Sunday, October 31, 2021
कवि,कविता और शब्दातीत अर्थ (आलेख)
आलेख
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कवि ,कविता और शब्दातीत अर्थ
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-/डॉ मनोज कुमार सिंह
आमतौर पर कवि उसे कहते हैं ,जो काव्य रचना करता है,लेकिन काव्य क्या है?इसका कोई एक निश्चित उत्तर नहीं है।इस विषय पर तो पूरा काव्यशास्त्र है,जिसकी अलग से चर्चा करूँगा।आइए पहले बात करते हैं कवि की।राजशेखर के अनुसार कवि का अर्थ होता है -वर्णन कर्ता।सामान्यतः कवि रस और भाव का विमर्शक होता है,परंतु अधिकांश भारतीय आलोचकों की दृष्टि में कवि का प्रधान कार्य वर्णन ही है।यानी वर्णन के बिना कवि का यथार्थ रूप विकसित नहीं होता।इसलिए आलोचकों ने कवित्व का दो आधार माना है-दर्शन और वर्णन।इन दोनों के पूर्ण होने पर ही सत्कवित्व का उन्मेष होता है।आदिकवि महर्षि वाल्मीकि तत्त्वद्रष्टा थे,परंतु जब तक उन्होंने अपने अनुभूत ज्ञान को शब्दों के माध्यम से प्रकट नहीं किया,तब तक उन्हें कवि की महनीय संज्ञा प्राप्त नहीं हुई।पता नहीं कितनी बार कितने भावों ने उनके हृदय को अपना घर बनाया होगा,परन्तु कवि की संज्ञा उन्हें तभी प्राप्त हुई जब क्रौंच पक्षी के करुण स्वर से उनका कारुणिक हृदय पिघल गया और आंतरिक शोक निम्नलिखित श्लोक के रूप में छलक पड़ा-
"मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकं वधीः काममोहितम्॥"
इस प्रकार कवि वही है जिसमें दर्शन के साथ वर्णन का भी सुंदर संयोग रहता है।दर्शन है आंतरिक गुण एवं बाह्यगुण है वर्णन।इन दोनों का मंजुल सामंजस्य होने पर कविता का प्रस्फुरण होता है ,लेकिन इसके बावजूद कवि के द्वारा कविताओं में प्रयुक्त शब्द और अर्थ पर भी थोड़ी चर्चा जरूरी है। कम सके कम शब्दों में अधिक कहना योग्य कवि का सदा प्रयास होता है।अभिधा, लक्षणा और व्यंजना के संदर्भ में शब्द और अर्थ की चर्चा करना समीचीन होगा।
रामचरितमानस में तुलसीदास ने शब्द और अर्थ के संबंध में कहा है - 'गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न'। तुलसी के अनुसार शब्द और अर्थ का संबंध जल और लहरों की भांति है जिसे भिन्न-भिन्न नहीं कहा जा सकता। लहरों से ही प्रतीत होता है कि जल में कितना प्रवाह या हलचल है।लेकिन यहाँ मैं संक्षेप में दूसरी बात रखना चाहता हूँ,जो सामान्य धारणाओं से अलग है।
आप जानते हैं कि हर शब्द का कम से कम एक अर्थ होता हैं,लेकिन क्या आपने कभी सुना है कि प्रत्येक अर्थ के लिए शब्द बना भी है या नहीं।इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि शब्दों के जितने भी अर्थ हैं वे सभी क्या शब्द द्वारा प्रकट किए जा सकते हैं?यानी नहीं किये जा सकते।मतलब कुछ अर्थ शब्दातीत होते हैं,जिसे शब्दों से प्रकट नहीं किया जा सकता। हम अपने भीतर की तात्कालिक संवेगों को कह तो देते हैं,लेकिन इसके बाद भी कुछ न कुछ शेष रह जाता है।एक बात और कि कम शब्दों में अधिक बात कह लेना एक बहुत बड़ा कौशल है,लेकिन ऐसी बात को समझ लेने वाला भी कम अक्लमंद और ज्ञानी नहीं होता।वरना 'मूरख हृदय न चेत,ज्यों गुरु मिलहि बिरंचि सम।'
जब अर्थ के लिए शब्द नहीं मिलते तो इसे समझने में ऐसे दोहे सार्थक प्रतीत होते हैं-
"नैकु कही बैननि,अनेक कही नैननि सौं,
रही-सही सोऊ कहि दीनी हिचकीनि सौं।
