ग़ज़ल
राजनीति में गाँधीगीरी चकचक है,
झोले वाली आम फकीरी चकचक है।।
सुख - सुविधा की चाहत है तो जीवन में,
नेताओं की चमचागीरी चकचक है।
मजबूरी में हैं राणा की संतानें,
मानसिंह की जारज पीढ़ी चकचक है।
पेंशन की टेंशन में कितने गुजर गए,
मगर आज संसद की सीढ़ी चकचक है।
बोटी के संग अब भी ग्राम चुनावों में
मुखिया जी की दारू - बीड़ी चकचक है।
ऊँचे महल - अटारी में दिल मत ढूढ़ों
झोपड़ियों की प्रेम - अमीरी चकचक है।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
सरिता को सागर बनना है।
ईटों को इक घर बनना है।
मानव भी पशु ही होता है,
लक्ष्य मगर बेहतर बनना है।
पत्थर भी तब पूज्य बना है,
जब ठाना ईश्वर बनना है।
हम सब अमृत पुत्र सदा से,
नहीं कभी विषधर बनना है।
मन से अँधियारा भागेगा,
ज्योति पुंज आखर बनना है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है-
...................................................
तरसता है गाँव,कस्बा,शहर पानी के लिए,
और ऊपर से तपिश ये जिंदगानी के लिए।।
खो गई इंसानियत , ईमान औंधा है पड़ा,
कौन जिम्मेदार है,इस मेहरबानी के लिए।
मौन जब संवाद है,निरुद्देश्य है मन की दिशा,
हो कोई किरदार तो लिखूँ कहानी के लिए।
प्रेम या सद्भाव मन की बस्तियों से दूर हैं,
रह गया क्या दिल में तेरे अब निशानी के लिए।
मित्रता में खंजरों का,चलन जबसे है बढ़ा,
घट रहा विश्वास अब तो कद्रदानी के लिए।।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
भर देता है दिल में डर इतना।
तेरी मुस्कान में जहर इतना।।
जितना आँसू ठहरते,पलकों पे
कम से कम दिल में तो ठहर इतना।
आँखें बंद कर कोई विश्वास करे,
दिल की गहराई में उतर इतना।
गम के हर गाँव में खुशी भी रहे,
कम से कम पैदा कर असर इतना।
लोग जाने क्या बात करते हैं,
कौन आता किसी के घर इतना।
प्यार को मुफ्त में बदनाम मत कर,
मेरी गलियों में मत ठहर इतना।
डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
किसी से दिल लगाना चाहता हूँ।
दुबारा चोट खाना चाहता हूँ।
नहाकर दर्द की गहरी नदी में,
मुसलसल मुस्कुराना चाहता हूँ।
अँधेरा दे गया जो घर हमारे,
उसे दीपक दिखाना चाहता हूँ।
भगा दे डाँटकर चैम्बर से अपने,
ऐसा साहब मैं पाना चाहता हूँ।
उड़ाए हँस के नित उपहास मेरा,
जिसे मैं दुख सुनाना चाहता हूँ।।
मिला बाजार में जबसे कबीरा,
मैं अपना घर जलाना चाहता हूँ।
डॉ मनोज कुमार सिंह
Monday, December 26, 2022
गीतिका मनोज की (भाग-05)
गीतिका मनोज की-(भाग -5 )
1
☺️ गधल ☺️
गाँधी हो या खान सफेदा, पप्पू जी?
कौन सही पहचान सफेदा,पप्पू जी?
कुर्सी की खातिर आखिर क्यों बेच रहे,
पुरुखों का बलिदान सफेदा,पप्पू जी।?
लोकतंत्र में जब सबका अधिकार यहाँ,
तेरा ही क्यों मान सफेदा,पप्पू जी?
देश तरक्की में अपना अवदान बता,
पूछे हिंदुस्तान सफेदा,पप्पू जी?
अपने आगे नहीं चाहते क्यों आखिर,
गैरों का सम्मान सफेदा,पप्पू जी?
