वंदेमातरम् मित्रों !आज एक मुक्तक आपको समर्पित है ...................आपका स्नेह टिप्पणी के रूप में
सादर अपेक्षित है .............
दिखावट की अदा से, जो भी मद में चूर रहता है |
हकीकत में वो अपनी, जिंदगी से दूर रहता है|
किसी भी गैर की उपलब्धि से, जो खुश नहीं होता ,
सदा वो मुस्कुरा कर भी,दुखी भरपूर रहता है |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों ! आज सतुआन और बैसाखी की शुभकामनाओं के साथ जालियाँवाला बाग़ के शहीदों
को नमन करते हुए एक ताज़ा ग़ज़ल के कुछ शेर आपको समर्पित कर रहा हूँ ............
आज़ादी के बाद देखिये, कैसे-कैसे काम हो गए |
पेटेंट सभी घोटाले-घपले, नेताओं के नाम हो गए |
मातृभूमि की आज़ादी हित ,जिसने फाँसी चूम लिया ,
राजनीति की कब्रगाह में, नाम वहीँ गुमनाम हो गए |
जाति-धर्म की दीवारों में ,कटुता के पत्थर रखकर ,
धीरे-धीरे हम सब खुद हीं ,कुर्सी के गुलाम हो गए |
जिसने पार्टी बदल-बदलकर सत्ता का सुख भोग लिया ,
उसकी तो समझो जीवन में, सुख के चारो धाम हो गए |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों !आज एक मुक्तक समर्पित है जिसमें एक प्रश्न भी है आपका उत्तर टिप्पणी के रूप में
सादर अपेक्षित है .........................
देश उसे हक़ क्यूँ देता सम्मान का ?
जिसको ज्ञान नहीं है, किसी विधान का |
संविधान की रोज करे ऐसी-तैसी ,
नेता सफल वहीँ क्यूँ, हिन्दुस्तान का ?
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों !आज एक मुक्तक आप सभी को सादर समर्पित करता हूँ ............आपका स्नेह
टिप्पणी के रूप में सादर अपेक्षित है .................
तुम्हीं बतला कि कितना ,झूठ मेरा आकलन है |
जिंदगी आम जन की, दर्द का इक संकलन है |
सपने कैद होकर रह गए हैं, योग्यता की ,
विरासत में सियासत का, हुआ जबसे चलन है |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों ! आज चार पंक्तियाँ ''मुक्तक'' के रूप में आप को समर्पित कर रहा हूँ ,...........आपका
स्नेह सादर अपेक्षित ....................
खड़ा तिराहे इंतजार में ,नेता की अगवानी में |
जिनके आशीर्वाद से रघुआ ,जीता था परधानी में |
बहुत दिनों के बाद पधारे ,गाँव हमारे नेता जी ,
फिर से भेंट चढ़ेगी कोई,रधिया आज निशानी में |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक मुक्तक आपको सादर समर्पित कर रहा हूँ ................आपका स्नेह
अपेक्षित है ....................
देख रहा वाणी में उनकी ,अब वो तेज नहीं है |
कहते थे जो जीवन ,केवल सुख का सेज नहीं है |
थे जो धूर विरोधी ,आज प्रवक्ता बन बैठे हैं ,
आज व्यवस्था से उनको ,कोई परहेज नहीं है |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्देमातरम् मित्रों !आज एक ताज़ा ग़ज़ल आपको समर्पित कर रहा हूँ .........अगर रचना अच्छी लगे तो
स्नेह जरुर दीजियेगा ............
अद्भुत अजब शिकारी पैसा |
करता चोट करारी पैसा |
कौन जीत पाया है उससे ,
सबसे बड़ा जुआरी पैसा |
किसको मिलता है जीवन में ,
बिना घूस सरकारी पैसा |
कभी जरुरत ,कभी शौक से,
करवाता मक्कारी पैसा |
क्रिकेट खेल नहीं है यारों ,
असली खेल ,खिलाड़ी पैसा |
कैसे-कैसे नाच नचाये ,
देखो आज मदारी पैसा |
क़द्र नहीं करते जो उसकी ,
करता उन्हें भिखारी पैसा |
बाजारों के दौर में देखा ,
रिश्तों पर भी भारी पैसा |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्देमातरम मित्रों !आज एक मुक्तक , जो सांप्रदायिक सद्भावना के लिए है ,आपको समर्पित कर रहा हूँ .
..........आपकी प्रतिक्रिया सादर अपेक्षित है ......
