ग़ज़ल
राजनीति में गाँधीगीरी चकचक है,
झोले वाली आम फकीरी चकचक है।।
सुख - सुविधा की चाहत है तो जीवन में,
नेताओं की चमचागीरी चकचक है।
मजबूरी में हैं राणा की संतानें,
मानसिंह की जारज पीढ़ी चकचक है।
पेंशन की टेंशन में कितने गुजर गए,
मगर आज संसद की सीढ़ी चकचक है।
बोटी के संग अब भी ग्राम चुनावों में
मुखिया जी की दारू - बीड़ी चकचक है।
ऊँचे महल - अटारी में दिल मत ढूढ़ों
झोपड़ियों की प्रेम - अमीरी चकचक है।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
सरिता को सागर बनना है।
ईटों को इक घर बनना है।
मानव भी पशु ही होता है,
लक्ष्य मगर बेहतर बनना है।
पत्थर भी तब पूज्य बना है,
जब ठाना ईश्वर बनना है।
हम सब अमृत पुत्र सदा से,
नहीं कभी विषधर बनना है।
मन से अँधियारा भागेगा,
ज्योति पुंज आखर बनना है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है-
...................................................
तरसता है गाँव,कस्बा,शहर पानी के लिए,
और ऊपर से तपिश ये जिंदगानी के लिए।।
खो गई इंसानियत , ईमान औंधा है पड़ा,
कौन जिम्मेदार है,इस मेहरबानी के लिए।
मौन जब संवाद है,निरुद्देश्य है मन की दिशा,
हो कोई किरदार तो लिखूँ कहानी के लिए।
प्रेम या सद्भाव मन की बस्तियों से दूर हैं,
रह गया क्या दिल में तेरे अब निशानी के लिए।
मित्रता में खंजरों का,चलन जबसे है बढ़ा,
घट रहा विश्वास अब तो कद्रदानी के लिए।।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
भर देता है दिल में डर इतना।
तेरी मुस्कान में जहर इतना।।
जितना आँसू ठहरते,पलकों पे
कम से कम दिल में तो ठहर इतना।
आँखें बंद कर कोई विश्वास करे,
दिल की गहराई में उतर इतना।
गम के हर गाँव में खुशी भी रहे,
कम से कम पैदा कर असर इतना।
लोग जाने क्या बात करते हैं,
कौन आता किसी के घर इतना।
प्यार को मुफ्त में बदनाम मत कर,
मेरी गलियों में मत ठहर इतना।
डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
किसी से दिल लगाना चाहता हूँ।
दुबारा चोट खाना चाहता हूँ।
नहाकर दर्द की गहरी नदी में,
मुसलसल मुस्कुराना चाहता हूँ।
अँधेरा दे गया जो घर हमारे,
उसे दीपक दिखाना चाहता हूँ।
भगा दे डाँटकर चैम्बर से अपने,
ऐसा साहब मैं पाना चाहता हूँ।
उड़ाए हँस के नित उपहास मेरा,
जिसे मैं दुख सुनाना चाहता हूँ।।
मिला बाजार में जबसे कबीरा,
मैं अपना घर जलाना चाहता हूँ।
डॉ मनोज कुमार सिंह
Monday, December 26, 2022
गीतिका मनोज की (भाग-05)
गीतिका मनोज की-(भाग -5 )
1
☺️ गधल ☺️
गाँधी हो या खान सफेदा, पप्पू जी?
कौन सही पहचान सफेदा,पप्पू जी?
कुर्सी की खातिर आखिर क्यों बेच रहे,
पुरुखों का बलिदान सफेदा,पप्पू जी।?
लोकतंत्र में जब सबका अधिकार यहाँ,
तेरा ही क्यों मान सफेदा,पप्पू जी?
देश तरक्की में अपना अवदान बता,
पूछे हिंदुस्तान सफेदा,पप्पू जी?
अपने आगे नहीं चाहते क्यों आखिर,
गैरों का सम्मान सफेदा,पप्पू जी?
तुमसे काबिल लोग तुम्हारी पार्टी में,
उनका क्यों अपमान सफेदा पप्पू जी?
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
2
मातरम्!मित्रो!एक ग़ज़ल सादर समर्पित है-
∆ग़ज़ल∆
तेरे डर से डर जाऊँगा।
इससे अच्छा मर जाऊँगा।
तेरे कुछ करने से पहले,
मैं खुद ही कुछ कर जाऊँगा।
पुष्पदलों का ओसबिन्दु हूँ।
छूना मत मैं ढर जाऊँगा।
कितनी भी खोदो तुम खाई,
मिट्टी हूँ मैं भर जाऊँगा।
तुम जाओ दरबार सजाने,
मैं तो अपने घर जाऊँगा।
ग़म में यदि तुम मुस्काओगे,
राम कसम मैं तर जाऊँगा।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
3
ग़ज़ल
मशविरा खास है, बेहिसाब मत देखो।
खुली आँखों से आफ़ताब मत देखो।
जम्हूरी मुल्क में महदूद नज़रों से,
निज़ामे - मुस्तफ़ा का ख़्वाब मत देखो।
दिल को पढ़ने के लिए प्यार काफी,
कागजी हर्फ़ की किताब मत देखो।
कौन कितना किया, एक दूसरे से,
मुहब्बत में कभी हिसाब मत देखो।
खुशबू जब भी मिले ले लो बस,
उसमें चम्पा, चमेली, गुलाब मत देखो।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
4
ग़ज़ल/गीतिका
है चोरी का, चकारी का, बिना नामूस का पैसा;
गलत लगता नहीं उनको दलाली घूस का पैसा।
ये बाबू तीस हजारी घर बनाकर साल भर में ही,
कहाँ से ला रहा है कार औ' फ़ानूस का पैसा।
वकीलों की कचहरी में ज्यों उनकी फीस से ज्यादा,
चुकाते हैं मुवक्किल दारू, मुर्गा, जूस का पैसा।
लुटेरे लूटते हैं लूटना ही धर्म है जिनका
कहाँ वे देखते अच्छे या है मनहूस का पैसा।।
बिना टेढ़ी किए उँगली निकलता घी भी वैसे ही,
कि जैसे निकलता मुश्किल से मक्खीचूस का पैसा।
दिया था सौ, मगर पन्द्रह पहुँच पाए गरीबों तक,
खा गए बीच में कुछ झोपड़ी, छत, फूस का पैसा।
शब्दार्थ- नामूस - इज्जत
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
5
वंदे मातरम्!मित्रो!एक गीतिका समर्पित है!💐
गीतिका
छम्मक छैल छबीली दिल्ली।
आदत से नखरीली दिल्ली।
सत्ताधीशों की अफीम है,
सबसे बड़ी नशीली दिल्ली।
महँगे शौक रखा करती है,
कर देती नस ढीली दिल्ली।
दिल वालों की रही कभी ये,
नहीं आज गर्वीली दिल्ली।।
बिगड़े राग सियासी जबसे,
दिखती नहीं सुरीली दिल्ली।
आज 'आप' की करतूतों से,
है कितनी जहरीली दिल्ली।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
6
∆ग़ज़ल∆
नदी जब तोड़ती है बाँध आफत आ ही जाती है;
वक्त की चोट से दिल में शराफत आ ही जाती है ।
सदा संघर्ष में जो आदमी पलता रहा, उसमें,
चुनौती से निपटने की लियाक़त आ ही जाती है।
जरूरत से अधिक जब हुश्न का तोहफा खुदा देता,
खुद - बखुद नाजनीनों में नज़ाकत आ ही जाती है।
दुखों के साथ लंबे वक्त तक रहकर यही देखा,
दिलों के दरमियाँ उलफ़त - इजाफत आ ही जाती है।
छिपाए लाख कोई झूठ लेकिन छिप नहीं पाता,
जुबां पे या नज़र में खुद सदाक़त आ ही जाती है।
शब्द संकेत-
लियाक़त-योग्यता, नाजनीन-सुंदरी,
नज़ाकत-अंग चालन की मृदुल एवं मनोहर चेष्टा।
उलफ़त-प्रेम,इजाफत-लगाव,सदाक़त-सच्चाई