तुमसे काबिल लोग तुम्हारी पार्टी में,
उनका क्यों अपमान सफेदा पप्पू जी?
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
2
मातरम्!मित्रो!एक ग़ज़ल सादर समर्पित है-
∆ग़ज़ल∆
तेरे डर से डर जाऊँगा।
इससे अच्छा मर जाऊँगा।
तेरे कुछ करने से पहले,
मैं खुद ही कुछ कर जाऊँगा।
पुष्पदलों का ओसबिन्दु हूँ।
छूना मत मैं ढर जाऊँगा।
कितनी भी खोदो तुम खाई,
मिट्टी हूँ मैं भर जाऊँगा।
तुम जाओ दरबार सजाने,
मैं तो अपने घर जाऊँगा।
ग़म में यदि तुम मुस्काओगे,
राम कसम मैं तर जाऊँगा।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
3
ग़ज़ल
मशविरा खास है, बेहिसाब मत देखो।
खुली आँखों से आफ़ताब मत देखो।
जम्हूरी मुल्क में महदूद नज़रों से,
निज़ामे - मुस्तफ़ा का ख़्वाब मत देखो।
दिल को पढ़ने के लिए प्यार काफी,
कागजी हर्फ़ की किताब मत देखो।
कौन कितना किया, एक दूसरे से,
मुहब्बत में कभी हिसाब मत देखो।
खुशबू जब भी मिले ले लो बस,
उसमें चम्पा, चमेली, गुलाब मत देखो।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
4
ग़ज़ल/गीतिका
है चोरी का, चकारी का, बिना नामूस का पैसा;
गलत लगता नहीं उनको दलाली घूस का पैसा।
ये बाबू तीस हजारी घर बनाकर साल भर में ही,
कहाँ से ला रहा है कार औ' फ़ानूस का पैसा।
वकीलों की कचहरी में ज्यों उनकी फीस से ज्यादा,
चुकाते हैं मुवक्किल दारू, मुर्गा, जूस का पैसा।
लुटेरे लूटते हैं लूटना ही धर्म है जिनका
कहाँ वे देखते अच्छे या है मनहूस का पैसा।।
बिना टेढ़ी किए उँगली निकलता घी भी वैसे ही,
कि जैसे निकलता मुश्किल से मक्खीचूस का पैसा।
दिया था सौ, मगर पन्द्रह पहुँच पाए गरीबों तक,
खा गए बीच में कुछ झोपड़ी, छत, फूस का पैसा।
शब्दार्थ- नामूस - इज्जत
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
5
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है!💐
गीतिका
छम्मक छैल छबीली दिल्ली।
आदत से नखरीली दिल्ली।
सत्ताधीशों की अफीम है,
सबसे बड़ी नशीली दिल्ली।
महँगे शौक रखा करती है,
कर देती नस ढीली दिल्ली।
दिल वालों की रही कभी ये,
नहीं आज गर्वीली दिल्ली।।
बिगड़े राग सियासी जबसे,
दिखती नहीं सुरीली दिल्ली।
आज 'आप' की करतूतों से,
है कितनी जहरीली दिल्ली।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
6
∆ग़ज़ल∆
नदी जब तोड़ती है बाँध आफत आ ही जाती है;
वक्त की चोट से दिल में शराफत आ ही जाती है ।
सदा संघर्ष में जो आदमी पलता रहा, उसमें,
चुनौती से निपटने की लियाक़त आ ही जाती है।
जरूरत से अधिक जब हुश्न का तोहफा खुदा देता,