शर्म से झुकता हुआ, अपना तिरंगा हो न फिर |
आपसी सौहार्द्र की ,मैली यूँ गंगा हो न फिर |
खून की होली ,दिवाली ,गोधरा -सा मत मना ,
शपथ लें हम देश में, कोई भी दंगा हो न फिर |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों ! आज पुनः एक मुक्तक आपको समर्पित कर रहा हूँ .................आपका स्नेह सादर
अपेक्षित है .............
बड़ा आसान है यूँ पाठ ,दुनिया को पढ़ा देना |
अपनी खामियों को, गैर के मत्थे मढ़ा देना |
किसी को ख्वाब देकर, जो उसे सच कर नहीं सकता ,
उसे क्या हक़ ,किसी के ख्वाब को, फाँसी चढ़ा देना |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों !आज आप सभी को एक मुक्तक समर्पित कर रहा हूँ ...............सही लगे ,तो आपका
स्नेह टिप्पणी रूप में अपेक्षित है ....................
हादसे आज अब, इस कदर हो गए हैं |
सबके रिश्ते यहाँ, दर-बदर हो गए हैं |
सो न पाता है कोई ,यहाँ चैन से अब ,
ख्वाब जबसे , मुजफ्फरनगर हो गए हैं |
डॉ मनोज कुमार सिंह
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ई -पत्रिका 'प्रयास ' के द्वादशम अंक [मार्च 2014 ]में मेरी रचनायें प्रकाशित की गई है
जो पत्रिका के पृष्ठ संख्या 48 पर स्थित हैं |मेरा एक मुक्तक भी इस पत्रिका में छपा है ............
तुम तो बसता शहर ,मगर जो उजड़ा ,वो मैं गाँव हूँ |
अंतहीन दुःख-दर्द लिए मैं ,थका हुआ इक पाँव हूँ |
कितनी बार समंदर लांघा ,समय-समय की बात है ,
आज रेत पर पडा हुआ मैं ,जर्जर -सी इक नाव है |
आप मेरी रचनाओं को www.vishvahindisansthan.com/prayas12 पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं |
वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक ग़ज़ल आपको सादर समर्पित कर रहा हूँ ........आपका स्नेह अपेक्षित है ...............
शाम कभी भोर जिंदगी |
धड़कन की शोर जिंदगी |
वक्त की पतंग साधती ,
सांसों की डोर जिंदगी |
पाकर हर भाव की छुअन,
हो गई विभोर जिंदगी |
चाहतों का चाँद देखकर ,
बन गई चकोर जिंदगी |
दर्द का गुबार बन ,बही ,
आँखों की लोर जिंदगी |
लगती आसान है ,मगर ,
मौत से कठोर जिंदगी |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों !आज युगबोध से संपृक्त एक मुक्तक आप सभी को समर्पित कर रहा हूँ
.................आपका स्नेह टिप्पणी रूप में सादर अपेक्षित है ...........
संकट में जो छोड़ गए वो ,साथी सभी भगोड़े निकले |
जिनको शेर समझता था मैं ,कीड़े और मकोड़े निकले |
जनता की हक़ की खातिर जो ,बैठा था नेता भूखा ,
जाँच हुई तो तोंद में उसकी ,दारू और पकौड़े निकले ||
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्देमातरम मित्रों !आपको एक ताज़ा ग़ज़ल सादर समर्पित कर रहा हूँ ..........अगर रचना अच्छी लगे
तो अपनी टिप्पणी अवश्य दें ...........
राष्ट्रभक्ति की प्रखर चेतना ,जब से ली अँगड़ाई है |
परिवर्तन की हुँकारों से ,राजनीति घबराई है |
शासन-सत्ता ,गद्दारों ने, राष्ट्रनीति की राहों में ,
षड्यंत्रों से बुनी हुई ,इक लम्बी जाल बिछाई है |
लफ्फाजी ,हुड़दंग ,अराजकता की ,आज सियासत में ,
भ्रष्टों से मिलकर कुछ ने ,अपनी सरकार बनाई है |
शर्मिंदा है देश ,शहीदों के सपने, सब घायल हैं ,
अनाचार ने अपनी लंका ,जबसे यहाँ बसाई है |
भूख ,गरीबी के घर बैठी ,महँगाई डायन जबसे ,
आर्तनाद ,क्रन्दन से चहुँदिश, घोर उदासी छाई है |
धन-कुबेर बस सोच रहा ,धन खर्चें कहाँ जमाने में ,
हम हैं इक जो रोटी खातिर ,सारी उम्र बिताई है |
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्देमातरम मित्रों !आज एक कुण्डलिया छंद आप सभी को समर्पित कर रहा हूँ ....आपका स्नेह टिप्पणी
रूप में अपेक्षित है .........
