,निरुद्देश्य है मन की दिशा,
हो कोई किरदार तो लिखूँ कहानी के लिए।

प्रेम या सद्भाव मन की बस्तियों से दूर हैं,
रह गया क्या दिल में तेरे अब निशानी के लिए।

मित्रता में खंजरों का,चलन जबसे है बढ़ा,
घट रहा विश्वास अब तो कद्रदानी के लिए।।

                        -/ डॉ मनोज कुमार सिंह



गीतिका

भर देता है दिल में डर इतना।
तेरी मुस्कान में जहर इतना।।

जितना आँसू ठहरते,पलकों पे
कम से कम दिल में तो ठहर इतना।

आँखें बंद कर कोई विश्वास करे,
दिल की गहराई में उतर इतना।

गम के हर गाँव में खुशी भी रहे,
कम से कम पैदा कर असर इतना।

लोग जाने क्या बात करते हैं,
कौन आता किसी के घर इतना।

प्यार को मुफ्त में बदनाम मत कर,
मेरी गलियों में मत ठहर इतना।

डॉ मनोज कुमार सिंह


                गीतिका

किसी से दिल लगाना चाहता हूँ।
दुबारा चोट खाना चाहता हूँ।

नहाकर दर्द की गहरी नदी में,
मुसलसल मुस्कुराना चाहता हूँ।

अँधेरा दे गया जो घर हमारे,
उसे दीपक दिखाना चाहता हूँ।

भगा दे डाँटकर चैम्बर से अपने,
ऐसा साहब मैं पाना चाहता हूँ।

उड़ाए हँस के नित उपहास मेरा,
जिसे मैं दुख सुनाना चाहता हूँ।।

मिला बाजार में जबसे कबीरा,
मैं अपना घर जलाना चाहता हूँ।

डॉ मनोज कुमार सिंह

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