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
7
ग़ज़ल
आँधियों में शिखर पर तिनके यहाँ चढ़ते दिखे।
कुर्सियों पे बैठ कुछ तसवीर में मढ़ते दिखे।।
साजिशों का धुंध ओढ़े, सूर्य के इस देश में,
तीरगी के पाँव हरसू मुसलसल बढ़ते दिखे।
सच से इतनी दुश्मनी कि मुल्क के प्रतिरोध में,
कातिलों के पक्ष में कुछ व्याकरण गढ़ते दिखे।
पढ़ न पाई जिंदगी,विज्ञान की उपलब्धियाँ,
पर ये कवि इंसान की संवेदना पढ़ते दिखे।
सच कहूँ तो आदमी में आदमीपन मर चुका,
आदमी की खाल में अब भेड़िये बढ़ते दिखे।
8
● डॉ मनोज कुमार सिंह
ग़ज़ल/गीतिका
अपने दम पर चलना सीखो ।
संघर्षों में पलना सीखो।
दुनिया को ज्योतित् करने को,
मोम सरीखे गलना सीखो।
साहस को तुम बना हथौड़ा,
बाधाओं को दलना सीखो।
सदा बहारों में खिलना पर,
पतझर में भी फलना सीखो।
सदा सुखी रहना है यदि तो,
चिंताओं को छलना सीखो।
●/- डॉ मनोज कुमार सिंह
9
ग़ज़ल/गीतिका
सुविधाओं की मारी दिल्ली।
नैतिकता से हारी दिल्ली।
मुफ्तखोर बनकर जीवन में,
भ्रष्टों की आभारी दिल्ली।
घोर स्वार्थ में खेल गई है,
कितनी घटिया पारी दिल्ली।
मदिरा,जेल उन्हें भाता है,
मालिश की मतवारी दिल्ली।
लगा हमें कि होगी एक दिन
रोहिंग्या की सारी दिल्ली।
नीति,नीयत ज्यों बेच खा गई,
करे देश को ख़्वारी दिल्ली।
कालनेमि की चंगुल में फँस,
लगा जीतकर हारी दिल्ली।
डॉ मनोज कुमार सिंह
10
ग़ज़ल/गीतिका
नाम आएगा हमारा आशिक़ी में;
दफ़्न हो जाएं भले ही दुश्मनी में।।
फर्क क्या पड़ता है आखिर गिनतियों से,
नाम पहले हो या हो वो आखिरी में।
लक्ष्य है बस प्रेम देना हर किसी को,
जो मिलेगा मुख़्तसर इस जिंदगी में।
दोस्त मिलते हैं हजारों मगर उनमें,
चीज वो आखिर कहाँ जो जिगरी में।
साध लो दुख को खुशी देगी तुम्हें वो,
साधती ज्यों स्वर उंगुलियां बाँसुरी में।
डॉ मनोज कुमार सिंह
11
∆ग़ज़ल/गीतिका∆
तुम्हारी चाह में जाने कहाँ - कहाँ भटके।
बियावां में कि जैसे दिल की हर सदा भटके।
मिला मुक़ाम नया उनको भी इस दुनिया में
हो के बेखौफ़ जो छोड़कर रस्ता भटके।
उड़ा ले जाएगी मेरी चिट्ठियाँ दीवाने तक,
मुझे ऐतबार है, बहती ये जब हवा भटके।
दिल में रखते हैं हम भी प्यार की इक चिनगारी,
मेरी कोशिश है ये हर दिल के दरमियाँ भटके।
दाग दंगों की लगाकर वतन के चेहरे पर,
संत के वेश में साजिश यहाँ वहाँ भटके।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
12
ग़ज़ल/गीतिका
घृणा - सिंधु में दिल के हाथों प्यार पकड़कर बैठा हूँ;
तूफानों में नाविक - सा पतवार पकड़कर बैठा हूँ।
विश्वासों की गहराई को कौन नाप सकता प्यारे,
मैं म्यानों - सी तलवारों की धार पकड़कर बैठा हूँ।
धोखा,नफरत,लोभ,दिखावा, है जिसकी अब भी फितरत,
जाने क्यूँ अबतक ऐसा संसार पकड़कर बैठा हूँ।
जीत गए तो जश्न मनाते, हार गए तो रो लेते,
ज्यों सुख - दुख में वीणा के दो तार पकड़कर बैठा हूँ।
बीत गई जो बात उसी में उलझाता पागल ये मन,
पढ़ने को मैं ज्यों बासी अखबार पकड़कर बैठा हूँ।
●-/ डॉ मनोज। कुमार सिंह
13
● ग़ज़ल/गीतिका●
उनको है अपने ज्ञान पर गुमान बहुत,
जिनमें हजारो ऐब के निशान बहुत ।
है शुक्र कि हिस्से में आ गया उनके,
धरती के साथ आज आसमान बहुत।
कैसे बने प्रताप की जमीं पे बता,
अकबर हो या सिकन्दर महान बहुत।
दुश्मन अकेला दीप का तमस ही नहीं,
फैले हैं उसके हरसूं तूफान बहुत।
है भेड़ियों का भेड़ पर असर इतना,
जाति के नाम पर है भेड़ियाधसान बहुत।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
14
ग़ज़ल
---------
मक्कारी जिनकी नस - नस में।
मजा ले रहे निंदा रस में।।
अपराधों पर चोट से उनके
दर्द उठे गहरे अन्तस् में।
चाह रहे कुछ लोग यहाँ बस,
घिर जाए यह देश तमस में।
कैसे निपटें गद्दारों से,
समझ न आए जन - मानस में।
चोर - चोर मौसेरे भाई,
देश लूट बाँटें आपस में।
सच की भागीदारी को वे,
नहीं चाहते बीच - बहस में।
●-/डॉ मनोज कुमार सिंह
15
∆गीतिका∆
°°°°°°°°°°°
लोकतंत्र की बात सड़क से संसद तक।
खोई आज बिसात सड़क से संसद तक।
लालकिले पर लगी चोट से आहत हो,
भीग रही हर रात सड़क से संसद तक।
आज सियासत का मतलब बस इतना है,
घात और प्रतिघात सड़क से संसद तक।
सत्ता कुरसी की बस धींगामुश्ती में,
शतरंजी शह - मात सड़क से संसद तक।
कौन सुनेगा सच की चुभती बातों को,
किसकी है औकात सड़क से संसद तक।
देशभक्ति की बातें अब गाली खातीं,
ये कैसी जज़्बात सड़क से संसद तक।
/-डॉ मनोज कुमार सिंह
16
ग़ज़ल
मन का तेवर लहूलुहान क्यों है?
दबी-दबी-सी ये जुबान क्यों है?
गाड़ी बंगला है सुख के साधन सब,
फिर भी ये आदमी परेशान क्यों है?
आदमी आदमी-सा क्यों नहीं अब,
मन से ये भेड़िया ,हैवान क्यों है?
तुम तो दुश्मन थे कुरसियों के सदा,
फिर ये उनके लिए सम्मान क्यों है?
खाली आया था,खाली जाएगा,
मन में फिर शख्स के गुमान क्यों है?
डॉ मनोज कुमार सिंह
17
वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक और ग़ज़ल हाज़िर है।आपकी टिप्पणी ऊर्जा देती है।सादर,
मैं शायद इसलिए,अच्छा नहीं हूँ।
उनके बाजार का,हिस्सा नही हूँ।
उतर पाता नही जल्दी हलक में,
स्वाद हूँ नीम का,पिज्जा नही हूँ।
करूँ उनकी प्रशंसा रात दिन क्यूँ,
किसी पिंजड़े का मैं,सुग्गा नहीं हूँ।
मैं बजता खुद दिलों में मौन रहकर,
मैं धड़कन हूँ कोई ,डिब्बा नही हूँ।
ख्वाब से दूर हों,जब फूल,तितली,
समझ लेना कि अब,बच्चा नहीं हूँ।
सच जब एक है,तो दो कहूँ क्यों,
विखंडित मैं कोई,शीशा नहीं हूँ।
डॉ मनोज कुमार सिंह
18
ग़ज़ल
घड़ियाली मैं अश्रु बहाऊँ, नेता हूँ क्या?
झूठे निशिदिन ख्वाब दिखाऊँ, नेता हूँ क्या?
सच बोलूँ तो धस जाती झूठों के दिल में,
अमृत कहकर जहर पिलाऊँ, नेता हूँ क्या?
मेरी क्या औकात, तुझे खुश रख पाऊँ मैं,
ठकुरसुहाती बात सुनाऊँ, नेता हूँ क्या?
हड्डी के टुकड़ों की खातिर पूँछ हिलाकर,
जातिवाद का ध्वज फहराऊँ, नेता हूँ क्या?
क़ातिल को क़ातिल कहना कबिरा की भाषा,
कवि होकर मैं चुप हो जाऊँ, नेता हूँ क्या?