[बुरा न मानो होली [गोली] है ..................
तू राखी सावंत -सा ,सचमुच करे धमाल |
राजनीति के आइटम ,मिस्टर खुजलीवाल |
मिस्टर खुजलीवाल ,आप का इक सपना है |
ख़बरों में बस किसी तरह ,बने रहना है |
गैरों पर तोहमत लगा ,बने फिरे तू संत |
समझ चुका है देश अब ,तू राखी सावंत |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक 'मुक्तक' आप सभी को पुनः समर्पित है ............आपका स्नेह अपेक्षित है ..............
कभी अचानक मन में ,कुछ-कुछ होने लगता है |
हँसते-हँसते यूँ हीं दिल, फिर रोने लगता है |
दर्द सहूँ मैं कब तक यारों, सीने में रखकर ,
मुफलिस की आँखों का अश्रु ,चुभोने लगता है |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों ! आज 'AAP' के मुखिया का मीडिया फिक्सिंग जिसे पूरे देश ने देखा ,उसी सन्दर्भ में
एक मुक्तक आपको समर्पित कर रहा हूँ ...............
चाल यूँ चलने की कोशिश मत करो |
देश को छलने की कोशिश मत करो |
शहीदों के ख्वाब से मत कर सियासत ,
भगत सिंह दिखने की कोशिश मत करो |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक मुक्तक पुनः आप सभी को समर्पित कर रहा हूँ .............अच्छा लगे तो आपका स्नेह अपेक्षित है .............
कुर्सियाँ जब से बपौती हो गईं |
सियासत तब से चुनौती हो गई |
आम हिस्से की ख़ुशी जब से छिनी ,
जिंदगी सबकी पनौती हो गई |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्देमातरम मित्रों ! एक मुक्तक आप सभी को सादर समर्पित कर रहा हूँ .......स्नेह अपेक्षित है ............
त्याग ,करुणा, प्रेम से ,खुद को सजाकर रख ज़रा |
जिंदगी को इक धरोहर -सा, बचाकर रख ज़रा |
ग़म तुम्हारे ,ख़ुशी बनकर, पाँव चूमेंगे सदा ,
पाँव अग्नि में तो पहले, मुस्कुराकर रख ज़रा |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों !आज जो संसद में हुआ उसे देखकर मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई कि हमारे ये नेता
कितनी गिरी हुई हरकत कर सकते हैं जिन्हें हम अपना प्रतिनिधि मानते हैं |उनके आचरण को देखकर
मेरे ह्रदय में जो भाव उठे उन्हें ग़ज़ल के रूप में बांधने की कोशिश की है मैनें .................आपकी जीवंत
प्रतिक्रिया सादर अपेक्षित है ...........
जनतंत्र के मंदिर को, अखाड़ा बना दिया |
विश्वास की गरिमा का, कबाड़ा बना दिया |
संसद को नेताओं ने, देशद्रोहियों -सा आज ,
सूअर का जैसे जंगली, बाड़ा बना दिया |
पैंसठ बरस से देश को, चूसा है इस तरह ,
जन-जन की जिंदगी को, छुहाड़ा बना दिया |
कागज के आंकड़ों में, खुशहाल दिखाकर ,
नारों को अपने नेता ,नगाड़ा बना दिया |
छत्तीस तो दिखावा है ,तिरसठ है असलियत ,
कुर्सी ने सियासत को ,पहाड़ा बना दिया |
डॉ मनोज कुमार सिंह
उसके हिस्से की ,कौन खाता है ?
तड़पकर भूख से ,जो मर जाता है |
काम करता है जो मजूरी का ,
खाली हाथ घर, जो लौट जाता है |
वंदेमातरम् मित्रों !आज एक मुक्तक आपकी नैतिकता को समर्पित ........आपका स्नेह सादर अपेक्षित ..............
