गीतिका
माला के संग भाला रख।
विष - अमृत का प्याला रख।
दुश्मन का भी दिल काँपे,
संकल्पों की ज्वाला रख।
अँधियारे छँट जाएँगे,
मन में सदा उजाला रख।
श्वान भौंकने की सोचे,
नित नकेल तू डाला रख।
कबिरा - सा बन डिक्टेटर,
दिल का नाम निराला रख।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
भर देता है दिल में डर इतना।
तेरी मुस्कान में जहर इतना।।
जितना आँसू ठहरते, पलकों पे,
कम से कम दिल में तो ठहर इतना।
आँखें बंद कर कोई विश्वास करे,
दिल की गहराई में उतर इतना।
गम के हर गाँव में खुशी भी रहे,
कम से कम पैदा कर असर इतना।
लोग जाने क्या बात करते हैं,
कौन आता किसी के घर इतना।
प्यार को मुफ्त में बदनाम मत कर,
मेरी गलियों में मत ठहर इतना।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
कविता को आखर देता हूँ।
पीड़ा को नित स्वर देता हूँ।
दुःख आते - जाते रहते हैं,
दिल में उनको घर देता हूँ।
घोर निराशा के पंछी को,
आशाओं का पर देता हूँ।
खड़ी चुनौती सम्मुख हो तो,
बेहतरीन उत्तर देता हूँ।
वक्त बुरा हूँ फिर भी दिल से,
सबको शुभ अवसर देता हूँ।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
कैसे जाओगे तुम किनारे तक,
साथ देते नहीं सहारे तक।
डूबना सीख लो गहराइयों में,
भरोसा मत करो शिकारे तक।
मन के अंधे की अंधता ऐसी,
दृष्टि जाती नहीं नज़ारे तक।
खुरदरा सच है यही जिंदगी का,
आदमी पास है गुजारे तक।
वक्त की मार से निढाल होकर,
जमीं पे आ गिरे सितारे तक।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
ग़ज़ल
रधिया के घर पाँव धरेंगे नेता जी।
भारी उसके पाँव करेंगे नेता जी।
रघुआ को प्रधान बनाकर जाएँगे,
कर्जे उसके स्वयं भरेंगे नेता जी।
आश्वासन की घास उगाकर बस्ती में,
जन सपनों को नित्य चरेंगे नेता जी।
गड्ढे खोदेंगे खेतों खलिहानों में,
मिट्टी फिर-फिर वही भरेंगे नेता जी।
शिलालेख बन गड़ जाएँगे बस्ती में,
रक्त बीज हैं नहीं मरेंगे नेता जी।।
-/डॉ मनोज कुमार सिंह
∆गीतिका∆
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लोकतंत्र की बात सड़क से संसद तक।
खोई आज बिसात सड़क से संसद तक।
लालकिले पर लगी चोट से आहत हो,
भीग रही हर रात सड़क से संसद तक।
आज सियासत का मतलब बस इतना है,
घात और प्रतिघात सड़क से संसद तक।
सत्ता कुरसी की बस धींगामुश्ती में,
शतरंजी शह - मात सड़क से संसद तक।
कौन सुनेगा सच की चुभती बातों को,
किसकी है औकात सड़क से संसद तक।
देशभक्ति की बातें अब गाली खातीं,
ये कैसी जज़्बात सड़क से संसद तक।
/-डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
पास रह कर भी दूरी चाहता है।
वो केवल जी हुजूरी चाहता है।
अहं की तुष्टि में दरबार अपने,
मेरा झुकना जरूरी चाहता है।
एक मजदूर की गलती है इतनी,
वो मालिक से मजूरी चाहता है।
जिसने लूटा है अपना देश अबतक,
फिर से सत्ता वो पूरी चाहता है।
किसी के मुँह का छीन कर निवाला,
खुद के हिस्से अंगूरी चाहता है।
डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
जैसे को तैसा तेवर मिल जाएगा।
तेरे प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा।।
संगत में रहकर देखो,परखो कुछ दिन,
शेर,स्यार का हर अंतर मिल जाएगा।
कोशिश कर के देख,न खुद को कम आँको,
चाहत से ज्यादा बेहतर मिल जाएगा।
मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारों में मत ढूढ़ो,
साँसों के भीतर ईश्वर मिल जाएगा।
खुद पे आए हर पत्थर को जोड़ो तो,
निश्चित ही तुमको इक घर मिल जाएगा।