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
19
ग़ज़ल
जवान दिखने की ललक उनकी।
मुझे लगती है बस सनक उनकी।
तप्त हो स्वर्ण तो बनता कुंदन,
ठंड में भी रही दमक उनकी।
चल पड़े पाँव उनके घर की तरफ,
आ गई याद एक- ब- एक उनकी।
पास रहकर भी हम अनजान रहे,
दिल में तसवीर थी बेशक उनकी।
बात करते हैं क्या इशारों में,
समझ न पाया आजतक उनकी।
डॉ मनोज कुमार सिंह
20
ग़ज़ल
ज्ञान-रश्मि का खुला द्वार हो।
जिज्ञासा में नवाचार हो।
आत्म संबलित उज्ज्वल मन में,
शिक्षा के संग संस्कार हो।
घृणा-तमस को दूर करे जो,
ऐसा दिल में धवल प्यार हो।
लक्ष्य मिलेगा निश्चित जानो,
हर कोशिश यदि ईमानदार हो।
खता करो यदि प्रेम खता हो,
जीवन में ये बार -बार हो।।
डॉ मनोज कुमार सिंह
21
गीतिका
माला के संग भाला रख।
विष - अमृत का प्याला रख।
दुश्मन का भी दिल काँपे,
संकल्पों की ज्वाला रख।
अँधियारे छँट जाएँगे,
मन में सदा उजाला रख।
श्वान भौंकने की सोचे,
नित नकेल तू डाला रख।
कबिरा - सा बन डिक्टेटर,
दिल का नाम निराला रख।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
22
गीतिका
कविता को आखर देता हूँ।
पीड़ा को नित स्वर देता हूँ।
दुःख आते - जाते रहते हैं,
दिल में उनको घर देता हूँ।
घोर निराशा के पंछी को,
आशाओं का पर देता हूँ।
खड़ी चुनौती सम्मुख हो तो,
बेहतरीन उत्तर देता हूँ।
वक्त बुरा हूँ फिर भी दिल से,
सबको शुभ अवसर देता हूँ।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
23
गीतिका
कैसे जाओगे तुम किनारे तक,
साथ देते नहीं सहारे तक।
डूबना सीख लो गहराइयों में,
भरोसा मत करो शिकारे तक।
मन के अंधे की अंधता ऐसी,
दृष्टि जाती नहीं नज़ारे तक।
खुरदरा सच है यही जिंदगी का,
आदमी पास है गुजारे तक।
वक्त की मार से निढाल होकर,
जमीं पे आ गिरे सितारे तक।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
24
ग़ज़ल
रधिया के घर पाँव धरेंगे नेता जी।
भारी उसके पाँव करेंगे नेता जी।
रघुआ को प्रधान बनाकर जाएँगे,
कर्जे उसके स्वयं भरेंगे नेता जी।
आश्वासन की घास उगाकर बस्ती में,
जन सपनों को नित्य चरेंगे नेता जी।
गड्ढे खोदेंगे खेतों खलिहानों में,
मिट्टी फिर-फिर वही भरेंगे नेता जी।
शिलालेख बन गड़ जाएँगे बस्ती में,
रक्त बीज हैं नहीं मरेंगे नेता जी।।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
25
∆गीतिका∆
°°°°°°°°°°°
लोकतंत्र की बात सड़क से संसद तक।
खोई आज बिसात सड़क से संसद तक।
लालकिले पर लगी चोट से आहत हो,
भीग रही हर रात सड़क से संसद तक।
आज सियासत का मतलब बस इतना है,
घात और प्रतिघात सड़क से संसद तक।
सत्ता कुरसी की बस धींगामुश्ती में,
शतरंजी शह - मात सड़क से संसद तक।
कौन सुनेगा सच की चुभती बातों को,
किसकी है औकात सड़क से संसद तक।
देशभक्ति की बातें अब गाली खातीं,
ये कैसी जज़्बात सड़क से संसद तक।
/-डॉ मनोज कुमार सिंह
26
गीतिका
पास रह कर भी दूरी चाहता है।
वो केवल जी हुजूरी चाहता है।
अहं की तुष्टि में दरबार अपने,
मेरा झुकना जरूरी चाहता है।
एक मजदूर की गलती है इतनी,
वो मालिक से मजूरी चाहता है।
जिसने लूटा है अपना देश अबतक,
फिर से सत्ता वो पूरी चाहता है।
किसी के मुँह का छीन कर निवाला,
खुद के हिस्से अंगूरी चाहता है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
27
गीतिका
जैसे को तैसा तेवर मिल जाएगा।
तेरे प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा।।
संगत में रहकर देखो,परखो कुछ दिन,
शेर,स्यार का हर अंतर मिल जाएगा।
कोशिश कर के देख,न खुद को कम आँको,
चाहत से ज्यादा बेहतर मिल जाएगा।
मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारों में मत ढूढ़ो,
साँसों के भीतर ईश्वर मिल जाएगा।
खुद पे आए हर पत्थर को जोड़ो तो,
निश्चित ही तुमको इक घर मिल जाएगा।
डॉ मनोज कुमार सिंह
28
ग़ज़ल
प्रेम - ज्योति जाने क्यूँ कम है;
मन का सूरज भी मद्धम है।
स्वार्थ - कुहासे जबसे छाए,
भाई से भाई बरहम है।
वादों की बरसात देखकर,
लगा चुनावों का मौसम है।
अपने दुख से नहीं दुखी वे
दूसरों की खुशियों से गम है।
ख़ुशी बताकर बाँट रहे वे
झोली में जिनके मातम है।
उनकी फितरत में जख्मों पर,
नमक छिड़कना ही मरहम है।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
शब्दार्थ-(बरहम- नाराज)
29
ग़ज़ल
तेज हो पर संयमित रफ़्तार रखनी चाहिए;
जिंदगी की, हाथ में पतवार रखनी चाहिए।
राह की कठिनाइयों की झाड़ियों को काट दे,
मन में इक संकल्प की तलवार रखनी चाहिए।
लाख हो मतभेद लेकिन इतनी गुंजाइश रहे,
दो दिलों के दरमियाँ गुफ़्तार रखनी चाहिए।
चाहते हो सुख तो फिर झुकते हुए दिल से सदा,
बुजुर्गों के पाँव में दस्तार रखनी चाहिए।
देखना विकृतियाँ मिट जाएँगी यूँ खुद - बखुद,
दिल में माँ के अक्स का शहकार रखनी चाहिए।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
शब्दार्थ :
शहकार =सर्वोत्कृष्ट कृति
गुफ़्तार=बातचीत
दस्तार=पगड़ी
30
ग़ज़ल
----------
ये मत पूछो कब बदलेगा।
खुद को बदलो सब बदलेगा।
कोशिश कर के देख जरा तू,
किस्मत तेरी रब बदलेगा।
नया करोगे दुख कुछ होगा,
लेकिन जग का ढब बदलेगा।
दुनिया में बदलाव दिखेगा,
इंसां खुद को जब बदलेगा।
छू पाएगा शिखर, वक्त पर,
समुचित जो करतब बदलेगा।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
31
ग़ज़ल
---------
मक्कारी जिनकी नस - नस में।
मजा ले रहे निंदा रस में।।
अपराधों पर चोट से उनके
दर्द उठे गहरे अन्तस् में।
चाह रहे कुछ लोग यहाँ बस,
घिर जाए यह देश तमस में।
कैसे निपटें गद्दारों से,
समझ न आए जन - मानस में।
चोर - चोर मौसेरे भाई,
देश लूट बाँटें आपस में।
सच की भागीदारी को वे,
नहीं चाहते बीच - बहस में।
●-/डॉ मनोज कुमार सिंह
32
∆ ग़ज़ल ∆
हर दर्द के एहसास को मिसरों में लिखकर।
जिंदा उसे फिर कीजिए, ग़ज़लों में लिखकर।
हो आग अगर दिल में, उसको बचा के रख,
फिर कर उसे नुमायां शेरों में लिखकर।
लिख आइनों - सा काफिया, रदीफ़ के अंदाज,
सच का दिखाए चेहरा मतलों में लिखकर।
सुख - दुख के तार छेड़कर स्वर साधना करो,
फिर गुनगुनाओ जिंदगी बहरों में लिखकर।
सच खुरदरा है सूरज ढलता है शाम को,
कह जिंदगी की बातें मक़तों में लिखकर।
● डॉ मनोज कुमार सिंह
(अर्थ संकेत-मिसरों-पंक्तियों, नुमायाँ-ज़ाहिर
मतलों-(मतला)ग़ज़ल का पहला शे'र
मक़तों-(मक़ता )ग़ज़ल का अंतिम शे'र
बहरों-(बहर) शेर का वज़्न(भार),छंद)
33
गीतिका
किसी का जीना मत मुहाल कर।
भले जितना भी तू कमाल कर।
बता कुछ हल भी तो कठिनाइयों का,
फिर चाहे जितना सवाल कर।
मिला है लक्ष्य उनको निश्चित ही,
चले जीवन को जो सँभाल कर।
अँधेरा भाग जाएगा यकीनन,
निकल बाहर खुद को मशाल कर।
बदल जाएगी दुनिया जिंदगी की,
देख लो दिल में मुहब्बत ढाल कर।
डॉ मनोज कुमार सिंह
34
गीतिका
राजकाज सदियों से ऐसे चलता है।
जैसे सूरज उगता है फिर ढलता है।।
जिसको मिल जाती है सत्ता खुश होता,
खोने वाला हाथों को बस मलता है।
जिसमें होती संघर्षों की आग छिपी,
अँधियारे में भी दीपक बन जलता है।
खुली आँख के सपने ही साकार हुए,
बन्द नयन का सपना केवल छलता है।
कर देता है दूर तनावों को क्षण में,
काव्य-वृक्ष का फल जब दिल में फलता है।
तुम 'मनोज' क्यों परेशान हो जीवन में,
दिल में तेरे त्याग सदा जब पलता है।
●डॉ मनोज कुमार सिंह
35
ग़ज़ल
प्रेम हूँ , अनुरक्ति हूँ मैं।
एक सहज अभिव्यक्ति हूँ मैं।
जड़ जगत की हर शिरा में,
चेतना की शक्ति हूँ मैं।
हार में भी जीत देखूँ
अति साधारण व्यक्ति हूँ मैं।
मनुज मन में साधनारत,
त्याग, तप की भक्ति हूँ मैं।
प्राण! आ जाओ तू वापस,
बन्धनों में मुक्ति हूँ मैं।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
Tuesday, November 29, 2022
अनिरुद्ध सिंह बकलोल के रचना संसार
अनिरुद्ध सिंह बकलोल के रचना संसार
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वन्दे मातरम्!मित्रो!आज मेरे बाबूजी का जन्मदिन है।आज उनको नित्य की भाँति मेरा हार्दिक नमन। बाबूजी!आप शरीर से न सही पर आत्मवत मेरे हृदय में विराजते हैं। दुनिया को कैसे बताऊँ कि आप यहीं रहते हैं मेरे साथ।
मित्रो!आपको पता है कि मेरे बाबूजी भोजपुरी और हिन्दी के एक बहुत संवेदनशील रचनाकार थे।तो आइये आप भी पढ़िए उनके कुछ भोजपुरी गीत और उनकी संवेदना को समझिये।
डॉ मनोज कुमार सिंह
..................................................