खुद - बखुद नाजनीनों में नज़ाकत आ ही जाती है।
दुखों के साथ लंबे वक्त तक रहकर यही देखा,
दिलों के दरमियाँ उलफ़त - इजाफत आ ही जाती है।
छिपाए लाख कोई झूठ लेकिन छिप नहीं पाता,
जुबां पे या नज़र में खुद सदाक़त आ ही जाती है।
शब्द संकेत-
लियाक़त-योग्यता, नाजनीन-सुंदरी,
नज़ाकत-अंग चालन की मृदुल एवं मनोहर चेष्टा।
उलफ़त-प्रेम,इजाफत-लगाव,सदाक़त-सच्चाई
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
7
ग़ज़ल
आँधियों में शिखर पर तिनके यहाँ चढ़ते दिखे।
कुर्सियों पे बैठ कुछ तसवीर में मढ़ते दिखे।।
साजिशों का धुंध ओढ़े, सूर्य के इस देश में,
तीरगी के पाँव हरसू मुसलसल बढ़ते दिखे।
सच से इतनी दुश्मनी कि मुल्क के प्रतिरोध में,
कातिलों के पक्ष में कुछ व्याकरण गढ़ते दिखे।
पढ़ न पाई जिंदगी,विज्ञान की उपलब्धियाँ,
पर ये कवि इंसान की संवेदना पढ़ते दिखे।
सच कहूँ तो आदमी में आदमीपन मर चुका,
आदमी की खाल में अब भेड़िये बढ़ते दिखे।
8
● डॉ मनोज कुमार सिंह
ग़ज़ल/गीतिका
अपने दम पर चलना सीखो ।
संघर्षों में पलना सीखो।
दुनिया को ज्योतित् करने को,
मोम सरीखे गलना सीखो।
साहस को तुम बना हथौड़ा,
बाधाओं को दलना सीखो।
सदा बहारों में खिलना पर,
पतझर में भी फलना सीखो।
सदा सुखी रहना है यदि तो,
चिंताओं को छलना सीखो।
●/- डॉ मनोज कुमार सिंह
9
ग़ज़ल/गीतिका
सुविधाओं की मारी दिल्ली।
नैतिकता से हारी दिल्ली।
मुफ्तखोर बनकर जीवन में,
भ्रष्टों की आभारी दिल्ली।
घोर स्वार्थ में खेल गई है,
कितनी घटिया पारी दिल्ली।
मदिरा,जेल उन्हें भाता है,
मालिश की मतवारी दिल्ली।
लगा हमें कि होगी एक दिन
रोहिंग्या की सारी दिल्ली।
नीति,नीयत ज्यों बेच खा गई,
करे देश को ख़्वारी दिल्ली।
कालनेमि की चंगुल में फँस,
लगा जीतकर हारी दिल्ली।
डॉ मनोज कुमार सिंह
10
ग़ज़ल/गीतिका
नाम आएगा हमारा आशिक़ी में;
दफ़्न हो जाएं भले ही दुश्मनी में।।
फर्क क्या पड़ता है आखिर गिनतियों से,
नाम पहले हो या हो वो आखिरी में।
लक्ष्य है बस प्रेम देना हर किसी को,
जो मिलेगा मुख़्तसर इस जिंदगी में।
दोस्त मिलते हैं हजारों मगर उनमें,
चीज वो आखिर कहाँ जो जिगरी में।
साध लो दुख को खुशी देगी तुम्हें वो,
साधती ज्यों स्वर उंगुलियां बाँसुरी में।
डॉ मनोज कुमार सिंह
11
∆ग़ज़ल/गीतिका∆
तुम्हारी चाह में जाने कहाँ - कहाँ भटके।
बियावां में कि जैसे दिल की हर सदा भटके।
मिला मुक़ाम नया उनको भी इस दुनिया में
हो के बेखौफ़ जो छोड़कर रस्ता भटके।
उड़ा ले जाएगी मेरी चिट्ठियाँ दीवाने तक,
मुझे ऐतबार है, बहती ये जब हवा भटके।
दिल में रखते हैं हम भी प्यार की इक चिनगारी,
