Wednesday, November 22, 2017

ग़ज़ल

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक और ग़ज़ल हाज़िर है।आपकी टिप्पणी ऊर्जा देती है।सादर,

मैं शायद इसलिए,अच्छा नहीं हूँ।
उनके बाजार का,हिस्सा नही हूँ।

उतर पाता नही जल्दी हलक में,
स्वाद हूँ नीम का,पिज्जा नही हूँ।

करूँ उनकी प्रशंसा रात दिन क्यूँ,
किसी पिंजड़े का मैं,सुग्गा नहीं हूँ।

मैं बजता खुद दिलों में मौन रहकर,
मैं धड़कन हूँ कोई ,डिब्बा नही हूँ।

ख्वाब से दूर हों,जब फूल,तितली,
समझ लेना कि अब,बच्चा नहीं हूँ।

सच जब एक है,तो दो कहूँ क्यों,
विखंडित मैं कोई,शीशा नहीं हूँ।

डॉ मनोज कुमार सिंह

ग़ज़ल

वन्दे मातरम्!मित्रो!आज एक और ग़ज़ल हाज़िर है।आपकी टिप्पणी ऊर्जा देती है।सादर,

मैं शायद इसलिए,अच्छा नहीं हूँ।
उनके बाजार का,हिस्सा नही हूँ।

उतर पाता नही जल्दी हलक में,
स्वाद हूँ नीम का,पिज्जा नही हूँ।

करूँ उनकी प्रशंसा रात दिन क्यूँ,
किसी पिंजड़े का मैं,सुग्गा नहीं हूँ।

मैं बजता खुद दिलों में मौन रहकर,
मैं धड़कन हूँ कोई ,डिब्बा नही हूँ।

ख्वाब से दूर हों,जब फूल,तितली,
समझ लेना कि अब,बच्चा नहीं हूँ।

सच जब एक है,तो दो कहूँ क्यों,
विखंडित मैं कोई,शीशा नहीं हूँ।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्दे मातरम्! मित्रो!एक गज़ल हाज़िर है।

दोस्ती जब भी गर,दिमाग से करिए।
तो आदमी से नहीं,नाग से करिए।

दिल से कीजिये जब,किसी का स्वागत,
तो मुहब्बत की बेर,साग से करिए।

स्वार्थ में फाड़िये मत,रिश्तों की चादर,
नफरत नफरतों की,दाग से करिए।

बर्फ पिघलेगी निश्चित,शर्त लेकिन,
कभी तो भेंट दिल की,आग से करिए।

रूप,गुण,रंग ख़ुदा का तोहफा,
हंस की तुलना मत काग से करिए।

डॉ मनोज कुमार सिंह

गज़ल

वन्दे मातरम्! मित्रो!एक गज़ल हाज़िर है।

दोस्ती जब भी गर,दिमाग से करिए।
तो आदमी से नहीं,नाग से करिए।

दिल से कीजिये जब,किसी का स्वागत,
तो मुहब्बत की बेर,साग से करिए।

स्वार्थ में फाड़िये मत,रिश्तों की चादर,
नफरत नफरतों की,दाग से करिए।

बर्फ पिघलेगी निश्चित,शर्त लेकिन,
कभी तो भेंट दिल की,आग से करिए।

रूप,गुण,रंग ख़ुदा का तोहफा,
हंस की तुलना मत काग से करिए।

डॉ मनोज कुमार सिंह