०००गीत०००
(1)
रचना-अनिरुद्ध सिंह'बकलोल'
.................................................
हमरा मन के पागल पंछी,कहाँ कहाँ भटकेला।
1
बिना दाम गुलाम बना ल ,एक मीठ बोली पर।
अतना दिल के साफ़ कि चाहें बईठा द गोली पर।
चाहsत ऊपर रखवा द,चिटुकी भर मैदा के।
बंदी कर ल मन पंछी के,प्रेम जाल बिछवा के।
भोला पंछी दाव-पेंच के,तनिको ना समझेला।
हमरा मन के पागल पंछी.........
2
अबहीं बैठि सुनत बा कतहीं,मधुमासी के तान।
तब तक केहू मधुर कंठ से,गा देला कुछ गान।
बड़ा रसिक मन के पंछी ई,तुरत उहाँ दउरेला।
बात बात में खिलखिल जाला,बात बात मउरेला।
एह डाली से ओह डाली पर,डाल डाल लटकेला।
हमरा मन के पागल पंछी...........
3
चाहें तू अखियाँ से हँसि लs,या अँखियन से रोलs।
बिना हिलवले जीभ भले ही,अँखियन से ही बोलs।
अलगे हीं होला दुनिया में,अँखियन के इक भाषा।
बिना बतवले पढ़ि लेला मन,अँखियन के परिभाषा।
पढ़ लेला पर तुरत उहाँ से,पाँखि झाड़ झटकेला।
हमरा मन के पागल पंछी..........
4
बेदरदी दुनिया में भटकत ,ठहर ना पाइल पाँव।
ललकेला मन कि सुस्ताईँ,लउकल तरु के छाँव।
ई ना समझेला कि दुनिया,खोजे एक बहाना।
बईठल डाली पर पंछी के,बनि जाला अफसाना।
कतना भोला मन के पंछी,ना परवाह करेला।।
हमरा मन के पागल पंछी.......
5
कभी कभी उड़ते उड़ि जाला,आसमान से उपर।
फिर तुरते मनवा चाहेला,आ जईतीं धरती पर।
ना जानेला चिकनी चुपड़ी,एतने बात खराब।
का होई अंजाम ना बुझे,देला साफ़ जवाब।
एही से ई ढुलमुल पंछी,मन मन में खटकेला।
हमरा मन के पागल पंछी........
6
दूध पियब तरकूल के नीचे,लोग कही की ताड़ी।
अहंकार,मद में मातल जग,साधू बनल अनाड़ी।
जे गर्दन तक फँसल पांक में,उ का बोली बोली?
मारीं चांटी घर घर के हम,कच्चा चिट्ठा खोलीं।
थाकेला पंछी डमखू पर,थोरिका सा अड़केला।
हमरा मन के पागल पंछी.........
7
कभी कभी उड़ते उड़ि जाला,अइसन एक गली से।
गमक उठेला मन के आँगन,जहवाँ एक कली से।
केहू केवल एक बोल हीं,बोल दीत मुस्का के।
हो जाईत मदहोश बटोही,एक झलक हीं पाके।
एक झलक के खातिर पंछी,कतना सर पटकेला।
हमरा मन के पागल पंछी............
8
सागर से भी गहरा बाटे,आसमान से नील।
अमिय हलाहल मद में मातल,उ अँखियन के झील।
जवना में हरदम लहरेला,मदिरा अइसन सागर।
लेकिन अबहीं ले खाली बा,हमरा मन के गागर।
एक बूंद खातिर पंछी के,कतना मन तरसेला।
हमरा मन के पागल पंछी..........
9
तू का जनबs कईसन होला,मन के पीर पराई?
उहे समझेला पीड़ा के,जेकरा पैर बेवाई।
प्रेम-पाश में बाँध गाछ के,उपर पहुँचल लत्तर।
दू दिल मिलला पर का होला,तू का जनब पत्थर।
तू का जनब मन में कईसन,विरहानल धधकेला।
हमरा मन के पागल पंछी.........
10
पास बसेला बैरी लेकिन,लागे कोस हजार।
प्रियतम मन के अन्दर होला,चाहें बसे पहाड़।
सिन्धु बीच प्यासल बा पंछी,लहर रहल बा सागर।
प्यास मिटावल मुश्किल,तानल लोक लाज के चादर।
आह उठेला सर्द दर्द,जब झंझा बन झनकेला।
हमरा मन के पागल पंछी,कहाँ कहाँ भटकेला।।
गीत-2
मन मलिन पट अस्त व्यस्त,आ पकड़ि भयावन डहर।
भोरे-भोरे चलल जात बाड़ी एगो रुसनहर।
अतना बाटे ठंढ,छुवत में पानी भी ठरवता।
पछुआ बहत बयार कि जइसे जाड़ो के जड़वता।
कठिन माघ के जाड़,हाड़ में बर्छी अस छेदता।
ऊनी, शाल,दोशाल, रजाई,तोसक के भेदता।
टिपतिपात बा मेह,राह में डेग डेग बिछलहर।
भोरे-भोरे .....
बचपन से अरमान सजल,ना मन के मीत मिलल होई।
मिलल ना होई नेह नीर,ना मन के कली खिलल होई।
प्रिय से ना मनुहार,मगर दुत्कार भेंटाइल होई।
रूढ़ियन से जकड़ल, पिछड़ल, परिवार भेंटाइल होई।निकल पड़ल होई अऊंजा के, भोर भोर के पहर।
भोरे -भोरे.....
अबगे अबगे आईल होइहें,साजन ससुरारी से।
अंगना में बतियावत होइहें, अपना महतारी से।
बड़ा ललक के पूछले होई, नइहर के कुशलात।
कहि देले होई निर्मोही ,लागे वाली बात।
लागल होई ठेस हिया में, उठल होई लहर।
भोरे- भोरे....
आँगन के नल पर कुछ,कपड़ा फिंचे आइल होई।
सिर पर से आँचर गिर के कुछ, नीचे आइल होई।
तबे कर्कशा सास खूब,झपिला के डंटले होइहन।
जेठानी भी लाज शरम पर, भाषन छंटले होइहन।
छोटकी ननदी बात बात पर,घोरत होई जहर।
भोरे -भोरे..
देखले होइहन बेटी खातिर, पिता सुघर घर बार।
दुलहा भी अइसन कि जइसे, सुन्नर राजकुमार।
सोचले होइहन कि रहि जाई, अब हमार मर्यादा।
पर दहेज के दानव, हर ले ले होई शहजादा।
कवनो जगह अछूता नईखे,का देहात का शहर।
भोरे- भोरे.....
बाबूजी के नैन के पुतरी, माँ के राजदुलारी।
भईया के मनभावन गुड़िया,फूल नियर सुकुमारी।
लाड़ प्यार में पलल,चाल में गौरव गरिमा वाली।
कउवा के संग ,बान्हि दिहल होई सुकवार मराली।
खार समुंदर में जी कइसे,मानस सर रहनहर।
भोरे- भोरे....
आपन मान छोड़ि के मानिनी,सब दुख दर्द भुला के।
मिलन सेज पर थाकल होई,प्रिय के मना मना के।
जाहिल का समझी कि का ह, प्रेम,प्रीति,अपनापन।
सूति गईल होई बेदरदी, मूंह फेरि के आपन।
कांट बिछौना कबले डाँसी,फूल सेज सुतनहर।।
भोरे- भोरे....
या अनयासो सास ननद से, झगरा लागल होई।
जेठानी से आभी गाभी, रगड़ा लागल होई।
भरले होइहें कान पुत्र के, निमक मिरीच मिलाई।
घर वाला तब कइले होई,कस के खूब पिटाई।
शायद इहे बतिया बनिके, बरिसल होई कहर।
भोरे -भोरे.....