मेरी कोशिश है ये हर दिल के दरमियाँ भटके।
दाग दंगों की लगाकर वतन के चेहरे पर,
संत के वेश में साजिश यहाँ वहाँ भटके।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
12
ग़ज़ल/गीतिका
घृणा - सिंधु में दिल के हाथों प्यार पकड़कर बैठा हूँ;
तूफानों में नाविक - सा पतवार पकड़कर बैठा हूँ।
विश्वासों की गहराई को कौन नाप सकता प्यारे,
मैं म्यानों - सी तलवारों की धार पकड़कर बैठा हूँ।
धोखा,नफरत,लोभ,दिखावा, है जिसकी अब भी फितरत,
जाने क्यूँ अबतक ऐसा संसार पकड़कर बैठा हूँ।
जीत गए तो जश्न मनाते, हार गए तो रो लेते,
ज्यों सुख - दुख में वीणा के दो तार पकड़कर बैठा हूँ।
बीत गई जो बात उसी में उलझाता पागल ये मन,
पढ़ने को मैं ज्यों बासी अखबार पकड़कर बैठा हूँ।
●-/ डॉ मनोज। कुमार सिंह
13
● ग़ज़ल/गीतिका●
उनको है अपने ज्ञान पर गुमान बहुत,
जिनमें हजारो ऐब के निशान बहुत ।
है शुक्र कि हिस्से में आ गया उनके,
धरती के साथ आज आसमान बहुत।
कैसे बने प्रताप की जमीं पे बता,
अकबर हो या सिकन्दर महान बहुत।
दुश्मन अकेला दीप का तमस ही नहीं,
फैले हैं उसके हरसूं तूफान बहुत।
है भेड़ियों का भेड़ पर असर इतना,
जाति के नाम पर है भेड़ियाधसान बहुत।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
14
ग़ज़ल
---------
मक्कारी जिनकी नस - नस में।
मजा ले रहे निंदा रस में।।
अपराधों पर चोट से उनके
दर्द उठे गहरे अन्तस् में।
चाह रहे कुछ लोग यहाँ बस,
घिर जाए यह देश तमस में।
कैसे निपटें गद्दारों से,
समझ न आए जन - मानस में।
चोर - चोर मौसेरे भाई,
देश लूट बाँटें आपस में।
सच की भागीदारी को वे,
नहीं चाहते बीच - बहस में।
●-/डॉ मनोज कुमार सिंह
15
∆गीतिका∆
°°°°°°°°°°°
लोकतंत्र की बात सड़क से संसद तक।
खोई आज बिसात सड़क से संसद तक।
लालकिले पर लगी चोट से आहत हो,
भीग रही हर रात सड़क से संसद तक।
आज सियासत का मतलब बस इतना है,
घात और प्रतिघात सड़क से संसद तक।
सत्ता कुरसी की बस धींगामुश्ती में,
शतरंजी शह - मात सड़क से संसद तक।
कौन सुनेगा सच की चुभती बातों को,
किसकी है औकात सड़क से संसद तक।
देशभक्ति की बातें अब गाली खातीं,
ये कैसी जज़्बात सड़क से संसद तक।
/-डॉ मनोज कुमार सिंह
16
ग़ज़ल
मन का तेवर लहूलुहान क्यों है?
दबी-दबी-सी ये जुबान क्यों है?
गाड़ी बंगला है सुख के साधन सब,
फिर भी ये आदमी परेशान क्यों है?
आदमी आदमी-सा क्यों नहीं अब,
मन से ये भेड़िया ,हैवान क्यों है?
तुम तो दुश्मन थे कुरसियों के सदा,
फिर ये उनके लिए सम्मान क्यों है?
खाली आया था,खाली जाएगा,
मन में फिर शख्स के गुमान क्यों है?