डॉ मनोज कुमार सिंह
ग़ज़ल
प्रेम - ज्योति जाने क्यूँ कम है;
मन का सूरज भी मद्धम है।
स्वार्थ - कुहासे जबसे छाए,
भाई से भाई बरहम है।
वादों की बरसात देखकर,
लगा चुनावों का मौसम है।
अपने दुख से नहीं दुखी वे
दूसरों की खुशियों से गम है।
ख़ुशी बताकर बाँट रहे वे
झोली में जिनके मातम है।
उनकी फितरत में जख्मों पर,
नमक छिड़कना ही मरहम है।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
शब्दार्थ-(बरहम- नाराज)
ग़ज़ल
तेज हो पर संयमित रफ़्तार रखनी चाहिए;
जिंदगी की, हाथ में पतवार रखनी चाहिए।
राह की कठिनाइयों की झाड़ियों को काट दे,
मन में इक संकल्प की तलवार रखनी चाहिए।
लाख हो मतभेद लेकिन इतनी गुंजाइश रहे,
दो दिलों के दरमियाँ गुफ़्तार रखनी चाहिए।
चाहते हो सुख तो फिर झुकते हुए दिल से सदा,
बुजुर्गों के पाँव में दस्तार रखनी चाहिए।
देखना विकृतियाँ मिट जाएँगी यूँ खुद - बखुद,
दिल में माँ के अक्स का शहकार रखनी चाहिए।
-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
शब्दार्थ :
शहकार =सर्वोत्कृष्ट कृति
गुफ़्तार=बातचीत
दस्तार=पगड़ी
ग़ज़ल
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ये मत पूछो कब बदलेगा।
खुद को बदलो सब बदलेगा।
कोशिश कर के देख जरा तू,
किस्मत तेरी रब बदलेगा।
नया करोगे दुख कुछ होगा,
लेकिन जग का ढब बदलेगा।
दुनिया में बदलाव दिखेगा,
इंसां खुद को जब बदलेगा।
छू पाएगा शिखर, वक्त पर,
समुचित जो करतब बदलेगा।
●-/ डॉ मनोज कुमार सिंह
ग़ज़ल
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मक्कारी जिनकी नस - नस में।
मजा ले रहे निंदा रस में।।
अपराधों पर चोट से उनके
दर्द उठे गहरे अन्तस् में।
चाह रहे कुछ लोग यहाँ बस,
घिर जाए यह देश तमस में।
कैसे निपटें गद्दारों से,
समझ न आए जन - मानस में।
चोर - चोर मौसेरे भाई,
देश लूट बाँटें आपस में।
सच की भागीदारी को वे,
नहीं चाहते बीच - बहस में।
●-/डॉ मनोज कुमार सिंह
∆ ग़ज़ल ∆
हर दर्द के एहसास को मिसरों में लिखकर।
जिंदा उसे फिर कीजिए, ग़ज़लों में लिखकर।
हो आग अगर दिल में, उसको बचा के रख,
फिर कर उसे नुमायां शेरों में लिखकर।
लिख आइनों - सा काफिया, रदीफ़ के अंदाज,
सच का दिखाए चेहरा मतलों में लिखकर।
सुख - दुख के तार छेड़कर स्वर साधना करो,
फिर गुनगुनाओ जिंदगी बहरों में लिखकर।
सच खुरदरा है सूरज ढलता है शाम को,
कह जिंदगी की बातें मक़तों में लिखकर।
● डॉ मनोज कुमार सिंह
(अर्थ संकेत-मिसरों-पंक्तियों, नुमायाँ-ज़ाहिर
मतलों-(मतला)ग़ज़ल का पहला शे'र
मक़तों-(मक़ता )ग़ज़ल का अंतिम शे'र
बहरों-(बहर) शेर का वज़्न(भार),छंद)
गीतिका
किसी का जीना मत मुहाल कर।
भले जितना भी तू कमाल कर।
बता कुछ हल भी तो कठिनाइयों का,
फिर चाहे जितना सवाल कर।
मिला है लक्ष्य उनको निश्चित ही,
चले जीवन को जो सँभाल कर।
अँधेरा भाग जाएगा यकीनन,
निकल बाहर खुद को मशाल कर।
बदल जाएगी दुनिया जिंदगी की,
देख लो दिल में मुहब्बत ढाल कर।
डॉ मनोज कुमार सिंह
गीतिका
राजकाज सदियों से ऐसे चलता है।
जैसे सूरज उगता है फिर ढलता है।।
जिसको मिल जाती है सत्ता खुश होता,
खोने वाला हाथों को बस मलता है।
जिसमें होती संघर्षों की आग छिपी,
अँधियारे में भी दीपक बन जलता है।
खुली आँख के सपने ही साकार हुए,
बन्द नयन का सपना केवल छलता है।
कर देता है दूर तनावों को क्षण में,
काव्य-वृक्ष का फल जब दिल में फलता है।
तुम 'मनोज' क्यों परेशान हो जीवन में,
दिल में तेरे त्याग सदा जब पलता है।
●डॉ मनोज कुमार सिंह