3-
"मँहगी आ गरीबी"
(पति पत्नी के संवाद)
पति
खाली भइल रस के गगरी,
सगरी सुख चैन कहाँ ले पराइल।
मँहगी के चलल कुछ गर्म हवा,
रस सींचल स्वर्ण लता मुरझाइल।
केरा के पात सा गात तोहार,
अरु लाल कपोलन के अरुनाई।
नैनन के पुतरी उतरी छवि,
याद परे पहिली सुघराई।।
पत्नी
सब हास विलास के नाश भइल,
हियरा के हुलास हरल मँहगाई।
जवानी में ही बुढ़वा भइलs,
कि अभावे में बीति गइल तरुनाई।
धोतिया धरती ले छुआत चले,
केशिया लहरे सिर पै घुंघराले।
कतना गबरू रहलs पियवा,
जब याद परे त करेज में साले।।
पति
आगि लगे मँहगी के तोरा,
सब शान गुमान पराइल हेठा।
धनिया मोरी सुखि के सोंठ भइल,
लरिका दुबराई के भइल रहेठा।
चोली पेवन्द पुरान भइल,
सुनरी चुनरी तोर झांझर भइले।
टुटि गइल करिहाई अरे हरजाई,
तोरा मँहगाई के अइले।
माघ के जाड़ पहाड़ भइल,
कउड़ा कपड़ा बनि के तन ढापे।
फाटि गइल कथरी सगरी,
पछुआ सिसिआत करेज ले काँपे।
धान गेहूँ कर बात कवन,
सपनो नहि आवे चना मसूरी के,
गरीबी गरे के कवाछ भइल,
अब का हम कहीं मँहगी ससुरी के।
पत्नी
सुखल छाती के माँस छोरा,
छरिया छारियाकर नाहि चबईतें।
घीव घचोरे के ना कहिते,
महतारी के माँस बकोटी ना खईतें।
जो जुरिते मकई थोरिका,
लरिका सतुआ सरपोटि अघइतें।
जो न जवान रहीत धियवा,
मँहगी जियवा के कचोटि ना जइते।
पति
एक करे मनवा हमरा,
भउरी भरवा भर पेट जे खइतीं।
रनिया के मोरा छछने जियरा,
कतहीं से ले आ पियरी पहिरइतीं।
दिन बड़ा मनहूस होला,
लरिका के पड़ोसिन ले झरियावे।
कंहवा से इ आई गइल ढीढ़रा,
इ त खाते में आवेला,दीठ गड़ावे।
रोज कहे छउंड़ी छोटकी,
हमरा हरियर ओढ़नी एगो चाहीं।
बाबूजी तू केतना बिसभोरी,
कहेल त रोज ले आवेल नाहीं।
दीन बना के हे दीन सखा!
कतना जग में उपहास करवलs।
एकहू सरधा जे पूरा न सकीं,
तब काहे के बेटी के बाप बनवलs।।
4-
राउर याद भुलाएब कईसे
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
जब घिरी आई रात अन्हरिया ,
दादुर शोर मचावे लगिहें |
जब चकोर चंदा के खातिर ,
नैनन जल बरसावे लगिहें |
मन के मीत मिली ना कतहीं ,
दिल के आग बुझाएब कईसे |
राउर याद भुलाएब कईसे |
जग निस्तब्ध नींन से मातल ,
जब ई सब दुनिया सो जाला |
सुघर चांदनी के सागर में ,
राउर रूप छटा लहराला |
तैराब मृगतृष्णा के जल में ,
रूप छटा बिसराएब कईसे |
राउर याद भुलाएब कईसे |
ओहदिन रउवां जाए के बेरा ,
पथ में आँखि बिछवले रहनी |
नैनन के कोना में बरबस ,
अँसुवन धार दबवले रहनी |
देखीं आज कवने रस्ता से ,
आँखि बचा के जाएब कईसे |
राउर याद भुलाएब कईसे |
बिना दाम गुलाम बनवलस,
राउर सूरत भोली-भाली |
अब त हाय बिसरते नईखे ,
उ अँखियाँ कजरा वाली |
रउवां बिना इहाँ केकरा से ,
कविता अपन सुनाएब कईसे |
राउर याद भुलाएब कईसे |
गरिमा भरल चाल ,बाल के ,
निचे तकले बिखरावल|
राह चलत पल-पल में राउर ,
आँचर पांजर में लहरावल |
रहि-रहि याद परी त बोलीं ,
मनवा के समझाएब कईसे |
राउर याद भुलाएब कईसे |
चितवेनी रउवाँ अंखियन में ,
मदिरा के सागर लहराला |
नयनन -कमल मुदा गईला पर ,
मन के मधुप बंद हो जाला |
बिना निकर दिनकर के पवले,
बोलीं बाहर आएब कईसे |
राउर याद भुलाएब कईसे |
बिलबिलाय फाटल बिम्बाफल,
युगल अधर के अरूनाई पर |
भागल हंस सरोवर धइलस ,
मस्त चाल के सुघराई पर |
खंजन कहे छान्ह पर बइठल ,
आँखि से आँखि मिलाएब कईसे |
राउर याद भुलाएब कईसे |
दमकत दांत देखि भुईयां में ,
छितरा गईल अनार के दाना |
वेणी देखि पराइल नागिन ,
फानि मानि में करत बहाना|
केदली कहल ,गोल जांघन पर ,
कहीं ! कपूर चबाएब कईसे |
राउर याद भुलाएब कईसे |
पैरन में जंजीर पड़ल बा ,
बड़ा जोर बाहर पहरा बा |
चकवा -चकई के बीचे में,
अगम धार नदिया गहरा बा |
बोलीं ! अब अइसन हालत में ,
रउवां पासे आएब कईसे |
राउर याद भुलाएब कईसे |
मन के मीत बड़ा निरमोही,
बड़ा क्रूर बगिया के माली |
चोंच पांखि सबहीं जरि गईले,
लगल आग विरहा के आली |
दूनू पंख कटा गईला पर ,
दूर भागि के जाएब कईसे |
राउर याद भुलाएब कईसे |
चारो ओर अँजोरिया विहँसे ,
दीप-जोत बरखा बरसत बा |
तनिको कहीं अन्हरिया नईखे ,
किरन कोर बिन मन तरसत बा |
विकल प्राण रहि-रहि कसकेला,
ताम के दूर भगाएब कईसे |
राउर याद भुलाएब कईसे |
रउवां दिहनी फूल अभागा ,
कर खोलनी त कांट भेटाइल|
झमकि,झमकि के बदरी बरिसल,
धरती के तन ,प्राण जुड़ाइल |
प्यासे रहल प्राण के पाखी ,
तन-मन प्राण जुड़ाएब कईसे |
राउर याद भुलाएब कईसे |
5-
चान सरीखा फूल का अइसन,बाबू हामार आल्हर।
आव बहू! बबुआ के दे द तनी काजर।।
1
ममता में भींजल तहार माई गुण आगर।
मिसि के अबटि के,बिछा देली चादर।
पलना सुता के कभी,निदिया बोलावेली।
चुटकी बजाके कुछु,मीठे मीठे गावेली।
कभी मुसुकाल,कभी ओठ बिजुकावेलs।
सुतला में सुसुकी के,माई के डेरावेलs।
कबो थोड़ा ताकि लेल,क के आँख फाँफर।
आव बहू...
2
आईल होइहें सपना में,लगे तहार नानी।
हँसिके सुनावत होईहें,तहके कहानी।
मोरवन के नाच के,देखावत होइहें नाना।
या कहीं सुनात होई,परियन के गाना।
तबे नू सुतलका में,खूबे मुसुकालs।
छनहीं में चिहुकेलs,छने में डेरालs,
सपना में शायद डेरवावत होई बानर।
आव बहू.......
3
दियवा के टेम्हिया पर,आँख गड़कावेल।
'आँऊ माँऊ'कईके कभी, माई के रिझावेल।
छनहीं में हँसि देल, छने छरियालs।
रोवेल तू काहें अइसे,केकरा से डेरालs।
तनिको बुझात नइखे,ईया के बुढ़ापा।
चुप रह बाबू काल्हु,अईहें तहार पापा।
केतना मोटा गईले,बाबा तोहार पातर।
आव बहू....
4
रोवनी, छरियइनी हमरा,बाबू लगे आवेना।
केहू हमरा बबुआ के,नजर लगावेना।
सुतल बाड़ें बाबू चुप ....शान से बातावेली।
कजरा के टीका के,लिलार पर लगावेली।
साटि के करेजवा,ओढ़वले बाड़ी आँचर।
आव बहू.......
5
बाबा ग्यानी पंडित हउवन ,ईया घर घूमनी।
नाना जी पंवरिया हउवन ,नानी हउवी चटनी।
चम् चम् चान सरीखा चमके नानी जी के बिंदिया।
भरल बजारे नाचत फिरस,नाना जी के दिदिया।
नायलोन के गंजी कच्छी टेरीकाटन जामा।
सोन चिरैया ले के अइहे बबुआ तोहार मामा।
बाबा जोतस दियरा दांदर, नाना चँवरा चाचर।
आव बहू............