डॉ मनोज कुमार सिंह
17
वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक और ग़ज़ल हाज़िर है।आपकी टिप्पणी ऊर्जा देती है।सादर,
मैं शायद इसलिए,अच्छा नहीं हूँ।
उनके बाजार का,हिस्सा नही हूँ।
उतर पाता नही जल्दी हलक में,
स्वाद हूँ नीम का,पिज्जा नही हूँ।
करूँ उनकी प्रशंसा रात दिन क्यूँ,
किसी पिंजड़े का मैं,सुग्गा नहीं हूँ।
मैं बजता खुद दिलों में मौन रहकर,
मैं धड़कन हूँ कोई ,डिब्बा नही हूँ।
ख्वाब से दूर हों,जब फूल,तितली,
समझ लेना कि अब,बच्चा नहीं हूँ।
सच जब एक है,तो दो कहूँ क्यों,
विखंडित मैं कोई,शीशा नहीं हूँ।
डॉ मनोज कुमार सिंह
18
ग़ज़ल
घड़ियाली मैं अश्रु बहाऊँ, नेता हूँ क्या?
झूठे निशिदिन ख्वाब दिखाऊँ, नेता हूँ क्या?
सच बोलूँ तो धस जाती झूठों के दिल में,
अमृत कहकर जहर पिलाऊँ, नेता हूँ क्या?
मेरी क्या औकात, तुझे खुश रख पाऊँ मैं,
ठकुरसुहाती बात सुनाऊँ, नेता हूँ क्या?
हड्डी के टुकड़ों की खातिर पूँछ हिलाकर,
जातिवाद का ध्वज फहराऊँ, नेता हूँ क्या?
क़ातिल को क़ातिल कहना कबिरा की भाषा,
कवि होकर मैं चुप हो जाऊँ, नेता हूँ क्या?
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
19
ग़ज़ल
जवान दिखने की ललक उनकी।
मुझे लगती है बस सनक उनकी।
तप्त हो स्वर्ण तो बनता कुंदन,
ठंड में भी रही दमक उनकी।
चल पड़े पाँव उनके घर की तरफ,
आ गई याद एक- ब- एक उनकी।
पास रहकर भी हम अनजान रहे,
दिल में तसवीर थी बेशक उनकी।
बात करते हैं क्या इशारों में,
समझ न पाया आजतक उनकी।
डॉ मनोज कुमार सिंह
20
ग़ज़ल
ज्ञान-रश्मि का खुला द्वार हो।
जिज्ञासा में नवाचार हो।
आत्म संबलित उज्ज्वल मन में,
शिक्षा के संग संस्कार हो।
घृणा-तमस को दूर करे जो,
ऐसा दिल में धवल प्यार हो।
लक्ष्य मिलेगा निश्चित जानो,
हर कोशिश यदि ईमानदार हो।
खता करो यदि प्रेम खता हो,
जीवन में ये बार -बार हो।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
21
गीतिका
माला के संग भाला रख।
विष - अमृत का प्याला रख।
दुश्मन का भी दिल काँपे,
संकल्पों की ज्वाला रख।
अँधियारे छँट जाएँगे,
मन में सदा उजाला रख।
श्वान भौंकने की सोचे,
नित नकेल तू डाला रख।
कबिरा - सा बन डिक्टेटर,
दिल का नाम निराला रख।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
22
गीतिका
कविता को आखर देता हूँ।
पीड़ा को नित स्वर देता हूँ।
दुःख आते - जाते रहते हैं,
दिल में उनको घर देता हूँ।
घोर निराशा के पंछी को,
आशाओं का पर देता हूँ।
खड़ी चुनौती सम्मुख हो तो,
बेहतरीन उत्तर देता हूँ।
वक्त बुरा हूँ फिर भी दिल से,
सबको शुभ अवसर देता हूँ।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
23
गीतिका
कैसे जाओगे तुम किनारे तक,
साथ देते नहीं सहारे तक।
डूबना सीख लो गहराइयों में,
भरोसा मत करो शिकारे तक।
मन के अंधे की अंधता ऐसी,
दृष्टि जाती नहीं नज़ारे तक।
खुरदरा सच है यही जिंदगी का,
आदमी पास है गुजारे तक।
वक्त की मार से निढाल होकर,