शब्द -अर्थ के इसी भाषा प्रयोग में सिद्धहस्त रीति-सिद्ध महाकवि बिहारी को इस शब्द संकट का गहरा बोध है।वे मजबूरी में ही कहते हैं-
"अनियारे दीरघ दृगनु ,किती न तरुनि समान।
वह चितवनि और कछू,जिहिं बस होत सुजान। 'और कछू'का तात्पर्य ही है,कुछ ऐसा अनिर्वचनीय जिसे मात्र अनुभव किया जा सकता है, शब्दों में बाधा नहीं जा सकता,जैसे गूंगे के लिए फल की मिठास।
सार्थक शब्दों का कम से कम एक अर्थ तो निश्चित होता है,परंतु कभी कभी शब्दों के वही अर्थ नहीं होते,जो शब्दकोशों में निर्धारित किये गए हैं,यानी 'अर्थ' के अनुपात में 'शब्द' सीमित ही नहीं हैं अपितु उनकी अर्थ सीमा भी है।इसलिए कम शब्दों में अधिक कहना जहाँ कवि की योग्यता और दक्षता है,वहीं विवशता भी।अधिक शब्द उसे मिले भी तो कहाँ से।वस्तुतः इस वाणी की लीला बड़ी विचित्र है-
'ज्यों मुख मुकुर,मुकुर निज पानी,
गहि न जाइ ,अस अद्भुत बानी।'
फिर इसे शब्दों में पूरा बाँधना या शब्दों से इसका पूरा आशय समझना दोनों कठिन है।भोजपुरी के गहरी संवेदनाओं के कवि अनिरुद्ध सिंह 'बकलोल' शब्द और अर्थ की अर्थवत्ता को अपनी इन पंक्तियों में बताने की कोशिश करते हैं कि-
''के बा कइसन अगर बात जाने के बा,
बात से ,चाल से ओके जाँचल करीं।
प्यार के बात जाने के होखे अगर,
रउवा अँखियन के भासा के बाँचल करीं।।''
उक्त संदर्भ में कहना चाहता हूँ कि अर्थ के बिना शब्द निर्जीव है और शब्द के बिना अर्थ अग्राह्य या अप्रयोज्य।अतः सार्थक प्रयोग के लिए दोनों की समन्वित रूप में उपस्थिति अनिवार्य है,लेकिन विचारणीय तथ्य यह है कि सार्थक शब्द तो अर्थ से संपृक्त होते हैं,परंतु बहुत से अर्थ ऐसे भी हैं,जो शब्द से असंपृक्त होते हैं।जिन्हें शब्द द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता। यानी शब्द का अर्थ केवल वहीं नहीं होता,जो शब्दकोशों में लिखा होता है।ये भी जरूरी नहीं कि अर्थ के लिए कोई शब्द हो ही। यहाँ तो बिना शब्द के ही भंगिमाओं के माध्यम से ही संवाद हो जाता है-
कहत, नटत,रीझत,खीझत,मिलत खिलत,लजियात।
भरे भौन में करत हैं,नैननु ही सौं बात।।
अज्ञेय ने भी इस बात को स्वीकारा है-
शब्द ,यह सही है,सब व्यर्थ हैं
पर इसलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं।
शायद केवल इतना ही जो दर्द है
वह बड़ा है,मुझी से सहा नहीं गया।
तभी तो,जो अभी और रहा,वह
कहा नहीं गया।
कवि बहुत कुछ कहता है लेकिन उससे भी ज्यादा उसकी रचना में कुछ अनकहा रह जाता है।प्रतिभाशाली पाठक उस शब्दातीत अनकहे का अर्थ समझ जाता है।रचना सार्थक हो जाती है यानी सूक्ष्म तो सूक्ष्म है,जिसमें कुछ न कुछ आकार है लेकिन यहाँ तो मैं अदृश्य में भी दृश्य देखने की बात कर रहा हूँ, जिसमें 'नहीं नहीं' में भी 'हाँ' का अदृश्य अर्थ मिल जाता है।जिसका परिणाम है कि हम स्याही (जो केवल काली रंग की होती है)में भी लाल स्याही ,हरी स्याही ,नीली स्याही के अदृश्य अर्थ को भी समझ लेते हैं।हम सब्जी(जो हरे रंग की ही होती है)समझकर आलू,बैगन को भी खा लेते हैं।यानी कवि जो लिखता है,उसका अर्थ उतना ही नहीं होता है,उससे परे भी होता है।इसे समझने के लिए प्रेम के संदर्भ में मेरा एक दोहा समर्पित है-
"होती देहातीत जो, बिल्कुल शब्दातीत।
फिर भी समझाते रहे,शब्दों में हम प्रीत।।"
अर्थात् लिखना कम,समझना ज्यादा होता है।
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