कवि-अनिरुद्ध सिंह'बकलोल'
ग्राम+पोस्ट-आदमपुर
थाना-रघुनाथपुर
जिला-सिवान(बिहार)
Saturday, June 4, 2022
डॉ मनोज कुमार सिंह -संक्षिप्त परिचय विकिपीडिया
संक्षिप्त परिचय-
नाम-डॉ मनोज कुमार सिंह
पिता का नाम-श्री अनिरुद्ध सिंह
जन्मतिथि -20/02/67
ग्राम +पोस्ट-आदमपुर ,थाना-रघुनाथपुर,जिला-सिवान, बिहार |
शिक्षा - एम० ए०[ हिंदी ],बी० एड०,पी-एच० डी० |
प्रकाशन - विभिन्न राष्ट्रीय -अन्तर्राष्ट्रीय पत्र -पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित |
'नवें दशक की समकालीन हिंदी कविता :युगबोध और शिल्प ' और 'छायावादी कवियों की प्रगतिशील चेतना ' विषय पर शोधग्रंथ प्रकाशनाधीन |
विद्यालय पत्रिका 'प्रज्ञा ' का संपादन |
हिंदी और भोजपुरी भाषा में निरंतर साहित्य लेखन।
विश्व हिंदी संस्थान,कनाडा द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'प्रयास' का हिंदी भाषा के लिए बहुत सारे आलेखों के साथ मेरा आलेख भी संयुक्त राष्ट्र को समर्पित।
विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा के मुख्यालय में मेरी कविता "मधुरिम भाषा है हिंदी"का डॉ सरोजनी भटनागर जी द्वारा वाचन किया गया।
सम्मान/पुरस्कार
1- नवोदय विद्यालय समिति
[मानव संसाधन विकास मंत्रालय,भारत सरकार की
स्वायत इकाई ] द्वारा लगातार चार बार गुरुश्रेष्ठ
सम्मान /पुरस्कार से सम्मानित
2-राष्ट्रीय शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान 2012
3 - स्व. प्रयाग देवी प्रेम सिंह स्मृति साहित्य सम्मान 2014
4-शैक्षणिक उपलब्धि हेतु मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा प्रशस्ति-पत्र 2014-15
5-सुदीर्घ हिंदी सेवा और सांस्कृतिक अवदान हेतु प्रशस्ति-पत्र 2015
6-शैक्षणिक उत्कृष्टता हेतु नवोदय विद्यालय समिति,
(मानव संसाधन विकास मंत्रालय,भारत सरकार)द्वारा प्रशस्ति पत्र -2018-19
7-दोहा-दर्पण राष्ट्रीय साहित्यिक समूह द्वारा उत्कृष्ट दोहा लेखन के लिए लगातार छह बार प्रशस्ति-पत्र से सम्मानित2020
8-अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक, सांस्कृतिक और कला आगमन साहित्य समूह द्वारा उत्कृष्ट लेखन के लिए लगातार आठ बार प्रशस्ति-पत्र द्वारा सम्मानित 2020
9-साहित्यिक समूह *भावों के मोती * द्वारा उत्कृष्ट लेखन के लिए तीन बार प्रशस्ति-पत्र से सम्मानित 2020
10- साहित्य वसुधा द्वारा साहित्यिक योगदान के लिए प्रशस्ति-पत्र 2020
11-रेडियो मधुबन,राजस्थान पर मेरा काव्यपाठ हुआ।
12-साहित्यिक संस्था "हिंदी काव्य कोश" द्वारा उत्कृष्ट रचनात्मक लेखन के लिए तीन बार "प्रशस्ति-पत्र 2020" से 2021 तक
13-नवोदित साहित्यकार मंच द्वारा 'साहित्य-सृजक' सम्मान 2020
14-दोहा पाठशाला राष्ट्रीय साहित्यिक मंच द्वारा 'दोहा सम्राट' सम्मान-पत्र से विभूषित 2020
15-विश्व हिन्दी रचनाकार मंच द्वारा 'अटल हिन्दी रत्न सम्मान-2020' से सम्मानित।
16-ग्वालियर साहित्यिक और सांस्कृतिक मंच द्वारा प्रशस्ति-पत्र-2020
17-काव्य कलश पत्रिका परिवार द्वारा प्रशस्ति पत्र 2020
18-लघुकथा-लोक संस्था द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर लघुकथा समारोह -25 के लिए "लघुकथा रत्न" सम्मान 2020
19-भारत माता अभिनंदन सम्मान-2022
सम्प्रति- स्नातकोत्तर शिक्षक ,[हिंदी] के पद पर कार्यरत |
संपर्क - जवाहर नवोदय विद्यालय,जंगल अगही,पीपीगंज,गोरखपुर
पिन कोड-273165
मोबाइल - 09456256597
ईमेल पता-
drmks1967@gmail.com
नाम-डॉ मनोज कुमार सिंह
पिता का नाम-श्री अनिरुद्ध सिंह
जन्मतिथि -20/02/67
ग्राम +पोस्ट-आदमपुर ,थाना-रघुनाथपुर,जिला-सिवान, बिहार |
शिक्षा - एम० ए०[ हिंदी ],बी० एड०,पी-एच० डी० |
प्रकाशन - विभिन्न राष्ट्रीय -अन्तर्राष्ट्रीय पत्र -पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित |
'नवें दशक की समकालीन हिंदी कविता :युगबोध और शिल्प ' और 'छायावादी कवियों की प्रगतिशील चेतना ' विषय पर शोधग्रंथ प्रकाशनाधीन |
विद्यालय पत्रिका 'प्रज्ञा ' का संपादन |
हिंदी और भोजपुरी भाषा में निरंतर साहित्य लेखन।
विश्व हिंदी संस्थान,कनाडा द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'प्रयास' का हिंदी भाषा के लिए बहुत सारे आलेखों के साथ मेरा आलेख भी संयुक्त राष्ट्र को समर्पित।
विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा के मुख्यालय में मेरी कविता "मधुरिम भाषा है हिंदी"का डॉ सरोजनी भटनागर जी द्वारा वाचन किया गया।
सम्मान/पुरस्कार
1- नवोदय विद्यालय समिति
[मानव संसाधन विकास मंत्रालय,भारत सरकार की
स्वायत इकाई ] द्वारा लगातार चार बार गुरुश्रेष्ठ
सम्मान /पुरस्कार से सम्मानित
2-राष्ट्रीय शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान 2012
3 - स्व. प्रयाग देवी प्रेम सिंह स्मृति साहित्य सम्मान 2014
4-शैक्षणिक उपलब्धि हेतु मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा प्रशस्ति-पत्र 2014-15
5-सुदीर्घ हिंदी सेवा और सांस्कृतिक अवदान हेतु प्रशस्ति-पत्र 2015
6-शैक्षणिक उत्कृष्टता हेतु नवोदय विद्यालय समिति,
(मानव संसाधन विकास मंत्रालय,भारत सरकार)द्वारा प्रशस्ति पत्र -2018-19
7-दोहा-दर्पण राष्ट्रीय साहित्यिक समूह द्वारा उत्कृष्ट दोहा लेखन के लिए लगातार छह बार प्रशस्ति-पत्र से सम्मानित2020
8-अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक, सांस्कृतिक और कला आगमन साहित्य समूह द्वारा उत्कृष्ट लेखन के लिए लगातार आठ बार प्रशस्ति-पत्र द्वारा सम्मानित 2020
9-साहित्यिक समूह *भावों के मोती * द्वारा उत्कृष्ट लेखन के लिए तीन बार प्रशस्ति-पत्र से सम्मानित 2020
10- साहित्य वसुधा द्वारा साहित्यिक योगदान के लिए प्रशस्ति-पत्र 2020
11-रेडियो मधुबन,राजस्थान पर मेरा काव्यपाठ हुआ।
12-साहित्यिक संस्था "हिंदी काव्य कोश" द्वारा उत्कृष्ट रचनात्मक लेखन के लिए तीन बार "प्रशस्ति-पत्र 2020" से 2021 तक
13-नवोदित साहित्यकार मंच द्वारा 'साहित्य-सृजक' सम्मान 2020
14-दोहा पाठशाला राष्ट्रीय साहित्यिक मंच द्वारा 'दोहा सम्राट' सम्मान-पत्र से विभूषित 2020
15-विश्व हिन्दी रचनाकार मंच द्वारा 'अटल हिन्दी रत्न सम्मान-2020' से सम्मानित।
16-ग्वालियर साहित्यिक और सांस्कृतिक मंच द्वारा प्रशस्ति-पत्र-2020
17-काव्य कलश पत्रिका परिवार द्वारा प्रशस्ति पत्र 2020
18-लघुकथा-लोक संस्था द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर लघुकथा समारोह -25 के लिए "लघुकथा रत्न" सम्मान 2020
19-भारत माता अभिनंदन सम्मान-2022
सम्प्रति- स्नातकोत्तर शिक्षक ,[हिंदी] के पद पर कार्यरत |
संपर्क - जवाहर नवोदय विद्यालय,जंगल अगही,पीपीगंज,गोरखपुर
पिन कोड-273165
मोबाइल - 09456256597
ईमेल पता-
drmks1967@gmail.com
Sunday, May 8, 2022
गीतिका/ग़ज़ल -डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
माला के संग भाला रख।
विष - अमृत का प्याला रख।
दुश्मन का भी दिल काँपे,