जमीं पे आ गिरे सितारे तक।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
24
ग़ज़ल
रधिया के घर पाँव धरेंगे नेता जी।
भारी उसके पाँव करेंगे नेता जी।
रघुआ को प्रधान बनाकर जाएँगे,
कर्जे उसके स्वयं भरेंगे नेता जी।
आश्वासन की घास उगाकर बस्ती में,
जन सपनों को नित्य चरेंगे नेता जी।
गड्ढे खोदेंगे खेतों खलिहानों में,
मिट्टी फिर-फिर वही भरेंगे नेता जी।
शिलालेख बन गड़ जाएँगे बस्ती में,
रक्त बीज हैं नहीं मरेंगे नेता जी।।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
25
∆गीतिका∆
°°°°°°°°°°°
लोकतंत्र की बात सड़क से संसद तक।
खोई आज बिसात सड़क से संसद तक।
लालकिले पर लगी चोट से आहत हो,
भीग रही हर रात सड़क से संसद तक।
आज सियासत का मतलब बस इतना है,
घात और प्रतिघात सड़क से संसद तक।
सत्ता कुरसी की बस धींगामुश्ती में,
शतरंजी शह - मात सड़क से संसद तक।
कौन सुनेगा सच की चुभती बातों को,
किसकी है औकात सड़क से संसद तक।
देशभक्ति की बातें अब गाली खातीं,
ये कैसी जज़्बात सड़क से संसद तक।
/-डॉ मनोज कुमार सिंह
26
गीतिका
पास रह कर भी दूरी चाहता है।
वो केवल जी हुजूरी चाहता है।
अहं की तुष्टि में दरबार अपने,
मेरा झुकना जरूरी चाहता है।
एक मजदूर की गलती है इतनी,
वो मालिक से मजूरी चाहता है।
जिसने लूटा है अपना देश अबतक,
फिर से सत्ता वो पूरी चाहता है।
किसी के मुँह का छीन कर निवाला,
खुद के हिस्से अंगूरी चाहता है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
27
गीतिका
जैसे को तैसा तेवर मिल जाएगा।
तेरे प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा।।
संगत में रहकर देखो,परखो कुछ दिन,
शेर,स्यार का हर अंतर मिल जाएगा।
कोशिश कर के देख,न खुद को कम आँको,
चाहत से ज्यादा बेहतर मिल जाएगा।
मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारों में मत ढूढ़ो,
साँसों के भीतर ईश्वर मिल जाएगा।
खुद पे आए हर पत्थर को जोड़ो तो,
निश्चित ही तुमको इक घर मिल जाएगा।
डॉ मनोज कुमार सिंह
28
ग़ज़ल
प्रेम - ज्योति जाने क्यूँ कम है;
मन का सूरज भी मद्धम है।
स्वार्थ - कुहासे जबसे छाए,
भाई से भाई बरहम है।
वादों की बरसात देखकर,
लगा चुनावों का मौसम है।
अपने दुख से नहीं दुखी वे
दूसरों की खुशियों से गम है।
ख़ुशी बताकर बाँट रहे वे
झोली में जिनके मातम है।
उनकी फितरत में जख्मों पर,
नमक छिड़कना ही मरहम है।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
शब्दार्थ-(बरहम- नाराज)
29
ग़ज़ल
तेज हो पर संयमित रफ़्तार रखनी चाहिए;
जिंदगी की, हाथ में पतवार रखनी चाहिए।
राह की कठिनाइयों की झाड़ियों को काट दे,
मन में इक संकल्प की तलवार रखनी चाहिए।
लाख हो मतभेद लेकिन इतनी गुंजाइश रहे,
दो दिलों के दरमियाँ गुफ़्तार रखनी चाहिए।
चाहते हो सुख तो फिर झुकते हुए दिल से सदा,
बुजुर्गों के पाँव में दस्तार रखनी चाहिए।
देखना विकृतियाँ मिट जाएँगी यूँ खुद - बखुद,