मधुमख्खियों के डंक नहीं ,शहद देखो |
स्वतंत्रता में भी तुम अपनी हद देखो |
दुनिया में महान होना है अगर तुम्हें ,
अपने बुजुर्गों से अपना छोटा कद देखो |
वंदेमातरम् मित्रों !आज जो संसद में हुआ उसे देखकर मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई कि हमारे ये नेता
कितनी गिरी हुई हरकत कर सकते हैं जिन्हें हम अपना प्रतिनिधि मानते हैं |उनके आचरण को देखकर
मेरे ह्रदय में जो भाव उठे उन्हें ग़ज़ल के रूप में बांधने की कोशिश की है मैनें .................आपकी जीवंत प्रतिक्रिया सादर अपेक्षित है ...........
जनतंत्र के मंदिर को, अखाड़ा बना दिया |
विश्वास की गरिमा का, कबाड़ा बना दिया |
संसद को नेताओं ने, देशद्रोहियों -सा आज ,
सूअर का जैसे जंगली, बाड़ा बना दिया |
पैंसठ बरस से देश को, चूसा है इस तरह ,
जन-जन की जिंदगी को, छुहाड़ा बना दिया |
कागज के आंकड़ों में, खुशहाल दिखाकर ,
नारों को अपने नेता ,नगाड़ा बना दिया |
छत्तीस तो दिखावा है ,तिरसठ है असलियत ,
कुर्सी ने सियासत को ,पहाड़ा बना दिया |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों !आज एक सद्यः प्रसूत 'मुक्तक' आपको समर्पित करता हूँ ,.................आपका स्नेह अपेक्षित है ................
मधुरता ,सादगी मन में, यूँ डाल कर रखना |
बहुत अनमोल है जीवन ,संभाल कर रखना
हृदय के घोसले में, हो सकें रिश्ते सुरभित ,
कबूतर प्रेम का ,जीवन में पाल कर रखना ||
आज मातृभाषा दिवस पर सगरी साथी,संहतिया लोगन के राम-राम !बीस करोड़ से ज्यादा लोगन के
मनभावन भाषा, हमार मातृभाषा भोजपुरी देश से लेके विदेश तकले आपन छाप छोडले बिया |एकरा
भीतर मिठास आ भाव-तरलता के साथे-साथे कोमलता ,सरसता आ पल भर में जी के जुड़ादेवे वाली
ताजगी आ जवन ताकत मौजूद बा ओकर कवनों सानी नईखे |भाषा के अर्थ में भोजपुरी शब्द के सबसे
पहिले प्रयोग सन 1868 ई.में जाँन बीम्स अपना एगो लेख में कईले बाड़ें|आईं सबे एगो हमार भोजपुरी
गजल पढ़ीं ,माजा आवे त असीरबाद आ सनेह दिहीं.................
दरद के ग़ज़ल कबहूँ गावल ना जाला |
करेजा के कुहुकल देखावल ना जाला ||
कहे बात सगरी ,अंखियन के आँसू ,
मुँहवा से कुछऊ सुनावल ना जाला |
जईसे मिठाई के रस लेला गूंगा,
मगर स्वाद कहि के बतावल ना जाला |
दरद जे दिहल आज मरहम बनल बा ,
दिल से उ मरहम लगावल ना जाला ||
अँजोरिया ,उ किरिया ,नदी के किनारा ,
भुलाके के भी अब त भुलावल ना जाला |
जिनगी बिताईं हम, अब कईसे बोलीं ,
छन भर भी तनहा ,बितावल ना जाला |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्देमातरम मित्रों ! आज पुनः एक ताज़ा ग़ज़ल आपको समर्पित कर रहा हूँ ......आप सभी का स्नेह हीं
मेरा बल है ..............सादर ,.
मत अपना काम, अधूरा कर |
जो भी करना है ,पूरा कर |
जीवन को कर ,हँसता गुलाब ,
मत खुद को भाँग, धतूरा कर |
खोने की कुछ, परवाह ना कर ,
मन को मीरा ,तन सूरा कर |
बेटी ,बहनों की, इज्जत कर ,
मत गलत नजर से, घूरा कर |
जो काट सके, मन का बंधन ,
तू ज्ञान रश्मि को ,छूरा कर |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों !आज सच को बयान करता हुआ मेरा एक 'मुक्तक ' आप सभी को समर्पित है |क्या
आप मेरी बात [मुक्तक ] से सहमत हैं?............. कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी देकर स्नेह प्रदान करें ..........सादर ,
बंदूकों से भरी दूकानें ,जब तक यहाँ सजायेंगे |
भ्रष्टाचारी रोज देश में ,तब तक पूजे जायेंगे |
आज छिछोरी राजनीति की, इक सच्ची तस्वीर यहीं ,
कुछ भी कर लो कुर्सी-सत्ता ,फिर भी वहीँ चलायेंगे|
डॉ मनोज कुमार सिंह
वन्देमातरम मित्रों !आज पुनः आपको एक मुक्तक समर्पित करता हूँ जिसमें कवियों का रक्त-चरित्र
[DNA]मुखरित है .......अच्छी लगे तो आपका स्नेह चहूँगा ......