संकल्पों की ज्वाला रख।
अँधियारे छँट जाएँगे,
मन में सदा उजाला रख।
श्वान भौंकने की सोचे,
नित नकेल तू डाला रख।
कबिरा - सा बन डिक्टेटर,
दिल का नाम निराला रख।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
भर देता है दिल में डर इतना।
तेरी मुस्कान में जहर इतना।।
जितना आँसू ठहरते, पलकों पे,
कम से कम दिल में तो ठहर इतना।
आँखें बंद कर कोई विश्वास करे,
दिल की गहराई में उतर इतना।
गम के हर गाँव में खुशी भी रहे,
कम से कम पैदा कर असर इतना।
लोग जाने क्या बात करते हैं,
कौन आता किसी के घर इतना।
प्यार को मुफ्त में बदनाम मत कर,
मेरी गलियों में मत ठहर इतना।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
कविता को आखर देता हूँ।
पीड़ा को नित स्वर देता हूँ।
दुःख आते - जाते रहते हैं,
दिल में उनको घर देता हूँ।
घोर निराशा के पंछी को,
आशाओं का पर देता हूँ।
खड़ी चुनौती सम्मुख हो तो,
बेहतरीन उत्तर देता हूँ।
वक्त बुरा हूँ फिर भी दिल से,
सबको शुभ अवसर देता हूँ।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
कैसे जाओगे तुम किनारे तक,
साथ देते नहीं सहारे तक।
डूबना सीख लो गहराइयों में,
भरोसा मत करो शिकारे तक।
मन के अंधे की अंधता ऐसी,
दृष्टि जाती नहीं नज़ारे तक।
खुरदरा सच है यही जिंदगी का,
आदमी पास है गुजारे तक।
वक्त की मार से निढाल होकर,
जमीं पे आ गिरे सितारे तक।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
ग़ज़ल
रधिया के घर पाँव धरेंगे नेता जी।
भारी उसके पाँव करेंगे नेता जी।
रघुआ को प्रधान बनाकर जाएँगे,
कर्जे उसके स्वयं भरेंगे नेता जी।
आश्वासन की घास उगाकर बस्ती में,
जन सपनों को नित्य चरेंगे नेता जी।
गड्ढे खोदेंगे खेतों खलिहानों में,
मिट्टी फिर-फिर वही भरेंगे नेता जी।
शिलालेख बन गड़ जाएँगे बस्ती में,
रक्त बीज हैं नहीं मरेंगे नेता जी।।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
∆गीतिका∆
°°°°°°°°°°°
लोकतंत्र की बात सड़क से संसद तक।
खोई आज बिसात सड़क से संसद तक।
लालकिले पर लगी चोट से आहत हो,
भीग रही हर रात सड़क से संसद तक।
आज सियासत का मतलब बस इतना है,
घात और प्रतिघात सड़क से संसद तक।
सत्ता कुरसी की बस धींगामुश्ती में,
शतरंजी शह - मात सड़क से संसद तक।
कौन सुनेगा सच की चुभती बातों को,
किसकी है औकात सड़क से संसद तक।
देशभक्ति की बातें अब गाली खातीं,
ये कैसी जज़्बात सड़क से संसद तक।
/-डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
पास रह कर भी दूरी चाहता है।
वो केवल जी हुजूरी चाहता है।
अहं की तुष्टि में दरबार अपने,
मेरा झुकना जरूरी चाहता है।
एक मजदूर की गलती है इतनी,
वो मालिक से मजूरी चाहता है।
जिसने लूटा है अपना देश अबतक,
फिर से सत्ता वो पूरी चाहता है।
किसी के मुँह का छीन कर निवाला,
खुद के हिस्से अंगूरी चाहता है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
जैसे को तैसा तेवर मिल जाएगा।
तेरे प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा।।
संगत में रहकर देखो,परखो कुछ दिन,
शेर,स्यार का हर अंतर मिल जाएगा।
कोशिश कर के देख,न खुद को कम आँको,
चाहत से ज्यादा बेहतर मिल जाएगा।
मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारों में मत ढूढ़ो,
साँसों के भीतर ईश्वर मिल जाएगा।
खुद पे आए हर पत्थर को जोड़ो तो,
निश्चित ही तुमको इक घर मिल जाएगा।
डॉ मनोज कुमार सिंह
ग़ज़ल
प्रेम - ज्योति जाने क्यूँ कम है;
मन का सूरज भी मद्धम है।
स्वार्थ - कुहासे जबसे छाए,
भाई से भाई बरहम है।
वादों की बरसात देखकर,
लगा चुनावों का मौसम है।
अपने दुख से नहीं दुखी वे
दूसरों की खुशियों से गम है।
ख़ुशी बताकर बाँट रहे वे
झोली में जिनके मातम है।
उनकी फितरत में जख्मों पर,
नमक छिड़कना ही मरहम है।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
शब्दार्थ-(बरहम- नाराज)
ग़ज़ल
तेज हो पर संयमित रफ़्तार रखनी चाहिए;
जिंदगी की, हाथ में पतवार रखनी चाहिए।
राह की कठिनाइयों की झाड़ियों को काट दे,
मन में इक संकल्प की तलवार रखनी चाहिए।
लाख हो मतभेद लेकिन इतनी गुंजाइश रहे,
दो दिलों के दरमियाँ गुफ़्तार रखनी चाहिए।
चाहते हो सुख तो फिर झुकते हुए दिल से सदा,
बुजुर्गों के पाँव में दस्तार रखनी चाहिए।
देखना विकृतियाँ मिट जाएँगी यूँ खुद - बखुद,
दिल में माँ के अक्स का शहकार रखनी चाहिए।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
शब्दार्थ :
शहकार =सर्वोत्कृष्ट कृति
गुफ़्तार=बातचीत
दस्तार=पगड़ी
ग़ज़ल
----------
ये मत पूछो कब बदलेगा।
खुद को बदलो सब बदलेगा।
कोशिश कर के देख जरा तू,
किस्मत तेरी रब बदलेगा।
नया करोगे दुख कुछ होगा,
लेकिन जग का ढब बदलेगा।
दुनिया में बदलाव दिखेगा,
इंसां खुद को जब बदलेगा।
छू पाएगा शिखर, वक्त पर,
समुचित जो करतब बदलेगा।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
ग़ज़ल
---------
मक्कारी जिनकी नस - नस में।
मजा ले रहे निंदा रस में।।
अपराधों पर चोट से उनके
दर्द उठे गहरे अन्तस् में।
चाह रहे कुछ लोग यहाँ बस,
घिर जाए यह देश तमस में।
कैसे निपटें गद्दारों से,
समझ न आए जन - मानस में।
चोर - चोर मौसेरे भाई,
देश लूट बाँटें आपस में।
सच की भागीदारी को वे,
नहीं चाहते बीच - बहस में।
●-/डॉ मनोज कुमार सिंह
∆ ग़ज़ल ∆
हर दर्द के एहसास को मिसरों में लिखकर।
जिंदा उसे फिर कीजिए, ग़ज़लों में लिखकर।
हो आग अगर दिल में, उसको बचा के रख,
फिर कर उसे नुमायां शेरों में लिखकर।
लिख आइनों - सा काफिया, रदीफ़ के अंदाज,
सच का दिखाए चेहरा मतलों में लिखकर।
सुख - दुख के तार छेड़कर स्वर साधना करो,
फिर गुनगुनाओ जिंदगी बहरों में लिखकर।
सच खुरदरा है सूरज ढलता है शाम को,
कह जिंदगी की बातें मक़तों में लिखकर।
● डॉ मनोज कुमार सिंह
(अर्थ संकेत-मिसरों-पंक्तियों, नुमायाँ-ज़ाहिर
मतलों-(मतला)ग़ज़ल का पहला शे'र
मक़तों-(मक़ता )ग़ज़ल का अंतिम शे'र
बहरों-(बहर) शेर का वज़्न(भार),छंद)
गीतिका
किसी का जीना मत मुहाल कर।
भले जितना भी तू कमाल कर।
बता कुछ हल भी तो कठिनाइयों का,
फिर चाहे जितना सवाल कर।
मिला है लक्ष्य उनको निश्चित ही,
चले जीवन को जो सँभाल कर।
अँधेरा भाग जाएगा यकीनन,
निकल बाहर खुद को मशाल कर।
बदल जाएगी दुनिया जिंदगी की,
देख लो दिल में मुहब्बत ढाल कर।
डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
राजकाज सदियों से ऐसे चलता है।
जैसे सूरज उगता है फिर ढलता है।।
जिसको मिल जाती है सत्ता खुश होता,
खोने वाला हाथों को बस मलता है।
जिसमें होती संघर्षों की आग छिपी,
अँधियारे में भी दीपक बन जलता है।
खुली आँख के सपने ही साकार हुए,
बन्द नयन का सपना केवल छलता है।
कर देता है दूर तनावों को क्षण में,
काव्य-वृक्ष का फल जब दिल में फलता है।
तुम 'मनोज' क्यों परेशान हो जीवन में,
दिल में तेरे त्याग सदा जब पलता है।
●डॉ मनोज कुमार सिंह
माला के संग भाला रख।
विष - अमृत का प्याला रख।
दुश्मन का भी दिल काँपे,