दिल में माँ के अक्स का शहकार रखनी चाहिए।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
शब्दार्थ :
शहकार =सर्वोत्कृष्ट कृति
गुफ़्तार=बातचीत
दस्तार=पगड़ी
30
ग़ज़ल
----------
ये मत पूछो कब बदलेगा।
खुद को बदलो सब बदलेगा।
कोशिश कर के देख जरा तू,
किस्मत तेरी रब बदलेगा।
नया करोगे दुख कुछ होगा,
लेकिन जग का ढब बदलेगा।
दुनिया में बदलाव दिखेगा,
इंसां खुद को जब बदलेगा।
छू पाएगा शिखर, वक्त पर,
समुचित जो करतब बदलेगा।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
31
ग़ज़ल
---------
मक्कारी जिनकी नस - नस में।
मजा ले रहे निंदा रस में।।
अपराधों पर चोट से उनके
दर्द उठे गहरे अन्तस् में।
चाह रहे कुछ लोग यहाँ बस,
घिर जाए यह देश तमस में।
कैसे निपटें गद्दारों से,
समझ न आए जन - मानस में।
चोर - चोर मौसेरे भाई,
देश लूट बाँटें आपस में।
सच की भागीदारी को वे,
नहीं चाहते बीच - बहस में।
●-/डॉ मनोज कुमार सिंह
32
∆ ग़ज़ल ∆
हर दर्द के एहसास को मिसरों में लिखकर।
जिंदा उसे फिर कीजिए, ग़ज़लों में लिखकर।
हो आग अगर दिल में, उसको बचा के रख,
फिर कर उसे नुमायां शेरों में लिखकर।
लिख आइनों - सा काफिया, रदीफ़ के अंदाज,
सच का दिखाए चेहरा मतलों में लिखकर।
सुख - दुख के तार छेड़कर स्वर साधना करो,
फिर गुनगुनाओ जिंदगी बहरों में लिखकर।
सच खुरदरा है सूरज ढलता है शाम को,
कह जिंदगी की बातें मक़तों में लिखकर।
● डॉ मनोज कुमार सिंह
(अर्थ संकेत-मिसरों-पंक्तियों, नुमायाँ-ज़ाहिर
मतलों-(मतला)ग़ज़ल का पहला शे'र
मक़तों-(मक़ता )ग़ज़ल का अंतिम शे'र
बहरों-(बहर) शेर का वज़्न(भार),छंद)
33
गीतिका
किसी का जीना मत मुहाल कर।
भले जितना भी तू कमाल कर।
बता कुछ हल भी तो कठिनाइयों का,
फिर चाहे जितना सवाल कर।
मिला है लक्ष्य उनको निश्चित ही,
चले जीवन को जो सँभाल कर।
अँधेरा भाग जाएगा यकीनन,
निकल बाहर खुद को मशाल कर।
बदल जाएगी दुनिया जिंदगी की,
देख लो दिल में मुहब्बत ढाल कर।
डॉ मनोज कुमार सिंह
34
गीतिका
राजकाज सदियों से ऐसे चलता है।
जैसे सूरज उगता है फिर ढलता है।।
जिसको मिल जाती है सत्ता खुश होता,
खोने वाला हाथों को बस मलता है।
जिसमें होती संघर्षों की आग छिपी,
अँधियारे में भी दीपक बन जलता है।
खुली आँख के सपने ही साकार हुए,
बन्द नयन का सपना केवल छलता है।
कर देता है दूर तनावों को क्षण में,
काव्य-वृक्ष का फल जब दिल में फलता है।
तुम 'मनोज' क्यों परेशान हो जीवन में,
दिल में तेरे त्याग सदा जब पलता है।
●डॉ मनोज कुमार सिंह
35
ग़ज़ल
प्रेम हूँ , अनुरक्ति हूँ मैं।
एक सहज अभिव्यक्ति हूँ मैं।
जड़ जगत की हर शिरा में,
चेतना की शक्ति हूँ मैं।
हार में भी जीत देखूँ
अति साधारण व्यक्ति हूँ मैं।
मनुज मन में साधनारत,
त्याग, तप की भक्ति हूँ मैं।
प्राण! आ जाओ तू वापस,
बन्धनों में मुक्ति हूँ मैं।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
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