सुविधाओं में डुबा हुआ कवि ,दरबारी होता है |
बुद्धि -विलासी कवि सदा हीं ,अखबारी होता है |
मातृभूमि की कथा-विथा जो, रक्त-रश्मि से रचता ,
क्रांतिवीर कवि दुनिया में ,सब पर भारी होता है |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक मुक्तक आप सभी को सादर समर्पित कर रहा हूँ,..........आपका स्नेह
अपेक्षित है ...........
हम उस देश के वासी हैं ,जहाँ धर्म-जाति का नारा है |
पग-पग पर नफरत द्वेष बंटे,बह रही लूट की धारा है |
है अवसरवादी सोच जहाँ,कुर्सी -सत्ता हित साधन में ,
अब दिशाहीन जन-गण-मन का, ईश्वर हीं मात्र सहारा है |
डॉ.मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों ! आज एक मुक्तक पुनः आपको समर्पित है जो आज के लिए प्रासंगिक है |कृपया आप
अपने टिप्पणी से प्रसंग बतायें और अपना स्नेह दीजिये ...........
कट रही है जिंदगी, सुख-प्यार में |
बैठता हूँ जब से मैं ,दरबार में |
कर्म की मैं साधना ,क्योंकर करूँ ,
चापलूसी जब घुमाती, कार में |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों! आज एक कविता आपको समर्पित करता हूँ ,अगर अच्छी लगे तो आप का स्नेह अपेक्षित है ..............
जई-रोटी और बकरे की संस्कृति
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
उसने बार-बार पूछा था
मेरा नाम
और मैं हिचकिचा रहा था
बार-बार
कि कैसे बताऊँ
अपना नाम
कि पकड़ लिया जाऊँगा
भेज दिया जाऊँगा फिर से वहीँ
जहाँ से भाग निकला था एक दिन
विज्ञापित रिश्तों को छोड़कर
चाहता था गुमनाम होकर जीना
पर
उसने बार-बार पूछा था
मेरा नाम
और मैं हिचकिचा रहा था
बार -बार
बड़े प्यार से रोका था उसने मुझे
और दिया था
बहुत सारे इन्द्रधनुषी सपने
उपहार स्वरुप
उसने अपने खुरदुरे हाथों में लगे
कोमल दस्तानों से
मेरी आत्मा की पीठ को सहलाया भी
प्रदर्शित विश्वास की मुहर भी ठोकी
मेरे चेहरे पर
चूँकि
वह मानवीय संवेदनाओं की
कमजोरियों से पूर्णतः वाकिफ था
मनोवैज्ञानिक था ,
विद्वान् था
तर्क का पुरोधा था
एक महान अभिनेता था
मगर मेरे बारे में
जो उसका लेखा-जोखा था
कि रह सकूँगा उसके साथ हीं
फिर खेल सकेगा
मेरी भावनाओं से
मार सकेगा फिर से
मेरी आत्मा की भूख को
कैद कर सकेगा
अपने विचारों के बीहड़ में
जो उसकी भूल थी
महज धोखा था
फिर भी वह दृश्य
बहुत भयानक और अनोखा था
जिसे मैंने
जई-रोटी और बकरे की संस्कृति में
कभी देखा था |
डॉ मनोज कुमार सिंह
वंदेमातरम् मित्रों !आज कल हो रही टुच्ची सियासत पर कुछ शेर ..............ताजा ग़ज़ल के रूप में
आपको सादर समर्पित .........................कैसी लगी ? आपकी टिप्पणी सादर अपेक्षित ...................
मच्छरों -सा भिनभिनाना छोड़ दे |
गैर पर तोहमत लगाना छोड़ दे |
खबर में रहना शगल है 'आप' की ,
ख्वाब अब झूठे दिखाना छोड़ दे|
जेट से चलना तुम्हारी सादगी ,
सादगी ऐसी दिखाना छोड़ दे |
अराजक-सा आचरण करके यहाँ ,
नक्सली बनना-बनाना छोड़ दे |
पहले झाडू अपने घर में तो लगा,
अन्य घर झाडू लगाना छोड़ दे |
डॉ मनोज कुमार सिंह