संकल्पों की ज्वाला रख।
अँधियारे छँट जाएँगे,
मन में सदा उजाला रख।
श्वान भौंकने की सोचे,
नित नकेल तू डाला रख।
कबिरा - सा बन डिक्टेटर,
दिल का नाम निराला रख।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
भर देता है दिल में डर इतना।
तेरी मुस्कान में जहर इतना।।
जितना आँसू ठहरते, पलकों पे,
कम से कम दिल में तो ठहर इतना।
आँखें बंद कर कोई विश्वास करे,
दिल की गहराई में उतर इतना।
गम के हर गाँव में खुशी भी रहे,
कम से कम पैदा कर असर इतना।
लोग जाने क्या बात करते हैं,
कौन आता किसी के घर इतना।
प्यार को मुफ्त में बदनाम मत कर,
मेरी गलियों में मत ठहर इतना।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
कविता को आखर देता हूँ।
पीड़ा को नित स्वर देता हूँ।
दुःख आते - जाते रहते हैं,
दिल में उनको घर देता हूँ।
घोर निराशा के पंछी को,
आशाओं का पर देता हूँ।
खड़ी चुनौती सम्मुख हो तो,
बेहतरीन उत्तर देता हूँ।
वक्त बुरा हूँ फिर भी दिल से,
सबको शुभ अवसर देता हूँ।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
कैसे जाओगे तुम किनारे तक,
साथ देते नहीं सहारे तक।
डूबना सीख लो गहराइयों में,
भरोसा मत करो शिकारे तक।
मन के अंधे की अंधता ऐसी,
दृष्टि जाती नहीं नज़ारे तक।
खुरदरा सच है यही जिंदगी का,
आदमी पास है गुजारे तक।
वक्त की मार से निढाल होकर,
जमीं पे आ गिरे सितारे तक।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
ग़ज़ल
रधिया के घर पाँव धरेंगे नेता जी।
भारी उसके पाँव करेंगे नेता जी।
रघुआ को प्रधान बनाकर जाएँगे,
कर्जे उसके स्वयं भरेंगे नेता जी।
आश्वासन की घास उगाकर बस्ती में,
जन सपनों को नित्य चरेंगे नेता जी।
गड्ढे खोदेंगे खेतों खलिहानों में,
मिट्टी फिर-फिर वही भरेंगे नेता जी।
शिलालेख बन गड़ जाएँगे बस्ती में,
रक्त बीज हैं नहीं मरेंगे नेता जी।।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
∆गीतिका∆
°°°°°°°°°°°
लोकतंत्र की बात सड़क से संसद तक।
खोई आज बिसात सड़क से संसद तक।
लालकिले पर लगी चोट से आहत हो,
भीग रही हर रात सड़क से संसद तक।
आज सियासत का मतलब बस इतना है,
घात और प्रतिघात सड़क से संसद तक।
सत्ता कुरसी की बस धींगामुश्ती में,
शतरंजी शह - मात सड़क से संसद तक।
कौन सुनेगा सच की चुभती बातों को,
किसकी है औकात सड़क से संसद तक।
देशभक्ति की बातें अब गाली खातीं,
ये कैसी जज़्बात सड़क से संसद तक।
/-डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
पास रह कर भी दूरी चाहता है।
वो केवल जी हुजूरी चाहता है।
अहं की तुष्टि में दरबार अपने,
मेरा झुकना जरूरी चाहता है।
एक मजदूर की गलती है इतनी,
वो मालिक से मजूरी चाहता है।
जिसने लूटा है अपना देश अबतक,
फिर से सत्ता वो पूरी चाहता है।
किसी के मुँह का छीन कर निवाला,
खुद के हिस्से अंगूरी चाहता है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
जैसे को तैसा तेवर मिल जाएगा।
तेरे प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा।।
संगत में रहकर देखो,परखो कुछ दिन,
शेर,स्यार का हर अंतर मिल जाएगा।
कोशिश कर के देख,न खुद को कम आँको,
चाहत से ज्यादा बेहतर मिल जाएगा।
मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारों में मत ढूढ़ो,
साँसों के भीतर ईश्वर मिल जाएगा।
खुद पे आए हर पत्थर को जोड़ो तो,
निश्चित ही तुमको इक घर मिल जाएगा।
डॉ मनोज कुमार सिंह
ग़ज़ल
प्रेम - ज्योति जाने क्यूँ कम है;
मन का सूरज भी मद्धम है।
स्वार्थ - कुहासे जबसे छाए,
भाई से भाई बरहम है।
वादों की बरसात देखकर,
लगा चुनावों का मौसम है।
अपने दुख से नहीं दुखी वे
दूसरों की खुशियों से गम है।
ख़ुशी बताकर बाँट रहे वे
झोली में जिनके मातम है।
उनकी फितरत में जख्मों पर,
नमक छिड़कना ही मरहम है।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
शब्दार्थ-(बरहम- नाराज)
ग़ज़ल
तेज हो पर संयमित रफ़्तार रखनी चाहिए;
जिंदगी की, हाथ में पतवार रखनी चाहिए।
राह की कठिनाइयों की झाड़ियों को काट दे,
मन में इक संकल्प की तलवार रखनी चाहिए।
लाख हो मतभेद लेकिन इतनी गुंजाइश रहे,
दो दिलों के दरमियाँ गुफ़्तार रखनी चाहिए।
चाहते हो सुख तो फिर झुकते हुए दिल से सदा,
बुजुर्गों के पाँव में दस्तार रखनी चाहिए।
देखना विकृतियाँ मिट जाएँगी यूँ खुद - बखुद,
दिल में माँ के अक्स का शहकार रखनी चाहिए।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
शब्दार्थ :
शहकार =सर्वोत्कृष्ट कृति
गुफ़्तार=बातचीत
दस्तार=पगड़ी
ग़ज़ल
----------
ये मत पूछो कब बदलेगा।
खुद को बदलो सब बदलेगा।
कोशिश कर के देख जरा तू,
किस्मत तेरी रब बदलेगा।
नया करोगे दुख कुछ होगा,
लेकिन जग का ढब बदलेगा।
दुनिया में बदलाव दिखेगा,
इंसां खुद को जब बदलेगा।
छू पाएगा शिखर, वक्त पर,
समुचित जो करतब बदलेगा।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
ग़ज़ल
---------
मक्कारी जिनकी नस - नस में।
मजा ले रहे निंदा रस में।।
अपराधों पर चोट से उनके
दर्द उठे गहरे अन्तस् में।
चाह रहे कुछ लोग यहाँ बस,
घिर जाए यह देश तमस में।
कैसे निपटें गद्दारों से,
समझ न आए जन - मानस में।
चोर - चोर मौसेरे भाई,
देश लूट बाँटें आपस में।
सच की भागीदारी को वे,
नहीं चाहते बीच - बहस में।
●-/डॉ मनोज कुमार सिंह
∆ ग़ज़ल ∆
हर दर्द के एहसास को मिसरों में लिखकर।
जिंदा उसे फिर कीजिए, ग़ज़लों में लिखकर।
हो आग अगर दिल में, उसको बचा के रख,
फिर कर उसे नुमायां शेरों में लिखकर।
लिख आइनों - सा काफिया, रदीफ़ के अंदाज,
सच का दिखाए चेहरा मतलों में लिखकर।
सुख - दुख के तार छेड़कर स्वर साधना करो,
फिर गुनगुनाओ जिंदगी बहरों में लिखकर।
सच खुरदरा है सूरज ढलता है शाम को,
कह जिंदगी की बातें मक़तों में लिखकर।
● डॉ मनोज कुमार सिंह
(अर्थ संकेत-मिसरों-पंक्तियों, नुमायाँ-ज़ाहिर
मतलों-(मतला)ग़ज़ल का पहला शे'र
मक़तों-(मक़ता )ग़ज़ल का अंतिम शे'र
बहरों-(बहर) शेर का वज़्न(भार),छंद)
गीतिका
किसी का जीना मत मुहाल कर।
भले जितना भी तू कमाल कर।
बता कुछ हल भी तो कठिनाइयों का,
फिर चाहे जितना सवाल कर।
मिला है लक्ष्य उनको निश्चित ही,
चले जीवन को जो सँभाल कर।
अँधेरा भाग जाएगा यकीनन,
निकल बाहर खुद को मशाल कर।
बदल जाएगी दुनिया जिंदगी की,
देख लो दिल में मुहब्बत ढाल कर।
डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
राजकाज सदियों से ऐसे चलता है।
जैसे सूरज उगता है फिर ढलता है।।
जिसको मिल जाती है सत्ता खुश होता,
खोने वाला हाथों को बस मलता है।
जिसमें होती संघर्षों की आग छिपी,
अँधियारे में भी दीपक बन जलता है।
खुली आँख के सपने ही साकार हुए,
बन्द नयन का सपना केवल छलता है।
कर देता है दूर तनावों को क्षण में,
काव्य-वृक्ष का फल जब दिल में फलता है।
तुम 'मनोज' क्यों परेशान हो जीवन में,
दिल में तेरे त्याग सदा जब पलता है।
●डॉ मनोज कुमार सिंह
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